Thursday, January 30, 2014

नानी की कहानी

सुशील झा

सुशील झाः बीबीसी में वरिष्ठ पत्रकार है, लेखन में एक चमक है। उनका नानी वाला यह संस्मरण शब्दो की जादूगरी का नमूना है। 


हमरी हुई एक ठो नानी। नानी बुढ़िया नहीं थी। ठां भी नहीं थी। लेकिन हमको मां जइसन लगती।

चूंकि हम जब बच्चे थे, तो हमरी मां जवान थी। और हम फिलिम देखते तो हमको लगता कि मां तो निरूपा राय होती है। तो समझिए कि हमरी नानी हमरी निरूपा राय थी। हम अपनी मां को अपनी बड़की बहन जैसा ट्रीट करते थे।

पल्लू पकड़ के चुप्पे रहते जब कुछ चाहिए होता। नानी से डिमांड करते। अचार खाना है, भुट्टा खाना है। रोटी खाना है। नानी मुंह में ठूंस के खिलाती।

डांटती और खाने के बाद पानी का लोटा लेके खड़ी रहती...कहती...डकर के पानी पी। लेकिन नानी मिलती गांव में। साल में एक बार। नानी सिर्फ साड़ी पहनती और आंगन भर में नाचती फिरती।

ज्यादा लाड़ आता तो गाल पकड़ के गाने लगती। हम बड़े हुए तो शरमाते हुए पूछे नानी से, नानी, तुम मां की तरह ब्लाउज क्यों नहीं पहनती हो।

नानी बोलीतुम्हारी शादी में पहनेंगे। फिर बताई कि पुराने जमाने में कोई नहीं पहनता था। अब शहर में ब्लाउज न पहनना असभ्यता की निशानी है। गजब प्रोग्रेसिव देश है रे बाबा, खैर नानी को ही सबसे पहले बताए कि प्रेम हुआ है। नानी भुच्च देहाती, बोलीजल्दी बियाह कर लो। वरना प्रेम खत्म हो जाएगा।

माई बाबू से वही लड़ी, और बोली, तुम्हारा छोटका बचवा समझदार है। शादी करने दो। मामा लोग नानी को खरचा में दुई सौ रूपया देते महीना का। और अनाज ढेर। उसी में नानी पैसा बचाकर चार धाम घूम आई थी। जब हम कमाए लगे तो हम पूछे नानी से, बोलो क्या चाहिए। नानी बोली, चप्पल खरीद देओ। पांव फयट जाता है। हम नानी का चप्पल खूब पहिने हैं। हमरा पांव नानी का पांव बराबर है। नानी को चप्पल खरीद दिए थे, और पैसा भी देकर आए थे।

उसके बाद साल नाना जी की मौत हुई फिर नानी मुस्कुराई नहीं। हम जाते तो बोलती, आब हम नय जीयब। नानी को दिल की बीमारी थी। लेकिन कभी अस्पताल नहीं गई। झाड़-फूंक करवाती। बायां हाथ खिंचता था। हमको बहुत साल बाद पता चला कि बायां हिस्सा खिंचने का मतलब दिल की बीमारी होती है।

फिर नाना जी की बरसी के छठे दिन नानी ठकुरबाड़ी गई। रात में सोते समय बोली गंगा जल दो। मामा ने मुंह में गंगाजल डाला और नानी चली गई। नाना जी के पास।

हम तब से अपने नानी गांव नहीं गए। हमको नानीगांव नानी के बिना सूना लगता है। हमको नानी की बिना ब्लाउज के स्तन याद आते हैं। मुझे लगता है मैं उन्हीं का दूध पीकर बड़ा हुआ हूं। नानी का मरना मां के मरने जैसा लगता है। पता नहीं क्यों। हम तब रोए नहीं थे क्योंकि हम नौकरी करते थे। हमको लगा रोना मर्द की निशानी नहीं है।


हम तब मर्द थे...अब इंसान हुए हैँ। तो कभी कभी नानी को याद करके रो लेते हैं। 

Monday, January 27, 2014

केजरीवाल के नाम एक आम आदमी का खत

केजरीवाल जी,

नमस्कार, प्रिय नहीं लिख रहा हूं क्योंकि आप मेरे प्रिय नहीं है। आदरणीय तो मैं बहुत कम लोगों को मानता हूं। पता नहीं, मेरा लिखा आप पढ़ेंगे या नहीं, पढ़े भी क्यों, आप दिल्ली के मुख्यमंत्री ठहरे, और कई आम आदमियों के खास नेता बन चुके हैं।

मैं आम आदमी हूं। लेकिन न आम आदमी पार्टी का सदस्य नहीं। न कभी इच्छा जाहिर की बनने की, न कभी बनूंगा। मैं राजनीति के पचड़े में पडूंगा ही नहीं, आम आदमी राजनीति नहीं करता। मेरे लिए दो वक्त की रोटी जुटाना ज्यादा अहम है। मेरे लिए गैस का महंगा होता जाना ज्यादा मुश्किलें खड़ी कर रहा है।

मैं सिर पर टोरी नहीं लगाता। न टोपी पहनता हूं न पहनाता हूं। जन लोकपाल के लिए अन्ना के आंदोलन के बाद राजनीति के इस नव-टोपीवाद में टोपी निर्माता कौन रहा, ठेका किसको दिया गया, पता नहीं आपने इसका ब्योरा दिया या नहीं, लेकिन मैं जाड़े में बंदरटोपी भी नहीं पहनता...सफेद टोपी तो खैर पहनता ही क्यों। सत्तर के दशक के आखिर और अस्सी के दशक के पूर्वार्ध में सिनेमा वालो ने सफेद टोपी वाले नेताओं के खलनायक की तरह पेश किया। मेरे मन में परेश रावल वाली वो छोकरी फिल्म अब भी छपी हुई है। वो छोकरी में परेश रावल नेतागीरी के लिए अपनी बेटी तक को दांव पर लगा देता है।

बेटी से याद आया, चुनाव के पहले, आपने डीडी के लिए अनुज यादव को दिए इंटरव्यू में कहा था, आप किसी से समर्थन नहीं लेंगे। आपने अपने बच्चों की कसम भी खाई थी, लेकिन आपने समर्थन भी लिया, सरकार भी बनाई। तर्क तो आपके पास होंगे ही।

केजरी जी, बड़ी उम्मीद थी आप से। आप भी वही निकले। नागार्जुन बेतरह याद आ रहे हैं, लिखा था बाबा ने, सौंवी बरसी मना रहें हैं तीनो बंदर बापू के, बापू को ही बना रहे हैं, तीनों बंदर बापू के।

शुरू शुरू में आपको देखता था, तो प्रभावित हुए बिना ही आपकी तुलना फिल्म नायक के अनिल कपूर से करता था। मुझे तो यकीन ही नहीं था कि आप की पार्टी को 28 सीटें मिल जाएंगी...हमको तो लगा कि पांच सीटें भी मिल जाएं तो जय सिया राम। काहे कि आम आदमी हूं, असली वाला आम आदमी...पार्टी वाला नहीं... दिन भर इसी जुगाड़ में लगा रहता हूं कि किधर से काटूं, किधर जोड़ूं...कि महीने के आखिर तक चाल जाए।

जनाब, आपने एक महीने गुजार दिए। आंदोलन के सिवा कुछ किया नहीं। सास-बहू सीरियलों के विज्ञापनों के बीच वक्त चुराकर जब भी टीवी पर खबर देखता हूं, आपके धरने, बिन्नी के धरने, और अक्खड़ सोमनाथ भारती के सिवा कुछ सुनता नहीं।

सच सच बताइएगा, आपको यकीन था कि आप सीएम बन जाएंगे दिल्ली के। आपकी बजाय कोई दूसरी सरकार होती और आप दस विधायकों के साथ विपक्ष में होते तो सरकार की धज्जियां बिखरने में कितना वक्त लगता आपको।

कांग्रेस या बीजेपी की सरकार के मंत्री भारती की तरह काम करते तो आपका धरनास्थल क्या रेल भवन ही होता क्या?

देखिए केजरी साहब, दिल्ली का सीएम बनने से पहले आपको क्या सचमुच इल्म नहीं था कि दिल्ली के मुख्यमंत्री के पास क्या अधिकार हैं? अब आपसे कोई शिकायत नहीं है, क्योंकि हमें नेताओं से कोई उम्मीद ही नहीं रहती है। लेकिन गुरु आपने तो पहले मोर्च पर सारी बारूद खत्म कर दी है...।

लेकिन इतना साफ हो गया है कि आपमें और बाकी पार्टियों में राजनीति करने के तरीकों के अलावा कोई अंतर नहीं...साधन अलग-अलग हैं साध्य वहीः सत्ता। वरना पानी 666 लीटर मुफ्त करने के अलावा कोई और जमीनी काम बताइए मालिक।

अकबर इलाहाबादी लिख गए हैं, हंगामा ये वोट का फ़क़त है, मतलूब हरेक से दस्तख़त है
.........पांव का होश अब फ़िक्र न सर की, वोट की धुन में बन गए फिरकी.....।

केजरी जी, आखिरी में इतना ही कह रहा हूं, जंतर-मंतर पर भीड़ से किनारे खड़ा था मैं, लेकिन आपके साथ था। रामलीला मैदान में, भीड़ के आखिर में, तिरंगा लहराता हुआ आदमी मैं ही था, अन्ना ने जब अनशन तोड़ा था...तो मेरी आंखों में आंसू आ गए थे, और आवाज़ भर्रा गई थी। लेकिन, आप वहां से चलकर, विवादों के घेरे में आ गए।

हमने उम्मीद की थी कि आप भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई के जिस युद्धपोत पर सवार होकर सचिवालय तक पहुंचे, वहां से आप कुछ ठोस लेकर आएंगे...लेकिन सुना है एक लाख शिकायतें आ गईं, आपने कुछ करने की बजाय धरने पर बैठना मुनासिब समझा।

ठीक है, कोई बात नहीं, आप धरने पर बैठिए, आपको यही मुनासिब लगता है। लोकसभा का चुनाव आ रहा है, हम वही करेंगे जो हमें मुनासिब लगता है।


आपके घोषणा-पत्र का पहला अक्षर, और आपके काम की आखिरी प्राथमिकता,

एक आम आदमी

Sunday, January 26, 2014

हैप्पी रिप-बली डे

देश के लोगों, अगर आप मुझे पढ़ पा रहे हैं तो गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं स्वीकार कीजिए। अगर आप न्यूजीलैंड जाकर दो हार के बाद एक टाई मैच से उत्साहित हैं, तो  गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं स्वीकार कीजिए। अगर आप महंगाई से परेशान हैं, गैस, पेट्रोल, डीजल, हरी, लाल, पीली सब्जियों की बढ़ती कीमत से परेशान है, तो ज्यादा देर परेशान मत होइए, गणतंत्र दिवस में सुबह में राजपथ की परेड को टीवी पर देखिए, दूरदर्शन के कमेंटेटर की सधी आवाज पर किसी निजी चैनल की नर या मादा एंकर तेजी का तडका लगा देगी, परेशान काहे होते हैं, गणतंत्र दिवस के मजे लीजिए।

क्या हुआ जो  गणतंत्र दिवस रस्मी होकर रह गया है। क्या हुआ जो सरहद पर हमारे जवानों का सिर काट कर पड़ोसी भाग जाता है, क्या हुआ जो हमारे अपने देश में नक्सली हिसा में हमारे सुरक्षाकर्मी मारे जाते हैं, क्या हुआ जो हमारे नेता झूठ बोलते हैं, और मुकर जाते हैं। क्या हुआ जो घोषणापत्रों के खोखले दावों को हम याद भी करना पसंद नहीं करते, आपके दिल बहलाने के लिए पेश है--गणतंत्र दिवस।

टीवी पर करन जौहर को ठुमके लगाते देखिए, मलाइका अरोड़ा के क्लीवेज में झांकिए, किरन खेर के जबरदस्ती के डिम्पल्स में अंकल मदहोश हो गए हैं, नच बलिए में पूरा भारत नाच रहा है, कपिल शर्मा के साथ पूरा देश हंस रहा है, गुत्थी उसके शो से अलग हो गई है, यह सबसे बड़ी समस्या ठहरी। आइए, गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं स्वीकार कीजिए।

जिनके लिए खेतों के सूखे से चिंताजनक है त्वचा का रूखापन, धरती में बित्ते-बित्ते भर की दरारों से विकट समस्या है एड़ियां की दरारे-बिवाईयां, भुखमरी से भयंकर विपदा जिन्हें डैंड्र्फ (रूसी) की लगती है...बेरोजगारी से बड़ी समस्या बालो की कमजोरी और दोमुंहापन...आइए हम सब कपड़े पर लगे दागों से जूझते हैं...आइए उन सबको मैं गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं देता हूं।

आइए, हम सभी मिलकर धोनी की हार पर मर्सियां पढ़ें, (जवानो का सिर काटा गया तो क्या हो गया), आइए, हम सब स्वर्ग की सीढ़ी खोजें (भाड़ में जाए बुदेलखंड) हमारे लिए दिल्ली ही देश का आदि है देश का अंत है...(पोर्ट ब्लेयर और सिक्किम की खबरें कौन पढ़ेगा भला) आप सब गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं स्वीकार कीजिए।

देखिए साहब, गणतंत्र में असली माल तो तंत्र के पास है, गण तो महज छिलका है...उसके हाथ में तो बाबा जी का ठूल्लू है।