अभिलाषा भी ऐसे पूरी हुई कि मज़ा आ गया। कोलकाता से सीधे मालदा जाना था। २३ अप्रैल को.. दमदम हवाई अड्डे पर कैमरामैन स्टालिन मिले तो उनकी गर्मजोशी देखकर चकित रह गया। मालदा की ओर चला.. रास्ते में रुकते ठहरते। किनारे-किनारे केले, नारियल की झुरमुटें। पोखरे.. बंगला मे पुकुर कहते हैं। एक हद तक बांगला सीख ली मैंने। रात के खाने में चारा-पोना मछली खाई। इसके साथ ही सीखा काटा-पोना शब्द भी। मालदा की उस रात से मछली सेवन शुरु हुआ वह आखिरी दिन तक चलता रहा। हमारा यह व्रत कभी भंग नहीं हो पाया।
दरअसल, चारा-पोना का स्वाद हमारी ज़बान पर इस क़दर चढ़ गया कि हमने इस्लामपुर, रायगंज. जंगीपुर, सिलीगुड़ी, दार्जिलिंग..यानी जहां-जहां हम गए, चारा-पोना ही मांगा। उत्तरी बिहार खासकर मिथिला प्रदेश और बंगाल की जलवायु कितनी मिलती-जुलती है. उतनी ही मिलती-जुलती हैं समस्याएं भी। मधुबनी-दरभंगा तो राजनैतिक रुप से भी समान हैं। कुछ अरसा पहले तक कम्युनिस्टों का ही दबदबा था उधर भी। भोगेंद्र झा और चतुरानन मिश्र जैसे नेता..उसी इलाकेसेतो थे।
बहरहाल बता दूं कि चारा-पोना क्या है। कोई भी मछली हथेली भर के साईज़ की, चारा पोना है। खासकर वह रुई माछ यानी रोहू तो ज्यादा बढिया। और कोई भी मछली जिसे काटकर पीस बनाकर खाया जाए वह काटा पोना है। इसके अलावा पोर्शा, इलिश यानी हिलसा और कई और मछलियां... नाम भी याद नहीं। तो हमारा मछली सेवन का व्रत अनवरत चलता रहा।
मालदा के बाद हमें इस्लामपुर की ओर कूच करना था। छोटी-सी जगह। लेकिन तब तक हम चारा-पोना के साथ मिष्टी दोई (मीठी दही) और रोसोगुल्ला (यममी..) गपकना सीख गए थे। वैसे भी मैथिल लोग रसगुल्ला और दही देखते हैं सरकारी नल से ज्यादा पानी अर्थात् लार स्रावित करते हैं। तो भाई साहब हमने जंगीपुर के चौक पर, सिलीगुडी के ढाबे में, रायगंज के लाईन होटल में, मुर्शिदाबाद में हजारदुआरी पैलेस के ठीक सामने, बेहरामपुर के लालदिघी में, भागीरथी नदी के किनारे (गंगा की उपधारा), यानी जहां भी जब भी वक्त मिला कस कर रसगुल्ले चांपे।
दार्जिलिंग गया तो ढाबे पर की चाय में भी एक अलग फ्लेवर था। राजनीति के फ्लेवर पर अभी बात करने की कत्तई इच्छा नही है। न्यू जलपाई गुड़ी...और फिर आसनलोस, दुरगापुर, सीतारामपुर, नियामतपुर श्रीकृष्णानगर, शांतिपुर, बोलपुर, ... जहां भी गया, बंगाल के स्वाद का जादू बरकरार रहा।
कोलकाता में एक रेस्तरां है, सोलह आना बंगाली। वहां पर इलिश का स्वाद पाया। किंग प्रॉन भी खाया। इतना खाया कि हाजमोला खाने तक की जगह नहीं बची। रात का खाना डिसमिश करना पड़ गया। फिर हमारे कोलकाता संवाददाता अर्घ्य ने हमें दावत दी। तीन तरह की मछलियां, पोर्सा, हमारे लिए विशेष तौर पर चारा-पोना और एक अन्य। लेकिन पहले ताड़ के अंदर का गूदा..पता नहीं क्या कहते हैं। मन तृप्त हो गया। फिर रोसोगुल्ला। फिर गप-शप के बाद भोजन। खीर, मिष्टी दोई...अहा। क्या कहें ऐसे ही किसी दावत के बाद कवि ने कहा होगा, -आनंद अखंड घना था।
अभी दिल्ली लौट आया हूं तो एक साथ ही खुशी भी है, चारा-पोना से साथ छूटने का ग़म भी। क्योंकि वहां तो आनंद अखंड घना था।
मंजीत ठाकुर, कोलकाता से लौटकर