यह दौर मच्छरों का दौर है। दिल्ली की केजरीवाल सरकार डेंगू और चिकनगुनिया पर अपने अस्पष्ट रुख और लापरवाही भरे रवैये के कारण घिर चुकी है और खासी लानत-मलामत के बाद भी चिकनगुनिया का प्रकोप कम नहीं हो रहा।
चुनाव की तैयारियों में जुटे और फिर लंबी ज़ुबान का इलाज करा रहे केजरीवाल की गैर-मौजूदगी में उनके मंत्रियों ने लापरवाही भरा और अड़ियल रवैया अख्तियार किया और टीवी चैनलों पर पर्याप्त छीछालेदर झेली।
लेकिन सवाल है कि राज्यों और केन्द्र के अरबों के बजट के बाद भी मच्छर को हरा नहीं सके! इसका जवाब हमें मच्छरों से जुड़े कारोबार में देखना होगा। भारत में मच्छर मारने और भगाने की दवाओं और रसायनों का बहुत बड़ा बाज़ार है। बढ़ती साक्षरता की वजह से जागरूकता भी बढ़ी है और इसलिए मच्छरजनित रोगों को लेकर लोग सजग हुए हैं।
भारत में मच्छरों को पूरा तरह खत्म कर पाना तकरीबन नामुमकिन है और शायद इसलिए हम भारत के लोग अपनी नगरपालिकाओं और नगर-निगमों से अधिक भरोसा कॉइलों, मैट्स, वैपराइजर्स, एयरोसोल्स और क्रीमों पर करते हैं। मच्छरदानी तो एक उपाय है ही।
आपको जानकर हैरत होगी कि भारत में मच्छर भगाने की रसायनों का बाज़ार 3200 करोड़ रूपये से अधिक का है और इसमें भी चार बड़े खिलाड़ी है, रेकिट बेंकिज़र, ज्योति लैबोरेटरीज़, गोदरेज और एससी जॉनसन। इनके उत्पादों से आप परिचित ही होंगे, मॉर्टिन, मैक्सो और गुडनाईट।
अब इन रसायनों की मांग ग्रामीण इलाकों में भी काफी बढ़ गई है और इनमें भी मांग के मामले में वैपोराइजर्स, मैट्स और कॉइल को हरा रहे हैं। शहरी इलाकों में मच्छर भगाने के लिए इन रसायनों का इस्तेमाल कुल खपत का 70 फीसद है। इनमें भी 51 फीसद मार्केट शेयर के साथ गुडनाइट बाज़ार का अगुआ है और मॉर्टिन के पास 14 फीसद बाज़ार है। वैपोराइजर्स में ऑलआउट 69 फीसद और गुडनाईट 21 फीसद बाज़ार पर कब्जा किए हुए है।
वैसे कम लोगों को यह बात पता होगी कि इन मच्छर भगाने वाले रसायनों में ऑलथ्रिन नाम का रसायन होता है जो आंखों, त्वचा, श्वसन तंत्र और तंत्रिका तंत्र के लिए नुकसानदेह होता है। लंबे समय तक इन रसायनों के संपर्क में रहने से ब्रेन, लिवर और किडनी के खराब होने का खतरा होता है।
बहरहाल, इन खतरों के बारे में कोई बात नहीं करता। कम से कम भारत में तो नहीं ही करता। मच्छरों से होने वाली डेंगू और चिकनगुनिया पर टीवी अखबारों और सोशल मीडिय पर काफी हल्ला है लेकिन मलेरिया की बात कोई नहीं करता। जबकि मलेरिया इतनी गंभीर बीमारी है कि इसके उन्मूलन के लिए भारत सरकार ने दोबारा राष्ट्रीय कार्यक्रम शुरू किया है। अब मलेरिया उन्मूलन के लिए साल 2030 तक का लक्ष्य तय किया गया है।
आपको याद होगा कि मलेरिया उन्मूलन के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम पहले भी चलता था, फिर वह पूरा क्यों नहीं हुआ? असल में, भारत में मलेरिया का उन्मूलन लगभग पूरा हो चुका था, लेकिन साठ के दशक के उत्तरार्ध में यह अधिक तेजी के साथ लौट आया। आज, मलेरिया भारत में मृत्यु, विकलांगता और आर्थिक नुकसान का सबसे बडा कारण है। खासकर गरीबों में, जिनके पास सही समय पर असरदार इलाज नहीं पहुंच पाता।
छोटे बच्चों और गर्भवती महिलाओं में मलेरिया के प्रति प्रतिरोधी क्षमता बेहद कम होने की वजह से यह माता-मृत्यु, मृत शिशुओं के जन्म, नवजात शिशुओं का वजन बेहद कम होने वगैरह का कारण बनता है। यही नहीं, 1980 के दशक से एक नए प्रकार का मलेरिया, प्लाज़्मोडियम फेल्सिपेरम (पीएफ), भारत में तेजी से बढ़ रहा है, जो अधिक तीव्र तथा अमूमन जानलेवा होता है।
विश्लेषकों का मानना है कि भारत में मलेरिया के रोगियों की संख्या 6 से 7.5 करोड प्रति वर्ष तक है। भारत के सबसे अधिक मलेरिया-ग्रस्त इलाके सबसे गरीब क्षेत्र ही हैं। वैसे, मलेरिया शहरी भागों में भी बढ़ रहा है, लेकिन मलेरिया के आधे मामले उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल से आते हैं। मलेरिया प्रभावित जिलों का दूरदराज में स्थित होना इस रोग के निदान और उपचार की एक बड़ी बाधा है।
1953 में भारत सरकार ने राष्ट्रीय मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम (एनएमसीपी) शुरू किया जो घरों का भीतर डीडीटी का छिडकाव करने पर केन्द्रित था। इसके तहत 125 नियंत्रण इकाईयों के ज़रिए मलेरिया नियंत्रण की कोशिश शुरू की गई। हर इकाई में 130 से 275 लोग लगाए गए और अनुमान है कि हर इकाई ने दस लाख लोगों का मलेरिय़ा से बचाव किया। पांच साल में ही कार्यक्रम की वजह से मलेरिया की घटनाओं में आश्चर्यजनक कमी देखी गई। इससे उत्साहित होकर एक अधिक महत्वाकांक्षी राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम (एनएमईपी) 1958 में शुरू किया गया। इसके तहत नियंत्रण इकाईयों की संख्या बढ़ाकर 160 कर दी गई और 16 करोड़ से अधिक लोगों का मलेरिया से बचाव किया जा सका। इससे मलेरिया में और भी कमी आई और उसका मृत्यु की वजह बनना थम गया। 1961 में मलेरिया के मामलों की संख्या घटकर 49151 तक रह गई। ऐसा अनुमान था कि अगर कार्यक्रम ऐसे ही चलता रहा तो देश से मलेरिया का उन्मूलन अगले सात से नौ साल के भीतर हो जाएगा।
मलेरिया के घटते मामलों ने लोगों को लापरवाह बना दिया और अब डीडीटी का छिड़काव करने आए कर्मचारियों को गंभीरता से नहीं लिया जाने लगा। दूसरी तरफ मलेरिया विभाग के कर्मचारियों में अफवाह फैली कि मलेरिया उन्मूलन के बाद उनकी नौकरी खतरे में पड़ जाएगी। ऐसे में छिड़काव में ढिलाई बरती जाने लगी।
चुनाव की तैयारियों में जुटे और फिर लंबी ज़ुबान का इलाज करा रहे केजरीवाल की गैर-मौजूदगी में उनके मंत्रियों ने लापरवाही भरा और अड़ियल रवैया अख्तियार किया और टीवी चैनलों पर पर्याप्त छीछालेदर झेली।
लेकिन सवाल है कि राज्यों और केन्द्र के अरबों के बजट के बाद भी मच्छर को हरा नहीं सके! इसका जवाब हमें मच्छरों से जुड़े कारोबार में देखना होगा। भारत में मच्छर मारने और भगाने की दवाओं और रसायनों का बहुत बड़ा बाज़ार है। बढ़ती साक्षरता की वजह से जागरूकता भी बढ़ी है और इसलिए मच्छरजनित रोगों को लेकर लोग सजग हुए हैं।
भारत में मच्छरों को पूरा तरह खत्म कर पाना तकरीबन नामुमकिन है और शायद इसलिए हम भारत के लोग अपनी नगरपालिकाओं और नगर-निगमों से अधिक भरोसा कॉइलों, मैट्स, वैपराइजर्स, एयरोसोल्स और क्रीमों पर करते हैं। मच्छरदानी तो एक उपाय है ही।
आपको जानकर हैरत होगी कि भारत में मच्छर भगाने की रसायनों का बाज़ार 3200 करोड़ रूपये से अधिक का है और इसमें भी चार बड़े खिलाड़ी है, रेकिट बेंकिज़र, ज्योति लैबोरेटरीज़, गोदरेज और एससी जॉनसन। इनके उत्पादों से आप परिचित ही होंगे, मॉर्टिन, मैक्सो और गुडनाईट।
अब इन रसायनों की मांग ग्रामीण इलाकों में भी काफी बढ़ गई है और इनमें भी मांग के मामले में वैपोराइजर्स, मैट्स और कॉइल को हरा रहे हैं। शहरी इलाकों में मच्छर भगाने के लिए इन रसायनों का इस्तेमाल कुल खपत का 70 फीसद है। इनमें भी 51 फीसद मार्केट शेयर के साथ गुडनाइट बाज़ार का अगुआ है और मॉर्टिन के पास 14 फीसद बाज़ार है। वैपोराइजर्स में ऑलआउट 69 फीसद और गुडनाईट 21 फीसद बाज़ार पर कब्जा किए हुए है।
वैसे कम लोगों को यह बात पता होगी कि इन मच्छर भगाने वाले रसायनों में ऑलथ्रिन नाम का रसायन होता है जो आंखों, त्वचा, श्वसन तंत्र और तंत्रिका तंत्र के लिए नुकसानदेह होता है। लंबे समय तक इन रसायनों के संपर्क में रहने से ब्रेन, लिवर और किडनी के खराब होने का खतरा होता है।
बहरहाल, इन खतरों के बारे में कोई बात नहीं करता। कम से कम भारत में तो नहीं ही करता। मच्छरों से होने वाली डेंगू और चिकनगुनिया पर टीवी अखबारों और सोशल मीडिय पर काफी हल्ला है लेकिन मलेरिया की बात कोई नहीं करता। जबकि मलेरिया इतनी गंभीर बीमारी है कि इसके उन्मूलन के लिए भारत सरकार ने दोबारा राष्ट्रीय कार्यक्रम शुरू किया है। अब मलेरिया उन्मूलन के लिए साल 2030 तक का लक्ष्य तय किया गया है।
आपको याद होगा कि मलेरिया उन्मूलन के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम पहले भी चलता था, फिर वह पूरा क्यों नहीं हुआ? असल में, भारत में मलेरिया का उन्मूलन लगभग पूरा हो चुका था, लेकिन साठ के दशक के उत्तरार्ध में यह अधिक तेजी के साथ लौट आया। आज, मलेरिया भारत में मृत्यु, विकलांगता और आर्थिक नुकसान का सबसे बडा कारण है। खासकर गरीबों में, जिनके पास सही समय पर असरदार इलाज नहीं पहुंच पाता।
छोटे बच्चों और गर्भवती महिलाओं में मलेरिया के प्रति प्रतिरोधी क्षमता बेहद कम होने की वजह से यह माता-मृत्यु, मृत शिशुओं के जन्म, नवजात शिशुओं का वजन बेहद कम होने वगैरह का कारण बनता है। यही नहीं, 1980 के दशक से एक नए प्रकार का मलेरिया, प्लाज़्मोडियम फेल्सिपेरम (पीएफ), भारत में तेजी से बढ़ रहा है, जो अधिक तीव्र तथा अमूमन जानलेवा होता है।
विश्लेषकों का मानना है कि भारत में मलेरिया के रोगियों की संख्या 6 से 7.5 करोड प्रति वर्ष तक है। भारत के सबसे अधिक मलेरिया-ग्रस्त इलाके सबसे गरीब क्षेत्र ही हैं। वैसे, मलेरिया शहरी भागों में भी बढ़ रहा है, लेकिन मलेरिया के आधे मामले उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल से आते हैं। मलेरिया प्रभावित जिलों का दूरदराज में स्थित होना इस रोग के निदान और उपचार की एक बड़ी बाधा है।
1953 में भारत सरकार ने राष्ट्रीय मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम (एनएमसीपी) शुरू किया जो घरों का भीतर डीडीटी का छिडकाव करने पर केन्द्रित था। इसके तहत 125 नियंत्रण इकाईयों के ज़रिए मलेरिया नियंत्रण की कोशिश शुरू की गई। हर इकाई में 130 से 275 लोग लगाए गए और अनुमान है कि हर इकाई ने दस लाख लोगों का मलेरिय़ा से बचाव किया। पांच साल में ही कार्यक्रम की वजह से मलेरिया की घटनाओं में आश्चर्यजनक कमी देखी गई। इससे उत्साहित होकर एक अधिक महत्वाकांक्षी राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम (एनएमईपी) 1958 में शुरू किया गया। इसके तहत नियंत्रण इकाईयों की संख्या बढ़ाकर 160 कर दी गई और 16 करोड़ से अधिक लोगों का मलेरिया से बचाव किया जा सका। इससे मलेरिया में और भी कमी आई और उसका मृत्यु की वजह बनना थम गया। 1961 में मलेरिया के मामलों की संख्या घटकर 49151 तक रह गई। ऐसा अनुमान था कि अगर कार्यक्रम ऐसे ही चलता रहा तो देश से मलेरिया का उन्मूलन अगले सात से नौ साल के भीतर हो जाएगा।
मलेरिया के घटते मामलों ने लोगों को लापरवाह बना दिया और अब डीडीटी का छिड़काव करने आए कर्मचारियों को गंभीरता से नहीं लिया जाने लगा। दूसरी तरफ मलेरिया विभाग के कर्मचारियों में अफवाह फैली कि मलेरिया उन्मूलन के बाद उनकी नौकरी खतरे में पड़ जाएगी। ऐसे में छिड़काव में ढिलाई बरती जाने लगी।
ऐसे में 1965 में मलेरिया की वापसी हुई और 1971 में दस लाख लोग फिर से मलेरिया की चपेट में आए।
अब छिड़काव की जगह बचाव पर ध्यान केंद्रित किया गया और डीडीटी की जगह मच्छरदानियों के इस्तेमाल को तरज़ीह दी गई। फिर तकनीकी ढिलाई की वजह से मलेरिया के विषाणु ने क्लोरोक्विन के प्रति प्रतिकार क्षमता पैदा कर ली और देश में फेल्सिपेरम मलेरिया बढने लगा।
जो भी हो, एक कामयाबी की तरफ बढ़ते राष्ट्रीय कार्यक्रम को भारत के लापरवाह लोगों ने नाकामी की तरफ धकेली दिया। इसमें जनता और मलेरिया विभाग के नौकरी खोने से डरे दोनों लोगों की जिम्मेदारी है।
अब जबकि, मलेरिया के विषाणु कई किस्म की प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर चुके हैं, सरकार को नए सिरे से राष्ट्रीय कार्यक्रम चलाना पड़ रहा है। तो क्या हम मान लें, कि जैसी दुरभिसंधि मलेरिया के मामले को फेल कर देने की रही, वैसी ही डेंगू और चिकनगुनिया में नहीं हो रही होगी? आखिर, मच्छर ही नहीं रहेंगे तो मच्छर भगाने वाले रसायन हम खरीदेंगे ही क्यों?
फिलहाल तो शक है और शक बिलावजह नहीं है।
मंजीत ठाकुर
अब छिड़काव की जगह बचाव पर ध्यान केंद्रित किया गया और डीडीटी की जगह मच्छरदानियों के इस्तेमाल को तरज़ीह दी गई। फिर तकनीकी ढिलाई की वजह से मलेरिया के विषाणु ने क्लोरोक्विन के प्रति प्रतिकार क्षमता पैदा कर ली और देश में फेल्सिपेरम मलेरिया बढने लगा।
जो भी हो, एक कामयाबी की तरफ बढ़ते राष्ट्रीय कार्यक्रम को भारत के लापरवाह लोगों ने नाकामी की तरफ धकेली दिया। इसमें जनता और मलेरिया विभाग के नौकरी खोने से डरे दोनों लोगों की जिम्मेदारी है।
अब जबकि, मलेरिया के विषाणु कई किस्म की प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर चुके हैं, सरकार को नए सिरे से राष्ट्रीय कार्यक्रम चलाना पड़ रहा है। तो क्या हम मान लें, कि जैसी दुरभिसंधि मलेरिया के मामले को फेल कर देने की रही, वैसी ही डेंगू और चिकनगुनिया में नहीं हो रही होगी? आखिर, मच्छर ही नहीं रहेंगे तो मच्छर भगाने वाले रसायन हम खरीदेंगे ही क्यों?
फिलहाल तो शक है और शक बिलावजह नहीं है।
मंजीत ठाकुर