Saturday, September 30, 2017

रामलीलाः चीर कर रख दूंगा लकड़ी की तरह

दृश्य 1ः
मंच सजा था, बिजली की लड़ियों ने चकाचौंध मचा रखी थी। महागुन मेट्रो मॉल की विशाल इमारत की छत पर मैकडॉनल्ड का लाल रंग का निशान चमक रहा था। इस मॉल की आधुनिकता की चमक के ऐन पीछे मैदान में था मंच. बल्बों की नीली-पीली रौशनी के बीच भगवा रंग के कपड़ो में एक किशोर-सा अभिनेता लक्ष्मण बना हुआ था।

मंच पर मौजूद सारे अभिनेता, जिनमें एक विदूषक, कई वानर लड़ाके और कई राक्षस थे। हनुमान भी। सारे अभिनेता मंच पर हमेशा चलते रहते, तीन कदम दाहिनी तरफ, फिर वापस मुड़कर, तीन कदम बाईं तरफ।

बीच बीच में कोई पंडितजीनुमा आदमी कोई निर्देश दे आता मंच पर जाकर। फिर मंच पर आवाज आती, उद्घोषक की, जिसे अपनी आवाज़ सुनाने में ज्यादा दिलचस्पी थी।

काले कपड़ो में सजे मेघनाद की आवाज़ में ज़ोर था, भगवा कपड़े में सजे लखन लाल की आवाज़ नरम थी। लेकिन तेवर वही...दोनों के बीच संवाद में शेरो-शायरी थी। एक ललकारता...दूसरा उसका जवाब देता।

लखन लाल चीखे, अरे क्या बक-बक करता है बकरी की तरह, चीर कर रख दूंगा, लकड़ी की तरह
भीड़ ने जोरदार ताली बजाई. मैदान में धूल-धक्कड़ है. प्रीतम की धुन बजाता पॉपकॉर्न बेचने वाला है. लकड़ी की तलवारें, गदाएं, तीर-धनुष हैं.

सोच रहा था कि क्या दिल्ली में भी लोग इतने खाली हैं, या फिर कुछ तो ऐसा है इन आधुनिक शहरियों को अपनी ओर खींच रहा है। रामलीला के बगल में, एक जगह ऑरकेस्ट्रा का आय़ोजन है। लडकी बांगला गाने गा रही है, और लगभर सुर के बाहर गा रही है. रामलीला में दृश्य बदलता है, रावण का दरबार सजा है और दो लड़कियां (समझिए अप्सराएं) नाच रही हैं. उनका कमर और कूल्हे मटकाना कुछ भड़कीला ही है. अप्सराएं रावण से कह रही हैं- अमियां से आम हुई डार्लिंग तेरे लिए...


वह भीड़ से पूछती है, केनो, हिंदी ना बांगला...भीड़ के अनुरोध पर वह हिंदी में गाती है। लौंडिया पटाएंगे, फेविकोल से...मेरे मित्र सुशांत को पूजा के पवित्र पंडाल में यह शायद अच्छा नहीं लगा होगा। मैं तर्क देता हूं कि यह मास कल्चर है। मास को पसंद कीजिए, हर जगह तहज़ीब की पैकेजिंग नहीं चलेगी. 

पिछले साल इसी जगह रामलीला में अप्सराएं फेविकोल वाला गाना गा रही थीं.


यह सही है। यही सही है। आम आदमी, जिसके लिए राम लीला के पात्रों ने हिंदुस्तानी बोलना शुरू कर दिया। संवादों के बीच में ही, मानस की चौपाईयां आती है, जो माहौल में भक्ति का रंग भरने के सिवा कुछ और नहीं करतीं।

अगल बगल गुब्बारे, हवा मिठाई, गोलगप्पे...प्लास्टिक के खिलौने...चाट, भेलपूरी। मुझे मधुपुर की याद आई।

दृश्य़ दोः 
हमारे घर के पास ही एक दुर्गतिनाशिनी पूजा समिति है। दुर्गा की मूर्त्ति के सामने बच्चों के नाच का एक कार्यक्रम है। यह समिति पहले उड़िया समुदाय के लोगों के हाथ में थी, अब उस समिति में बिहारी, बंगाली, उड़िया, पंजाबी, यूपी के सभी समुदायों के लोग है।

सभी घरों के बच्चे नाच रहे हैं, महिलाएं हैं...मेयर साहब आते हैं..। जय गणेशा गाने पर नाचने वाला लड़का बहुत अच्छा नाच रहा है। मैं पहचानता हूं उसे, वह बिजली मिस्त्री है। रोज पेचकस कमर में खोंसे शिवशक्ति इलेक्ट्रिकल्स पर बैठा रहता है। मुसलमान है।

अब किसी को फर्क नहीं पड़ा कि नाचने वाला लड़का किस धर्म का है। किसी को फर्क नहीं पड़ा कि दुर्गा जी ने जिस महिषासुर को मारा है मूर्ति में...उसकी जाति और उसके समुदाय को लेकर बौद्धिक तबका बहस में उलझा है। जनता को फर्क नही पड़ता कि दुर्गा ने किसको मारा है।

देश उत्सवधर्मियों का है, उत्सव मनाते हैं हम।

इसमें विचारधारा को मत घुसेडिए। दुर्गा पूजा को एक प्रतीक भर रहने दीजिए। इसके सामाजिक संदर्भों को देखिए, इसमें और समुदायों को मिलाइए...और सांप्रदायिकता, राम को सांप्रदायिक बना दिया है आपने, अब दुर्गा को भी मत बनाइए।

यह आम लोगों को उत्सव है...उत्सव ही रहे। ऑरकेस्ट्रा बजता रहे, सुर बाहर लगे, कोई दिक्कत नहीं, जय गणेसा पर नाचते रहें लोग...बस।

Thursday, September 21, 2017

शांतनु हत्याकांडः प्रधानमंत्री मोदी के नाम एक खुला खत

आदरणीय प्रधानमंत्री जी,

आप बेहद व्यस्त रहते हैं. आपको व्यस्त रहना चाहिए क्योंकि व्यस्त प्रधानमंत्री होने का सगुन देश के लिए अच्छा होता है. हम छोटे थे तो हमने एक और प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा के बारे में सुना था, और हमने अखबारों में पढ़ा था कि देवेगौड़ा कैबिनेट की बैठकों में झपकी लिया करते थे.

मोदी जी आप देवेगौड़ा नहीं हैं. आपने करीब 57 योजनाएं देश के लिए लागू की हैं. 2014 में जब चुनाव हो रहे थे तब पूरे देश के साथ मुझे भी उम्मीद थी कि आप देश के बदलने वाले कदम उठाएंगे. मुझे विकास, जीडीपी की वृद्धि दर, नोटबंदी, जनधन खातों और जीएसटी पर कुछ नहीं कहना है. मैं आपका ध्यान खींचना चाहता हूं पत्रकारों की हत्याओं की तरफ. त्रिपुरा के पत्रकार शांतनु भौमिक की हत्या हो गई है. नौजवान ही था. यह हत्या एक और पत्रकार की हत्या है.

वह नौजवान त्रिपुरा के एक लोकल चैनल का रिपोर्टर था. रिपोर्टर, जी हां, रिपोर्टर. वह संपादक नहीं था. वह किसी सरकार या पार्टी के लिए या उसके खिलाफ़ एजेंडा सेटर नहीं था. मुझे पता है कि शांतनु जैसों के लिए वामी आंदोलनकारी आंसू नहीं बहाएंगे, न फेसबुक पर अपनी डीपी बदलेंगे, न उसकी तस्वीर लेकर जंतर मंतर पर छाती पीटेंगे. कोई मोमबत्ती लेकर मार्च भी नहीं करेगा, क्योंकि वह किसी विचारधारा का प्रतिनिधित्व नहीं करता था. शांतनु की मौत पर किसी टीवी चैनल का स्क्रीन काला नहीं हुआ है.

लेकिन, यहीं आकर आपको ज़रा कदम बढ़ा देना होगा. प्रधानमंत्रीजी, आप तो लोकसभा में प्रवेश करने से पहले उसे मंदिर की तरह उसकी सीढ़ियों पर सिर नवाकर गए थे. लोकतंत्र का चौथा खंभा बुरी तरह हमलों से परेशान है. यह हमले पिछले तीन साल में कुछ ज्य़ादा हो गए हैं. 2014 और 2015 में 142 पत्रकारों पर हमले हुए हैं और यह राष्ट्रीय अपराध रेकॉर्ड्स ब्यूरो का आंकड़ा है.

2014 में पत्रकारों पर 114 घटनाएं हुई थीं उसमें 32 गिरफ्तारियां हुईं. यह आंकड़ा मेरा नहीं है, यह जानकारी गृह राज्यमंत्री हंसराज अहीर की दी हुई है. 1992 से लेकर आजतक पत्रकारों के काम के सीधे विरोध में 28 पत्रकारों की हत्या की जा चुकी है. यह आंकड़ा भी खामख्याली नहीं है. यह पत्रकारों की सुरक्षा के लिए बनी कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया है.

एनसीआरबी का एक और आंकड़ा है जिसमें कहा गया है कि पिछले 3 साल में 165 लोगों को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया है. जी नहीं, जम्मू-कश्मीर के पत्थरबाज या आतंकी होते तो मैं इस आंकड़े के पक्ष में खड़ा होता, इनमे ले 111 बिहार, झारखंड, हरियाणा और पंजाब से हैं.

ह्यूमन राइट्स वॉच (मैं इनके दुचित्तेपन से ऊब गया हूं) कहता है कि भारत में इस साल जून तक 20 दफा इंटरनेट बंद किया गया है. और प्रेस फ्रीडम सूचकांक में भारत 136वें पायदान पर है.

जिन 142 पत्रकारों पर हमले हुए हैं उस सिलसिले में अबतक एक भी आदमी गिरफ्तार नहीं हुआ है.

प्रधानमंत्री जी, आपके विकास और सुशासन के नाम पर जनता ने उमड़ कर वोट किया था. आप साबित कर दीजिए कि देश के करोड़ो लोगों का विश्वास मिथ्या नहीं था. मुझे आपके राजनीतिक फैसलों पर कुछ नहीं कहना है. लेकिन पत्रकारों पर हो रहे हमले विधि-व्यवस्था (हालांकि यह राज्य का विषय है) पर सवालिया निशान लगा रहे हैं. लेकिन 2014 के बाद से हमलों में आई तेजी से आपका नाम खराब हो रहा है. मुझे उम्मीद है कि आप पत्रकारों और चौथे खंभे के निचले स्तर पर काम करने वाले रिपोर्टर्स और मीडियाकर्मियों के लिए कल्याण और सुरक्षा का कोई कदम जरूर उठाएंगे.

प्रधानमंत्रीजी, शांतनु की हत्या पर कुछ कहिए, क्योंकि देश में जो थोड़ी बहुत पत्रकारिता बाक़ी हैं इन्हीं 'शांतनुओं' की बदौलत बची है.

एक पत्रकार



Thursday, September 14, 2017

ठर्रा विद ठाकुरः जलते हैं दुश्मन तो खिलते हैं फूल

गुड्डू भैया अपने दालान में लकड़ी की कुरसी पर उकडूं बैठे हुए थे. मेरे वहां जाते ही
चिल्लाएः ओ ठाकुर ब्रो, कम एंड हैव टी विद मी.
मैं चकरा गयाः भिया आज चौदह सितंबर है. हिंदी दिवस है आज अंग्रेजी क्यों छांट रहे हैं?गुड्डू मुस्कुरा उठे. बोले,
30 के फूल 80 की माला,
बुरी नजर वाले तेरा मुंह काला
अरे, भैया हिंदी को बचाने वाले दिन आप क्या सड़कछाप शायरी कर रहे हैं. यह तो ट्रक और ऑटो वगैरह पर लिखा होता है. आपको तो पंत-निराला-प्रसाद-बच्चन जैसो की बात करनी चाहिए. इनकी वजह से हिंदी बची हुई है.
गुड्डू ने गिलास में मौजूद सोमरस का लंबा घूंट भरा और कहाः हिंदी कौन सी मर रही है बे? बाजार में कामयाब होगी तो हिंदी बची रहेगी. तुम सेमिनार करके हिंदी नहीं बचा पाओगे. अगर हिंदी का सिनेमा चल रहा है, तो हिंदी बची हुई है. अगर ट्रक, बसों और ऑटो के पीछे हिंदी में कविताएं लिखी जा रही हैं तो समझो आम आदमी की हिंदी वही है. बाकी तुम जो कर रहे हो वह हिंदी की चिंदी है.
क्या बात कर रहे हैं आप, इन गाड़ियों पर लिखे की आप उच्चस्तरीय साहित्य से तुलना कर रहे हैं?उन्होंने तपाक से जवाब दिया: क्यों न करें? सड़क पर लिखी हर इबारत का अपना समाजशास्त्र होता है. देश में इतनी भीड़ है तो लिखाः
जय शिव शंकर, भीड़ ज़रा कम कर
देश में इतनी नफरत है कि गाड़ियों के पीछे लिखना पड़ाः
देखो मगर प्यार से
मुझे इससे फर्क नहीं पड़ता कि इन गाड़ियों पर लिखे कई जुमले बड़े पुराने और घिसे-पिटे हो चुके हैं. लेकिन तुम ड्राइवरों और कंडक्टरों में छिपे उस शायर के आगे क्यों सजदा नहीं करना चाहते जो ऐसी चीजों को चुनने की और उन्हें गाड़ी पर लिखवाने की नजर रखता है. तुम उनके अनगढ़ मगर सच्चे काव्यबोध से इत्तफाक क्यों नहीं रखते?
नीयत तेरी अच्छी है तो किस्मत तेरी दासी है
कर्म तेरे अच्छे हैं तो घर में मथुरा काशी है
या फिर यह देखो,
फानूस बनकर जीसकी हीफाजत हवा करे
वो शमां क्या बुझे जिसे रौशन खुदा करे
देखो ठाकुर, हिज्जे पर मत जाना पर सड़क के तनाव को कम करने में इन कविताओं का भारी योगदान है. रोड रेज से तपती सड़कों पर ये फुटकर शेर ठंडी छांव का काम करते हैं. हल्की, कच्ची और रूखी तुकबंदी ही सही, लेकिन कविता तो इन लाइनों में होती ही है. ये लोग अपने किस्म के कबीर हैं भाई. कहते तो थे कबीरः जो जो करूं सो पूजा. तो यह जो लिखें, सो कविता….
हमें जमाने से क्या लेना, हमारी गाड़ी ही हमारा वतन होगा
दम तोड़ देंगे स्टियरिंग पर, और तिरपाल ही हमारा कफन होगा…
यह क्या आत्मवंचना और दया नहीं है? क्या यह तुम्हारे साहित्य का के लघु मानव का बयान नहीं है? अनजान और अंदेशों से भरी लंबा यात्राओं में किस तरह ड्राइवर भाई सिर पर कफन बांध लेते हैं, इसका जायजा भी लोः
रात होगी, अंधेरा होगा और नदी का किनारा होगा
हाथ में स्टियरिंग होगा, बस मां का सहारा होगा….
पता नहीं यह पंक्ति जन्म देने वाली मां के लिए है या किसी देवी मां के लिए लेकिन उसके जोखिम कबूल करने का अंदाज तो देखो.चिलचिलाती धूप में जब तपते बोनट की बगल में बैठे ड्राइवरों-हेल्परों को देखो तो पता चलेगा कि सबसे मुश्किल, सबसे खानाबदोश नौकरी इनकी ही होती है. उनकी तकलीफ ‌सिर्फ जिस्मानी ही नहीं होती, उसमें बाल-बच्चों से दूर होने की टीस भी घुली मिली होती है… तुमने भी तो देखा ट्रकों के पीछे बनी तस्वीर में नदी किनारे एक युवती अपने घुटनों में सिर छिपाए बैठी है. साथ में लिखा होता है… घर कब आओगे…और शेर भी हैः
जब परदेस लिखा है किस्मत में
तब याद वतन की क्या करना…
भावनाओं की इस दुनिया में हमें भोगा हुआ यथार्थ और जीवन-दर्शन भी मिलता है, खूब सारी नसीहतें भी. कुल मिलाकर सड़कीय जीवन की सूक्तियां और सुभाषित हैं ये नारे, जिसमें 'स्ट्रीट-स्मार्ट विज़्डम' अर्थात गली-सुलभ बुद्धि है. सुनोः
अपनों से सावधान
दोस्ती पक्की, ख़र्चा अपना-अपना
मांगना है तो ख़ुदा से मांग बंदे से नहीं,
दोस्ती करनी है तो मुझसे कर, धंधे से नहीं.
देते हैं रब, सड़ते हैं सब,
पता नहीं क्यों.
'दुनिया मतलब की' जैसे नारे अगर ज़माने से ठोकर खाए लोगों का चीत्कार है, तो 'अपनों से बचकर रहेंगे, ग़ैरों को देख लेंगे' में एक साथ अपने अस्तित्व का निचोड़ है, तो धमकी भी.
मतलब की है दुनिया कौन किसी का होता है,
धोखा वही देते हैं जिन पर ऐतबार होता है.
नेकी कर जूते खा,
मैंने खाए तू भी खा.
ठाकुर, यह जो ट्रक-साहित्य है न, इसे हल्के में मत लो. इसमें विज़डम है तो मां-बाप जैसी हिदायतें भी. मोहल्लों में, जब ऑटो धीरे चल रहे होते हैं तो बच्चे उसमें लटकने की कोशिश करते हैं. उन्हें वैसे ही डांटा गया है, जैसे हमारे समाज में बच्चों को डांटते हैः
चल हट पीछे!
-लटक मत टपक जाएगा!
-लटक मत पटक दूंगी!
इसका एक झारखंडी संस्करण भी है:
बेटा छूले त गेले
सटले त घटले!
मुझे लगा कि गुड्डू को सही रास्ते पर लाने का यही एक वक्त है. उनसे शराब छुड़वाने वाली शायरियां बुलवा कर. मैंने कहाः भिया, आप शराब छोड़ दीजिए फिर तो, काहे कि गाड़ियों में हर जगह तो इसकी बुराई ही लिखी है.पीकर जो चलाएगा, परलोक को जाएगा
चलाएगा होश में तो ज़िंदगी भर साथ दूंगी,चलाएगा पीकर तो ज़िंदगी जला दूंगी.
बड़ी ख़ूबसूरत हूं नज़र मत लगाना,ज़िंदगी भर साथ दूंगी पीकर मत चलाना.
राम जन्म में दूध मिला, कृष्ण जन्म में घी,
कलयुग में दारू मिली, सोच समझ कर पी.
और भी है,
ऐ दूर के मुसाफ़िर, नशे में चूर गाड़ी मत चलाना।
बच्चे इंतजार में है, पापा वापस ज़रूर आना।।
गुड्डू हंसने लगे. इस ख़राब दुनिया में जो माशूकाएं दिल तोड़ती हैं तो पीसी बरुआ के देवदास से लेकर संजय लीला भंसाली के देवदास और अनुराग कश्यप के देवडी से मुझ जैसे आशिक तक, सहारा सिर्फ इसी मय का है ठाकुर. सुन लो,
शराब नाम ख़राब चीज़ है, जो कलेजे को जला देती है,
उसे बेवफ़ा से तो सही है, जो ग़म को भुला देती है.
ठाकुर तुम ख्वामखा शराब को बदनाम कर रहे हो. एक ट्रक के पीछे लिखा थाः
नशा शराब में होता तो नाचती बोतल.
और,
खुशबू फूल से होती है, चमन का नाम होता है,
निगाहें क़त्ल हैं, हुस्न बदनाम होता है.
बूझे? मैंने समझने का इशारा देते हुए सिर हिलाया. तो गुड्डू भैया बोले, जब तक आम आदमी के पास हिंदी जिंदा है तब तक हिंदी-फिंदी दिवस से कुछ नै होगा. हिंदी जिंदा है और जिंदा रहेगी. और तुम जो हर बात पर शराब की बुराई करते हो, जाओ पंकज उधास की आवाज में मशहूर गज़लें सुनोः जिसके बोल हैः
हुई महंगी बहुत ही शराब कि थोड़ी-थोड़ी पिया करो.
फूंक डाले जिगर को शराब, कि थोड़ी थोड़ी पिया करो...
मैं समझ गया कि गुड्डू भैया काले कंबल है. इन पर कोई रंग न चढ़ेगा. मैं जाने के लिए मुड़ा तो गुड्डू भैया कि आवाज़ आई. अऱे ठाकुर गुस्सा हो कर जा रहे हो, तो एक ट्रक साहित्य का शेर पेश-ए-नजर हैः
चलती है गाड़ी तो उड़ती है धूल
जलते हैं दुश्मन तो खिलते हैं फूल !

Tuesday, September 12, 2017

ठर्रा विद ठाकुरः हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर

पेड़ के नीचे बैठे गुड्डू भईया तकरीबन ध्यान की मुद्रा में थे. मैं गुजर रहा था तो सोचा चुपके से निकल लूं. आखिर गुड्डू भैया अभी ब्लेसिंग स्टेट में होंगे तत्व सेवन के बाद. सुबह-सुबह उठकर ह्विस्की के घूंट भर लेना गुड्डू जी की आदत थी और गुड्डू उसे आचमन कहते.

मेरे कदमों की आवाज सुनकर गुड्डू ने आंखें खोल दीः ठाकुर कहां भगे जा रहे हो, तनिक मैनाक पर विश्राम-सा कर लो. अब भागने की कोई राह न थी, मैं उनके कदमों में कुछ ऐसे बैठ लिया जैसे पुराने जमाने में छात्र गुरुओं के पैरों के पास बैठते थे. ज्ञान हासिल करने के लिए.

गुड्डू भैया अभी प्रकृतिस्थ हो पाते कि मैंने कहाः शिक्षक दिवस की मुबारकवाद हो गुड्डू भिया.

हैप्पी टीचर्स डे. मैं चौंका, अरे भिया आप और अंग्रेजी!

गुड्डू कुछ वैसे ही चौंके जैसे कबूतर की तरफ पत्थर उछालिए तो वह चौंकता हैः अबे ठाकुर, हम तो क्या चीज़ हैं चचा ग़ालिब तक अंग्रेजी के शौकीन थे. उनको तो एक स्कॉच से ऐसी मुहब्बत थी कि पटियाला नरेश के न्योते के बावजूद नहीं गए थे. वह स्कॉच सिर्फ दिल्ली छावनी में मिलती थी.

वह तो ठीक है गुड्डू भिया. आज शिक्षक दिवस के मौके पर भी शराबनोशी!

गुड्डू ने अपनी सींकिया काया को जितना मुमकिन था उतना फुलाकर कहाःल हर शब पिया ही करते हैं मय जिस कदर मिले...चचा ग़ालिब का ही कहा हुआ है. और तुम यह न दिवस वगैरह मना करके कैलेंडर मत बन जाओ. देखो यूं समझो कि जिस आदमी के लिए कुछ नहीं कर सकते उसका डे मना लो... सुनो कि एक दीवाने लेखक मंटो ने क्या लिखा है दुनिया में बड़े-बड़े सुधारक हुए हैं। उनकी शानदार शिक्षाएं भी रही हैं। शिक्षाएं वक्त के साथ घिस-मिट जाती हैं, खो जाती है। रह जाती हैं तो सलीबें, धागे, यज्ञोपवीत, दाढ़ियां, बग़लों के बाल...

लेकिन गुरुओं के योगदान को भुला सकता है कोई जीवन में?

क्यों भुलाएगा भाई? तुम्हारे जीवन में कोई ऐसा शिक्षक नहीं रहा जिसने तुमसे 27 का पहाड़ा न पूछा हो? खैर, जानना चाहते हो तो जानो कि शिक्षा का अधिकार कानून देशभर में अब तक नौ फीसदी से भी कम स्कूलों में लागू हो पाया है. यह कानून कहता है कि आठवीं तक तो सभी बच्चों को शिक्षा जरूरी तौर पर मुहैया कराई जाए. लेकिन यह तब होगा जब गांव-गांव स्कूल खुले, शिक्षकों की समस्याओं का समाधान हो, और शिक्षा व्यवस्था को मजबूत बनाया जाए.

देखो, देशभर में करीब 50 फीसदी शिक्षक संविदा आधारित हैं...संविदा नहीं समझते? ठेके पर काम करने वाले शिक्षक. चिंदी भर की तनख्वाह मिलती है, पिर क्या पढ़ाएगा वह? शुक्राचार्य, वृहस्पति और द्रोण को ठेके पर रखकर देखते तो कभी न दानव स्वर्ग जीत पाते, न देवता दानवों से स्वर्ग छीन पाते, न तुमको अर्जुन, भीम, युधिष्ठिर, दुर्योधन जैसे रणबांकुरे मिल पाते. संदीपनि सुखी थे तो कृष्ण वासुदेव बने. पढ़ाई लिखाई भी कोई अनुबंध और ठेके पर देने की चीज है? ऐसे करवाओगे देश के भविष्य का निर्माण?

गुरुओं को क्यों नाराज कर रहे हो तुम लोग? कबीर को सुनोः

कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥


गुड्डू भैया का सवाल सदी के सवाल की तरह छा गया. मैं चुप था कि गुड्डू भैया ज्ञानमुद्रा से वापस आएः पता है ह्विस्की की टीचर्स ब्रांड पौने दो सौ साल पुरानी है और इसको विलियम टीचर नाम के शख्स ने शुरू किया था.

मुझे नहीं मालूम था. मैंने कहाः आज के शिक्षक वेतन तो लेते है लेकिन पढ़ाने में फांकी मारते हैं.

गुड्डू उकडूं बैठ गएः देखो ठाकुर, हमारे यहां लोगों में यह गलतफहमी है कि शिक्षक को वेतन अधिक मिलता है, जबकि हालात इसके लट हैं. मौजूदा समय में देश के बजट का करीब 3.4 फीसदी शिक्षा पर खर्च किया जाता है. इसमें से करीब 65 फीसदी आमदनी सरकार को विविध उपकरों से होती है. यानी शिक्षा में हमारा खर्चा बहुत कम है. अच्छे वेतन की जो बात तुम कर रहे हो न, वैसे टीचर बहुत कम हैं...देशभर में 50 फीसदी शिक्षक वेतन से जूझ रहे हैं. जितने शिक्षक हैं उनमें से आधों को 6 हजार रु. से भी कम तनख्वाह मिलती है. शिक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिए गठित किये गये कोठारी आयोग ने इस बात की सिफारिश की थी कि शिक्षक का वेतन कम-से-कम इतना तो हो ही कि उसे किसी तरह की आर्थिक परेशानियों से जूझना नहीं पड़े. आयोग ने शिक्षकों को एक सम्मानित वेतन देने की बात कही थी. लेकिन, सल में उनका वेतन न्यूनतम मजदूरी के बराबर है. अनुबंध पर काम करने वाले अधिकतर शिक्षकों की ट्रेनिंग नहीं हुई है. देशभर में करीब 11 लाख शिक्षक ट्रेंड नहीं हैं तो बताओ क्या पढ़ाएं ये लोग?

मैं संतुष्ट नहीं हुआः भिया, मास्टर लोग स्कूल छोड़कर धनरोपनी कराने निकल जाते हैं..

गुड्डू भिया मुस्कुरा उठेः वेतन दोगे मजदूर वाला और काम द्रोणाचार्य का लोगे? खाली मास्टर लोगों से उम्मीद करोगे कि वह पढ़ाई के बीच में धनरोपनी कराने न जाए. ग्रामीण इलाकों में अब भी करीब 10 फीसदी स्कूल ऐसे हैं, जहां एकमात्र शिक्षक हैं.

बेचारे एक ही मास्टर को बच्चों की हाजिरी देखनी होती है, सारे विषय और वर्गों को पढ़ाना होता है, अब तो दुपहरिया में खाने का इंतजाम भी करवाना होता है. और सरकार! एनसीइआरटी जैसे सरकारी शिक्षा संस्थानों को मजबूत बनाने के बजाय सरकार शिक्षा के लिए प्राइवेट सेक्टर की ओर देख रही है, इससे बेड़ा गर्क ही होगा न..

पता है सरकार ने 5 दिसंबर 2016 को लोकसभा में शिक्षा के आंकड़े पेश किए थे. उसके मुताबिक, सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में 18 फीसदी और माध्यमिक विद्यालयों में 15 फीसदी शिक्षकों के पद खाली हैं. देश भर में कुल मिलाकर करीब 10 लाख शिक्षकों की कमी है. देश के 26 करोड़ स्कूली छात्रों का करीब 55 फीसदी हिस्सा सरकारी स्कूलों में पढ़ता है. सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में माध्यमिक स्कूलों की सर्वाधिक रिक्तियां झारखंड में है, जो कि 70 फीसदी है. इस राज्य में प्राथमिक स्कूलों के लिए यह आंकड़ा 38 फीसदी है. उत्तर प्रदेश में माध्यमिक शिक्षकों के आधे पद खाली हैं, जबकि बिहार और गुजरात में यह कमी एक-तिहाई है. 60 लाख शिक्षकों के पदों में करीब नौ लाख प्राथमिक स्कूलों में और एक लाख माध्यमिक स्कूलों में खाली हैं.

लेकिन ठाकुर, जनगणना करवाना हो, मुर्गी, मवेशी, सूअर गिनवाना हो, मिड डे मील का भोजन बनवाना हो, ...बिना छत वाले स्कूल में पढ़ाना हो, बिना ब्लैक बोर्ड और खड़िया के पढ़ाना हो...बीडीओ से लेकर पंचायत सदस्य तक की जूती चटवाना हो...सारे काम शिक्षकों से करवा लो...

इतने के बाद शिक्षक अगर जिंदा रहकर पढ़ा रहा है ना, तो इसके लिए इस देश के तमाम प्रतिभावान् और कामचोर दोनों वर्गों के शिक्षकों का मेरा नमन.

गुड्डू संजीदा हो गए. आज मैंने उनके लिए शेर पढ़ाः

आए थे हँसते खेलते मय-ख़ाने में 'फ़िराक़'
जब पी चुके शराब तो संजीदा हो गए


गुड्डू मुस्कुरा उठे, उनने अपने पैंताने छिपा रखी टीचर्स का एक खंभा निकाला और जोर से कहाः हैप्पी टीचर्स डे.



Friday, September 8, 2017

ठर्रा विद ठाकुरः एवरीबडी लव्स अ गुड बाढ़

एवरीबडी लव्स अ गुड बाढ़
ठर्रा विद ठाकुरः दूसरी किश्त 
(डिस्क्लेमरः पाठक अपना पव्वा-चखना साथ लाएं)

गुड्डू भैया पूरे ताव में थे. अपने छप्पर पर खड़े होकर जितना लाउडस्पीकर हुआ जा सकता था उतना होकर कृष्ण कल्पित की सूक्तिय़ों को चीखकर गा रहे थेः

स्वप्न है शराब!
जहालत के विरुद्ध
गरीबी के विरुद्ध
शोषण के विरुद्ध
अन्याय के विरुद्ध
मुक्ति का स्वप्न है शराब!

भाई गुड्डू आपने शराब को मुक्ति का स्वप्न बता दिया? गुड्डू ने इशारा किया कि 'इनकिलास जिंदाबाघ' कहने के लिए फूस की छत से मुफीद जगह कोई नहीं. गुड्डू आम आदमी थे और उनकी छत ही उनका मंच थी. हालांकि उनकी छत उनकी मजबूरी भी थी क्योंकि नीचे बाढ़ के पानी ने गजब का समां बांध रखा था और उनके घर का हर बरतन मछली हो चला था.

गुड्डू भैया तो महज नुमाइंदे हैं, जो यह सब झेल रहे हैं, वरना गुजरात, असम, पश्चिम बंगाल, ओडिशा समेत देश के 26 राज्य और केंद्रशासित क्षेत्र बाढ़-बारिश की चपेट में हैं और 508 जानें जा चुकी हैं, देश की 2.8 लाख हेक्टेयर फसली जमीन बाढ़ से आई आपदा की चपेट में है और 63 लाख से ज्यादा घर क्षतिग्रस्त हो गए हैं. सबसे ज्यादा जान-माल का नुक्सान इस बार गुजरात को उठाना पड़ा, जहां 200 से ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है.

ऐसा कैसे कह सकते हैं भिया?

गुड्डू ने जांघ पर जोर से तलहत्थी मारते हुए कहाः अपनी क्या औकात रे ठाकुर. इ तो कैग कह रहा है.

मेरा मन खिन्न हो गया. आदमी हर काम के लिए सरकार को दोषी क्यों ठहराता है? क्यों गुड्डू भिया, सरकार ने बाढ़ की सूचना देने के लिए टेलीमीट्री स्टेशन नहीं बनाए हैं?

बोतल में बची आखिरी बूंद को बोतल उल्टा करने के बाद उसे जीभ से हिलकोर कर चाटते हुए गुड्डू बोलेः बनाया क्यों नहीं है ठाकुर...बनाया तो है. लेकिन करीब 60 फीसदी स्टेशन काम ही नहीं कर रहे हैं. बारहवीं पंचवर्षीय योजना में 219 टेलीमीट्री स्टेशन लगाए जाने का लक्ष्य था. 2016 तक सिर्फ 56 स्टेशन ही लगाए गए. कुल 375 टेलीमीट्री स्टेशनों में से 222 ठप पड़े हैं, तो रियल टाइम डेटा के लिए एक ही जगह बचती हैः भगवान इंद्र का दफ्तर.

मैं अभी बहस खत्म करने के मूड में नहीं था. मैंने कहा गुड्डू भिया, तो क्या बाढ़ खत्म करने के लिए कोई उपाय नहीं किया गया है?

गुड्डू मेरी तरफ मुड़कर चुप हो गए. दो मिनट तक के नाटकीय सिनेमाई साइलेंस के बाद फूटेः शराब छोड़ दी तुमने कमाल है ठाकुर/ मगर ये हाथ में क्या लाल-लाल है ठाकुर

मेरे मुंह से वाह निकलने ही वाला था कि उन्होंने हाथ से रोक दिया. मेरे लिए वाह न करो, जाकर राहत इंदौरी के लिए वाह करो. उन्हीं का है.

मैं चुप.

देखो, संकट असल में पानी का नहीं, संवेदनशीलता का है. राज्य सरकारें और केंद्र एक पटरी पर चलते ही नहीं. अगस्त से लेकर सितंबर 2011 तक 20 दिनों में छत्तीसगढ़ और ओडिशा में भारी बारिश से महानदी का जलस्तर बढऩे की चेतावनी केंद्रीय जल आयोग ने कई बार जारी की थी लेकिन बांध के अफसरों ने ध्यान नहीं दिया और सितंबर में भारी बाढ़ आ गई, जिससे ओडिशा के 13 जिले प्रभावित हुए और दो हजार करोड़ रु. का आर्थिक नुकसान हुआ.

2014 में यही कहानी फिर दोहराई गई. नतीजा भी वही रहाः महानदी बेसिन में बाढ़ आ गई. जून 2013 में उत्तराखंड में अलकनंदा में बाढ़ की कोई पूर्वसूचना नहीं दी गई. मार्च 2016 तक 4,862 बड़े बांधों में से मात्र 349 (7 फीसदी) के लिए ही इमरजेंसी ऐक्शन प्लान/डिजास्टर मैनेजमेंट प्लान तैयार किया गया. इनमें से भी 231 (पांच फीसदी) में ही ऑपरेटिंग मैनुअल तैयार किया गया. उत्तर प्रदेश के 115 में से सिर्फ 2, मध्य प्रदेश के 898 में 2, महाराष्ट्र के 1,693 में से 181 जबकि ओडिशा, राजस्थान, तेलंगाना, त्रिपुरा, हरियाणा ने कोई इमरजेंसी ऐक्शन प्लान बनाया ही नहीं. 17 राज्यों और केंद्रशासित क्षेत्रों में से सिर्फ दो ने मॉनसून के पहले और बाद में बांधों का पूरी तरह निरीक्षण कराया जबकि 12 राज्यों में किसी तरह का कोई निरीक्षण नहीं हुआ.

मेरा मन दुखी हो गया. तो क्या बाढ़ से बचा नहीं जा सकता?

देखो, बाढ़ कत्तई नुकसानदेह नहीं. खेतों के लिए तो फायदेमंद है. लेकिन तब, जब जान-माल सुरक्षित बना लिया जाए. फिर भी, जानलेवा बाढ़ से बचने के उपायों में कई अड़ंगे हैं, जैसे बांध सुरक्षा विधेयक 2010 से लटका हुआ है. राष्ट्रीय जल नीति के अलावा महकमे बहुत बन गए हैं, जैसे केंद्र सरकार के अधीन-केंद्रीय जल आयोग, गंगा फ्लड कंट्रोल मिशन (1972), ब्रह्मपुत्र बोर्ड (1980), राष्ट्रीय बाढ़ आयोग (1976), टास्क फोर्स (2004) नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी और राज्यों में स्टेट टेक्निकल एडवाइजरी कमेटी, राज्य बाढ़ नियंत्रण बोर्ड आदि, फिर भी बाढ़ का पानी हर साल सिर चढ़कर बोलता है.

गुड्डू भैया इस बीच फूस की छत से उतर गए थे. और मेरी नाव पर आकर चढ़ गएः ठाकुर, पत्रकार आदमी हो, थोड़ी-थोड़ी पिया करो. सुनो कल्पित की ही बात, खासकर तेरे लिए,

देवदास कैसे बनता देवदास
अगर शराब न होती.
तब पारो का क्या होता
क्या होता चंद्रमुखी का
क्या होता
रेलगाडी की तरह
थरथराती आत्मा का?
बाढ़ उतर जाए, तो अगले हफ्ते आना. काले चने की घुघनी (छोले) के साथ हंडिया पीने की कला सिखाऊंगा. चलो, एक पटियाला बना दो अभी. 

(यह लेख आईचौक.कॉम में प्रकाशित हो चुका है)

Thursday, September 7, 2017

ठर्रा विद ठाकुरः पहली किस्त

ठर्रा विद ठाकुरः (अपना पव्वा साथ लाएं)
इंडिया@70 और घीसू का पसीना

(आईचौक पर 14 अगस्त को लिखा गया कॉलम)

आजादी का दिन आ रहा है. सत्तर साल बीत गए आजाद हुए. रामधारी सिंह दिनकर की बच्चों वाली वह कविता तो आपको याद ही होगी, जिसमें चूहा चुहिया से कहता हैः

सो जाना सब लोग लगाकर दरवाजे में किल्ली,
आज़ादी का जश्न देखने मैं जाता हूँ दिल्ली।

भारत में आम आदमी (पार्टी नहीं) कॉमन मैन ब्रो...की हैसियत चूहे जैसी है और बिल्लियों का उस पर राज है.

हमारे एक दोस्त हैं, गुड्डू भैया जो अपनी सींक-सरीखी काया में तब तक दारा सिंह होते हैं जब तक देसी का असर रहता है. इस मामले में पूरे देशभक्त हैं और उनका दावा है कि चाहे किसी की रगों रम का निवास हो उनकी धमनियों में कंट्री बहती है.
गुड्डू भैया आम आदमी हैं. तकरीबन अमिताभ के विजय दीनानाथ चौहान अवतार में आकार उसने हाथ नचाते हुए पूछा था मुझसेः क्या भाई, ये देश किसका है, आजादी किसकी है?

यह सवाल ऐसा शाश्वत है कि चाहे-अनचाहे सत्तर साल से देश का हर कोना एक बार और अमूमन कई बार पूछ ही लेता हैः आजादी किसकी है, किसके लिए है. जिसके लिए भी हो, हमारे आपके लिए आजादी का मतलब ही कुछ और है. अब जबकि हम पंद्रह अगस्त के पावन मौके पर फेसबुक, ट्वीटर और तमाम ऐसे ही सोशल साइट्स पर अपनी डीपी तिरंगा करने पर उतारू हैं, तमाम जगहों पर अपनी आजादी का जश्न मना रहे हैं.

फेसबुक पर लिखे, ट्वीट कीजिए, सराहा पर परदे के पीछे रहकर किसी को मन भर गरिया दीजिए, खुले में शौच जाइए, सड़क किनारे मूत्र-विसर्जन कीजिए..मल्लब हर तरीके से हम आजाद हैं. तो जैसी प्रजा वैसा राजा. नेताजी भी आजाद हैं. जब मन आए पार्टी बदलिए, अंतरात्मा बदलिए, जो जो मन हो सब बदलिए. दलाली खाइए. रोका किसने है, और कोई रोक भी कैसे पाएगा...

लेकिन यह गलत है. गुड्डू भैया चौथे पैग से हवा में उड़ने लगते हैः अब खरीद-फरोख्त के मामले में लोग दलाली नहीं खाएंगे तो क्या यज्ञ-हवन में खाएंगे? ...और दुनिया में बहुत सारे काम भविष्य सुरक्षित करने के लिए भी तो किए जाते हैं। कुछ लोग बचत करते हैं, कुछ बीमा करवाते हैं, कुछ अपने बेटे-बेटियों, नाती-पोतो के लिए घोटाले कर लेते हैं।

कुछ लोग आज फिर से बोफोर्स-बोफोर्स चिल्लाने लगे हैं. यह तो गलत है न ठाकुर. सरासर नाइंसाफी! बोफोर्स में 64 करोड़ का घोटाला हुआ था. इतने पैसे तो रेज़गारी के बराबर हैं। चिंदीचोरी जैसी बात है यह, और इस पर आप होहल्ला मचा रहे हैं। शराफत तो छू भी नहीं गई आपको! मधु कोड़ा को देखिए, उन पर 4000 करोड़ के घोटाले का आरोप है, लालू प्रसाद का चारा घोटाला तक 800 करोड़ का था।

ज़रा तुलना कीजिए। कुछ आंकड़े बता रहा हूं। आजादी के सत्तर बरस हुए अपने देश के, और तब से लेकर आज तक, भ्रष्टाचार की भेंट हुई रकम है, 462 बिलियन डॉलर। जी, यह रकम डॉलर में है। चूंकि हम हर बात पश्चिम से उधार लेते हैं, सो यह आंकड़ा भी उधर से ही है।

वॉशिंगटन की ग्लोबल फाइनेंसियल इंटीग्रेटी की रिपोर्ट के मुताबिक, आजादी के बाद से ही भ्रष्टाचार भारत की जड़ों में रहा है, जिसकी वजह से 462 बिलियन डॉलर यानी 30 लाख 95 हजार चार सौ करोड़ रूपये भारत के आर्थिक विकास से जुड़ नहीं पाए।

तो भ्रष्टाचार और घूसखोरी की हमारी इस अमूल्य विरासत पर, जो हमारी थाती रही है, आप सवाल खड़े कर रहे हैं? गुड्डू चौकी पर से नीचे उतर गए.

जब भी मैं भ्रष्टाचार की अपने देश की शानदार परंपरा का जिक्र करता हूं, हमेशा मुझे नेहरू दौर के जीप घोटाले से लेकर मूंदड़ा घोटाले, इंदिरा के दौर में मारुति घोटाले से लेकर तेल घोटाले, राजीव गांधी के दौर में बोफोर्स, सेंट किट्स, पीवी नरसिंह राव के दौर में शेयर घोटाला, चीनी घोटाला, सांसद घूसकांड, मनमोहन के दौर में टूजी से लेकर कोयला ब्लॉक आवंटन घोटाला याद आता है। यह एक ऐसी फेहरिस्त है, जिसको इतिहास हमेशा संदर्भ की तरह याद रखेगा।

संयोग देखिए, अब इसमें कुछ ऐसे लोगों के नाम भी जुड़ रहे हैं, जिनकी समृद्धि देखकर पूरा देश रश्क़ करता था. विजय नाम से याद आया, एक विजय था, जिसको ग्यारह मुल्कों की पुलिस खोज रही थी और दूसरा विजय है जिसको देश के बैंक प्रबंधक खोज रहे हैं.

बहरहाल, मेरा मानना है कि घोटालों पर संसद में चर्चा कराना टाइम खोटी करना है। आजादी के बाद से संसद में 322 घोटालों पर चर्चा हो चुकी है, नतीजा क्या निकला, मैं आज भी जान नहीं पाया हूं।

यकीन मानिए, नतीजे आ भी गए तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा. इस देश में 400 लोगों के पास चार्टड विमान हैं, 2985 परिवार अरबपति से भी अधिक हैं, देश के किसानों पर ढाई हज़ार करोड़ का कर्ज है और वह आत्महत्या करते हैं तो देश के 6 हजार उद्योगपतियों ने सवा लाख करोड़ का कर्ज ले रखा है. उनमें से कोई आत्महत्या नहीं करता.

पाठकों, घोटाले हुए हैं। यकीनन हुए हैं। यह भी पता है कि लिया किसने है? बस सुबूत नहीं हैं. और सुबूत मिल भी जाए तो क्या होगा?

चूहा दिल्ली में आजादी का जश्न देखने आएगा, बिल्ली पीछे सब चट कर जाएगी. कुछ बरस पहले एक योजना आयोग था. उसके उपाध्यक्ष भी थे. वह कहते थेः शहर के आदमी के लिए 32 रु. और गांव के आदमी के लिए 26 रु. रोजाना की आमदनी काफी है. उपाध्यक्ष महोदय औरंगजेब रोड (तब के) पर एक बंगले में रहते थे जिसकी कीमत इतनी थी कि अगर लॉन के घास के दाम भा लगाए जाते तो हर घास की कीमत 32 रु. से ज्यादा बैठती. अस्तु. आज सड़कें फटाफट तैयार हो रही हैं. इमारतें और मॉल्स चमचमा रहे हैं. दाल-टमाटर-प्याज की कीमत बढ़ने पर हो-हल्ला है लेकिन बढ़ी हुई कीमत किसान को नहीं मिलती. किसान अपनी पैदावार सड़क पर फेंक रहा है. वह सड़कों पर दूध उड़ेल रहा है. आजादी के मौके पर राजा की पालकी जाने वाली है. एलइडी बल्बों से रोशनायित सड़कें हीरे-मोती की तरह चमकती है. और इस हर मोती के पीछे घीसू का पसीना है.

आज आईचौक पर खड़े होकर एक शेर बहुत जोर से आ रहा हैः

न महलों की बुलंदी से न लफ़्ज़ों के नगीने से
तमद्दुन में निखार आता है घीसू के पसीने से।


चलो. चखना निकालो यार. लगता है चढ़ गई.