पूरब के महत्वपूर्ण और पवित्र माने जाने वाले त्योहार छठ का एक अभिन्न हिस्सा है नदी तालाबों में कमर भर पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देना. सूर्य शाश्वत है, पर समाज ने तालाबों और नदियों को बिसरा दिया है. तालाब-पोखरों और नदियों के अस्तित्व पर आया गंभीर संकट इसी बिसराए जाने का परिणाम है. अगस्त के महीने में आपने बिहार, असम और केरल जैसा राज्यों में भयानक बाढ़ की खबरें भी पढ़ी होंगी, ऐसे में अगर मैं यह लिखूं कि देश की बारहमासी नदियां अब मौसमी नदियों में बदल रही हैं और उनमें पानी कम हो रहा है तो क्या यह भाषायी विरोधाभास होगा? पर समस्या की जड़ कहीं और है.
क्या आपने पिछले कुछ बरसों से मॉनसून की बेढब चाल की ओर नजर फेरी है? बारिश के मौसम में बादलों की बेरुखी और फिर धारासार बरसात का क्या नदियों की धारा में कमी से कोई रिश्ता है? मूसलाधार बरसात के दिन बढ़ गए और रिमझिम फुहारों के दिन कम हो गए हैं. मात्रा के लिहाज से कहा जाए तो पिछले कुछ सालों में घमासान बारिश ज्यादा होने लगी है. पिछले 20 साल में 15 सेंटीमीटर से ज्यादा बारिश वाले दिनों में बढोतरी हुई है, लेकिन 10 सेमी से कम बारिश वाले दिनों की गिनती कम हो गई है.
तो मॉनसून की चाल में इस बदलाव का असर क्या नदियों की सेहत पर भी पड़ा है? एक आसान-सा सवाल हैः नदियों में पानी आता कहां से है? मॉनसून के बारिश से ही. और मूसलाधार बरसात का पानी तो बहकर निकल जाता है. हल्की और रिमझिम बरसात का पानी ही जमीन के नीचे संचित होता है और नदियों को सालों भर बहने का पानी मुहैया कराता है. लेकिन नदियों के पानी में कमी से उसका चरित्र भी बदल रहा है और बारहमासी नदियां अब मौसमी नदियों में बदलती जा रही हैं और यह घटना सिर्फ हिंदुस्तान में नहीं पूरी दुनिया की नदियों में देखी जा रही है.
दुनिया की सारी नदियों का बहाव जंगल के बीच से हैं. इसके चलते नदियां बची हैं. जहां नदियों के बेसिन में जंगल काटे गए हैं वहां नदियों में पानी कम हुआ है. नदियों को अविरल बहने के लिए पानी नहीं मिल रहा है. बरसात रहने तक तो मामला ठीक रहता है लेकिन जैसे ही बरसात खत्म होती है नदियां सूखने लग रही हैं. भूजल ठीक से चार्ज नहीं हो रही है. यह मौसमी चक्र टूट गया है.
पुणे की संस्था फोरम फॉर पॉलिसी डायलॉग्स ऑन वॉटर कॉन्फ्लिक्ट्स इन इंडिया का एक अध्ययन बताता है कि बारहों महीने पानी से भरी रहने वाली नदियों में पानी कम होते जाने का चलन दुनिया भर में दिख रहा है और अत्यधिक दोहन और बड़े पैमाने पर उनकी धारा मोड़ने की वजह से अधिकतर नदियां अब अपने मुहानों पर जाकर समंदर से नहीं मिल पातीं. इनमें मिस्र की नील, उत्तरी अमेरिका की कॉलरेडो, भारत और पाकिस्तान में बहने वाली सिंधु, मध्य एशिया की आमू और सायर दरिया भी शामिल है. अब इन नदियों की औकात एक पतले नाले से अधिक की नहीं रह गई है. समस्या सिर्फ पानी कम होना ही नहीं है, कई बारहमासी नदियां अब मौसमी नदियों में बदल रही हैं.
वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड ने पहली बार दुनिया की लंबी नदियों का एक अध्ययन किया है और इसके निष्कर्ष खतरनाक नतीजों की तरफ इशारा कर रहे हैं. मई, 2019 में प्रकाशित इस रिपोर्ट में कहा गया है कि धरती पर 246 लंबी नदियों में से महज 37 फीसदी ही बाकी बची हैं और अविरल बह पा रही हैं.
इस अध्ययन में आर्कटिक को छोड़कर बाकी सभी नदी बेसिनों में जंगलों की बेतहाशा कटाई हुई है. अमेज़न के वर्षावनों का वजूद ही अब खतरे में है. सिर्फ अमेज़न नदी पर 1500 से ज़्यादा पनबिजली परियोजनाएं हैं. विकास की राह में नदियों की मौत आ रही है.
इसकी मिसाल गंगा भी है. पिछले साल जून के दूसरे पखवाड़े में उत्तर प्रदेश के जलकल विभाग को एक चेतावनी जारी करनी पड़ी क्योंकि वाराणसी, प्रयागराज, कानपुर और दूसरी कई जगहों पर गंगा नदी का जलस्तर न्यूनतम बिंदु तक पहुंच गया था. इन शहरों में कई जगहों पर गंगा इतनी सूख चुकी थी कि वहां डुबकी लगाने लायक पानी भी नहीं बचा था. कानपुर में गंगा की धारा के बीच में रेत के बड़े-बड़े टीले दिखाई देने लगे थे. यहां तक कि पेयजल की आपूर्ति के लिए भैरोंघाट पंपिंग स्टेशन पर बालू की बोरियों का बांध बनाकर पानी की दिशा बदलनी पड़ी. गर्मियों में गंगा के जलस्तर में आ रही कमी का असर और भी तरीके से दिखने लगा था क्योंकि प्रयागराज, कानपुर और वाराणसी के इलाकों में हैंडपंप या तो सूख गए या कम पानी देने लगे थे.
पानी कम होने का ट्रेंड देश की लगभग हर नदी में है और नदी बेसिनों में बारिश की मात्रा में कमी भी है. हमने इस पर अभी ध्यान नहीं दिया तो बड़ी संपदा से हाथ धो देंगे.