भुवनेश्वर से हमारी ट्रेन हमें गया जंक्शन ले आई। इसके बाद हमें राजगीर और नालंदा देखने जाना था। ट्रेन को वैसे तो सुबह ही पहुंचना था, लेकिन भारतीय रेल की वही पुरानी कहानी, हम तकरीबन तीन बजे गया स्टेशन पहुंचे।
गया स्टेशन पर उतरे, तो हमारी टीम के दो भयंकर किस्म के लोग, प्लेटफॉर्म के दूसरे छोर पर जाकर खड़े हो गए। एक थे पीटीआई के संवाददाता और दूसरे अमर उजाला के चंडीगढ़ रिपोर्टर। हमारी मैथिली में कहावत है ना, कानी गाय के भिन्ने बथान।
इसका खामियाज़ा उन्हें भुगतना भी पड़ा। वो लोग प्लेटफॉर्म पर ही रह गए। खैर, बाकी की टीम बसों में बैठकर नालंदा की ओर चली। विदेशी तीर्थयात्रियों के लिए दो बसें थीं, हमारे लिए एक सुविधाजनक छोटी बस।
हमारी बस में कुछ अंग्रेजीदां महिला पत्रकार भी थीं, जिनने पहले कभी गांव नहीं देखा था। वो गया के बाहर निकलते ही खेत-खेत चीखने लगीं, और साथ में गरीबी-गरीबी भी।
लेकिन मैंने उनको बताया कि बिहार का यह हिस्सा, बल्कि बिहार शरीफ, नालंदा, गया का इलाका सब्जी उत्पादन खासकर आलू की पैदावार में अगुआ है तो वो चौंक गए। खैर...गया से नालंदा जाएं, रास्ते का भूगोल छोटानागपुर के पठारी इलाके की झलक देता है।
इसी इलाके में हम एक जगह रूकते हैं...जगह है गहलौर। पहाड़ का
सीना चीरकर रास्ता निकाल दिया गया है।
ये गांव दशरथ मांझी का है, जिसने पत्नी के लिए एक पहाड़ को
बीचों बीच सिर्फ छेनी हथौड़े से काट डाला। वक्त बाईस साल का लगा...दशरथ मांझी की
पूरी जिंदगी लग गई इसमें।
लेकिन शाहजहां के ताजमहल का जबाव एक आम आदमी इससे बेहतर क्या
दे सकता था भला।
गहलौर का नाम बदलकर, अब दशरथनगर कर दिया गया है। गया से नालंदा जाने में हमें वैसे 105 किलोमीटर का रास्ता तय करना पड़ता, लेकिन अब महज 85 किलोमीटर।
दशरथ मांझी नहीं रहे, लेकिन उनकी समाधि स्थल बना दी गई है, किसी ने खड़िए से लिख भी दिया है दशरथ बाबा। पता नहीं, दशरथ बाबा कब देवता में तब्दील हो जाएं, मुमकिन है कुछ मन्नतें भी पूरी कर दें। लेकिन इतना तय है हिंदुओं के 33 करोड़ देवताओं में से सबसे कर्मठ देवता तो दशरथ मांझी ही होंगे।
मेरी कहानी को आशिमा वगैरह मुंह बाए सुनते रहे थे। फिर, उनने हिंदू धर्म शास्त्रों की विवेचना शुरुकर दी, जिसमें आस्था का इतना गहरा पुट था कि मेरे लिए नामुमकिन था उसमें हिस्सा लेना। दोयम, इस विषय पर मैं और सुशांत और ऋषि इतनी दफ़ा और इतने तरीके से बात कर चुके हैं पिछले सात साल में कि इसपर इन लोगों को कन्विंश करना बेकार और बेवजह था।
शाम ढलते रही थी, सूरज का रंग भी पीले से ललछौंह में बदल गया था। लाल तो खैर क्या मान लीजिए कि तोड़ा पानी मिलाइए सूरज की किरनों में बस, गिलास में ढल जाने लायक हो जाए।
बहरहाल, सड़क को दोनों तरफ अब पुराने अवशेषों के चिह्न नज़र आने लगे थे। नालंदा, और राजगीर ये दोनों जगहें भारतीय इतिहास के सबसे पुराने पन्ने हैं।
राजगीर को पहले सुमतिपुर, वृहद्रथपुर,
गिरिब्रज
और कुशग्रपुर और राजगृह कहा जाता था।
घाटियों में बसा यह
शहर सात पहाड़ों वैभरा, रत्ना, सैल, सोना, उदय, छठा और विपुला से घिरा
है।
भगवान कृष्ण के कुख्यात मामा कंस के ससुर जरासंध, राजगृह के ही
राजा थे।
जरासंध खुद बहुत प्रतापी और शक्तिशाली राजा था, उसने कृष्ण
जैसे अवतार को मथुरा छोड़ने पर मजबूर कर दिया। उसके बाद कृष्ण ने गुजरात के तटीय
इलाके में कुश क्षेत्र में द्वारका नगरी बसाई।
जरासंध पहलवान भी था, और इसका सुबूत है राजगीर में खुदाई से
निकला जरासंध का अखाड़ा।
लिखित सुबूतों के लिहाज से भी राजगृह का इतिहास ईसा के जन्म से
एक हज़ार साल तक पीछे जाता है।
जब मगध ने लोहे के दम पर ताक़त हासिल करनी शुरु की और प्राचीन
भारत के सोलह महाजनपदो में सबसे शक्तिशाली साम्राज्य बनकर उभरा तो उसके ताक़त का
प्रतीक था उसकी राजधानी गिरिव्रज। लेकिन महात्मा बुद्ध के समकालीन राजा बिम्बिसार
ने शिशुनाग या हर्यक वंश के राजाओं की पुरानी राजधानी को छोड़कर एक नई राजधानी
पुराने शहर की दीवारों से बाहर बसाई, और नाम दिया राजगृह।
राजगीर गौतम बुद्ध
की पसंदीदा जगहों में से एक था। आज के शहर पर भी बौद्ध धर्म की छाप को आसानी से
देखा जा सकता है।
धर्म के लिहाज से
राजगृह बौद्धों, जैनों और हिंदुओं के लिए बराबर अहमियत रखता है। इस जगह की मिट्टी
में जैन और बौद्ध धर्म के संस्थापकों की यादें खुशबूओं की तरह मिली हुई हैं।
राजगीर
में गृद्धकूट पर्वत है, जिसपर भगवान बुद्ध ने अपने उपदेश दिए थे। यहां के वेणुवन
में महात्मा बुद्ध अपने वर्षाकाल का चातुर्मास बिताते थे। राजगीर ही वो जगह है
जहां अजातशत्रु के शासनकाल में पहली बौद्ध संगीती यानी बौद्ध सम्मेलन हुआ था।
राजगीर
के ही बगल में ही है....नालंदा।
किताबों
और पढाई-लिखाई से जुड़े किसी भी शख्स के लिए एक सपनीली जगह।
प्रारंभिक बौद्ध साहित्य में नालंदा के लिए नल, नालक,
नालकरग्राम
आदि नाम आते हैं, और यहां बुद्ध के प्रमुख अनुयायी सारिपुत्त की जन्मभूमि होने का धुंधला साक्ष्य भी प्राप्त होता है।
देखने में तो नालंदा का ये अवशेष ईंटो का ढेर लगता है, लेकिन
गौर से देखिए तो यहां की हर ईंट के पास कहने के लिए एक कहानी है।
नालंदा की स्थापना पांचवी सदी में गुप्तकाल के दौरान
शक्रादित्य या कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल में की गई थी।
चीनी यात्री ह्वेनसांग संस्कृत और भारतीय बौद्ध धर्म का विशिष्ट
अध्ययन
करने के लिए 630 ई. के तुरंत बाद नालंदा विहार के विद्यापीठ में पहुंचा। सम्मानित विदेशी विद्वान होने के नाते नालंदा विहार के
प्रमुख आचार्य शीलभद्र ने उसका स्वागत किया।
एक दूसरा चीनी यात्री इत्सिंग जो 673 ई. के आसपास भारत आया, नालंदा
में रहकर बौद्ध धर्म से संबंधित पुस्तकों का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन किया।
नालंदा का विश्वविद्यालय, हमेशा भारत का गौरव रहेगा। नालंदा पहुंचे तो बहुत शम घिर आई थी, राजगीर का वेणुवन हमने सबसे आखिर में रात में देखा...तालाब सा खुदा है एक। कुहरा छाया हुआ था...शांति ती। लेकिन वहां जाकर देख आना, मकसद तो आदा ही पूरी हो पाया।
जब तक आप इन जगहों पर शांति से बैठें नहीं तो क्या हासिल कर पाएंगे। नालंदा विश्वविद्यालय के खंडहरों में मैने अजीब-सी शांति महसूस की थी। मन की साध थी, वहां जाकर नजदीक से देखने की वो पूरी हो गई थी।
मुस्लिम इतिहासकार मिन्हाज़ और तिब्बती इतिहासकार
तारानाथ के मुताबिक, इस विश्वविद्यालय को तुर्कों के हमलों से बहुत नुकसान हुआ। तारानाथ
के अनुसार तीर्थिकों और भिक्षुओं के आपसी झगड़ों से भी इस विश्वविद्यालय
की गरिमा को भारी नुकसान पहुँचा। इसपर पहला आघात हुण शासक मिहिरकुल ने किया था।
साल 1199 में हमलावर बख़्तियार ख़िलज़ी ने इसे जलाकर पूरी तरह नष्ट कर दिया।
लेकिन, आग बुझी नहीं...यहां का पुस्तकालय इतना समृद्ध था कि तीन
महीनों तक आग जलती रही। आग को वो तपिश आज भी नालंदा के खंडहरों में महसूस की जा
सकती है।
हमारे
सफ़र का अगला पड़ाव है, बनारस और इसका ज़िक्र अगली पोस्ट में...