Friday, September 16, 2016

मच्छर का कारोबार

यह दौर मच्छरों का दौर है। दिल्ली की केजरीवाल सरकार डेंगू और चिकनगुनिया पर अपने अस्पष्ट रुख और लापरवाही भरे रवैये के कारण घिर चुकी है और खासी लानत-मलामत के बाद भी चिकनगुनिया का प्रकोप कम नहीं हो रहा।

चुनाव की तैयारियों में जुटे और फिर लंबी ज़ुबान का इलाज करा रहे केजरीवाल की गैर-मौजूदगी में उनके मंत्रियों ने लापरवाही भरा और अड़ियल रवैया अख्तियार किया और टीवी चैनलों पर पर्याप्त छीछालेदर झेली।

लेकिन सवाल है कि राज्यों और केन्द्र के अरबों के बजट के बाद भी मच्छर को हरा नहीं सके! इसका जवाब हमें मच्छरों से जुड़े कारोबार में देखना होगा। भारत में मच्छर मारने और भगाने की दवाओं और रसायनों का बहुत बड़ा बाज़ार है। बढ़ती साक्षरता की वजह से जागरूकता भी बढ़ी है और इसलिए मच्छरजनित रोगों को लेकर लोग सजग हुए हैं।

भारत में मच्छरों को पूरा तरह खत्म कर पाना तकरीबन नामुमकिन है और शायद इसलिए हम भारत के लोग अपनी नगरपालिकाओं और नगर-निगमों से अधिक भरोसा कॉइलों, मैट्स, वैपराइजर्स, एयरोसोल्स और क्रीमों पर करते हैं। मच्छरदानी तो एक उपाय है ही।

आपको जानकर हैरत होगी कि भारत में मच्छर भगाने की रसायनों का बाज़ार 3200 करोड़ रूपये से अधिक का है और इसमें भी चार बड़े खिलाड़ी है, रेकिट बेंकिज़र, ज्योति लैबोरेटरीज़, गोदरेज और एससी जॉनसन। इनके उत्पादों से आप परिचित ही होंगे, मॉर्टिन, मैक्सो और गुडनाईट।

अब इन रसायनों की मांग ग्रामीण इलाकों में भी काफी बढ़ गई है और इनमें भी मांग के मामले में वैपोराइजर्स, मैट्स और कॉइल को हरा रहे हैं। शहरी इलाकों में मच्छर भगाने के लिए इन रसायनों का इस्तेमाल कुल खपत का 70 फीसद है। इनमें भी 51 फीसद मार्केट शेयर के साथ गुडनाइट बाज़ार का अगुआ है और मॉर्टिन के पास 14 फीसद बाज़ार है। वैपोराइजर्स में ऑलआउट 69 फीसद और गुडनाईट 21 फीसद बाज़ार पर कब्जा किए हुए है।

वैसे कम लोगों को यह बात पता होगी कि इन मच्छर भगाने वाले रसायनों में ऑलथ्रिन नाम का रसायन होता है जो आंखों, त्वचा, श्वसन तंत्र और तंत्रिका तंत्र के लिए नुकसानदेह होता है। लंबे समय तक इन रसायनों के संपर्क में रहने से ब्रेन, लिवर और किडनी के खराब होने का खतरा होता है।

बहरहाल, इन खतरों के बारे में कोई बात नहीं करता। कम से कम भारत में तो नहीं ही करता। मच्छरों से होने वाली डेंगू और चिकनगुनिया पर टीवी अखबारों और सोशल मीडिय पर काफी हल्ला है लेकिन मलेरिया की बात कोई नहीं करता। जबकि मलेरिया इतनी गंभीर बीमारी है कि इसके उन्मूलन के लिए भारत सरकार ने दोबारा राष्ट्रीय कार्यक्रम शुरू किया है। अब मलेरिया उन्मूलन के लिए साल 2030 तक का लक्ष्य तय किया गया है।

आपको याद होगा कि मलेरिया उन्मूलन के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम पहले भी चलता था, फिर वह पूरा क्यों नहीं हुआ? असल में, भारत में मलेरिया का उन्मूलन लगभग पूरा हो चुका था, लेकिन साठ के दशक के उत्तरार्ध में यह अधिक तेजी के साथ लौट आया। आज, मलेरिया भारत में मृत्यु, विकलांगता और आर्थिक नुकसान का सबसे बडा कारण है। खासकर गरीबों में, जिनके पास सही समय पर असरदार इलाज नहीं पहुंच पाता।

छोटे बच्चों और गर्भवती महिलाओं में मलेरिया के प्रति प्रतिरोधी क्षमता बेहद कम होने की वजह से यह माता-मृत्यु, मृत शिशुओं के जन्म, नवजात शिशुओं का वजन बेहद कम होने वगैरह का कारण बनता है। यही नहीं, 1980 के दशक से एक नए प्रकार का मलेरिया, प्लाज़्मोडियम फेल्सिपेरम (पीएफ), भारत में तेजी से बढ़ रहा है, जो अधिक तीव्र तथा अमूमन जानलेवा होता है।

विश्लेषकों का मानना है कि भारत में मलेरिया के रोगियों की संख्या 6 से 7.5 करोड प्रति वर्ष तक है। भारत के सबसे अधिक मलेरिया-ग्रस्त इलाके सबसे गरीब क्षेत्र ही हैं। वैसे, मलेरिया शहरी भागों में भी बढ़ रहा है, लेकिन मलेरिया के आधे मामले उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल से आते हैं। मलेरिया प्रभावित जिलों का दूरदराज में स्थित होना इस रोग के निदान और उपचार की एक बड़ी बाधा है।

1953 में भारत सरकार ने राष्ट्रीय मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम (एनएमसीपी) शुरू किया जो घरों का भीतर डीडीटी का छिडकाव करने पर केन्द्रित था। इसके तहत 125 नियंत्रण इकाईयों के ज़रिए मलेरिया नियंत्रण की कोशिश शुरू की गई। हर इकाई में 130 से 275 लोग लगाए गए और अनुमान है कि हर इकाई ने दस लाख लोगों का मलेरिय़ा से बचाव किया। पांच साल में ही कार्यक्रम की वजह से मलेरिया की घटनाओं में आश्चर्यजनक कमी देखी गई। इससे उत्साहित होकर एक अधिक महत्वाकांक्षी राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम (एनएमईपी) 1958 में शुरू किया गया। इसके तहत नियंत्रण इकाईयों की संख्या बढ़ाकर 160 कर दी गई और 16 करोड़ से अधिक लोगों का मलेरिया से बचाव किया जा सका। इससे मलेरिया में और भी कमी आई और उसका मृत्यु की वजह बनना थम गया। 1961 में मलेरिया के मामलों की संख्या घटकर 49151 तक रह गई। ऐसा अनुमान था कि अगर कार्यक्रम ऐसे ही चलता रहा तो देश से मलेरिया का उन्मूलन अगले सात से नौ साल के भीतर हो जाएगा।

मलेरिया के घटते मामलों ने लोगों को लापरवाह बना दिया और अब डीडीटी का छिड़काव करने आए कर्मचारियों को गंभीरता से नहीं लिया जाने लगा। दूसरी तरफ मलेरिया विभाग के कर्मचारियों में अफवाह फैली कि मलेरिया उन्मूलन के बाद उनकी नौकरी खतरे में पड़ जाएगी। ऐसे में छिड़काव में ढिलाई बरती जाने लगी।
ऐसे में 1965 में मलेरिया की वापसी हुई और 1971 में दस लाख लोग फिर से मलेरिया की चपेट में आए।

अब छिड़काव की जगह बचाव पर ध्यान केंद्रित किया गया और डीडीटी की जगह मच्छरदानियों के इस्तेमाल को तरज़ीह दी गई। फिर तकनीकी ढिलाई की वजह से मलेरिया के विषाणु ने क्लोरोक्विन के प्रति प्रतिकार क्षमता पैदा कर ली और देश में फेल्सिपेरम मलेरिया बढने लगा।

जो भी हो, एक कामयाबी की तरफ बढ़ते राष्ट्रीय कार्यक्रम को भारत के लापरवाह लोगों ने नाकामी की तरफ धकेली दिया। इसमें जनता और मलेरिया विभाग के नौकरी खोने से डरे दोनों लोगों की जिम्मेदारी है।

अब जबकि, मलेरिया के विषाणु कई किस्म की प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर चुके हैं, सरकार को नए सिरे से राष्ट्रीय कार्यक्रम चलाना पड़ रहा है। तो क्या हम मान लें, कि जैसी दुरभिसंधि मलेरिया के मामले को फेल कर देने की रही, वैसी ही डेंगू और चिकनगुनिया में नहीं हो रही होगी? आखिर, मच्छर ही नहीं रहेंगे तो मच्छर भगाने वाले रसायन हम खरीदेंगे ही क्यों?

फिलहाल तो शक है और शक बिलावजह नहीं है।

मंजीत ठाकुर

Tuesday, September 13, 2016

मधुपुर :हिंदी के दो स्मृतियोग्य सेवक

डाॅ.उत्तम पीयूष

1970 के जमाने से लेकर 1980 तक के जमाने तक, मधुपुर में विधिवत् हिंदी साहित्य की परंपरा ठीक ठाक नजर नहीं आती। उससे पहले तो और भी कठिन था मधुपुर के हिंदी का साहित्यिक परिदृश्य।


पर ,एक भाषा के तौर पर हिंदी का प्रयोग स्वतंत्रता पूर्व के कुछ प्रकाशित दस्तावेजों से पता चलता है जिसमें 1935 में कोलकाता के हैरिसन प्रेस से प्रकाशित राष्ट्रीय शाला "तिलक विद्यालय " से संबंधित दस्तावेज महत्वपूर्ण हैं।और कुछ हैं जिनकी अलग से चर्चा करूंगा।

पर आज तो उन दो गुरूओं को स्मरण करने का प्रयास कर रहा हूं जिन्होंने अपनी निष्ठा से अलग अलग तरीके से "हिंदी" की अद्भुत सेवा की थी।
एक थे खजौली (ग्राम ठाहर) से आये मोहन लाल गुटगुटिया उच्च विद्यालय के भूगोल के शिक्षक स्व. रामदेव ठाकुर और दूसरे आरा की ओर से आए श्यामा प्रसाद मुखर्जी उच्च विद्यालय के प्रधानाचार्य शिव सहाय शर्मा जी।

इन दोनों शिक्षकों ने 1965/70से लेकर 1975/80 तक के जमाने को अलग अलग तरीके से हिंदी को काफी समृद्ध किया था। स्व. रामदेव ठाकुर कला, भाषा और साहित्य के 'जीनियस 'थे। वे भूगोल पढाते थे। संस्कृत उनकी जिह्वा पर थी। हाथ में ब्रश या रंगीन चाॅक आ जाए तो चित्र उभरने लगते थे।

उनके बनाये भित्ति चित्र आज भी मेरी आंखों में पैबस्त हैं। वो दीवार पर बना उनके हाथ का ताजमहल! अंग्रेजी वैसे ही पढाते जैसे अंग्रेजी के टीचर हों। पर जब बात हिंदी की होती तो उनको सुनने का अलग ही आनंद था।

उनसे विद्यापति, सूर, मीरा, जायसी, रहीम और रसखान के साथ तुलसी के दोहों के अर्थ समझना अलग ही मायने रखता। स्पष्ट और गूंजती आवाज, विशद ज्ञान और उनका वह वाग्वैदग्ध्य! 

हिंदी भाषा में उनके कहने के उस अंदाज को आज भी याद करके रोमांचित भी होता हूं और प्रेरित भी। बहुत कम लोग हिंदी का इतना इफैक्टिव प्रयोग कर पाते हैं। आज भी कहीं मेरे जन्मदिवस पर दिए उनके शब्द उद्गार सुरक्षित हैं। हिंदी भाषा के इस महान 'मास्टर मैन' को मेरा नमन है।

और यदि आपने श्यामा प्रसाद मुखर्जी उच्च विद्यालय भवन का मुख्य हाॅल देखा होगा पहले कभी तो देखा होगा कि उस हाल की दीवारों पर देश के महान लोगों के एक से एक चित्र लगे थे। (अभी क्या स्थिति है नहीं मालूम )।पर, इसी भव्य हाॅल में प्रत्येक साल स्रावन शुक्ल सप्तमी को एक विराट "तुलसी जयंती समारोह "का आयोजन हुआ करता। आयोजनकर्ता होते अनन्य हिंदी प्रेमी शिवसहाय शर्मा जी। छात्रों की भीड ,एक से एक विद्वानों की गरिमामयी उपस्थिति और संत तुलसी दास पर विद्वानों के विचार।मन रम जाता और शर्मा जी आह्लादित होते।

हिंदी को हिंदी विचारों ,समारोहों और आयोजनों के जरिए इन गुरूओं ने मधुपुर में जो एक माहौल बनाया था -जिसमें बौद्धिकता भी थी और सहृदयता और सरलता भी -आज के मधुपुर को इनका आभारी होना चाहिए और इन सहित ऐसे तमाम हिंदी सेवियों का पुनरस्मरण करना चाहिए।

Thursday, September 8, 2016

राहुल@2.0 की खाट चर्चा

कहावत है कि सियासत में जब कुछ नया हो तो उसकी पहल करने वाले नेता के बारे में एक बार ज़रूर सोचना चाहिए। राजनीति के अभिनव प्रयोग की शुरूआत हमेशा नेता करते हैं, और अमूमन जनता उस पहल पर अपनी मुहर लगाकर उसे पॉप्युलर बनाती है या खारिज़ कर देती है।

सत्ताइस साल से उत्तर प्रदेश की कुरसी से दूर कांग्रेस अपने युवराज राहुल गांधी औऱ चुनावी सलाहकार प्रशांत किशोर को लेकर चुनावी वैतरणी पार करने की जुगत में लगी है। प्रशांत किशोर का नाम 2014 लोकसभआ चुनाव में नरेंद्र मोदी के धारदार चुनावी अभियान के बाद चमका। बीजेपी की प्रचंड जीत प्रशांत किशोर चुनावी अभियान की रणनीति का नतीजा मानी जाती है। लेकिन साल 2014 के बाद बिहार चुनाव में नीतीश-लालू के लिए काम किया। उन्हें भी जीत दिलाकर प्रशांत किशोर ने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया।

अब 2017 के लिए पंजाब और यूपी इलेक्शन में कांग्रेस के लिए प्रशांत किशोर मैदान में हैं। साल 2014 का इलेक्शन हो या बिहार इलेक्शन पीके चुनावी कैंपेन में माहिर माने जाते हैं। अब यूपी में 27 साल बाद कांग्रेस की जमीन को मजबूत करते दिख रहे हैं।

देवरिया से राहुल ने पैदल यात्रा की तो वहां खाट सभा की योजना भी, जाहिर है, उऩके सलाहकार प्रशांत ने ही बनाई। करीब-करीब दो हजार खाट भी रखी गई। यात्रा शुरू हुई राहुल गांधी जैसे ही आगे चले, पीछे से सभा में शामिल लोग अपने-अपने हिस्से की खाट लेकर चलने लगे। अब खाट के इस लूटपाट को भी पीके का राजनीतिक स्ट्रोक बोला जा रहा है। पीके ने ही खाट बिछाई और खाट लुटवाई इससे होने वाले राजनीतिक फायदे काफी गहरे हैं।

कांग्रेस ने अपना चुनावी अभियान तब शुरू किया है जब बसपा ने अपने पत्ते खोल दिए हैं, सपा अपने अभियान को शुरू करने वाली है और बीजेपी अभी मंथन की प्रक्रिया से गुजर रही है। यह तय है कि यूपी इलेक्शन में एक बार फिर से केन्द्रीय मुद्दा जाति ही होगी और कांग्रेस भी उसी नाव पर सवार होकर टिकट बांटेगी, लेकिन ढिंढोरा विकास, किसानों और गरीबों की हमदर्दी का ही पीटा जा रहा है। लोकसभा चुनाव में बीजेपी के और बिहार चुनाव में राजद-जेडीयू के रणनीतिकार प्रशांत किशोर की कोशिश यही है कि यूपी में कोई कांग्रेस को नज़र अंदाज न कर सके।

फिर भी सवाल ही है कि क्या इस अभियान से कांग्रेस और ब्रांड राहुल को प्रशांत किशोर चमका पाएंगे? वैसे, देवरिया से दिल्ली का यह अभियान पूरा हो गया तो दो करोड़ लोगों से कांग्रेस का संपर्क तो हो ही जाएगा, यह बात और है कि लोग कांग्रेस को और उसके इस खाट अभियान को कितनी संजीदगी से लेते हैं।

ऐसा भी नहीं है इससे पहले कभी राहुल ने गांव की पगडंडियां नहीं मापी, या दलितो और वंचितों के घर जाकर खुद को उनका हमदर्द साबित करने की कोशिश नहीं की है। पिछले चुनाव में राहुल ने 100 विधानसभाओं का दौरा किया था लेकिन जीत तो महज 28 पर मिली थी। राहुल का लॉन्च नाकाम माना गया था।

इस बार खाट सभाओं के ज़रिए राहुल को रीलॉन्च किया गया है वह भी वर्ज़न 2.0 के साथ। इस बार 39 जिलों और 59 लोकसभा क्षेत्रों और 2500 किलोमीटर की दूरी तय करेंगे।

कर्जदार किसानों की सूची के साथ राहुल उन सबको लिखकर दे रहे हैं कि कर्ज माफ किया जाएगा और बिजली का बिल आधा किया जाएगा। सूत्रों के हवाले से यह ख़बर मिली है कि यह सब पीके का किया कराया है। राहुल की खाट सभा औऱ महापदयात्रा दोनों को मीडिया कवरेज औऱ लोगों तक यह ख़बर पहुंचे इसलिए स्थानीय गांव वासियों को पहले से ही तैयार किया गया था। लुटपाट करने के लिए ही खाट सभा का आयोजन रखा गया था।

कयास यही हैं कि राहुल गांधी की यूपी में किसान पैदल यात्रा, किसानों के कर्ज माफ, बिजली बिल माफ, फसलों के समर्थन मूल्य का पूर्ण भुगतान जैसी किसानी मांगो को लेकर निकली है, खाटों की लूट के साथ खबर फैले और लोगों को पता चल जाए। राहुल की खाट सभा औऱ महापदयात्रा दोनों को मीडिया कवरेज औऱ लोगों तक यह ख़बर पहुंचे इसलिए स्थानीय गांव वासियों को पहले से ही तैयार किया गया था।

अंदाज़ा लगाइए कि राहुल की सभा बाढ़ग्रस्त देवरिया से ही शुरू क्यों हुई? अंदाजा़ लगाइए कि लूटे खाटों पर बैठे गांव के लोग आपस में खाट के बारे में चर्चा करेंगे तो क्या कांग्रेस और राहुल की चर्चा क्या नहीं होगी? जहां समाजवादी पार्टी पहले लैपटॉप बांट चुकी है और जहां इस बार वह स्मार्टफोन बांट रही है, वहां खाटों की लूट क्या जाहिर करती है? खाट गांव के लिए कितने जरूरी है इस पर भी ध्यान दीजिए। ज़मीन पर सो रहे तबके को खाट मिलना कितनी बड़ी बात है इसका अंदाज़ा आपको तभी लगेगा, जब आप गांव को बहुत नज़दीक से देखेंगे।

जो भी हो, सोशल मीडिया पर छाई इस खबर ने एक लहर पैदा की है और जो खाट, गांव और पगडंडी, लोटा और डोरी शहरी शब्दावली से गायब हो चुके थे, इसी बहाने उनकी चर्चा तो हुई। राहुल की खाट सभाओं को कमतर आंकना सियासी भूल होगी। प्रशांत किशोर ने सही निशाना लगाया है।


मंजीत ठाकुर

Monday, September 5, 2016

चीटरों के दौर में टीचर

मधुपुर मेरा जन्मस्थान तो है ही, इसने यह भी तय किया कि मैं किस तरह का इंसान बनने वाला हूं। अपने भैया मंगल ठाकुर को अपना पहला गुरु मानता हूं, जो मेरी हर कामयाबी पर उछले, हर नाकामी पर परेशान हुए।

फिर सुबल चंद्र सिंह, जिन्होंने अपने सभी छात्रों की सखुए की संटी से पीट-पीटकर बंदर से इंसान बनाने की कोशिश की। लेकिन हाय दैव, उनके ज्यादातर छात्र आज भी बंदर ही हैं। दिनेश सर, जो गणित को सरलता से समझा देते थे। 

व्रजनारायण झा, जिन्होंने मुझे संस्कृत पढ़ाते वक्त सीधा बता दिया, व्याकरण गणित की तरह है, लेकिन इसमें कुछ समझ न आए तो सीधा रट लो। एमएलजी उच्च विद्यालय, जहां मैने दसवीं तक पढ़ाई की, वहां अलाउद्दीन अंसारी सर इतिहास पढ़ाते थे। पढ़ाते वक्त संभवतया वह टाइम मशीन में बैठकर उस दौर में पहुंच जाते, जिस दौर का अध्याय वह पढ़ा रहे होते थे। अलाउद्दीन सर ने अपनी कक्षाओ में हमें शनिवार को आधी छुट्टी के बाद हमारे संभावित क्रिकेट मैच की योजना बनाने का पूरा मौका दिया। वह किताब में रमकर हमें अकबर, शाहजहां और बलबन के बारे में बताते रहते थे, और हम फुसुर-फुसर करके यह तय करते थे कि बैटिंग में किस नंबर पर कौन उतरेगा। 

अंग्रेजी पढ़ाते थे रफीक़ सर। उन दिनों बिहार (तब, आजकल वह इलाका झारखंड में आता है) में अंग्रेजी की छात्रों से मुठभेड़ छठी कक्षा में होती थी, और मान लिया जाता था कि पांचवी कक्षा तक तो छात्रों ने अंग्रेजी खुद-ब-खुद मां-बाप से सीख ही ली होगी। तो रफीक़ सर, अंग्रेजी पढ़ाते थे और यह मानते थे कि वह जो फर्राटेदार अंग्रेजी छठी-सातवीं-आठवीं के छात्रों के सामने बतियाते थे, तो यह सोचते थे कि इन सबको समझ में आ रहा होगा। अंग्रेजी बोलने का उनका  लहज़ा  खोरठानुमा था। खोरठा मधुपुर के आसपास बोली जाने वाली बोली है, जिसमें मैथिली-बांगला-और संताली के शब्द घुलेमिले होते हैं। बहरहाल, किसी का ध्यान भटकने पर रफीक़ सर ब्लैक बोर्ड के पास से ही चॉक फेंककर सीधे छात्र के मुंडी पर निशाना लगाते थे और कहतेः अंग्रेजी नहीं पढ़नी हो तो जाओ, गणेश की दुकान पर जाकर घुघनी-मूढ़ी खाओ। (घुघनीः काले चने के छोले, मूढ़ीः चावल के मुरमुरे)

मौलाना सर की फ़ारसी की क्लास में हम दुनिया के नक्शे के बारे में पढ़ते क्योंकि वह पिताजी के दोस्त भी थे और फ़ारसी की कक्षा के वक्त तक स्कूल में सारे बच्चे भाग निकलते थे।

बहुत शिक्षकों ने पढ़ाया, सिखाया, मुझे बनाने और बिगाड़ने में अपनी अहम भूमिका अदा की। इनमे आलोक बक्षी का नाम बहुत आदर से लेना चाहता हूं।

बाद में कई शिक्षक हुए जिन्होंने मुझे बनाने की कोशिश की लेकिन नाकाम रहे। उन सभी गुरुओ और सबसे बड़े गुरू वक्त के सामने सिर झुकाता हूं, जिसने दुनिया को समझने की थोड़ा सा सलीका मुझे सिखा दिया है। यह जरूर है कि अपनी बाजिव कीमत लेकर।

मंजीत

Friday, September 2, 2016

सियासत है काजर की कोठरी

बहुत दिन नहीं बीते हैं, जब रामलीला मैदान में तिरंगा लहराते हुए अरविन्द केजरीवाल इकट्ठी भीड़ को कहते थेः सारे नेता चोर हैं। नेताओं से उकताई हुई भीड़, तब ज़ोर से तालियां बजाती थी। अभी आम आदमी पार्टी के विधायकों पर, संसदीय सचिव मामले से लेकर सेक्स सीडी और छेड़खानी के मामले चल रहे हैं, जनता एक बार फिर ताली बजा रही है। ताली बजाना जनता का काम है। सियासत में शूर्पनखा की नाक कटे या किसी और की, जनता ताली बजाती है।

फिर अन्ना आंदोलन के मूलधन को चुनावी खाते में डालकर केजरीवाल ने बड़ी जुगत से इसका ब्याज दिल्ली में उठाया और शायद पंजाब और बाकी जगहों पर भी उठा ही लेते। राजनीति को कीचड़ मानकर उसमें कूदकर तंत्र बदलने का सपना (अगर कोई हो) केजरीवाल ने अगर 2012 में देखा तो उसके पीछे राजनीतिक भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना आंदोलन का दबाव था।

जनता को जोश था तो बिना तजुर्बो वालों को सिर्फ केजरीवाल के नाम पर जिताते चले गए। बंपर बहुमत दिया। इसीलिए सवाल सिर्फ इतना नहीं कि केजरीवाल के तीन मंत्री तीन ऐसे मामलो में फंसे हैं, जो आंदोलन में शामिल किसी के लिये भी शर्मनाक हों। सवाल तो यह है कि तोमर हो या असीम अहमद खान या फिर संदीप कुमार, इन्होंने अन्ना आंदोलन के न तो कोई भूमिका निभाई, ना ही केजरीवाल के राजनीति में कूदने से पहले कोई राजनीतिक संघर्ष किया।

सियासत का साफ करने का दावा, और सभी नेता चोर है के नारे पर सवार आम आदमी पार्टी के पांच विधायक नौंवी पास हैं तो 5 विधायक दसवीं पास। शुरू में ही कानून मंत्री बने जितेन्द्र तोमर तो कानून की फर्जी डिग्री के मामले में ही फंस गये।

तो क्या यह मान लिया जाए आम आदमी पार्टी ने सियासत को उसी तर्ज पर अपनाया जो बाक़ी की पार्टियों के लिए भी मुफीद रही है। मसलन, लोकसभा में 182 सांसद, देश भर की विधानसभाओं में 1258 विधायक और तमाम राज्यों में 33 फीसदी मंत्री दागदार है। तो साथी लोग तर्क देते हैं, ऐसे में केजरीवाल के 11 विधायक दाग़दार हुए तो क्या?

सवाल यह भी नहीं है कि जिस सेक्स सीडी में संदीप कुमार दिख रहे हैं वह गैर-कानूनी है या सिर्फ अनैतिक। संदीप के साथ सीडी में दिखने वाली महिला ने कोई शिकायत नहीं की है, संदीप कुमार की पत्नी ने कोई शिकायत नहीं की है तो मामला कहीं से भी कानूनी नहीं है। कई लोग इस बात को लेकर मीडिया को कोस रहे हैं कि सबके शयनकक्षों में झांकने का हक़ कैसे ही मीडिया को। ठीक है।

लेकिन इसी के बरअक्स सवाल तो यह भी है कि जिन आदर्शों के साथ आम आदमी पार्टी बनाई गई, गठन के वक्त जो सोच थी, उम्मीदें थीं, वह सब इतनी जल्दी कैसे और क्यों मटियामेट होने लगी?

सत्ता आती है तो सबसे पहले सच्चे मित्र छूट जाते हैं और मित्रों को आप दुश्मन मानते हैं यह तो केजरीवाल ने भी साबित किया। विचारक योगेन्द्र यादव और सहायक प्रशांत भूषण को बाहर का रास्ता दिखाकर चमचों की फौज़ खड़ी करके केजरीवाल ने आगे की राह को खाई की तरफ मोड़ दिया।

संदीप कुमार प्रकरण को महज सेक्स सीडी पर मत रोकिए। इसको एक राजनीतिक घटना की तरह भी देखिए। जिस ओमप्रकाश ने सीडी उपलब्ध कराई है, वह है कौन? वह संदीप कुमार से चुनाव में हारे पूर्व-विधायक जयकिशन का साथी है। कथित तौर पर सरकारी ज़मीन पर कब्जा करके कोयले का कारोबार करता है और उसने संदीप कुमार पर पैसे मांगने और धमकाने के आरोप भी लगाए थे।

अचानक उसके पास मंत्री की अश्लील सीडी कहां से आ गई? आखिर अनजान शख्स ने ओमप्रकाश को ही सीडी और फोटोग्राफ वाला लिफाफा क्यों दिया और कैसे खुद को कोयला कारोबारी बताने वाला शख्स अचानक ही कांग्रेस का नेता बन गया?

देखिए, सियासत काजर की कोठरी है। सीडी में संदीप थे यह तय रहा, तभी तो केजरीवाल ने अपने मंत्रिमंडल से उनको बाहर का रास्ता दिखाया। लेकिन संदीप ने दलित कार्ड खेला, जो एक हद तक हास्यास्पद ही है। लेकिन यह न कहिए कि निजी मामले को राजनीतिक रंग दिया जा रहा है, शयनकक्ष की सियासत हो रही है।

मोदी के सूट पर ही कितना तंज कसा था मनीष सिसोदिया ने और केजरीवाल ने! मनीष सिसोदिया ने नरेन्द्र मोदी की विदेश नीति पर तंजभरा ट्वीट किया थाः झूला झुलाने, बिरयानी खिलाने और 10-10 लाख के सूट पहनकर दिखाने से दुनिया में कूटनीति नहीं चलती।

कपड़े पहनने और खाने पर सियासत की शुरूआत आपने की थी, तो कपड़े उतारने पर भी सियासत होगी ही। मानता हूं कि संदीप कुमार की सेक्स सीडी का मामला अभी तक गैर-कानूनी नहीं है, लेकिन सियासत में लगे लोगों को जनता साफ-सुथरा पसंद करती है।

वरना कितने सिंघवियों, राघवों और तिवारियों ने बहुत कुछ किया है, आज भी उनकी राजनीति चमक रही है। संदीप की भी चमक जाएगी। और मोरल? सियासत में मोरल नाम का कोई ग्राउंड नहीं है।


मंजीत ठाकुर