Wednesday, September 25, 2013

हमारा नवाज़!

सिनेमा के परदे पर, हर चेहरा चमकता है। कुछ ही चेहरे होते हैं जिनको देखकर आंखों में चमक आती है। लगता है कि यार, सामने जो ऐक्टिंग कर रहा है, बंदा मुझ-सा ही दिखता है। नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी तुम ऐसे ही हो।

पहले भी देखा था तुम्हें, लेकिन ग़ौर किया था फिल्म 'कहानी' में। ख़ान का किरदार, वो बेसाख़्ता अदा, वो दिल में नश्तर लगा देने वाली अदाकारी, लगा, यार इस आदमी में दम है।

आदत है कि कई दफ़ा, देखी हुई और पसंदीदा फिल्में दोबारा-तिबारा देखता हूं। तो एक दिन पीपली लाइव में तुम दिख गए, पहली बार पीपली में गौर नहीं कर पाए थे। हम आम आदमी हैं, रघुवीर यादव में उलझकर रह गए थे। बाकी बचा माल नत्था ले उड़ा था। राजेश नाम के स्ट्रिंगर के किरदार में, जब पहचान में आए तब से नवाजुद्दीन, तुम एक अदाकार नहीं रहे, हमारे हो गए। अपने। हमारा नवाज़।

फिर तो तुम को हर जगह खोजा, तलाश में मिले। फिराक़ में भी दिख गए और न्यू यॉर्क में भी। और तब आई, गैंग्स ऑफ वासेपुर। पहली फिल्म मनोज के वास्ते देखी थी, तो तुम्हारे लिए भी। दूसरे हिस्सें में तो यार तुम ही तुम थे। तुम ही तुम।

ऐसे कैसे चंट गंजेड़ी थे तुम, कैसे महबूबा का हाथ पकड़ने के दौरान तुम जैसे शातिल क़ातिल की आंखों में आंसू आ गए थे। बताओ तो ज़रा। अनुराग कश्यप की ब्लैक फ्राइडे भी याद आई, तुम उसी के तेवर वाले हो। अनुराग कश्यप के साथ फिल्में करना, उसका मिजाज़ और तुम्हारी अदाकारी में एक साम्य है। 

क़ातिल तो हो तुम। बढ़िया अदाकारों की तलाश जिन्हे है, वो तुम्हारी हर फिल्म देखेंगे। हमने तो वो भूत वाली भी फिल्म देखी। फिर एक दिन यूट्यूब पर झांकते वक्त पता चला, आमिर की सरफरोश में तुम 45 सेंकेंड के एक किरदार में थे। फिर पता चला, मुन्ना भाई एमबीबीएस में तुमने एक जेबकतरे की भूमिका निभाई थी, जिसे पिटने से सुनील दत्त बचाते हैं।

45 सेंकेंड का किरदार, और अब तुम्हारी फिल्में, 45 हफ्ते चला करेंगी। हम तुम्हारे दीवाने हो गए हैं नवाज़, काहे कि हमने तुम्हें पतंग में भी देखा और लंचबॉक्स में भी। हमने तो तुम्हे उस शॉर्ट फिल्म बाईपास में भी देखा, यार इरफान को कोई टक्कर दने वाला, उसकी आंख से आंख मिलाकर एक्टिंग करने वाला कोई शख्स है तो तुम हो।
चाहे बाईपास हो, पान सिंह तोमर हो या फिर लंचबॉक्स। इरफ़ान के साथ तुमको देखना अच्छा लगता है।

दोनों ही आम इंसानों जैसे लगते हो ना, यही वजह है। वरना, लिपस्टिक लगाकर रोमांस करने वाले हीरो को देखता हूं, हंसी कम आती है गुस्सा ज्यादा आता है।

अच्छा, याद आय़ा, बॉम्बे टॉकीज़ में भी तुम थे...लेकिन तुम्हारे सामने चुनौती है कि तुम करन जौहर किसी फिल्म में आकर दिखाओ। एक्टर के लिए हर चुनौती पार करना जरूरी है। तुम्हारी कला फिल्मों के लिए तो हम तैयार हैं ही, हम देखना चाहते हैं कि चमक-दमक वाली फिल्मों में एक आदमी, कैसा दिखता है। कैसा दिखेगा, पेड़ों के इर्द-गिर्द नाचने वाला हमारा नवाज़।

 आर्कलाइट की चमक में इतने सहज कैसे रहते हो यार। यहां तो छुटके टीवी कैमरे के डिम-की लाईट में लोग चौंधिया जाते हैं, असहज हो जाते हैं और उल्टा-सीधा न जाने क्या बक जाते हैं।

एक अलग सा स्कूल है ना, बलराज साहनी, ओम पुरी, अनुपम खेर, अमरीश पुरी, इरफ़ान वाली परंपरा...तुम थियेटर वाले उन लोगों की परंपरा के अगले वाहक हो। 

एनएसडी को नाज़ है तुम पर। हमें भी। अभिषेकों, शाहरूखों और हृतिक रौशनौं के दौर में तुम परदे पर हम जैसे आम इंसानो का अक्स हो, नवाज़। तुम, तुम नहीं हम हो।


Wednesday, September 18, 2013

गुलाबों के दौर में कैक्टस काया!

बारिश का मौसम था। कार सांप की तरह बलखाई काली कोलतार की सड़क के किनारे खड़ी थी। मिट्टी लाल रंग की थी, और बारिश की वजह से और ज्यादा लाल हो गई थी। लड़का हरी झाड़ियों में घुस गया।

झाड़ियों में घुसकर पता नहीं धतूरा, भटकटैया, ओक और न जाने क्या-क्या अलाय-बलाय फूल बटोर लाया। लड़की को भेंट दी। लड़की ने रख लिया। डायरी के पन्नों में छिपाकर रख लिया।

लड़के ने वायदा किया कि उसके जन्मदिन पर गेहूं की दो बालियां भेंट करेगा। लड़का गेहूं की बालियां भेंट नहीं कर पाया। क्यों, ये सवाल अलहदा है। लेकिन वह एक सवाल छोड़ गया।

प्रेमिका के कोमल हाथों में जाने का सुख सिर्फ गुलाब ही को हासिल क्यों हो। यह भावनाएं भटकटैया या धतूरे या ओक को हासिल क्यों न हो। और बात सिर्फ प्रेमिका के हाथों में जाने की ही नहीं है।

बात है कि लोग कैक्टसों, नागफनियों, भटकटैयों, धतूरों से डरते क्यों है। धार्मिकों को तो इनसे प्रेम होना चाहिए। आपके आराध्य महादेव के प्रिय फूल हैं ये। लेकिन नहीं, महादेव से कुछ मांग लेना, और बेलपत्रो से बेल से भांग से लिंग की पूजा या मूर्त्ति की पूजा कर लेना एक बात है, जीवन में उतार लेना दूसरी।

ज़हर पीना हो, तो पिएं खुद महादेव, बनें नीलकंठ। हमें क्या। हम सुविधाभोगी लोग है, खुद में से कैक्टस चुनकर उनको जहर पीने के लिए आगे कर देते हैं। हर युग में नीलकंठों की जरूरत होती है, ऐसे नीलकंठो की जिनको नाग पसंद होते हैं, नागफनी पसंद होती है, जिनका कपड़ों से नहीं, छाल से काम चल जाता है, जिनको बेलपत्र-भंग-बेल ही नसीब होता है। और बाद में अमृत हासिल करने वाला समुदाय जहर उनके हवाले कर जाता है। हर युग में बंदर पुल बनाते हैं, राम जाकर रावण मार आते हैं, पुल तो राम के नाम का हो जाता है।

बंदर मर जाते हैं। उनका नामलेवा तक कोई नहीं, कितने बंदर पत्थरों में दब गए। युद्ध में कितने मरे, कोई इंडिया गेट नहीं बना, कहीं नाम नहीं खुदा। कैक्टस थे सबके सब। खुद उग आए थे। खुद उगगें तो कौन रखेगा खयाल।

कैक्टस होना, सरकारी स्कूलो में पढ़ने वाले बच्चों की तरह है। जड़ में कौई खाद डाल रहा है, पानी डाल रहा है, या कौन जाने दोपहर के खाने के नाम पर जहर ही परोस रहा हो, कौन जाने पोलियो की बजाय हेपेटाटिस का टीका ड्रॉप बनाकर पिला जाए। देवताओं की कमी नहीं, गुलाबों की कमी नहीं.. ये दुनिया ही गुलाबों ने अपनेलिए बनाई है। ये दुनिया देवताओं ने अपने लिए गढ़ी है।

इसमें नागफनियों के लिए स्पेस नहीं है।

देवताओं की दुनिया में गुलाबो की दुनिया में फ्लाईओवर हैं, वहां साइकिल के लिए स्पेस नहीं है। गुलाबों की दुनिया में नजाकत है नफासत है, वहां भदेस होना बेवकूफी है, वैसे ही जैसे हाथ से खाना।

 कैक्टस को आजकल गमलों में लगाते हैं। नहीं, गमलों में लगने के लिए बना ही नहीं है कैक्टस।

बिना खाद बिना पानी, बिना माली के खुद उगता है कैक्टस। इसकी नियति है, सुनसान में उगना, औरजब फूलता है तो इसका सौन्दर्य किसी कदर गुलाब से कम नहीं होता। निराला ने इसी वजह से तो गरिआया है गुलाब को,

अबे सुन बे गुलाब,
भूल मत गर पाई खुशबू
रंगो-आब।
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खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट
डाल पर बैठा इतरा रहा कैपिटलिस्ट।

कैक्टस को देखिए, कांटों से भरा होता है। कांटे तो गुलाब मे भी होते हैं, लेकिन वो होते है गुलाब की रक्षा के लिए। उन कांटो की जो नज़ाकत होती है ना फूल तो फूल, कांटा भी नफीस-सॉफिस्टिकेटेड लगता है। नागफनी का कांटा छू लीजिए कभी। बिच्छू के दंश सा होता है। नानी जीवित हो दिवंगत, याद आनी तय है।

तो ग़िला किस बात का, किस बात की शिकायत, अगर आपके अंदर है नागफ़नी तो फिर किसी की परवाह क्यों...शान से सर उठा कि जिएं। बाजुओं में ताकत तो होगी ही, फिर काहे के लिए किसी को मुंह जोहना...।

लड़का इत्ता भाषण देकर सड़क के किनारे बैठ गया। लाल मिट्टी में अदरक बहुत बढ़िया होती है, हल्दी भी। देसी जंगली हल्दी औषधीय गुणो की होती है। उसकी खुशबू...पैकेट वाली हल्दी से एकदम अलहदा। लड़की के हाथ में एक और भटकटैया का फूल थमाया उसने, शीशे पर नज़र गई तो देखा उसका खुद का गला नीला-नीला सा हो रहा था।





Sunday, September 15, 2013

अनंत पथः दो तस्वीरें

Road to Nowhere! अनंत पथ फोटोः रोहन सिंह

Standing Tall  गर्वोन्नत (फोटोः रोहन सिंह)

Monday, September 2, 2013

एक शाम होटल ताज पैलेस वाया गांव जारपा, नियामगिरि

दिल्ली। जगहः दरबार हॉल, होटल ताज पैलेस। वातानुकूलित हॉल, रंग-बिरंगी रोशनी। मेरी औकात को अच्छी-तरह समझता बूझता वेटर मेरे पास आकर मुझे जूस, और रोस्टेड चिकन के लिए पूछता है। किसी ट्रैवल मैगजीन ने पुरस्कारों का आयोजन है।

आयोजन शुरू होने में देर है। कई होटल वालों को पुरस्कार मिलना है। कयास लगाता हूं कि ये वो लोग होंगे जो उक्त पत्रिका में विज्ञापन देते होंगे। एक मंत्री भी आने वाले हैं, दो फिल्मकार हैं। जिनमें से एक के नाम पर पुरस्कार है, दूसरे को पुरस्कार दिया जा रहा है।

बिजली की चमक मुझे चौंधियाती है। बगल की टेबल पर बैठी एक लड़की ने काफी छोटी और संकरी हाफ पैंट पहनी है। उसके पेंसिल लेग्स दिख रहे हैं। उसकी किसी रिश्तेदार ने पता नहीं किस शैली में साड़ी पहनी है, ज्यादा कल्पना करने के लिए गुंजाईश नहीं छोड़ी है। साथ में तेरह-चौदह साल का लड़का अपनी ही अकड़-फूं में है।

दोनों सम्माननीया महिलाओं के बदन पर चर्बी नहीं है। हड्डियां दिख रही हैं, कॉलर बोन भी। डायटिंग का कमाल है। जी हां, मैं उक्त महिला के प्रति पूरा सम्मान रखते हुए उनके बदन की चर्बी नाप रहा था। वो बड़ी नज़ाकत से जूस का सिप ले रही हैं। वो हाफ पैंट वाली कन्या बार टेंडर से कुछ लाकर पी रही है...शायद वोदका है। वो  कैलोरी वाला कुछ नहीं खा रहीं।

मै शरीर से दरबार हॉल में हूं। मन मेरा अभी भी नियामगिरि में हूं, जरपा गांव में। मेरे दिलो-दिमाग़ में अभी जरपा गांव ताजा़ है। हरियाली का पारावार। जीवन में इतनी अधिकतम हरियाल एक साथ देखी नहीं थी। नियामगिरि  के जंगलो में डंगरिया-कोंध जनजाति रहती है। मर्द औरतें दोनों नाक में नथें पहनती हैं, महिलाएं भी कमर के ऊपर महज गमछा लपेटती हैं कपड़े के नाम पर। दो वजहें हैं--अव्वल तो उनकी परंपरा है, और उनको जरूरत भी नहीं। दोयम, तन ढंकने भर को कपड़े उपलब्ध हैं।

तन भी कैसा। कुपोषण से गाल धंसे हुए। डोंगरिया-कोंध लोगों की आबादी नहीं बढ़ रही क्योंकि छोटी बीमारियों में भी बच्चे चल बसते हैं। गांव में सड़क नहीं, पीने का पानी नहीं, बिजली वगैरह के बारे में तो सोचना ही फिजूल है। जारपा तक जाने में हमें जंगल में बारह किलोमीटर चढ़ना पड़ा।

अभी तो नियामगिरि बवाल बना हुआ है। वहां का किस्सा-कोताह यह है कि वेदांता नाम की कंपनी को लान्जीगढ़ की अपनी रिफाइनरी के लिए बॉक्साइट चाहिए। नियामगिरि में बॉक्साइट है। लेकिन नियामगिरि में आस्था भी है। डोंगरिया-कोंध जनजाति के लिए नियामगिरि पहाड़ पूज्य है, नियाम राजा है।

तो छियासठ साल बाद, सरकार को सुध आई कि इन डोंगरिया-कोंध लोगों का विकास करना है, उनको सभ्य बनाना है। इसके लिए इस जनजाति को जंगल से खदेड़ देने का मामला फिट किया गया। योजना बनाने वाले सोचते हैं कि भई, जंगल में रह कर कैसे होगा विकास?

लेकिन डोंगरिया-कोंध को लगता है विकास की इस योजना के पीछे कोई गहरी चाल छिपी है। कोंध लोगों को अंग्रेजी नहीं आती, विकास की अवधारणा से उनका साबका नहीं हुआ है, उनको ग्रीफिथ टेलर ने नहीं बताया कि जल-जंगल-जमीन को लूटने वाली मौजूदा अर्थव्यवस्था आर्थिक और पर्यावरण भूगोल में अपहरण और डकैती अर्थव्यवस्था कही जाती है।

डोंगरिया कोंध जनजाति के इस लड़ाके तेवर पर नियामगिरि सुरक्षा समिति के लिंगराज आजाद ने कहा था मुझसे, आदिवासियों के बाल काट देना उनका विकास नहीं है। आदिवासी अगर कम कपड़े पहनते हैं और यह असभ्यता की निशानी है,तो उन लोगों को भी सभ्य बनाओ जो कम कपड़े पहन कर परदे पर आती हैं।

लिगराज आजाद को शायद यह इल्म भी न रहा होगा कि कम कपड़े पहने लोग सिर्फ सिनेमाई परदे पर ही नहीं आते। कम कपड़े पहनना सच में सभ्यता की निशानी है, कम कपड़ो से व्यक्तिगत तौर पर मुझे कोई उज्र नहीं है। लेकिन किसी को इसी आधार पर बर्बर-असभ्य कहने पर मुझे गहरी आपत्ति है।

दरबार हॉल की महिला के उभरे हुए चिक-बोन्स और डंगरिया लड़की के गाल की उभरी हुई हड़्डी में अंतर है। वही अंतर है, जो शाइनिंग इंडिया में है, और भारत में। इन्ही के भारत का निर्माण किया जा रहा है। 66 साल बाद याद आया कि भारत का निर्माण किया जाना है।

मन में सवाल है, अब तक किस भारत का उदय हुआ, किसकों चमकाया आपने, जो शाइनिंग है वो किसकी है। वेदांता, पॉस्को, आर्सेलर मित्तल ने किसके लिए लाखों करोड़ लगाया है भला।

मेरे खयालों का क्रम टूटता है, वह वोदका पीने वाली कम कपड़ो वाली कन्या और सिर्फ साड़ी (ब्लाउज स्लीवलेस था) कहने आदरणीया महिला मेरी तरफ देख रही हैं...मैं उनकी मुस्कुराहट पर नज़र डालता हूं, नकली है, बनावटी है। कसरत की वजह से धंसे गालों में रूज़ की लाली है, नकली है। जरपा गांव में मेरे पत्तल पर भात और पनियाई दाल डालने वाली आदिवासी कन्या की मुस्कुराहट याद आ रही है...उसके धंसे गालों में से सफेद दांत झांकते थे, तो लगा था यही तो है मिलियन डॉलर स्माइल। उसकी मुस्कुराहट...झरने के पानी की तरह साफ, शगुफ़्ता, शबनम की तरह पाक।

जरपा तुम धन्य हो।