कॉमिडी नाइट्स विद कपिल देख रहा था। आज यानी 8 फरवरी के एपिसोड
में भोजपुरी सिनेमा की तीन हिट शख्सियतें, मनोज तिवारी, रवि किशन और निरहुआ आए थे।
यों कपिल शर्मा सबका मजाक बनाते हैं, लेकिन भोजपुरी को लेकर उनके मजाक-भाव में
हास्य कम, एक किस्म का उपहास-भाव अधिक था। इस उपहास भाव को बारीकी से देखने की
जरूरत है। कईयों को पता नहीं चला होगा, लेकिन मुझे खल गया।
कपिल शर्मा के शो में मजाक बहुतों का बनाया जाता है, कभी खलता नहीं
क्योंकि वह कॉमिडी सर्कस की कॉमिडी की तरह सेक्स कॉमिडी या भोंडा नहीं होता।
लेकिन, यही कपिल शर्मा जब मीका को बुलाते हैं, तो मीका प्राहजी के साथ सिद्धू को
मिलाते हैं और खुद को उसमें जोड़कर पंजाबियत का गुणगान करते हैं।
यही नहीं, सलमान या अजय देवगन या सोहेल खान को शो में बुलाने पर कपिल का व्यवहार अलग होता है। एक आदर भाव...हंसाते तो हैं कपिल तब भी, लेकिन संभल कर।
कपिल शर्मा के शो
का रेगलर दर्शक हूं, तकरीबन हर शो देखता हूं, इसलिए इस अंतर को बहुत बारीकी से देख
पा रहा हूं।
कपिल शर्मा के मन में निरहुआ जैसे अदाकारों को लेकर संभवतया
इसलिए अश्रद्धा का भाव था क्योंकि उनकी फिल्मों का बजट, कपिल शर्मा के शो इतना ही
होता होगा। या फिर इसलिए क्योंकि भोजपुरी हिन्दी पट्टी के आर्थिक रूप से सबसे
कमजोर तबके की भाषा है। लेकिन शायद कपिल शर्मा नहीं जानते हैं—शायद
तभी उन्होंने अपने शो में इसका जिक्र भी नहीं किया—कि मनोज
तिवारी देश के एकमात्र ऐसे अभिनेता हैं, जिनपर नीदरलैंड्स में डाक टिकट जारी हुआ
है।
भोजपुरी को लेकर लोगों के मन में एक अश्लीलता की छवि है। यह
सवाल मुझसे मेरे एक युवा संपादक मित्र ने भी किया। हालांकि महेश मिश्रा खुद यूपी
से हैं, लेकिन भोजपुरी पर उनका सवाल था, और शायद जायज़ भी था। तब मैंने उन्हें
बताया, कि भोजपुरी में अश्लीलता का पुट तो गुड्डू रंगीला जैसे बाजार के रसियों ने
भरा है। वरना यह भाषा भिखारी ठाकुर की रवायत से फली-फूली है, जिन्होंने बिदेसिया
जैसा लोकनाट्य दिया। इस भाषा में महेन्दर मिसर (महेन्द्र मिश्र) की परंपरा है,
जिनकी गायन शैली से आज भी बिरहा गाए जाते हैं।
भाषा की छवि भी शायद बाजार ही तय करने लगा है, इसलिए अमिताभ ने
अवधी को नायको की भाषा बना दिया वहीं, दक्षिण भारतीय फिल्मों की डबिंग में विलेन
की आवाज़ें भोजपुरी में बदल जाती हैं। नायक खड़ी बोली बोलते हैं, विलेन भोजपुरी।
एक फिल्म याद आ रही है (मिसाले सैकड़ो में हैं वैसे) राउडी राठौड़। जिसमें भी
घटिया किस्म की भोजपुरी (क्योंकि खुद निर्देशक साउथ से हैं) बोलने वाला खलनायक पटना
के पास किसी पहाड़ी जगह देवघर से हैं।
सवाल यही है कि क्या, मलयालम में सिर्फ अडूर गोपलाकृष्णन ही
फिल्में बनाते हैं या वहां भी शकीला का बाज़ार पर कब्जा है, क्या बांगला में सिर्फ
मृणाल सेन हैं या वहां भी प्रसेनजीत हैं क्या मराठी में सिर्फ श्वास बनती है या
दादा कोंडके वहीं के हैं?
भोजपुरी को लेकर यह तो दूसरों का नज़रिया है, जिसे जबरिया बदला
नहीं जा सकता। लेकिन भोजपुरी सिनेमा के आधार पर भोजपुरी भाषा के प्रति अपना
दृष्टिकोण मत तय कीजिए। निश्चय ही, मराठी, मलयालम, कन्नड़ या बांगला में जैसा
सिनेमा रचा जा रहा है, वैसा भोजपुरी में बना नहीं अभी तक। लेकिन भोजपुरी सिनेमा की
उमर भी तो देखिए। क्या स्कूल के बच्चे की नीयत खुला छोड़ देने पर बंक मारने की
नहीं होती?
इधर, भोजपुरी को लेकर जनमानस में बने नज़रिए की बात करें, तो
यह आरोप सीधा गुड्डू रंगीला जैसे लोगों पर जाएगा, जिन्होंने फौरी फायदे के लिए
भोजपुरी के लोकसंगीत को तोड़-मरोड़ कर पेश
किया। होली के हुड़दंग में निश्चय़ ही कुछ मजाकिया और श्रृंगारिक लोकगीत हैं, लेकिन
समाज में उसको मान्यता मिली है। उस कुदरती रंग में रासायनिक जहर मिला कर दाम कमाया
जा रहा है। निरहुआ सटल रहे जैसे गाने अश्लीलता के आरोपों को पुष्ट करते हैं।
लेकिन, यह गलती भोजपुरी भाषा की नहीं है। यह गलती तो सिनेमा और
बाजारू कैसेट उद्योग की है। कपिल शर्मा ने जिसतरह फिल्मों के नाम भोजपुरी में
पूछे, कभी पंजाबी वालों से पूछा? कभी बांगला वालों से...और मराठी से?
कपिल शर्मा, मजाक करते और डिंपल वाले गालों के साथ आप बड़े
मनमोहक दिखते हैं, टीवी पर दिखने वाला आपका परिवार भी अच्छा है। सिद्धू जी आप मजाक
करते बड़े अच्छे दिखते हैं, लेकिन कृपया किसी भाषा को ऐसे अंदाज़ में न छेड़ें,
जिसकी बारीकी को कोई महसूस कर जाए।