अभी तो बंगलोर के
उस लाल बाग का जिक्र, जहां हम भरी दोपहरी में गए थे।
गरम धूप चेहरे पर
तीखी किरचों की तरह लग रही थी, लेकिन गरमी के बावजूद कुछ फूल अपने अंदाज में मुस्कुरा रहे
थे।
इस गरमी में भी
कुछ लोग लाल बाग में घूम रहे थे, जाहिर है वो हम जैसे दीवाने तो नहीं थे कि बिना छतरी और
टोपी के घूमें। वैसे हमारे कैमरा सहायक टोपी लगाए हुए थे, लेकिन यह जरूरी भी था, सीधी धूप उनके खल्वाट सर पर पड़ती तो मस्तिष्क
गरम हो सकता है।
पूरे बाग़ में
माहौल पारिवारिक ही था, दिल्ली के लोदी गार्डन या बुद्ध जयंती पार्क या कोलकाता के विक्टोरिया
मेमोरियल से अलहदा।थोड़ा सूरज तिरछा हुआ,
वक्त के साथ, तो बादलों को मौका मिल गया। तालाब जैसी बेकार
की चीजें और गुलमोहर जैसे रोज मुलाकात होने वाले पेड़ों और बांस की झुरमुटों को
देखकर हमें लगा कि अब हमें बैठ जाना चाहिए।
एक पहाड़ी जैसा
है, उस पर कोई मंदिर
बना है। जाहिर है, हमारे काम का न था। पत्थर पर बैठे तो लगा कि पिछवाड़ा रोटी की तरह सिंक गया हो,
आखिर पत्थर तवे की तरह
गरम भी थे। बहरहाल, हम बंगलोर में बहुत तो घूम नहीं पाए, क्योंकि वक्त काफी कम था। लेकिन, हवाखोरी कर ही ली थी।
गुलबर्गा में
मेरी बालकनी में झांकता इमली के पत्ते शिकायत कर रहे हैं। कहां गुलबर्गा कहां
बंगलोर। मैं डांटने की मुद्रा में हूं, मैं क्या करूं...दिल्ली तक बात नहीं पहुंचती तो
मैं क्या करूं...ये कहानी तुम्हारी ही नहीं है, झारखंड, बुंदेलखंड, जंगल महल, दंतेवाड़ा, अबूझमाड़, मेवात, कालाहांडी...विकास की खाई हर जगह मौजूद है।
कर्नाटक के जबार्गी के पास एक जनजातीय महिला। फोटोः मंजीत ठाकुर |
इमली का पेड़
आशाभरी निगाहों से देख रहा है। मैं कहता हूं, मैं महज क़िस्साग़ो हूं, कहानी कह दूंगा, इसके असरात पर मेरा क्या मेरे बाप का भी बस
नहीं।
भाप भरी गरमी से
पेड़ भी हलकान है..मैं भी। उफ़् गुलबर्गा।
गरमी झेलता हुआ,
गुलबर्गा में अपनी बालकनी
से डूबते सूरज को देखता हूं। गुलबर्गा में डूबता हुआ सूरज भी दहकता हुआ लगता है।
दिल्ली से बंगलुरु
को चले थे, तो मन में
कर्नाटक के विकास की एक तस्वीर थी। कर्नाटक का मतलब ही बंगलुरू था।
लेकिन बंगलुरू ही
पूरा कर्नाटक नहीं है। बंगलुरू का तो मौसम भी पूरे कर्नाटक से अलहदा है और विकास
की गाथा भी।
कर्नाटक के विकास
को हमेशा एक मिसाल के तौर पर पेश किया जाता है लेकिन विकास की अंतर्गाथा कुछ और ही
है। उत्तरी कर्नाटक के जबर्गी और गुलबर्गा के इलाको में पीने का पानी एक बड़ी
समस्या है। इस तस्वीर की तस्दीक करते हैं सूखे हुए खेत, जिनका अनंत विस्तार देखने को मिलता है।
उत्तरी कर्नाटक में साल में ज्यादातर वक्त सूखी रहती हैं नदियां फोटोः मंजीत ठाकुर |
कपास की फसल
पिछले दो साल से खराब हो रही है, क्योंकि दो साल से बारिश ने साथ नहीं दिया। अब तो आस पास के इलाके के लोगों को
पीने के पानी के लिए मशक्कत करनी होती है।
लोग छोटे ठेलों
पर प्लास्टिक के रंग-बिरंगे मटके लेकर आते हैं। कोई पांच किलोमीटर ले जा रहा है
पानी ढोकर, तो कोई सात
किलोमीटर, एक बंधु ने तो
मोपेड ही खरीद ली है पानी ढोने के लिए ।
पूरा उत्तरी
कर्नाटक, खासकर
हैदराबाद-कर्नाटक के इलाके में सूखी नदियां और सूखी नहरें सूखे की कहानी कह रही
हैं।
पानी का रोना फोटोः मंजीत ठाकुर |
नलों के किनारे
लगे प्लास्टिक के घड़ों की कहानी भी अजीब है, प्लास्टिक युग में मोबाइल तो उपलब्ध है लेकिन
पीने का पानी मयस्सर नहीं। लोगबाग तालाब का पानी पीने पर मजबूर हैं, यह पानी भी तभी आता है जब बिजली हो। बिजली का
भी अजीब रोना है, जो दोपहर बाद
डेढ़ घंटे के लिए आती है और अलसुबह डेढ़ घंटे के लिए।
दरअसल, लोगों ने तालाब में पानी का मोटर लगवा रखा है।
हैंडपंप खराब हैं तो कम से कम तालाब का पानी तो मिले। भूमिगत जल तो न जाने कब
पाताल जा छुपा है।
बिजली आती नहीं
तो मोटर कैसे चले। ऐसे में दोपहर से ही, मटके नलों के किनारे जमा होने शुरू हो जाते हैं। उस
दुपहरिया में जब छांव को भी छांव की जरूरत थी।
किसी दल के घोषणापत्र में नहीं था पानी का वादा फोटोः मंजीत ठाकुर |
चुनाव का वक्त था,
जब हम वहां थे। कर्नाटक
में सरकार बनाने के लिए स्थायित्व एक अजेंडा था, लेकिन उत्तरी कर्नाटक के गांवों में पीने का
पानी मुहैया कराना किसी पार्टी के घोषणापत्र में नहीं था।
जाहिर है कर्नाटक
की विकास गाथा की पटकथा में कहीं न कहीं भारी झोल है।
हम पसीनायित
हैं...लेकिन हम पानी खरीद कर पी रहे हैं। लेकिन गांववाले...चुनावी दौरे-दौरा में
पता नहीं क्या-क्या सब्ज़बाग़ थे...जिक्र नहीं था तो किसानों के लिए सिंचाई के
पानी का, न पीने के पानी
का।