हुआ यूं कि मिस्र का खलीफा नील नदी में हर साल आने वाले बाढ़ से बड़ा हैरान था. उसने एक साइंसदान को कहा कि वह नील नदी की बाढ़ से निबटने का कोई हल निकाले. वह वैज्ञानिक उन दिनों बसरा में था और उसने दावा किया कि नील नदी के बाढ वाले पानी को पोखरों और नहरों के जरिए नियंत्रित किया जा सकता है और उस पानी को गर्मी के सूखे दिनों में इस्तेमाल किया जा सकता है.
अपना यह सुझाव लेकर, वह वैज्ञानिक काहिरा आया, और तब जाकर उसे यह इल्म हुआ कि इंजीनियरिंग के लिहाज से उसका सिद्धांत अव्यावहारिक है. लेकिन मिस्र के क्रूर और हत्यारे खलीफा के सामने अपनी गलती मान लेना, अपने गले में फांसी का फंदा खुद डालने जैसा ही था, ऐसे में उस वैज्ञानिक ने तय किया कि सजा से बचने के लिए वह खुद को पागल की तरह पेश करे.
नतीजतन, खलीफा ने उसे मौत की सजा तो नहीं दी, लेकिन उसको उसी के घर में नजरबंद कर दिया. उस वैज्ञानिक को मनमांगी मुराद मिल गई. अकेलापन और पढ़ने के लिए बहुत कुछ.
दस साल बाद जब उस खलीफा की मौत हुई, तब जाकर वैज्ञानिक छूटा. यह वापस बगदाद लौट गया और तब तक उसके पास बहुत सारे ऐसे सिद्धांत थे, जिसने उसे दुनिया का पहला सच्चा वैज्ञानिक बना दिया.
उस वैज्ञानिक का नाम था, इब्न अल-हैतम जिसने दस साल की नजरबंदी के दौरान भौतिकी और गणित के सौ से अधिक काम पूरे कर लिए थे.
हम सब जानते हैं और पढ़ते आ रहे हैं कि सर आइजक न्यूटन ही दुनिया के अब तक के सबसे महान वैज्ञानिक हुए हैं, खासकर भौतिकी (फिजिक्स) की दुनिया में उनका योगदान अप्रतिम है.
सर आइजक न्यूटन को आधुनिक प्रकाशिकी (ऑप्टिक्स) का जनक भी कहा जाता है. न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण और गतिकी के अपने नियमों के अलावा लेंसों और प्रिज्म के अपने कमाल के प्रयोग किए थे. हम सबने ने अपने स्कूली दिनों में, प्रकाश के परावर्तन और अपवर्तन के उनके अध्ययन के बारे में जाना है और यह भी कि प्रिज्म से होकर गुजरने पर प्रकाश सात रंगों वाले इंद्रधनुष में बंटकर दिखता है.
लेकिन, न्यूटन ने भी प्रकाशिकी के अपने अध्ययन के लिए एक मुस्लिम वैज्ञानिक की खोजों का सहारा लिया है जो न्यूटन से भी सात सौ साल पहले हुए थे.
वैसे, आमतौर पर यही माना जाता है, और खासतौर पर विज्ञान के इतिहास की चर्चा करते समय यही कहा जाता है कि रोमन साम्राज्य के उत्कर्ष के दिनों के बाद और आधुनिक यूरोप के रेनेसां (नवजागरण) की बीच की अवधि में कोई खास वैज्ञानिक खोजें नहीं हुईं. पर यह एकतरफा बात है और जाहिर है, भले ही यूरोप अंधकार युग में रहा हो, पर यह जरूरी नहीं है कि बाकी दुनिया में भी ज्ञान के मामलें में अंधेरा छाया था. असल में, यूरोप के अलावा बाकी जगहों पर बदस्तूर वैज्ञानिक खोजें चल रही थीं.
अरब प्रायद्वीप के इलाके की बात करें तो नवीं से तेरहवीं सदी के बीच का दौर वैज्ञानिक खोजों के लिहाज से सुनहरा दौर माना जा सकता है.
इस दौर में गणित, खगोल विज्ञान, औषधि, भौतिकी, रसायन और दर्शन के क्षेत्र में बहुत प्रगति हुई. इस अवधि के बहुत सारे विद्वानों और वैज्ञानिकों में एक नाम था इब्न अल-हैतम का, जिनका योगदान सबसे बड़ा माना जा सकता है.
अल-हसन इब्न अल-हैदम का जन्म 965 ईस्वी में इराक में हुआ था और उन्हें आधुनिक वैज्ञानिक तौर-तरीकों का जनक माना जाता है.
आमतौर पर माना जाता है कि वैज्ञानिक तौर-तरीकों से खोज करने में घटनाओं की परख, नई जानकारी हासिल करना या पहले से मौजूद जानकारी को ठीक करना या उसे प्रेक्षणों तथा मापों के आंकड़ों के आधार पर फिर से साबित करना, संकल्पनाएं नाकर उनके आंकड़े जुटाना है और इस तरीके की स्थापना का श्रेय 17वीं सदी में फ्रांसिस बेकन और रेने डिस्कार्तिया ने की थी, पर इब्न अल-हैतम यहां भी इनसे आगे हैं.
प्रायोगिक आंकड़ों पर उनके जोर और एक के आधार पर कहा जा सकता है कि इब्न अल-हैदम ही इस ‘दुनिया के पहले सच्चे वैज्ञानिक’ थे.
इब्न अल-हैदम ही पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने यह बताया कि हम किसी चीज को कैसे देख पाते हैं.
उन्होंने अपने प्रयोगों के जरिए यह साबित किया कि कथित एमिशन थ्योरी (जिसमें बताया गया था कि हमारी आंखों से चमक निकलकर उन चीजों पर पड़ती है जिन्हें हम देखते हैं) जिसे प्लेटो, यूक्लिड और टॉलमी ने प्रतिपादित किया था, गलत है. इब्न अल-हैदम ने स्थापित किया कि हम इसलिए देख पाते हैं क्योंकि रोशनी हमारे आंखों के अंदर जाती है. उन्होंने अपनी इस बात को साबित करने के लिए गणितीय सूत्रों का सहारा लिया था. इसलिए उन्हें पहला सैद्धांतिक भौतिकीविद भी कहा जाता है.
लेकिन इब्न अल-हैदम की प्रसिद्धि पिन होल कैमरे की खोज के लिए अधिक है और इसतरह उनके हिस्से में प्रकाश के अपवर्तन (रिफ्रैक्शन) के नियम की खोज का श्रेय भी आना चाहिए. इब्न अल-हैदम ने प्रकाश के प्रकीर्णन (डिस्पर्शन) की खोज भी की कि किसतरह प्रकाश विभिन्न रंगों में बंट जाता है. इब्न अल-हैदम ने छाया, इंद्रधनुष और ग्रहणों का अध्ययन भी किया और उन्होंने यह भी बताया कि पृथ्वी के वायुमंडल से किस तरह प्रकाश का विचलन होता है. इब्न अल-हैदम ने वायुमंडल की ऊंचाई भी तकरीबन सही मापी और उनके मुताबिक पृथ्वी के वायुमंडल की ऊंचाई करीबन 100 किमी है.
कुछ जानकारों का कहना है कि इब्न अल-हैतम ने ही ग्रहों की कक्षाओं की व्याख्या की थी, और उनकी इसी बात के आधार पर बाद में कॉपरनिकस, गैलीलियो, केपलर और न्यूटन ने ग्रहों की गतिकी का सिद्धांत दिया.
(यह लेख इल्म की दुनिया सीरीज का हिस्सा है)
Sunday, August 29, 2021
Sunday, June 13, 2021
क्या आप डॉ बुशरा अतीक को जानते हैं?
डॉ. बुशरा अतीक कई मायनों में प्रेरणास्रोत हैं. पहली बात तो यही कि वह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की छात्रा रही हैं और उन्हें पिछले साल 2020 में भारत के सबसे प्रतिष्ठित विज्ञान पुरस्कार शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार दिया गया है. उन्हें यह पुरस्कार मेडिकल साइंस के क्षेत्र में उनके अहम योगदान के लिए दिया गया है.
यह योगदान छोटा-मोटा नहीं है.
आइआइटी कानपुर में डिपार्टमेंट ऑफ बायोलजिकल साइंसेज ऐंड बायोइंजीनियरिंग में प्रोफेसर बुशरा अतीक की अगुआई में कई संस्थानों को मिलाकर बनी टीम ने एक अध्ययन किया और कैंसर के 15 फीसद मरीजों पर असर डालने वाले बेहद आक्रामक स्पिंक 1-पॉजिटिव (SPINK1-positive) प्रोस्टेट कैंसर के एक सब-टाइप की मॉलेक्यूलर मैकेनिज्म और उसकी पैथोबायोलजी का पता लगा लिया.
डॉ अतीक ने अपनी बीएससी, एमएससी और पीएचडी का पढ़ाई अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के डिपार्टमेंट ऑफ जूलॉजी से की. बाद में यूनिवर्सिटी ऑफ मिशीगन के मिशीगन सेंटर फॉर ट्रांसलेशनल पैथोलजी में उन्होंने डॉ अरुल चिन्नैय्या के तहत पोस्टडॉक्टोरल फेलो के रूप में प्रशिक्षण हासिल किया.
डॉ अतीक के शोध में कैंसर बायोमार्कर्स, कैंसर जीनोमिक्स, नॉन-कोडिंग आरएनए, ड्रग टारगेट और प्रोस्टेट कैंसर जैसे विषय शामिल हैं.
उनका काम प्रोस्टेट, स्तन और बड़ी आंत के कैंसर पर केंद्रित है. उनका शोध कैंसर बायोमार्कर और मॉलेक्यूलर बदलावों पर आधारित है जिससे प्रोस्टेट और स्तन कैंसर में बढ़ोतरी होती है.
वेबसाइट फर्स्टपोस्ट को दिए अपने इंटरव्यू में वह कहती हैं, “हमारी प्रयोगशाला कैंसररोधी उपचार के टारगेट्स की खोज करना चाहती है.” वह साथ में कहती हं कि इन टारगेट्स की पहचान से कैंसर का जल्दी ही पता लगाया जा सकेगा, और यह बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि जल्दी से पता लगने से कामयाबी के साथ उपचार होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं.
2019 में, डॉ. अतीक ने उस टीम की अगुआई कर रही थी जिसने जिसने स्पिंक1 पॉजिटिव प्रोस्टेट कैंसर सबटाइप के आणविक तंत्र और रोगविज्ञान को खोज निकाला. डॉ अतीक ने अंग्रेजी अखबार द हिंदू को बताया, "हमने पाया कि EZH2 प्रोटीन का बढ़ा हुआ स्तर SPINK1 पॉजिटिव कैंसर में इन दो माइक्रोआरएनए के संश्लेषण में कमी को ट्रिगर करता है. और दो माइक्रोआरएनए के निम्न स्तर बदले में SPINK1 के अधिक उत्पादन की ओर ले जाते हैं.,
उन्होंने सीएसआइआर-सेंट्रल ड्रग रिसर्च इंस्टीट्यूट, लखनऊ और कनाडा, अमेरिका और फिनलैंड के प्रोस्टेट कैंसर पर काम करने वाले अन्य समूहों के सहयोग से आइआइटी कानपुर के अन्य शोधकर्ताओं के साथ हाल के एक अध्ययन में इस बात का पता लगाया कि एंड्रोजन डिप्रिवेशन थेरेपी, जिसका उपयोग प्रोस्टेट के उपचार के लिए किया जाता है, वह इसे ठीक करने के बजाय इसे बढ़ा देता है. प्रोफेसर अतीक ने रिसर्च मैटर्स को बताया, “फिलहाल, प्रोस्टेट कैंसर के रोगियों के लिए एण्ड्रोजन डिप्रिवेशन थेरेपी के व्यापक उपयोग को देखते हुए, हमारे निष्कर्ष खतरनाक हैं. प्रोस्टेट कैंसर के रोगियों को एंटी-एंड्रोजन थेरेपी देने से पहले काफी सोच-विचार लेना चाहिए.”
अब बुशरा भारतीय आबादी के म्युटेशनल परिदृश्य को जीन सीक्वेंसिंग के जरिए खोजना चाहती हैं. इसके साथ ही वह ऐसी विधि भी खोज निकालना चाहती हैं जिसके तहत प्रोस्टेट कैंसर के खास बायोमार्कर्स विकसित किए जा सकें और जिसकी पहचान महज यूरिन टेस्ट के जरिए ही हो सके. अभी प्रोस्टेट ग्रंथि में 12 छेद मोटी सुइयों से करके बायोप्सी की जाती है और तब उस कैंसर का पता लगाया जाता है. उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में कहा भी है, “बायोप्सी होते देखना ही काफी दर्दनाक है, और इस वजह से मुझे लगता है कि कोई खून के परीक्षण या यूरिन बेस्ड जांच का तरीका खोजा जाना चाहिए.” डॉ अतीक को लगता है कि प्रोस्टेट कैंसर की जांच के लिए यूरिन टेस्ट में बायोमार्कर्स खोजे जा सकते हैं.
भारत के सबसे बड़े विज्ञान पुरस्कार के बाद डॉ बुशरा अतीक के लिए उनका महिला होना मायने नहीं रखता. लेकिन करियर की शुरुआत में उनके एक सहपाठी ने उन्हें अंडर-ग्रेजुएट कॉलेज में टीचर बनने की सलाह दी थी. जाहिर है, डॉ. बुशरा ने उसकी बात को तवज्जो नहीं दी थी.
आज भी उनकी सलाह यही है, धीरज रखो और आलोचनाओं को आड़े न आने दो.
लगता तो यही है कि भारतीय विज्ञान का भविष्य डॉ बुशरा अतीक जैसे वैज्ञानिकों के हाथ मे सुरक्षित है.
यह योगदान छोटा-मोटा नहीं है.
आइआइटी कानपुर में डिपार्टमेंट ऑफ बायोलजिकल साइंसेज ऐंड बायोइंजीनियरिंग में प्रोफेसर बुशरा अतीक की अगुआई में कई संस्थानों को मिलाकर बनी टीम ने एक अध्ययन किया और कैंसर के 15 फीसद मरीजों पर असर डालने वाले बेहद आक्रामक स्पिंक 1-पॉजिटिव (SPINK1-positive) प्रोस्टेट कैंसर के एक सब-टाइप की मॉलेक्यूलर मैकेनिज्म और उसकी पैथोबायोलजी का पता लगा लिया.
डॉ अतीक ने अपनी बीएससी, एमएससी और पीएचडी का पढ़ाई अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के डिपार्टमेंट ऑफ जूलॉजी से की. बाद में यूनिवर्सिटी ऑफ मिशीगन के मिशीगन सेंटर फॉर ट्रांसलेशनल पैथोलजी में उन्होंने डॉ अरुल चिन्नैय्या के तहत पोस्टडॉक्टोरल फेलो के रूप में प्रशिक्षण हासिल किया.
डॉ अतीक के शोध में कैंसर बायोमार्कर्स, कैंसर जीनोमिक्स, नॉन-कोडिंग आरएनए, ड्रग टारगेट और प्रोस्टेट कैंसर जैसे विषय शामिल हैं.
उनका काम प्रोस्टेट, स्तन और बड़ी आंत के कैंसर पर केंद्रित है. उनका शोध कैंसर बायोमार्कर और मॉलेक्यूलर बदलावों पर आधारित है जिससे प्रोस्टेट और स्तन कैंसर में बढ़ोतरी होती है.
वेबसाइट फर्स्टपोस्ट को दिए अपने इंटरव्यू में वह कहती हैं, “हमारी प्रयोगशाला कैंसररोधी उपचार के टारगेट्स की खोज करना चाहती है.” वह साथ में कहती हं कि इन टारगेट्स की पहचान से कैंसर का जल्दी ही पता लगाया जा सकेगा, और यह बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि जल्दी से पता लगने से कामयाबी के साथ उपचार होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं.
2019 में, डॉ. अतीक ने उस टीम की अगुआई कर रही थी जिसने जिसने स्पिंक1 पॉजिटिव प्रोस्टेट कैंसर सबटाइप के आणविक तंत्र और रोगविज्ञान को खोज निकाला. डॉ अतीक ने अंग्रेजी अखबार द हिंदू को बताया, "हमने पाया कि EZH2 प्रोटीन का बढ़ा हुआ स्तर SPINK1 पॉजिटिव कैंसर में इन दो माइक्रोआरएनए के संश्लेषण में कमी को ट्रिगर करता है. और दो माइक्रोआरएनए के निम्न स्तर बदले में SPINK1 के अधिक उत्पादन की ओर ले जाते हैं.,
उन्होंने सीएसआइआर-सेंट्रल ड्रग रिसर्च इंस्टीट्यूट, लखनऊ और कनाडा, अमेरिका और फिनलैंड के प्रोस्टेट कैंसर पर काम करने वाले अन्य समूहों के सहयोग से आइआइटी कानपुर के अन्य शोधकर्ताओं के साथ हाल के एक अध्ययन में इस बात का पता लगाया कि एंड्रोजन डिप्रिवेशन थेरेपी, जिसका उपयोग प्रोस्टेट के उपचार के लिए किया जाता है, वह इसे ठीक करने के बजाय इसे बढ़ा देता है. प्रोफेसर अतीक ने रिसर्च मैटर्स को बताया, “फिलहाल, प्रोस्टेट कैंसर के रोगियों के लिए एण्ड्रोजन डिप्रिवेशन थेरेपी के व्यापक उपयोग को देखते हुए, हमारे निष्कर्ष खतरनाक हैं. प्रोस्टेट कैंसर के रोगियों को एंटी-एंड्रोजन थेरेपी देने से पहले काफी सोच-विचार लेना चाहिए.”
अब बुशरा भारतीय आबादी के म्युटेशनल परिदृश्य को जीन सीक्वेंसिंग के जरिए खोजना चाहती हैं. इसके साथ ही वह ऐसी विधि भी खोज निकालना चाहती हैं जिसके तहत प्रोस्टेट कैंसर के खास बायोमार्कर्स विकसित किए जा सकें और जिसकी पहचान महज यूरिन टेस्ट के जरिए ही हो सके. अभी प्रोस्टेट ग्रंथि में 12 छेद मोटी सुइयों से करके बायोप्सी की जाती है और तब उस कैंसर का पता लगाया जाता है. उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में कहा भी है, “बायोप्सी होते देखना ही काफी दर्दनाक है, और इस वजह से मुझे लगता है कि कोई खून के परीक्षण या यूरिन बेस्ड जांच का तरीका खोजा जाना चाहिए.” डॉ अतीक को लगता है कि प्रोस्टेट कैंसर की जांच के लिए यूरिन टेस्ट में बायोमार्कर्स खोजे जा सकते हैं.
भारत के सबसे बड़े विज्ञान पुरस्कार के बाद डॉ बुशरा अतीक के लिए उनका महिला होना मायने नहीं रखता. लेकिन करियर की शुरुआत में उनके एक सहपाठी ने उन्हें अंडर-ग्रेजुएट कॉलेज में टीचर बनने की सलाह दी थी. जाहिर है, डॉ. बुशरा ने उसकी बात को तवज्जो नहीं दी थी.
आज भी उनकी सलाह यही है, धीरज रखो और आलोचनाओं को आड़े न आने दो.
लगता तो यही है कि भारतीय विज्ञान का भविष्य डॉ बुशरा अतीक जैसे वैज्ञानिकों के हाथ मे सुरक्षित है.
Wednesday, May 26, 2021
शख्सियतः पूर्वोत्तर के चाणक्य हेमंत विस्व सरमा
शख्सियत । हेमंत विस्व सरमा
मंजीत ठाकुर
बहुत साल हुए, हेमंत विस्व सरमा ने एक असमिया फिल्म में बाल कलाकार के तौर पर अपने अभिनय कैरियर की शुरुआत की थी. अभिनेता वाला कैरियर उतना नहीं चला, पर बतौर नेता हेमंत विस्व सरमा वाकई पूर्वोत्तर के चाणक्य की भूमिका में मशहूर हो गए हैं और 10 मई, 2021 सोमवार की दुफहरिया में उन्होंने असम के मुख्यमंत्री का ताज भी पहन ही लिया.
हेमंत विस्व सरमा इसकी तलाश में न जाने कब से थे.
असम के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने लगातार दूसरी बार जीत हासिल की है. पिछली बार असम की कुरसी केंद्र से असम भेजे गए सर्बानंद सोनोवाल को मिल गई थी और इस बार यह पद मिला सरमा को. सोनोवाल और सरमा के बीच सियासी तनातनी बनी रहेगी और दोनों के बीच यह प्रतिस्पर्धा पुरानी है, तब से, जब दोनों ही 1980 के दशक में ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन के सदस्य थे.
बहरहाल, 23 अगस्त, 2015 को जब तिवा स्वायत्त परिषद में कांग्रेस के अच्छे प्रदर्शन वाले नतीजे एक दिन पहले ही आए थे और सरमा ने ट्वीट करके कांग्रेस को बधाई दी, उस समय तक किसी को यह इल्म नहीं था कि सरमा भाजपा में शामिल होने वाले थे. क्षेत्रीय न्यूज चैनलो में भी खबर यही चल रही थी कि भाजपा के असम प्रदेश अध्यक्ष सिद्धार्थ भट्टाचार्य पार्टी के खराब प्रदर्शन की वजह से पार्टी अध्यक्ष अमित शाह से शाम में मिलेंगे और कयास लगाए गए कि भट्टाचार्य अपना इस्तीफा सौंपेंगे.
लेकिन कहानी दूसरी थी.
उसी शाम हेमंत विस्व सरमा कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए थे. यह हैरतअंगेज था क्योंकि लंबे अरसे तक सरमा असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के दाहिने हाथ माने जाते थे और जानकारों का मानना है कि 2011 में असम में कांग्रेस की जीत की रणनीति खुद सरमा ने तैयार की थी. सरमा को शायद गोगोई के बाद मुख्यमंत्री की कुरसी मिलने की उम्मीद थी.
पर, तरुण गोगोई शायद वंशवाद में यकीन रखते थे और उन्होंने अपने बेटे गौरव गोगोई को बतौर वारिस पेश किया तो सरमा का संयम टूट गया. बाद में, सरमा ने मीडिया के सामने इंटरव्यू में कहा कि वह जब कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी से मिलने पहुंचे थे तो कांग्रेस नेता का ध्यान उनसे अधिक अपने कुत्ते पर था. असल में, अपने सियासी उस्ताद तरुण गोगोई से सरमा की तनातनी चार साल से अधिक समय तक चली थी और उस जंग में राहुल गांधी ने गोगोई का पक्ष लिया था और सरमा उसी बाबत गांधी से बात करने आए थे. सरमा ने खुद ट्वीट करके यह बताया था कि जब कांग्रेस उपाध्यक्ष (राहुल गांधी) के साथ असम के अहम मसलों पर वह बातचीत चाहते थे, उस वक्त राहुल अपने पालतू कुत्ते को बिस्किट खिलाने में व्यस्त थे.
उस वक्त की मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, असम के सात में से छह भाजपा सांसद सरमा को पार्टी में लाने के खिलाफ थे. तो फिर नेतृत्व कैसे तैयार हुआ?
क्योंकि भाजपा नेतृत्व को सरमा के रणनीतिक कौशल पर पूरा भरोसा हो गया था. सरमा के पास गजब का राजनैतिक प्रबंधन और चुनावी कारीगरी तो है ही, सूबे भर में उनकी लोकप्रियता भी है. असल में, भाजपा नेतृत्व जानता था कि 2010 और 2014 में असम राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस के पक्ष में भाजपा विधायकों की तरफ से सरमा ने ही क्रॉस वोटिंग करवाई थी. भाजपा अब इस कारीगरी का अपने लिए इस्तेमाल करना चाहती थी.
2006 से 2014 के बीच स्वास्थ्य मंत्री के रूप में जालुकबारी से तीन बार विधायक रहे सरमा ने कई लोकप्रिय कदम उठाए, जिनमें 24 घंटे की एंबुलेंस सेवा और ग्रामीण अस्पतालों में डॉक्टरों की मौजूदगी की अनिवार्यता शामिल थे. इसी तरह 2011 से 2014 तक शिक्षा मंत्री के रूप में उन्होंने स्कूली शिक्षकों की भर्ती की एक पारदर्शी प्रक्रिया पेश की जिसकी परिणति लगभग दो लाख नई भर्तियों में हुई.
जाहिर है, सरमा की इस लोकप्रियता से गौरव गोगोई असुरक्षित महसूस करने लगे थे. इस बार असम की 126 विधानसभा सीटों में भाजपा ने 75 सीटों पर जीत हासिल की है और हेमंत विस्व सरमा ने जालुकबाड़ी सीट पर लगातार पांचवीं बार जीत दर्ज की है.
हेमंत विस्वा सरमा 1990 के दशक में कांग्रेस में शामिल हुए थे और 2001 में पहली बार उन्होंने गुवाहाटी के जालुकबाड़ी से चुनाव लड़ा. उन्होंने यहां असम गण परिषद के नेता भृगु कुमार फुकन को हराया और उसके बाद से इस सीट पर सरमा अजेय बने हुए हैं.
कांग्रेस में रहते हुए सरमा ने शिक्षा, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण, कृषि, योजना और विकास, पीडब्ल्यूडी और वित्त जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालयों का काम संभाला है.
बहरहाल, सरमा का भाजपा में आना पूर्वोत्तर में उसके लिए भाग्योदय जैसा हुआ है. सरमा के पास न सिर्फ असम की, बल्कि पूरे पूर्वोत्तर की अच्छी समझ है. वह बीते 19 साल से सरकार में मंत्री रहे हैं इसलिए उनके पास प्रशासन का भी अगाध अनुभव है.
असल में मुख्यमंत्री बदले जाएंगे इसका आभास तो तभी हो गया था, जब भाजपा ने चुनाव से पहले अपने मुख्यमंत्री पद उम्मीदवार की घोषणा नहीं की थी. आमतौर पर भाजपा अपने सत्तासीन राज्यों में ऐसा नहीं करती.
बहरहाल, हेमंत विस्व सरमा की कहानी में वह मंजिल आ ही गई जिसके लिए उन्होंने गोगोई पिता-पुत्र के खिलाफ बगावत की थी. जानकार बताते हैं कि 23 अगस्त को भाजपा में सरमा के शामिल होने के बाद राहुल गांधी ने बजरिए अहमद पटेल अपना निजी फोन नंबर सरमा को भिजवाया था. राहुल गांधी को सरमा ने फोन नहीं किया, क्योंकि सरमा का सिद्धांत है, पलटकर नहीं देखना.
असम कांग्रेस वाकई सरमा को खोकर पछता रही होगी.
मंजीत ठाकुर
बहुत साल हुए, हेमंत विस्व सरमा ने एक असमिया फिल्म में बाल कलाकार के तौर पर अपने अभिनय कैरियर की शुरुआत की थी. अभिनेता वाला कैरियर उतना नहीं चला, पर बतौर नेता हेमंत विस्व सरमा वाकई पूर्वोत्तर के चाणक्य की भूमिका में मशहूर हो गए हैं और 10 मई, 2021 सोमवार की दुफहरिया में उन्होंने असम के मुख्यमंत्री का ताज भी पहन ही लिया.
हेमंत विस्व सरमा इसकी तलाश में न जाने कब से थे.
असम के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने लगातार दूसरी बार जीत हासिल की है. पिछली बार असम की कुरसी केंद्र से असम भेजे गए सर्बानंद सोनोवाल को मिल गई थी और इस बार यह पद मिला सरमा को. सोनोवाल और सरमा के बीच सियासी तनातनी बनी रहेगी और दोनों के बीच यह प्रतिस्पर्धा पुरानी है, तब से, जब दोनों ही 1980 के दशक में ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन के सदस्य थे.
बहरहाल, 23 अगस्त, 2015 को जब तिवा स्वायत्त परिषद में कांग्रेस के अच्छे प्रदर्शन वाले नतीजे एक दिन पहले ही आए थे और सरमा ने ट्वीट करके कांग्रेस को बधाई दी, उस समय तक किसी को यह इल्म नहीं था कि सरमा भाजपा में शामिल होने वाले थे. क्षेत्रीय न्यूज चैनलो में भी खबर यही चल रही थी कि भाजपा के असम प्रदेश अध्यक्ष सिद्धार्थ भट्टाचार्य पार्टी के खराब प्रदर्शन की वजह से पार्टी अध्यक्ष अमित शाह से शाम में मिलेंगे और कयास लगाए गए कि भट्टाचार्य अपना इस्तीफा सौंपेंगे.
लेकिन कहानी दूसरी थी.
उसी शाम हेमंत विस्व सरमा कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए थे. यह हैरतअंगेज था क्योंकि लंबे अरसे तक सरमा असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के दाहिने हाथ माने जाते थे और जानकारों का मानना है कि 2011 में असम में कांग्रेस की जीत की रणनीति खुद सरमा ने तैयार की थी. सरमा को शायद गोगोई के बाद मुख्यमंत्री की कुरसी मिलने की उम्मीद थी.
पर, तरुण गोगोई शायद वंशवाद में यकीन रखते थे और उन्होंने अपने बेटे गौरव गोगोई को बतौर वारिस पेश किया तो सरमा का संयम टूट गया. बाद में, सरमा ने मीडिया के सामने इंटरव्यू में कहा कि वह जब कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी से मिलने पहुंचे थे तो कांग्रेस नेता का ध्यान उनसे अधिक अपने कुत्ते पर था. असल में, अपने सियासी उस्ताद तरुण गोगोई से सरमा की तनातनी चार साल से अधिक समय तक चली थी और उस जंग में राहुल गांधी ने गोगोई का पक्ष लिया था और सरमा उसी बाबत गांधी से बात करने आए थे. सरमा ने खुद ट्वीट करके यह बताया था कि जब कांग्रेस उपाध्यक्ष (राहुल गांधी) के साथ असम के अहम मसलों पर वह बातचीत चाहते थे, उस वक्त राहुल अपने पालतू कुत्ते को बिस्किट खिलाने में व्यस्त थे.
उस वक्त की मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, असम के सात में से छह भाजपा सांसद सरमा को पार्टी में लाने के खिलाफ थे. तो फिर नेतृत्व कैसे तैयार हुआ?
क्योंकि भाजपा नेतृत्व को सरमा के रणनीतिक कौशल पर पूरा भरोसा हो गया था. सरमा के पास गजब का राजनैतिक प्रबंधन और चुनावी कारीगरी तो है ही, सूबे भर में उनकी लोकप्रियता भी है. असल में, भाजपा नेतृत्व जानता था कि 2010 और 2014 में असम राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस के पक्ष में भाजपा विधायकों की तरफ से सरमा ने ही क्रॉस वोटिंग करवाई थी. भाजपा अब इस कारीगरी का अपने लिए इस्तेमाल करना चाहती थी.
2006 से 2014 के बीच स्वास्थ्य मंत्री के रूप में जालुकबारी से तीन बार विधायक रहे सरमा ने कई लोकप्रिय कदम उठाए, जिनमें 24 घंटे की एंबुलेंस सेवा और ग्रामीण अस्पतालों में डॉक्टरों की मौजूदगी की अनिवार्यता शामिल थे. इसी तरह 2011 से 2014 तक शिक्षा मंत्री के रूप में उन्होंने स्कूली शिक्षकों की भर्ती की एक पारदर्शी प्रक्रिया पेश की जिसकी परिणति लगभग दो लाख नई भर्तियों में हुई.
जाहिर है, सरमा की इस लोकप्रियता से गौरव गोगोई असुरक्षित महसूस करने लगे थे. इस बार असम की 126 विधानसभा सीटों में भाजपा ने 75 सीटों पर जीत हासिल की है और हेमंत विस्व सरमा ने जालुकबाड़ी सीट पर लगातार पांचवीं बार जीत दर्ज की है.
हेमंत विस्वा सरमा 1990 के दशक में कांग्रेस में शामिल हुए थे और 2001 में पहली बार उन्होंने गुवाहाटी के जालुकबाड़ी से चुनाव लड़ा. उन्होंने यहां असम गण परिषद के नेता भृगु कुमार फुकन को हराया और उसके बाद से इस सीट पर सरमा अजेय बने हुए हैं.
कांग्रेस में रहते हुए सरमा ने शिक्षा, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण, कृषि, योजना और विकास, पीडब्ल्यूडी और वित्त जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालयों का काम संभाला है.
बहरहाल, सरमा का भाजपा में आना पूर्वोत्तर में उसके लिए भाग्योदय जैसा हुआ है. सरमा के पास न सिर्फ असम की, बल्कि पूरे पूर्वोत्तर की अच्छी समझ है. वह बीते 19 साल से सरकार में मंत्री रहे हैं इसलिए उनके पास प्रशासन का भी अगाध अनुभव है.
असल में मुख्यमंत्री बदले जाएंगे इसका आभास तो तभी हो गया था, जब भाजपा ने चुनाव से पहले अपने मुख्यमंत्री पद उम्मीदवार की घोषणा नहीं की थी. आमतौर पर भाजपा अपने सत्तासीन राज्यों में ऐसा नहीं करती.
बहरहाल, हेमंत विस्व सरमा की कहानी में वह मंजिल आ ही गई जिसके लिए उन्होंने गोगोई पिता-पुत्र के खिलाफ बगावत की थी. जानकार बताते हैं कि 23 अगस्त को भाजपा में सरमा के शामिल होने के बाद राहुल गांधी ने बजरिए अहमद पटेल अपना निजी फोन नंबर सरमा को भिजवाया था. राहुल गांधी को सरमा ने फोन नहीं किया, क्योंकि सरमा का सिद्धांत है, पलटकर नहीं देखना.
असम कांग्रेस वाकई सरमा को खोकर पछता रही होगी.
Tuesday, May 25, 2021
कौन था ताजमहल का असली वास्तुकार उस्ताद ईसा या उस्ताद अहमद लाहौरी!
मंजीत ठाकुर
राजीव जोसफ का एक नाटक है, गार्ड्स ऐट द ताज, जिसके एक दृश्य में बाबर और हुमायूं ताजमहल का उद्घाटन देख रहे होते हैं. हुमायूं इस शानदार मकबरे के निर्माण का श्रेय, जाहिर है, बादशाह शाहजहां को देते हैं, जबकि बाबर के हिसाब से इसका श्रेय वास्तुकार उस्ताद ईसा को जाना चाहिए.
रुकिए. इस लेख के पहले पैराग्राफ से आप यह न मान लें कि इतिहासकार उस्ताद ईसा को ही वास्तुकला के इस नगीने के निर्माण के पीछे की असली प्रतिभा मानते हैं. तो फिर कौन हैं वह, जिसने ताजमहल बनाया, जिसे शायर शकील बदायूंनी ने ‘मोहब्बत की निशानी’ बताया है तो साहिर लुधियानवी ने ‘ग़रीबों की मोहब्बत का मज़ाक़’ कहा है.
इल्म की दुनिया में आज किसी एक मुस्लिम वैज्ञानिक या विद्वान की बात न कर, हम कुछ ऐसे कलाकारों-वास्तुविदों का जिक्र करेंगे जो ताजमहल के निर्माण से जुड़े रहे. हालांकि, एक बात से सभी इतिहासकार एकमत हैं कि मुगल बादशाहों के दौर में, किसी चीज के दस्तावेजीकरण पर खुद मुगल बादशाहों की निगरानी होती थी. इसी वजह से, हमारे पास ताजमहल की निर्माण प्रक्रिया से जुड़े बेहद कम सुबूत हैं. लगभग दो सदियों तक, ताजमहल के निर्माण का श्रेय बादशाह शाहजहां को मिली दैवीय प्रेरणा को दिया जाता रहा. जाहिर है, इसके पीछे उनकी दिवंगत बीवी को समर्पण और प्यार की भावना भी थी. वैसे सचाई यह है कि शाहजहां के सपने को सच करने के वास्ते हजारों कलाकार और कारीगर पूरी लगन से इस काम में लगे हुए थे.
असल में, सन 1800 तक ब्रिटिशों ने हिंदुस्तान के तीन-चौथाई हिस्से पर नियंत्रण हासिल कर लिया था और ताजमहल की देखरेख का जिम्मा भी उनके पास आ गया था. अंग्रेजों ने जाहिर है, उसके बाद उसके विभिन्न हिस्सों की मरम्मत भी की.
इसी के दौरान उस्ताद ईसा का नाम फिजां में तैरने लगा. ताजमहल से जुड़ी कुछ पांडुलिपियां आगरा में मिलने लगीं और कहा गया कि फारसी में लिखे ये दस्तावेज 17वीं सदी की हैं और ताजमहल का मूल डिजाइन हैं. एक तुर्क उस्ताद ईसा का नाम, ताजमहल के वास्तुकार के तौर पर उछल गया. वैसे, अधिकतर इतिहासकार इन दस्तावेजों को स्थानीय ब्रिटिश मुखबिरों द्वारा उछाला गया मानते हैं.
वैसे, इतिहासकार मानते हैं कि उस्ताद ईसा का अस्तित्व जरूर रहा होगा, लेकिन वह महज नक़्शानवीस था, वास्तुकार नहीं. यानी, उस्ताद ईसा ने ज्यादा से ज्यादा ताजमहल की योजना को कागज पर उतारा होगा. हाल में हुए शोध बताते हैं कि ताजमहल का असली वास्तुकार फारस का वास्तुकार उस्ताद अहमद लाहौरी था, जो शाहजहां का दरबारी था.
ताजमहल पर शोध करने वाली अगुआ इतिहासकार एब्बा कोच ने लिखा है कि उस्ताद ईसा की कहानी काल्पनिक है और इसे ब्रिटिश अधिकारियों ने हाथो-हाथ लिया क्योंकि उन्हें यह साबित करना था कि ताजमहल असल में एक यूरोपियन ने बनवाया था. इससे वह एक मुगल इमारत पर अपने अलहदा तरीके से अपने स्वामित्व का दावा कर सकते थे.
बहरहाल, उस्ताद अहमद लाहौरी, जिनको अहमद मीमार भी कहा जाता था, उनके हिस्से दिल्ली के लाल किले का डिजाइन बनाने का श्रेय भी है.
बहरहाल, लाहौर में एक कब्र है जिसके रखवाले यह दावा करते हैं कि वह ताजमहल के डिजाइनर की है. यह दावा है कि इतावली विद्वान गेरोनिमो वेरोनियो जो कि वेनिस का रहने वाला था, और जिसे शाहजहां ने लाहौर किले में कैद रखा था, उसे 1640 में मृत्युदंड दिया गया. हालांकि, यह दावा कि ताजमहल का काम पूरा होने के बाद शाहजहां ने वेरोनियो को कत्ल करवा दिया, बाद में इतिहासकारों ने गलत बताया.
असल में, इस बात के पक्के और लिखित सुबूत मौजूद हैं कि पुर्तगाली ईसाई पादरी फादर जोसेफ डि कास्त्रो ने बादशाह के आदेश पर वेरोनियो का कत्ल किया था क्योंकि बादशाह नहीं चाहते थे कि कोई हिंदू या मुस्लिम एक ईसाई को मृत्युदंड दे. तथ्य यह है कि वेरोनियो से जुड़ा पूरा किस्सा लाहौर में ही हुआ था इसलिए ब्रिटिशों ने ताजमहल के वास्तु पर इतालवी दावा चढ़ा दिया. वेरोनियो लागौर के तहसील बाजार की एक हवेली में रहता था.
इतिहासकारों की राय है कि ताजमहल के शुरुआती नक्शे बेशक लाहौर में ही तैयार किए गए थे और उन्हें तैयार करने वाले उस्ताद अहमद लाहौरी ही थे. वह वजीर खान मस्जिद के पास पुरानी कोतवाली के पास एक घर में रहकर काम करते थे. उस काम में उनके साथ थे तुर्की के वास्तुकार इस्माइल एफेंदी, जिन्होंने गुंबद और गोलार्ध का ही डिजाइन बनाया था.
एक बार यह काम पूरा हो जाने के बाद उस्ताद अहमद ने अपने दोस्त कासिम खान को बुलाया जो लाहौर के ही थे और जो टकसाली में रहते थे. कासिम खान को गुंबदों पर चढ़ाने के लिए सोने के कंगूरे बनाने थे. इसलिए, ताजमहल के डिजाइन का काम विशेषज्ञों की मिलीजुली कोशिश मानी जानी चाहिए. आखिर में जो नक्शा खींचा गया उसे एक तुर्क और निष्णात नक्शानवीस उस्ताद ईसा और उस्ताद अहमद लाहौरी ने अंजाम दिया.
वैसे, वेरोनियो को लेकर आधिकारिक दरबारी दस्तावेज यही कहते हैं कि उसे मौत की सजा ताजमहल के डिजाइन को लेकर नहीं दी गई थी बल्कि उसकी वजह कुछ और ही थी. वह एक मशहूर सुनार और गहनों का डिजाइनर था. लेकिन दिक्कत यह थी कि वह सम्राट के परिवार के लिए आभूषण डिजाइन करते समय सोना चोरी कर लेता था. उस पर बहुत सारे बहुमूल्य रत्न और एक बेहद बड़ा हीरा चुराने का भी आरोप था. उसके घर से सारे गहने बरामद हुए थे और उसे मौत की सजा सुनाई गई थी. मुगल दस्तावेज बताते हैं कि उसे शहर के लाहौरी गेट से दो कोस दूर एक जगह पर दफनाया गया था.
असल में, वेरोनियो के नाम का दावा इस लिए भी कमजोर पड़ता है क्योंकि उस्ताद अहमद लाहौरी ने ताजमहल का डिजाइन तय करने के लिए दुनिया भर के विशेषज्ञ जुटाए थे. लाहौर के अपने दोस्त कासिम खान, जो गुंबद का स्वर्णिम कंगूरा डिजाइन कर रहे थे, उन्होंने दिल्ली से चिरंजी लाल को बुलवाया जो उस जमाने के मशहूर मौजेक पैटर्न डिजाइनर थे.
ईरान के शिराज से खुशनबीसी (कैलिग्राफी) के उस्ताद अमानत खान को बुलाया गया. पत्थर काटने के महारथी आमिर अली को बलोचिस्तान से बुलाया गया. तुर्की के उस्ताद ईसा और उस्ताद अहमद तो खैर मुख्य वास्तुकार थे ही. इनके अलावा मुल्तान के मोहम्मद हनीफ संगमरमर के टाइल्स बनाने में बेजोड़ थे. दिल्ली के मुकरीमत खान और शिराज के मीर अब्दुल करीम इस कामकाज के मुख्य पर्यवेक्षक और प्रशासक थे.
इस काम के लिए किस कलाकार और कारीगर को कितना पैसा मिला यह भी जानना बेहद दिलचस्प होगा. मुख्य नक्शानवीस मास्टर ईसा को एक हजार रुपया दिया गया था, आज के हिसाब से उनको 333 तोला सोना या 13.3 करोड़ रुपए दिए गए थे. उस्ताद इस्माइल खान रूमी, जो कि गुंबद बनाने के विशेषज्ञ थे, उन्हें 500 रुपए दिए गए थे. समरकंज के मोहम्मद शरीफ को, जो शिखर बनाने के लिए आए थे, उन्हें 500 रुपए, लाहौर के कासिम खान को 295 रुपए, कांधार के मोहम्मद हनीफ, जो मुख्य राजमिस्त्री थे, को 1000 रुपए, मुल्तान के मोहम्मद सईद को, जो विशेषज्ञ राजमिस्त्री थे को 590 रुपए, और एक अन्य उस्ताद राजमिस्त्री मुल्तान के अबू तोरा को 500 रुपए दिए गए थे.
शिराज के कैलिग्राफर अमानत खान को 1000 रुपए और एक अन्य कैलिग्राफर, बगदाद के मोहम्मद खान को 500 रुपए अदा किए गए थे. सीरियो के रौशन खान को 300 रुपए दिए गए.
चिरंगी लाल, मुन्नू लाल और छोटू लाल के जड़ाऊ काम करने वाले परिवार को 800, 380 और 200 रुपए दिए गए थे. इस पैमाने पर खासा भुगतान यह बताता है कि किस स्तर के कौशल की जरूरत इस काम में रही होगी.
अब हम उस मशहूर किंवदंती की बात करते हैं कि शाहजहां ने ताजमहल का काम पूरा होने के बाद उस्ताद अहमद लाहौरी की आंखें निकलवा दीं और हाथ कटवा दिए थे, ताकि वह दोबारा ऐसा कोई डिजाइन न बनवा सकें. लेकिन, इस बात में कोई दम नहीं है. उनके परिवार के पाकिस्तान में दस्तावेज यह साबित करते हैं कि उस्ताद अहमद लाहौरी की मौत प्राकृतिक तरीके से हुई थी.
सचाई यह है कि उस्ताद अहमद काम पूरा होने के बाद लाहौर लौट गए थे जहां उनके बेटों ने निर्माण कार्य का शानदार कारोबार खड़ा कर लिया था. उनकी मौत के वक्त उनकी बहुत प्रतिष्ठा थी.
राजीव जोसफ का एक नाटक है, गार्ड्स ऐट द ताज, जिसके एक दृश्य में बाबर और हुमायूं ताजमहल का उद्घाटन देख रहे होते हैं. हुमायूं इस शानदार मकबरे के निर्माण का श्रेय, जाहिर है, बादशाह शाहजहां को देते हैं, जबकि बाबर के हिसाब से इसका श्रेय वास्तुकार उस्ताद ईसा को जाना चाहिए.
रुकिए. इस लेख के पहले पैराग्राफ से आप यह न मान लें कि इतिहासकार उस्ताद ईसा को ही वास्तुकला के इस नगीने के निर्माण के पीछे की असली प्रतिभा मानते हैं. तो फिर कौन हैं वह, जिसने ताजमहल बनाया, जिसे शायर शकील बदायूंनी ने ‘मोहब्बत की निशानी’ बताया है तो साहिर लुधियानवी ने ‘ग़रीबों की मोहब्बत का मज़ाक़’ कहा है.
इल्म की दुनिया में आज किसी एक मुस्लिम वैज्ञानिक या विद्वान की बात न कर, हम कुछ ऐसे कलाकारों-वास्तुविदों का जिक्र करेंगे जो ताजमहल के निर्माण से जुड़े रहे. हालांकि, एक बात से सभी इतिहासकार एकमत हैं कि मुगल बादशाहों के दौर में, किसी चीज के दस्तावेजीकरण पर खुद मुगल बादशाहों की निगरानी होती थी. इसी वजह से, हमारे पास ताजमहल की निर्माण प्रक्रिया से जुड़े बेहद कम सुबूत हैं. लगभग दो सदियों तक, ताजमहल के निर्माण का श्रेय बादशाह शाहजहां को मिली दैवीय प्रेरणा को दिया जाता रहा. जाहिर है, इसके पीछे उनकी दिवंगत बीवी को समर्पण और प्यार की भावना भी थी. वैसे सचाई यह है कि शाहजहां के सपने को सच करने के वास्ते हजारों कलाकार और कारीगर पूरी लगन से इस काम में लगे हुए थे.
असल में, सन 1800 तक ब्रिटिशों ने हिंदुस्तान के तीन-चौथाई हिस्से पर नियंत्रण हासिल कर लिया था और ताजमहल की देखरेख का जिम्मा भी उनके पास आ गया था. अंग्रेजों ने जाहिर है, उसके बाद उसके विभिन्न हिस्सों की मरम्मत भी की.
इसी के दौरान उस्ताद ईसा का नाम फिजां में तैरने लगा. ताजमहल से जुड़ी कुछ पांडुलिपियां आगरा में मिलने लगीं और कहा गया कि फारसी में लिखे ये दस्तावेज 17वीं सदी की हैं और ताजमहल का मूल डिजाइन हैं. एक तुर्क उस्ताद ईसा का नाम, ताजमहल के वास्तुकार के तौर पर उछल गया. वैसे, अधिकतर इतिहासकार इन दस्तावेजों को स्थानीय ब्रिटिश मुखबिरों द्वारा उछाला गया मानते हैं.
वैसे, इतिहासकार मानते हैं कि उस्ताद ईसा का अस्तित्व जरूर रहा होगा, लेकिन वह महज नक़्शानवीस था, वास्तुकार नहीं. यानी, उस्ताद ईसा ने ज्यादा से ज्यादा ताजमहल की योजना को कागज पर उतारा होगा. हाल में हुए शोध बताते हैं कि ताजमहल का असली वास्तुकार फारस का वास्तुकार उस्ताद अहमद लाहौरी था, जो शाहजहां का दरबारी था.
ताजमहल पर शोध करने वाली अगुआ इतिहासकार एब्बा कोच ने लिखा है कि उस्ताद ईसा की कहानी काल्पनिक है और इसे ब्रिटिश अधिकारियों ने हाथो-हाथ लिया क्योंकि उन्हें यह साबित करना था कि ताजमहल असल में एक यूरोपियन ने बनवाया था. इससे वह एक मुगल इमारत पर अपने अलहदा तरीके से अपने स्वामित्व का दावा कर सकते थे.
बहरहाल, उस्ताद अहमद लाहौरी, जिनको अहमद मीमार भी कहा जाता था, उनके हिस्से दिल्ली के लाल किले का डिजाइन बनाने का श्रेय भी है.
बहरहाल, लाहौर में एक कब्र है जिसके रखवाले यह दावा करते हैं कि वह ताजमहल के डिजाइनर की है. यह दावा है कि इतावली विद्वान गेरोनिमो वेरोनियो जो कि वेनिस का रहने वाला था, और जिसे शाहजहां ने लाहौर किले में कैद रखा था, उसे 1640 में मृत्युदंड दिया गया. हालांकि, यह दावा कि ताजमहल का काम पूरा होने के बाद शाहजहां ने वेरोनियो को कत्ल करवा दिया, बाद में इतिहासकारों ने गलत बताया.
असल में, इस बात के पक्के और लिखित सुबूत मौजूद हैं कि पुर्तगाली ईसाई पादरी फादर जोसेफ डि कास्त्रो ने बादशाह के आदेश पर वेरोनियो का कत्ल किया था क्योंकि बादशाह नहीं चाहते थे कि कोई हिंदू या मुस्लिम एक ईसाई को मृत्युदंड दे. तथ्य यह है कि वेरोनियो से जुड़ा पूरा किस्सा लाहौर में ही हुआ था इसलिए ब्रिटिशों ने ताजमहल के वास्तु पर इतालवी दावा चढ़ा दिया. वेरोनियो लागौर के तहसील बाजार की एक हवेली में रहता था.
इतिहासकारों की राय है कि ताजमहल के शुरुआती नक्शे बेशक लाहौर में ही तैयार किए गए थे और उन्हें तैयार करने वाले उस्ताद अहमद लाहौरी ही थे. वह वजीर खान मस्जिद के पास पुरानी कोतवाली के पास एक घर में रहकर काम करते थे. उस काम में उनके साथ थे तुर्की के वास्तुकार इस्माइल एफेंदी, जिन्होंने गुंबद और गोलार्ध का ही डिजाइन बनाया था.
एक बार यह काम पूरा हो जाने के बाद उस्ताद अहमद ने अपने दोस्त कासिम खान को बुलाया जो लाहौर के ही थे और जो टकसाली में रहते थे. कासिम खान को गुंबदों पर चढ़ाने के लिए सोने के कंगूरे बनाने थे. इसलिए, ताजमहल के डिजाइन का काम विशेषज्ञों की मिलीजुली कोशिश मानी जानी चाहिए. आखिर में जो नक्शा खींचा गया उसे एक तुर्क और निष्णात नक्शानवीस उस्ताद ईसा और उस्ताद अहमद लाहौरी ने अंजाम दिया.
वैसे, वेरोनियो को लेकर आधिकारिक दरबारी दस्तावेज यही कहते हैं कि उसे मौत की सजा ताजमहल के डिजाइन को लेकर नहीं दी गई थी बल्कि उसकी वजह कुछ और ही थी. वह एक मशहूर सुनार और गहनों का डिजाइनर था. लेकिन दिक्कत यह थी कि वह सम्राट के परिवार के लिए आभूषण डिजाइन करते समय सोना चोरी कर लेता था. उस पर बहुत सारे बहुमूल्य रत्न और एक बेहद बड़ा हीरा चुराने का भी आरोप था. उसके घर से सारे गहने बरामद हुए थे और उसे मौत की सजा सुनाई गई थी. मुगल दस्तावेज बताते हैं कि उसे शहर के लाहौरी गेट से दो कोस दूर एक जगह पर दफनाया गया था.
असल में, वेरोनियो के नाम का दावा इस लिए भी कमजोर पड़ता है क्योंकि उस्ताद अहमद लाहौरी ने ताजमहल का डिजाइन तय करने के लिए दुनिया भर के विशेषज्ञ जुटाए थे. लाहौर के अपने दोस्त कासिम खान, जो गुंबद का स्वर्णिम कंगूरा डिजाइन कर रहे थे, उन्होंने दिल्ली से चिरंजी लाल को बुलवाया जो उस जमाने के मशहूर मौजेक पैटर्न डिजाइनर थे.
ईरान के शिराज से खुशनबीसी (कैलिग्राफी) के उस्ताद अमानत खान को बुलाया गया. पत्थर काटने के महारथी आमिर अली को बलोचिस्तान से बुलाया गया. तुर्की के उस्ताद ईसा और उस्ताद अहमद तो खैर मुख्य वास्तुकार थे ही. इनके अलावा मुल्तान के मोहम्मद हनीफ संगमरमर के टाइल्स बनाने में बेजोड़ थे. दिल्ली के मुकरीमत खान और शिराज के मीर अब्दुल करीम इस कामकाज के मुख्य पर्यवेक्षक और प्रशासक थे.
इस काम के लिए किस कलाकार और कारीगर को कितना पैसा मिला यह भी जानना बेहद दिलचस्प होगा. मुख्य नक्शानवीस मास्टर ईसा को एक हजार रुपया दिया गया था, आज के हिसाब से उनको 333 तोला सोना या 13.3 करोड़ रुपए दिए गए थे. उस्ताद इस्माइल खान रूमी, जो कि गुंबद बनाने के विशेषज्ञ थे, उन्हें 500 रुपए दिए गए थे. समरकंज के मोहम्मद शरीफ को, जो शिखर बनाने के लिए आए थे, उन्हें 500 रुपए, लाहौर के कासिम खान को 295 रुपए, कांधार के मोहम्मद हनीफ, जो मुख्य राजमिस्त्री थे, को 1000 रुपए, मुल्तान के मोहम्मद सईद को, जो विशेषज्ञ राजमिस्त्री थे को 590 रुपए, और एक अन्य उस्ताद राजमिस्त्री मुल्तान के अबू तोरा को 500 रुपए दिए गए थे.
शिराज के कैलिग्राफर अमानत खान को 1000 रुपए और एक अन्य कैलिग्राफर, बगदाद के मोहम्मद खान को 500 रुपए अदा किए गए थे. सीरियो के रौशन खान को 300 रुपए दिए गए.
चिरंगी लाल, मुन्नू लाल और छोटू लाल के जड़ाऊ काम करने वाले परिवार को 800, 380 और 200 रुपए दिए गए थे. इस पैमाने पर खासा भुगतान यह बताता है कि किस स्तर के कौशल की जरूरत इस काम में रही होगी.
अब हम उस मशहूर किंवदंती की बात करते हैं कि शाहजहां ने ताजमहल का काम पूरा होने के बाद उस्ताद अहमद लाहौरी की आंखें निकलवा दीं और हाथ कटवा दिए थे, ताकि वह दोबारा ऐसा कोई डिजाइन न बनवा सकें. लेकिन, इस बात में कोई दम नहीं है. उनके परिवार के पाकिस्तान में दस्तावेज यह साबित करते हैं कि उस्ताद अहमद लाहौरी की मौत प्राकृतिक तरीके से हुई थी.
सचाई यह है कि उस्ताद अहमद काम पूरा होने के बाद लाहौर लौट गए थे जहां उनके बेटों ने निर्माण कार्य का शानदार कारोबार खड़ा कर लिया था. उनकी मौत के वक्त उनकी बहुत प्रतिष्ठा थी.
Monday, May 24, 2021
जब अंग्रेजों को पहली बार पड़ी थी रॉकेट की मार
वाकया 1780 का है. पोल्लिलोर की लड़ाई (आज के तमिलनाडु का कांचीपुरम) में अंग्रेजों और मैसूर के बीच युद्ध हो रहा था. इस लड़ाई को दूसरा आंग्ल-मैसूर युद्ध (एंग्लो-मैसूर वॉर) भी कहा जाता है. अंग्रेजों की अगुआई कर्नल विलियम बेली कर रहे थे और मैसूर का नेतृत्व हैदर अली के हथ में था. अचानक, एक उड़ता हुआ आग का गोला आया और अंग्रेजों के बारूद भंडार में आग लग गई. पर वह कोई तोप का गोला नहीं था, हैदर अली की सेना की तरफ से आवाज़ करती और सीटी बजाती हुई लंबी बारूद भरी बांस की नलियां उड़कर आतीं और अंग्रेजी सेना को ध्वस्त करती जा रही थी.
बराबरी में चल रहा यह युद्ध अचानक, अंग्रेजों के हाथ से निकल गया क्योंकि यह मुंजनीकें (रॉकेट) हजार गज दूर से चलाए जा रहे थे और अंग्रेजी बंदूकों में उतनी दूर मार करने की काबिलियत नहीं थी. अंग्रेज लोग पहली दफा रॉकेट देख रहे थे.
यह कमाल किया था मैसूर के रॉकेट दस्ते ने, और हैदर अली के वक्त में मैसूर की सेना में इस दस्ते में 1,200 लोग थे. इन रॉकेट ने ही खेल बदलकर रख दिया. शायद यह अंग्रेजों की भारत में सबसे बुरी हार थी. अंग्रेज हैरान थे कि आखिर कैसे हिंदुस्तानियों ने यह रॉकेट बनाया है!
बहरहाल, हैदर अली और उनके बेटे टीपू सुल्तान ने इन रॉकेटों का मैसूर के मुकाबले कहीं अधिक बड़ी सेना ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ आंग्ल-मैसूर युद्ध में इस्तेमाल किया. बाद में, अंग्रेजों ने इस तकनीक में दिलचस्पी दिखाई और इसे 19वीं सदी में और अधिक विकसित किया. टीपू सुल्तान ने जब इसमें कुछ आवश्यक सुधार किए तो इनकी रेंज बढ़कर सवा मील (2 किमी के आसपास) हो गई.
इतिहासकारों के लिहाज से, विस्फोटकों से भरे रॉकेट का पहला प्रोटोटाइप हैदर अली ने विकसित किया था, जिसे उनके वारिस और बेटे टीपू सुल्तान ने आगे बढ़ाया. इनमें बारूद भरने के लिए लोहे की नलियों का इस्तेमाल होता था और इसमें तलवारें जुड़ी होती थीं.
टीपू सुल्तान इस रॉकेट में संतुलन कायम करने के लिए इनमें बांस का भी इस्तेमाल किया था. उनके प्रोटोटाइप को आधुनिक रॉकेट का पूर्वज कहा जा सकता है. इसमें किसी भी अन्य रॉकेट की तुलना में अधिक रेंज, बेहतर सटीकता और कहीं अधिक विनाशकारी धमाका करने की क्षमता थी. इन विशेषताओं की वजह से इसे उस समय दुनिया का सर्वश्रेष्ठ हथियार माना जाने लगा.
1793 में भारत में ब्रिटिश सेनाओं के उप-सहायक जनरल मेजर डिरोम ने बाद में मैसूरियन सेना द्वारा प्रयोग किए जाने वाले रॉकेटों के बारे में कहा, “कुछ रॉकेटों में एक चैम्बर था, और वे एक शेल की तरह फटे; दूसरे रॉकेट, जिन्हें ग्राउंड रॉकेट कहा जाता है, उनकी गति सांप जैसी थी, और उनसे जमीन पर हमला करने पर, वे फिर से ऊपर उठते, और फिर जब तक उनमें विस्फोट खत्म नहीं हो जाता तब तक हमला करते।”
टीपू ने रॉकेट टेक्नोलॉजी पर और अधिक शोध करने के लिए श्रीरंगपटनम, बैंगलोर, चित्रदुर्ग और बिदानूर में चार तारामंडलपेट (तारों के बाज़ार) की स्थापना की.
यह कच्चे लोहे के बने रॉकेट अधिक ताकतवर होते थे क्योंकि इनके चैंबर लोहे के थे और यह बारूदी शक्ति का अधिक दवाब झेल सकते थे. इसलिए टीपू सुल्तान ने 1792 से 1799 के बीच ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ इनका बड़ी कुशलता से इस्तेमाल किया.
टीपू सुल्तान ने एक मिलिट्री मैन्युअसल लिखा था जिसका नाम है फतह-उल-मुजाहिदीन जिसमें 200 रॉकेट विशेषज्ञों को हर मैसूरी ब्रिगेड में तैनात करने का उल्लेख है. मैसूर में 16 से 24 इन्फैट्री ब्रिगेड थे. इन रॉकेट चलाने वालों को लक्ष्य साधने की गणना करने के लिए बारीकी से प्रशिक्षित किया गया था. इन के रॉकेट लॉन्चर भी ऐसे थे जो लगभग एक साथ पांच से दस रॉकेट्स एक साथ लॉन्च कर सकते थे.
हालांकि, आज श्रीरंगपटनम में बहुत कुछ नहीं बचा है, जो टीपू सुल्तान और उनके बनाये रॉकेट के बारे में बता सके लेकिन विश्व सैन्य इतिहास पर मैसूरियन रॉकेट की छाप हमेशा रहेगी.
बराबरी में चल रहा यह युद्ध अचानक, अंग्रेजों के हाथ से निकल गया क्योंकि यह मुंजनीकें (रॉकेट) हजार गज दूर से चलाए जा रहे थे और अंग्रेजी बंदूकों में उतनी दूर मार करने की काबिलियत नहीं थी. अंग्रेज लोग पहली दफा रॉकेट देख रहे थे.
यह कमाल किया था मैसूर के रॉकेट दस्ते ने, और हैदर अली के वक्त में मैसूर की सेना में इस दस्ते में 1,200 लोग थे. इन रॉकेट ने ही खेल बदलकर रख दिया. शायद यह अंग्रेजों की भारत में सबसे बुरी हार थी. अंग्रेज हैरान थे कि आखिर कैसे हिंदुस्तानियों ने यह रॉकेट बनाया है!
बहरहाल, हैदर अली और उनके बेटे टीपू सुल्तान ने इन रॉकेटों का मैसूर के मुकाबले कहीं अधिक बड़ी सेना ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ आंग्ल-मैसूर युद्ध में इस्तेमाल किया. बाद में, अंग्रेजों ने इस तकनीक में दिलचस्पी दिखाई और इसे 19वीं सदी में और अधिक विकसित किया. टीपू सुल्तान ने जब इसमें कुछ आवश्यक सुधार किए तो इनकी रेंज बढ़कर सवा मील (2 किमी के आसपास) हो गई.
इतिहासकारों के लिहाज से, विस्फोटकों से भरे रॉकेट का पहला प्रोटोटाइप हैदर अली ने विकसित किया था, जिसे उनके वारिस और बेटे टीपू सुल्तान ने आगे बढ़ाया. इनमें बारूद भरने के लिए लोहे की नलियों का इस्तेमाल होता था और इसमें तलवारें जुड़ी होती थीं.
टीपू सुल्तान इस रॉकेट में संतुलन कायम करने के लिए इनमें बांस का भी इस्तेमाल किया था. उनके प्रोटोटाइप को आधुनिक रॉकेट का पूर्वज कहा जा सकता है. इसमें किसी भी अन्य रॉकेट की तुलना में अधिक रेंज, बेहतर सटीकता और कहीं अधिक विनाशकारी धमाका करने की क्षमता थी. इन विशेषताओं की वजह से इसे उस समय दुनिया का सर्वश्रेष्ठ हथियार माना जाने लगा.
1793 में भारत में ब्रिटिश सेनाओं के उप-सहायक जनरल मेजर डिरोम ने बाद में मैसूरियन सेना द्वारा प्रयोग किए जाने वाले रॉकेटों के बारे में कहा, “कुछ रॉकेटों में एक चैम्बर था, और वे एक शेल की तरह फटे; दूसरे रॉकेट, जिन्हें ग्राउंड रॉकेट कहा जाता है, उनकी गति सांप जैसी थी, और उनसे जमीन पर हमला करने पर, वे फिर से ऊपर उठते, और फिर जब तक उनमें विस्फोट खत्म नहीं हो जाता तब तक हमला करते।”
टीपू ने रॉकेट टेक्नोलॉजी पर और अधिक शोध करने के लिए श्रीरंगपटनम, बैंगलोर, चित्रदुर्ग और बिदानूर में चार तारामंडलपेट (तारों के बाज़ार) की स्थापना की.
यह कच्चे लोहे के बने रॉकेट अधिक ताकतवर होते थे क्योंकि इनके चैंबर लोहे के थे और यह बारूदी शक्ति का अधिक दवाब झेल सकते थे. इसलिए टीपू सुल्तान ने 1792 से 1799 के बीच ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ इनका बड़ी कुशलता से इस्तेमाल किया.
टीपू सुल्तान ने एक मिलिट्री मैन्युअसल लिखा था जिसका नाम है फतह-उल-मुजाहिदीन जिसमें 200 रॉकेट विशेषज्ञों को हर मैसूरी ब्रिगेड में तैनात करने का उल्लेख है. मैसूर में 16 से 24 इन्फैट्री ब्रिगेड थे. इन रॉकेट चलाने वालों को लक्ष्य साधने की गणना करने के लिए बारीकी से प्रशिक्षित किया गया था. इन के रॉकेट लॉन्चर भी ऐसे थे जो लगभग एक साथ पांच से दस रॉकेट्स एक साथ लॉन्च कर सकते थे.
हालांकि, आज श्रीरंगपटनम में बहुत कुछ नहीं बचा है, जो टीपू सुल्तान और उनके बनाये रॉकेट के बारे में बता सके लेकिन विश्व सैन्य इतिहास पर मैसूरियन रॉकेट की छाप हमेशा रहेगी.
Tuesday, May 18, 2021
अल बीरूनी एक मुस्लिम वैज्ञानिक, जो एक हमलावर के साथ हिंदुस्तान आए थे
इल्म की दुनिया में आज बात एक ऐसे विद्वान और वैज्ञानिक की, जिसका एक रिश्ता हिंदुस्तान से भी रहा है. इस्लामिक दुनिया ही नहीं, बल्कि दुनियाभर के महान वैज्ञानिकों में शुमार होने वाले अल-बीरूनी उस दौर में हुए थे, जो असल में पूर्वी इस्लामी दुनिया में राजनैतिक उथलपुथल भरा समय था. इनसाइक्लेपेडिया ब्रिटानिका के मुताबिक, अल-बीरूनी का जन्म 4 सितंबर 973 ईस्वी में आज के उज्बेकिस्तान के खुरासान प्रांत में ख्वारिज़्म में हुआ था. और इस तरह से वह एक और महान वैज्ञानिक अल-ख़्वारिज़्मी के इलाके के ही थे. अल-बीरूनी आज के गजनी, अफगानिस्तान में 1052 में हुई थी जिसे उस वक्त गज़ना कहा जाता था.
अल-बीरूनी सिर्फ वैज्ञानिक ही नहीं थे. बल्कि यह कहना चाहिए कि वह क्या नहीं थे. वह गणितज्ञ, खगोलशास्त्री, एंथ्रोग्राफिस्ट (नृवंशविद), मानवविज्ञानी, इतिहासकार और भूगोलज्ञ थे.
अल-बीरूनी ने छह अलग-अलग शासकों के मातहत काम किया था और उनमें से अधिकतर शासक लड़ाकू प्रवृत्ति के थे और उनका अंत भी युद्ध में या हिंसा की वजह से हुआ था. पर, इन हिंसक घटनाओं के केंद्र में रहने के बाद भी अल-बीरूनी अपनी बहुमुखी प्रतिभा को निखारने में कामयाब रहे.
अल-बीरूनी का जन्म आमू दरिया के दूसरी तरफ ख्वारिज़्म में हुआ था, और उनकी शिक्षा-दीक्षा ख्वारिज़्म-शाह अमीर अबू नस्र मंसूर इब्न इराक ने करवाई थी, जो वहां के राजपरिवार का सदस्य था और संभवतया वह अल-बीरूनी का संरक्षक भी था. असल में, कुछ विद्वानों की राय है कि इस शहजादे ने अपने गणित के कुछ काम अल-बीरूनी को पढ़ाने के लिए तैयार किए थे और कई दफा उसे अल-बीरूनी का काम मान लिया जाता है.
अल-बीरूनी की निजी जिंदगी के बारे में बहुत कम ज्ञात है, पर एक मध्यकालीन किताब में एक जगह उनके खुद के हवाले से कहा गया है कि अल-बीरूनी को अपने पिता के बारे में पता नहीं था.
ऐसा लगता है कि ख्वारिज़्म के शहजादे का संरक्षण अल-बीरूनी के ज्यादा वक्त तक हासिल नहीं रहा और उस शहजादे के एक सहयोगी ने बगावत करके उसकी हत्या कर दी. इससे ख्वारिज्म में एक गृहयुद्ध शुरू हो गया (996-998 ईस्वी) और इसकी वजह से अल-बीरूनी को ख्वारिज़्म छोढ़कर भागना पड़ा और अब उन्हें समानिद वंश के शासकों के यहां शरण लेनी पड़ी. यह खानदान आजकल के पूर्वी ईरान और अफगानिस्तान के ज्यादातर हिस्से पर शासन करता था.
समानिदों की राजधानी बुखारा में अल-बीरूनी के शरण लेने के कुछ ही समय बाद, एक दूसरे स्थानीय लेकिन राज्यच्युत शासक वंश क़ाबूस इब्न वोशमगीर ने भी अपना राजपाट पाने के लिए समानिदों से मदद मांगी. ऐसा लगता है कि समानिदों ने उनको मदद दी क्योंकि इसके बाद अल-बीरूनी अपना विवरण काबूस शासकों के साथ कैस्पियन सागर के पास शहर गुरगान से लिखते हैं. काबूसों के दरबार में ही अल-बीरूनी की मुलाकात एक अन्य दार्शनिक-वैज्ञानिक इब्न-सीना से हुई और उनके बीच दार्शनिक विचारों के आदान-प्रदान हुए. अल-बीरूनी ने अपनी किताब अल-अथर अल-बाकिया एन अल-कुरुन अल-खालिया (प्राचीन राष्ट्रों का क्रम) कुबूस को ही समर्पित है.
कुछ वक्त तक तो अल-बीरूनी लगातार यात्रा करते रहे—या कहें कि युद्ध से भागते रहे और लगातार संरक्षकों की तलाश करते रहे—और उसके बाद समानिदों का पूरा इलाका सुबुक्तगीन के क्रूर बेटे महमूद के कब्जे में आ गया.
998 में महमूद ने गजना पर कब्जा करके उसके राजधानी हना लिया और अल-बीरूनी और इब्न सीना दोनों के अपने दरबार में नौकरी करने का आदेश दिया. इब्न सीना तो किसी तरह निकल भागे लेकिन अल-बीरूनी भाग नहीं पाए और वह गजना में अपने आखिरी दिनों तक काम करते रहे, जब वह महमूद गजवनी के साथ भारत पर हमले में सेना के साथ आए थे. अल-बीरूनी बेशक, एक निर्दयी हत्यारे के अनमने मेहमान थे फिर भी उन्होंने अपनी यात्राओं को शानदार तरीके से कलमबद्ध किया. और उन्होंने हिंदुस्तान के बारे में जो सूक्ष्म ब्योरे दिए उससे वह वैज्ञानिक के साथ-साथ नृवंशविद्, मानवविज्ञानी और भारतीय मामलों के महान इतिहासकार भी मान गए.
अल-बीरूनी के काम की फेहरिस्त बनाना इतिहासकारों के लिए इसलिए भी आसान रहा क्योंकि अल-बीरूनी ने खुद अपने कामों की ऐसी एक सूची तब तैयार कर दी थी, जब वह 60 साल के थे. हालांकि, अल-बीरूनी सत्तर से अधिक सालों तक जीवित रहे, ऐसे में उनके बाद के कुछ काम इस सूची में शामिल नहीं हैं, फिर भी यह सूची पर्याप्त है. इस सूची और बाद में खोजे गए कामों को मिलाकर, इतिहासकारों के मुताबिक (इनसाक्लोपेडिया ब्रिटानिका) अल-बीरूनी ने कुल 146 किताबें लिखी हैं, इनमें से हर करीबन 90 पन्नों की है. उनमें से आधी तो खगोलशास्त्र और गणित पर हैं. पर उनमें से 22 ही मिल पाई हैं और उनमें भी आधी ही प्रकाशित हो पाई हैं.
भारतीय संस्कृति पर उनका काम हिंदुस्तान पर किसी भी ब्योरे में सबसे बढ़िया माना जाता है. इसका शीर्षक, तहकीक मा लिल-हिंद मिन माकुलाह माक्बूला फी अल अक्ल आ मारदुर्लाः (तहकीक-ए-हिंद). इस किताब में हर वह चीज दर्ज है जो अल-बीरूनी हिंदुस्तान के बारे में जुटा पाए थे. इसमे हिंदुस्तान का विज्ञान, धर्म, साहित्य और इसके रीति-रिवाजों का वर्णन है.
उनका ऐसा ही महत्वपूर्ण काम ‘अल-क़ानून अल-मसूदी’ है, जो महमूद गजनवी के बेटे मसूद को समर्पित है, जिसमें अल-बीरूनी ने टॉलेमी के ‘अलमगस्त’ जैसे उस वक्त उलपब्ध स्रोतों से सभी खगोलीय ज्ञान एकत्र किए और उनको उस वक्त के ज्ञान के लिहाज से अद्यतन भी किया. हालांकि, इसके हरेक अध्याय में अल-बीरूनी का योगदान रेखांकित किया जा सकता है. मसलन, तीसरे स्तर के समीकरणों को हल करने के लिए अल-बीरूनी ने नए बीजगणितीय तकनीकों का प्रतिपादन किया था. उन्होंने सौर भूउच्च (सोलर अपोजी) की गति और अग्रगमन (परसेशन) की गति के बीच एक बारीक अंतर स्थापित किया. उन्होंने खगोलीय नतीजे हासिल करने के आसान तरीके भी ढूंढे.
उस वक्त के लिहाज से उनका काम, अल-तहफीम ली-आवैल सिनात अल-तंजीन (खगोलविज्ञान के सूत्र) आज भी सबसे बेहतरीन काम माना जाता है. शहरों के बीच की दूरी को सटीक तरीके से मापने की विधि गणितीय भूगोल मे अल-बीरूनी का अद्वीतय योगदान है. उन्होंने गणित पर सवाल उठाने वाले उलेमाओं को गजना से काबे की ओर दिशा और दूरी मापने में गणित के इस्तेमाल से चुप करा दिया.
अल-बीरूनी ने पहाड़ों के बनने पर सवाल खड़े किए और जीवाश्मों के जरिए यह साबित किया कि धरती किसी वक्त पानी के अंदर रही होगी. उन्होंने इस बात को किताब-उल-हिंद के जरिए भी उठाया है.
इनकी किताब इस्तियाब अल-वुजूह अल-मुमकिनाह फी सनात अल-अस्तूरलाब (एक्जॉस्टिव बुक ऑन एस्ट्रोलेब्स) में धरती की गतियों की संभावनाओं पर बात की गई है.
अल-बीरूनी बेशक अपने दौर के सबसे बहुमुखी प्रतिभावान व्यक्तियों में से थे.
अल-बीरूनी सिर्फ वैज्ञानिक ही नहीं थे. बल्कि यह कहना चाहिए कि वह क्या नहीं थे. वह गणितज्ञ, खगोलशास्त्री, एंथ्रोग्राफिस्ट (नृवंशविद), मानवविज्ञानी, इतिहासकार और भूगोलज्ञ थे.
अल-बीरूनी ने छह अलग-अलग शासकों के मातहत काम किया था और उनमें से अधिकतर शासक लड़ाकू प्रवृत्ति के थे और उनका अंत भी युद्ध में या हिंसा की वजह से हुआ था. पर, इन हिंसक घटनाओं के केंद्र में रहने के बाद भी अल-बीरूनी अपनी बहुमुखी प्रतिभा को निखारने में कामयाब रहे.
अल-बीरूनी का जन्म आमू दरिया के दूसरी तरफ ख्वारिज़्म में हुआ था, और उनकी शिक्षा-दीक्षा ख्वारिज़्म-शाह अमीर अबू नस्र मंसूर इब्न इराक ने करवाई थी, जो वहां के राजपरिवार का सदस्य था और संभवतया वह अल-बीरूनी का संरक्षक भी था. असल में, कुछ विद्वानों की राय है कि इस शहजादे ने अपने गणित के कुछ काम अल-बीरूनी को पढ़ाने के लिए तैयार किए थे और कई दफा उसे अल-बीरूनी का काम मान लिया जाता है.
अल-बीरूनी की निजी जिंदगी के बारे में बहुत कम ज्ञात है, पर एक मध्यकालीन किताब में एक जगह उनके खुद के हवाले से कहा गया है कि अल-बीरूनी को अपने पिता के बारे में पता नहीं था.
ऐसा लगता है कि ख्वारिज़्म के शहजादे का संरक्षण अल-बीरूनी के ज्यादा वक्त तक हासिल नहीं रहा और उस शहजादे के एक सहयोगी ने बगावत करके उसकी हत्या कर दी. इससे ख्वारिज्म में एक गृहयुद्ध शुरू हो गया (996-998 ईस्वी) और इसकी वजह से अल-बीरूनी को ख्वारिज़्म छोढ़कर भागना पड़ा और अब उन्हें समानिद वंश के शासकों के यहां शरण लेनी पड़ी. यह खानदान आजकल के पूर्वी ईरान और अफगानिस्तान के ज्यादातर हिस्से पर शासन करता था.
समानिदों की राजधानी बुखारा में अल-बीरूनी के शरण लेने के कुछ ही समय बाद, एक दूसरे स्थानीय लेकिन राज्यच्युत शासक वंश क़ाबूस इब्न वोशमगीर ने भी अपना राजपाट पाने के लिए समानिदों से मदद मांगी. ऐसा लगता है कि समानिदों ने उनको मदद दी क्योंकि इसके बाद अल-बीरूनी अपना विवरण काबूस शासकों के साथ कैस्पियन सागर के पास शहर गुरगान से लिखते हैं. काबूसों के दरबार में ही अल-बीरूनी की मुलाकात एक अन्य दार्शनिक-वैज्ञानिक इब्न-सीना से हुई और उनके बीच दार्शनिक विचारों के आदान-प्रदान हुए. अल-बीरूनी ने अपनी किताब अल-अथर अल-बाकिया एन अल-कुरुन अल-खालिया (प्राचीन राष्ट्रों का क्रम) कुबूस को ही समर्पित है.
कुछ वक्त तक तो अल-बीरूनी लगातार यात्रा करते रहे—या कहें कि युद्ध से भागते रहे और लगातार संरक्षकों की तलाश करते रहे—और उसके बाद समानिदों का पूरा इलाका सुबुक्तगीन के क्रूर बेटे महमूद के कब्जे में आ गया.
998 में महमूद ने गजना पर कब्जा करके उसके राजधानी हना लिया और अल-बीरूनी और इब्न सीना दोनों के अपने दरबार में नौकरी करने का आदेश दिया. इब्न सीना तो किसी तरह निकल भागे लेकिन अल-बीरूनी भाग नहीं पाए और वह गजना में अपने आखिरी दिनों तक काम करते रहे, जब वह महमूद गजवनी के साथ भारत पर हमले में सेना के साथ आए थे. अल-बीरूनी बेशक, एक निर्दयी हत्यारे के अनमने मेहमान थे फिर भी उन्होंने अपनी यात्राओं को शानदार तरीके से कलमबद्ध किया. और उन्होंने हिंदुस्तान के बारे में जो सूक्ष्म ब्योरे दिए उससे वह वैज्ञानिक के साथ-साथ नृवंशविद्, मानवविज्ञानी और भारतीय मामलों के महान इतिहासकार भी मान गए.
अल-बीरूनी के काम की फेहरिस्त बनाना इतिहासकारों के लिए इसलिए भी आसान रहा क्योंकि अल-बीरूनी ने खुद अपने कामों की ऐसी एक सूची तब तैयार कर दी थी, जब वह 60 साल के थे. हालांकि, अल-बीरूनी सत्तर से अधिक सालों तक जीवित रहे, ऐसे में उनके बाद के कुछ काम इस सूची में शामिल नहीं हैं, फिर भी यह सूची पर्याप्त है. इस सूची और बाद में खोजे गए कामों को मिलाकर, इतिहासकारों के मुताबिक (इनसाक्लोपेडिया ब्रिटानिका) अल-बीरूनी ने कुल 146 किताबें लिखी हैं, इनमें से हर करीबन 90 पन्नों की है. उनमें से आधी तो खगोलशास्त्र और गणित पर हैं. पर उनमें से 22 ही मिल पाई हैं और उनमें भी आधी ही प्रकाशित हो पाई हैं.
भारतीय संस्कृति पर उनका काम हिंदुस्तान पर किसी भी ब्योरे में सबसे बढ़िया माना जाता है. इसका शीर्षक, तहकीक मा लिल-हिंद मिन माकुलाह माक्बूला फी अल अक्ल आ मारदुर्लाः (तहकीक-ए-हिंद). इस किताब में हर वह चीज दर्ज है जो अल-बीरूनी हिंदुस्तान के बारे में जुटा पाए थे. इसमे हिंदुस्तान का विज्ञान, धर्म, साहित्य और इसके रीति-रिवाजों का वर्णन है.
उनका ऐसा ही महत्वपूर्ण काम ‘अल-क़ानून अल-मसूदी’ है, जो महमूद गजनवी के बेटे मसूद को समर्पित है, जिसमें अल-बीरूनी ने टॉलेमी के ‘अलमगस्त’ जैसे उस वक्त उलपब्ध स्रोतों से सभी खगोलीय ज्ञान एकत्र किए और उनको उस वक्त के ज्ञान के लिहाज से अद्यतन भी किया. हालांकि, इसके हरेक अध्याय में अल-बीरूनी का योगदान रेखांकित किया जा सकता है. मसलन, तीसरे स्तर के समीकरणों को हल करने के लिए अल-बीरूनी ने नए बीजगणितीय तकनीकों का प्रतिपादन किया था. उन्होंने सौर भूउच्च (सोलर अपोजी) की गति और अग्रगमन (परसेशन) की गति के बीच एक बारीक अंतर स्थापित किया. उन्होंने खगोलीय नतीजे हासिल करने के आसान तरीके भी ढूंढे.
उस वक्त के लिहाज से उनका काम, अल-तहफीम ली-आवैल सिनात अल-तंजीन (खगोलविज्ञान के सूत्र) आज भी सबसे बेहतरीन काम माना जाता है. शहरों के बीच की दूरी को सटीक तरीके से मापने की विधि गणितीय भूगोल मे अल-बीरूनी का अद्वीतय योगदान है. उन्होंने गणित पर सवाल उठाने वाले उलेमाओं को गजना से काबे की ओर दिशा और दूरी मापने में गणित के इस्तेमाल से चुप करा दिया.
अल-बीरूनी ने पहाड़ों के बनने पर सवाल खड़े किए और जीवाश्मों के जरिए यह साबित किया कि धरती किसी वक्त पानी के अंदर रही होगी. उन्होंने इस बात को किताब-उल-हिंद के जरिए भी उठाया है.
इनकी किताब इस्तियाब अल-वुजूह अल-मुमकिनाह फी सनात अल-अस्तूरलाब (एक्जॉस्टिव बुक ऑन एस्ट्रोलेब्स) में धरती की गतियों की संभावनाओं पर बात की गई है.
अल-बीरूनी बेशक अपने दौर के सबसे बहुमुखी प्रतिभावान व्यक्तियों में से थे.
Saturday, May 15, 2021
स्मृतिः इरफान होने का अर्थ
मंजीत ठाकुर
विश्व सिनेमा में ज्यां गोदार को कौन नहीं जानता? 1960 में रिलीज उनकी एक फ्रांसीसी फिल्म ब्रेदलेस (ए बॉट डि सफल) में एक संवाद है, “व्हॉट इज योर ग्रेटेस्ट एंबिशन इन लाइफ?”
“टू बिकम इमॉर्टल... ऐंड देन डाइ”
(“तुम्हारी जिंदगी की सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा क्या है?”
“अमर होना... और फिर मरना”)
यह संवाद हिंदुस्तान के सबसे आला अदाकारों में से एक इरफान को ही पारिभाषित करता है.
कहां से चले थे इरफान? आपको याद है कहां आपने उनको पहली दफा देखा था? संवतया आप डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी के टीवी सीरियल चाणक्य का नाम लेंगे, जिसमें वह सेनापति भद्रबाहु के रूप में दिखे थे या शायद आपको नीरजा गुलेरी की लोकप्रिय सीरीज चंद्रकांता याद हो जिसमें वह दोहरी भूमिका में थे.
पर, इरफान इससे पहले परदे पर नमूदार हो चुके थे.
1987 में इरफान राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से निकले और मीरा नायर की सलाम बॉम्बे में छोटी सी भूमिका में आए. यह बात दीगर है कि उनके उस छोटे किरदार पर भी फाइनल कट में कैंची चल गई. जमाना दूरदर्शन का था, काम की तलाश थी तो एक रूसी लेखक मिखाइल शात्रोव के नाटक का उदय प्रकाश ने हिंदी अनुवाद किया था और नाम था, लाल घास पर नीले घोड़े और उसमें इरफान खान (तब उपनाम खान भी लगाते थे) लेनिन बने. उसके कुछ महीनों बाद डीडी पर एक सीरियल प्रसारित हुआ डर, जिसमें वह मानसिक रूप से अस्थिर हत्यारे की भूमिका में थे और मुख्य खलनायक बने थे. उन दिनों टीवी पर सास-बहू का जलवा नहीं था और टीवी पर ठीक-ठाक कंटेंट पेश किया जाता था. इसी में मशहूर शायर सरदार अली जाफरी ने एक धारावाहिक बनाई जिसका नाम था कहकशां और इरफान खान उर्दू शायर और मार्क्सवादी कार्यकर्ता मखदूम मोहिउद्दीन की भूमिका में नजर आए. नब्बे के दशक में, चाणक्या, भारत एक खोज, सारा जहां हमारा, बनेगी अपनी बात, चंद्रकांता, श्रीकांत, अनुगूंज जैसे धारावाहिकों में नजर आते रहे.
पर, अमरता की दिशा में यह एक छोटा कदम था. इमॉर्टल होना इतना आसान भी तो नहीं. लेकिन नब्बे के दशक से लेकर 2020 आते-आते यह एक्टर, स्टार भी बन गया. अमर भी. जिसकी आंखों में वह कमाल था कि लोग कहें कि इरफान की आंखें बोलती हैं तो यह तारीफ नाचीज सी लगती है. इरफान अंतरराष्ट्रीय स्टार बन गए, जिसके सामने शाहरुख का कद भी छोटा पड़ने लगा. आप लाइफ ऑफ पई याद करें, आप अमेजिंग स्पाइडरमैन याद करें... आप ऑस्कर में झंडे गाड़ने वाली स्लमडॉग मिलियनर याद करें.
आखिर जयपुर के अपने दकियानूसी परिवार से भागकर दिल्ली के एनएसडी में पहुंचने वाले इरफान के लिए क्या इमॉर्टिलिटी की परिभाषा यही रही होगी? क्या उस शख्स के लिए जिसने टीवी एक्टर मुकेश खन्ना (भीष्म पितामह फेम) से सलाह ली थी कि आखिर फिल्मों में काम कैसे हासिल किया जाए, कामयाबी का पैमाना क्या रहा होगा? बाद में, इंडिया टुडे मैगजीन में कावेरी बामजई को दिए अपने इंटरव्यू में इरफान ने कहा था, “उन्होंने मुझसे कहा आप जो हैं वही करते रहें और यह सुनिश्चित करें कि आप एक दिन टीवी से बड़े बनेंगे.” खन्ना से इस सलाह के समय तक इरफान बनेगी अपनी बात के 200 एपिसोड पूरे कर चुके थे और यह सीरियल 1994 से 1998 के बीच प्रसारित हो रहा था. इरफान चंद्रकाता के कई एपिसोड में नमूदार हो चुके थे और स्टार बेस्टसेलर्स में भी. इरफान ने उसी इंटरव्यू में कहा था, “मैं बोर हो रहा था. मैं काम छोड़ने की सोचने लगा था.”
फिर आसिफ कपाड़िया की निगाह उन पर पड़ी थी. और 2001 में रिलीज हुई ब्रिटिश फिल्म द वॉरियर, जिसने इरफान को अंतरराष्ट्रीय ख्याति दी और उनकी प्रतिभा ने अंतराराष्ट्रीय फिल्मकारों का ध्यान खींचा. माइकल विंटरबॉटम ने उन्हें 2007 में अ माइटी हार्ट में पाकिस्तानी पुलिसवाले की भूमिका दी और वेस एंडरसन ने दार्जिलिंग लिमिटेड में उनके लिए खास छोटी भूमिका ही लिखी, ताकि साथ में काम कर सकें.
तो क्या इतने सफर से वह हासिल हो गया, जिसका जिक्र ब्रेदलेस के संवाद में है?
नहीं.
इरफान भरोसेमंद अभिनेता बनना चाहते थे. सफर बाकी था. ताकि लोगों को उनकी फिल्म रिलीज करते समय सोचना न पड़े.
एनएसडी में उन्हें सिखाया गया था कि साहस बहुत जरूरी है. इरफान ने एक इंटरव्यू कहा कि उन्हें समझ में नहीं आया कि आखिर एक एक्टर का साहस से क्या लेना-देना. पर फिर आई, विशाल भारद्वाज की सात खून माफ. इरफान ने अपने उदास शायर के किरदार को थोड़ा स्त्रैण बनाया, थोड़ा महिलाओं जैसा. सर झटकना और हाथ चलाने की अदाएं डालीं. यह एक भूमिका को अलग दिखाने का साहस था, जो एनएसडी ने उन्हें सिखाया था.
और तब एक और साहस की बात हुई. विशाल भारद्वाज ने मकबूल में 2003 में उन्हें रोमांटिक भूमिका दी. यह भी साहस था. और इसके साथ, व्यावसायिक सिनेमा में पहले खलनायक और बाद में कभी हिंदी मीडियम और कभी अंग्रेजी मीडियम के जरिए इरफान नई इबारतें रचते रहे.
फिर, इरफान का नाम लेते ही जब उस एक्टर का चेहरा जेह्न में छपने लगा, जो अभिनय करते वक्त अपनी मांसपेशियों को एक मिलीमीटर भी फालतू की गति नहीं देता, जिसका अपनी पेशियों पर गजब का नियंत्रण था और जो अपने जज्बात को नाटकीय रूप से पेश नहीं करता था. तब मेरे एक सिनेमची दोस्त विकास सारथी ने मुझसे कहा था, जेह्न में नाम लेते ही इस तरह तस्वीर उभर आए, तो यही इमॉर्टिलिटी है, अमरता है.
इरफान ने अमरता हासिल कर ली और फिर उनकी देह किसी और अनंत यात्रा पर निकल गई.
रेस्ट इन पीस. इरफान!
विश्व सिनेमा में ज्यां गोदार को कौन नहीं जानता? 1960 में रिलीज उनकी एक फ्रांसीसी फिल्म ब्रेदलेस (ए बॉट डि सफल) में एक संवाद है, “व्हॉट इज योर ग्रेटेस्ट एंबिशन इन लाइफ?”
“टू बिकम इमॉर्टल... ऐंड देन डाइ”
(“तुम्हारी जिंदगी की सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा क्या है?”
“अमर होना... और फिर मरना”)
यह संवाद हिंदुस्तान के सबसे आला अदाकारों में से एक इरफान को ही पारिभाषित करता है.
कहां से चले थे इरफान? आपको याद है कहां आपने उनको पहली दफा देखा था? संवतया आप डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी के टीवी सीरियल चाणक्य का नाम लेंगे, जिसमें वह सेनापति भद्रबाहु के रूप में दिखे थे या शायद आपको नीरजा गुलेरी की लोकप्रिय सीरीज चंद्रकांता याद हो जिसमें वह दोहरी भूमिका में थे.
पर, इरफान इससे पहले परदे पर नमूदार हो चुके थे.
1987 में इरफान राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से निकले और मीरा नायर की सलाम बॉम्बे में छोटी सी भूमिका में आए. यह बात दीगर है कि उनके उस छोटे किरदार पर भी फाइनल कट में कैंची चल गई. जमाना दूरदर्शन का था, काम की तलाश थी तो एक रूसी लेखक मिखाइल शात्रोव के नाटक का उदय प्रकाश ने हिंदी अनुवाद किया था और नाम था, लाल घास पर नीले घोड़े और उसमें इरफान खान (तब उपनाम खान भी लगाते थे) लेनिन बने. उसके कुछ महीनों बाद डीडी पर एक सीरियल प्रसारित हुआ डर, जिसमें वह मानसिक रूप से अस्थिर हत्यारे की भूमिका में थे और मुख्य खलनायक बने थे. उन दिनों टीवी पर सास-बहू का जलवा नहीं था और टीवी पर ठीक-ठाक कंटेंट पेश किया जाता था. इसी में मशहूर शायर सरदार अली जाफरी ने एक धारावाहिक बनाई जिसका नाम था कहकशां और इरफान खान उर्दू शायर और मार्क्सवादी कार्यकर्ता मखदूम मोहिउद्दीन की भूमिका में नजर आए. नब्बे के दशक में, चाणक्या, भारत एक खोज, सारा जहां हमारा, बनेगी अपनी बात, चंद्रकांता, श्रीकांत, अनुगूंज जैसे धारावाहिकों में नजर आते रहे.
पर, अमरता की दिशा में यह एक छोटा कदम था. इमॉर्टल होना इतना आसान भी तो नहीं. लेकिन नब्बे के दशक से लेकर 2020 आते-आते यह एक्टर, स्टार भी बन गया. अमर भी. जिसकी आंखों में वह कमाल था कि लोग कहें कि इरफान की आंखें बोलती हैं तो यह तारीफ नाचीज सी लगती है. इरफान अंतरराष्ट्रीय स्टार बन गए, जिसके सामने शाहरुख का कद भी छोटा पड़ने लगा. आप लाइफ ऑफ पई याद करें, आप अमेजिंग स्पाइडरमैन याद करें... आप ऑस्कर में झंडे गाड़ने वाली स्लमडॉग मिलियनर याद करें.
आखिर जयपुर के अपने दकियानूसी परिवार से भागकर दिल्ली के एनएसडी में पहुंचने वाले इरफान के लिए क्या इमॉर्टिलिटी की परिभाषा यही रही होगी? क्या उस शख्स के लिए जिसने टीवी एक्टर मुकेश खन्ना (भीष्म पितामह फेम) से सलाह ली थी कि आखिर फिल्मों में काम कैसे हासिल किया जाए, कामयाबी का पैमाना क्या रहा होगा? बाद में, इंडिया टुडे मैगजीन में कावेरी बामजई को दिए अपने इंटरव्यू में इरफान ने कहा था, “उन्होंने मुझसे कहा आप जो हैं वही करते रहें और यह सुनिश्चित करें कि आप एक दिन टीवी से बड़े बनेंगे.” खन्ना से इस सलाह के समय तक इरफान बनेगी अपनी बात के 200 एपिसोड पूरे कर चुके थे और यह सीरियल 1994 से 1998 के बीच प्रसारित हो रहा था. इरफान चंद्रकाता के कई एपिसोड में नमूदार हो चुके थे और स्टार बेस्टसेलर्स में भी. इरफान ने उसी इंटरव्यू में कहा था, “मैं बोर हो रहा था. मैं काम छोड़ने की सोचने लगा था.”
फिर आसिफ कपाड़िया की निगाह उन पर पड़ी थी. और 2001 में रिलीज हुई ब्रिटिश फिल्म द वॉरियर, जिसने इरफान को अंतरराष्ट्रीय ख्याति दी और उनकी प्रतिभा ने अंतराराष्ट्रीय फिल्मकारों का ध्यान खींचा. माइकल विंटरबॉटम ने उन्हें 2007 में अ माइटी हार्ट में पाकिस्तानी पुलिसवाले की भूमिका दी और वेस एंडरसन ने दार्जिलिंग लिमिटेड में उनके लिए खास छोटी भूमिका ही लिखी, ताकि साथ में काम कर सकें.
तो क्या इतने सफर से वह हासिल हो गया, जिसका जिक्र ब्रेदलेस के संवाद में है?
नहीं.
इरफान भरोसेमंद अभिनेता बनना चाहते थे. सफर बाकी था. ताकि लोगों को उनकी फिल्म रिलीज करते समय सोचना न पड़े.
एनएसडी में उन्हें सिखाया गया था कि साहस बहुत जरूरी है. इरफान ने एक इंटरव्यू कहा कि उन्हें समझ में नहीं आया कि आखिर एक एक्टर का साहस से क्या लेना-देना. पर फिर आई, विशाल भारद्वाज की सात खून माफ. इरफान ने अपने उदास शायर के किरदार को थोड़ा स्त्रैण बनाया, थोड़ा महिलाओं जैसा. सर झटकना और हाथ चलाने की अदाएं डालीं. यह एक भूमिका को अलग दिखाने का साहस था, जो एनएसडी ने उन्हें सिखाया था.
और तब एक और साहस की बात हुई. विशाल भारद्वाज ने मकबूल में 2003 में उन्हें रोमांटिक भूमिका दी. यह भी साहस था. और इसके साथ, व्यावसायिक सिनेमा में पहले खलनायक और बाद में कभी हिंदी मीडियम और कभी अंग्रेजी मीडियम के जरिए इरफान नई इबारतें रचते रहे.
फिर, इरफान का नाम लेते ही जब उस एक्टर का चेहरा जेह्न में छपने लगा, जो अभिनय करते वक्त अपनी मांसपेशियों को एक मिलीमीटर भी फालतू की गति नहीं देता, जिसका अपनी पेशियों पर गजब का नियंत्रण था और जो अपने जज्बात को नाटकीय रूप से पेश नहीं करता था. तब मेरे एक सिनेमची दोस्त विकास सारथी ने मुझसे कहा था, जेह्न में नाम लेते ही इस तरह तस्वीर उभर आए, तो यही इमॉर्टिलिटी है, अमरता है.
इरफान ने अमरता हासिल कर ली और फिर उनकी देह किसी और अनंत यात्रा पर निकल गई.
रेस्ट इन पीस. इरफान!
Wednesday, May 12, 2021
बिहार में मुंडन-जनेऊ-ब्याह जीवन से ज्यादा जरूरी है
आज ट्विटर पर मधुबनी के किसी मित्र ने वहां के एक छोटे शहर सकरी के रामशिला अस्पताल के सामने मौजूद भीड़ की चार तस्वीरें चस्पां करते हुए लिखा है, “ये हालात हैं रामशिला हॉस्पिटल, सकरी मधुबनी के बाहर, हॉस्पिटल प्रशासन कह रहा है कि ऑक्सीजन ख़त्म हो गया है. आज का ऑक्सीजन बाकी है कल के लिए कुछ नहीं है. कृपया मदद करें बहुत लोगों की ज़िंदगी का सवाल है.”
बिहार में 4 मई, 2021 को कोविड संक्रमणों की सरकारी संख्या 14,794 थी. ठीक एक महीना पहले 4 अप्रैल, 2021 को यह संख्या 864 थी. महीने भर में सोलह गुना वृद्धि कैसे हुई? वह भी तब, जब टेस्ट कौन करा रहा है, कितने टेस्ट हो रहे हैं और टेस्ट से निकले नतीजे कितने भरोसेमंद हैं इसपर गहरा शक है. असल में, कुछ साल हुए जब न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू ने कहा था कि हिंदुस्तान के 90 फीसद लोग मूर्ख हैं, तो जनता तिलमिला गई थी. पर न्यायमूर्ति सही थे.
पूरे हिंदुस्तान की जनता काटजू साहब के मूर्खता के तराजू पर खरी उतरती है या नहीं, यह तो नहीं पता, लेकिन मेरा गृहराज्य बिहार खरा उतरता है. पिछले डेढ़ दो महीनों में बिहार में सब कुछ हुआ है. जो-जो मुमकिन उत्सव हो सकते हैं. सब कुछ. सारे मांगलिक कार्य, जिसका नतीजा अमंगल में निकलना था. पिछले दो महीनों से प्रवासी बिहारी (सफेद और नीले कमीज पहनने वाले, दोनों) भेड़ियाधंसान करते हुए बिहार भाग रहे थे.
किसी के घर में मुंडन था, किसी के जनेऊ, कहीं भाई का ब्याह था, कहीं बहिन के हाथ पीले होने थे. कोई इसरार कर रहा था कि तुम्हारे बिना कैसे मुमकिन होगा, कोई कह रहा था कि तुम्हारी भांजी का ब्याह है, बारात कौन संभालेगा. एक मित्र ने मुझसे कहा कि उसके भाई का ब्याह है, अब तो दरभंगा में हवाई जहाज भी उतरने लगा है, सीधे आओ, मुजफ्फरपुर तक कार से आकर पार्टी में शामिल हो जाओ और फिर वापस. मेरे खुद के परिवार में विवाह था. मैंने एक सुर से विनम्रता से सबको मना किया, कुछ लोगों ने मुझ पर लानतें भेजीं, पर अधिकतर ने मुझसे रिश्ता तोड़ लिया.
यह सिर्फ मेरी बात नहीं है. आप सबके साथ, जिन्होंने कोविड प्रोटोकॉल का पालन अपने लिए, और देश के लिए किया होगा, ऐसा सहना पड़ा होगा. लेकिन खासतौर पर बिहार में शादी-ब्याह के न्यौतों में शामिल होने का न सिर्फ इसरार किया जा रहा है (अभी भी) बल्कि बाकायदा धमकी तक दी जा रही है उससे तो यही लगता है कि जनता वाकई भांग पीकर बैठी है.
मेरे एक वरिष्ठ राज झा, जो मशहूर विज्ञापन निर्माता हैं और एक साथी किसान-पत्रकार गिरीन्द्रनाथ झा हैं. राज झा मधुबनी के पास और गिरीन्द्र पूर्णिया के पास रहते हैं. उन दोनों ने अपनी सोशल मीडिया पोस्ट्स के जरिए बताया कि बिहार के लोग, कोरोना के प्रसार से जरा भी चिंतित नहीं हैं. बारातें निकल रही हैं, डीजे तेज आवाज में ढिंचक बज रहा है और भोज-भात पूरे शबाब पर है. बिहार में जिसतरह से कोरोना को लेकर लोग लापरवाह रहे हैं, उससे यक्ष-युधिष्ठिर वार्ता में यक्ष का प्रश्न याद आता है.
यक्ष ने पूछा था, आश्चर्य क्या है?
युधिष्ठिर ने कहा, लोग रोज अपने आसपास दूसरों को मरते देखते हैं, पर वह यह कभी नहीं सोचते कि कभी वह भी मर सकते हैं, यही आश्चर्य है.
लोग भले ही यह न सोचें कि कोरोना का संकट कितना गहरा हो सकता है, और उनकी यादद्दाश्त भी इतनी कमजोर है कि पिछले साल इन्हीं दिनों जब कोरोना की वजह से देशव्यापी लॉकडाउन लगा था तो लोगों को सड़को पर पैदल चलते हुए अपने घर लौटना पड़ा था. उन दर्दनाक तस्वीरों में सबसे ज्यादा पैदल प्रवासी बिहार के ही थे. पिछले साल का दर्दनाक मंजर बिहार भूल गया पर शायद वहां की सरकार वहां लोगों से अधिक संवेदनशील साबित हुई है. कम से कम इस बार तो जरूर.
लॉकडाउन की तैयारियों के ही मद्देनजर शायद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने प्रवासियों को जल्दी लौट आने का आग्रह किया और एक ओर जहां, मिथिला, मगध और भोजपुर में ब्याह की शहनाइयां गूंज रही थी, स्पीकर फटने की हद तक डीजे का वॉल्यूम बढ़ा हुआ था, सरकार ने 15 मई तक लॉकडाउन की घोषणा कर दी है.
सच में, बिहार में लोगों ने ‘कोरोना आश्चर्य’ पेश किया है. मैंने मधुबनी जिले में जयनगर के पास दुल्लीपट्टी गांव के एक मित्र को जब फोन पर कहा कि सावधानी जरूरी है, क्योंकि बीमार पड़े तो बिहार में खस्ता स्वास्थ्य सुविधाओं के मद्देनजर ऑक्सीजन भी नहीं मिलेगा. पर दोस्त आत्मविश्वास से लबरेज थे. उन्होंने मुझे फौरन जवाब दिया कि बिहार में ऑक्सीजन की जरा भी कमी नहीं है. आपको कितना ऑक्सीजन चाहिए भला! आइए हमारे गांव... आम की गाछी (अमराई) में ऑक्सीजन ही ऑक्सीजन है.
न्यायमूर्ति काटजू वाकई आप सही थे. क्योंकि कम से कम बिहार निवासियों को यही लगता है कि दुनिया में जीवन से भी आवश्यक अपने चचेरे भाई के सबसे छोटे बेटे का मुंडन है.
बिहार में 4 मई, 2021 को कोविड संक्रमणों की सरकारी संख्या 14,794 थी. ठीक एक महीना पहले 4 अप्रैल, 2021 को यह संख्या 864 थी. महीने भर में सोलह गुना वृद्धि कैसे हुई? वह भी तब, जब टेस्ट कौन करा रहा है, कितने टेस्ट हो रहे हैं और टेस्ट से निकले नतीजे कितने भरोसेमंद हैं इसपर गहरा शक है. असल में, कुछ साल हुए जब न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू ने कहा था कि हिंदुस्तान के 90 फीसद लोग मूर्ख हैं, तो जनता तिलमिला गई थी. पर न्यायमूर्ति सही थे.
पूरे हिंदुस्तान की जनता काटजू साहब के मूर्खता के तराजू पर खरी उतरती है या नहीं, यह तो नहीं पता, लेकिन मेरा गृहराज्य बिहार खरा उतरता है. पिछले डेढ़ दो महीनों में बिहार में सब कुछ हुआ है. जो-जो मुमकिन उत्सव हो सकते हैं. सब कुछ. सारे मांगलिक कार्य, जिसका नतीजा अमंगल में निकलना था. पिछले दो महीनों से प्रवासी बिहारी (सफेद और नीले कमीज पहनने वाले, दोनों) भेड़ियाधंसान करते हुए बिहार भाग रहे थे.
किसी के घर में मुंडन था, किसी के जनेऊ, कहीं भाई का ब्याह था, कहीं बहिन के हाथ पीले होने थे. कोई इसरार कर रहा था कि तुम्हारे बिना कैसे मुमकिन होगा, कोई कह रहा था कि तुम्हारी भांजी का ब्याह है, बारात कौन संभालेगा. एक मित्र ने मुझसे कहा कि उसके भाई का ब्याह है, अब तो दरभंगा में हवाई जहाज भी उतरने लगा है, सीधे आओ, मुजफ्फरपुर तक कार से आकर पार्टी में शामिल हो जाओ और फिर वापस. मेरे खुद के परिवार में विवाह था. मैंने एक सुर से विनम्रता से सबको मना किया, कुछ लोगों ने मुझ पर लानतें भेजीं, पर अधिकतर ने मुझसे रिश्ता तोड़ लिया.
यह सिर्फ मेरी बात नहीं है. आप सबके साथ, जिन्होंने कोविड प्रोटोकॉल का पालन अपने लिए, और देश के लिए किया होगा, ऐसा सहना पड़ा होगा. लेकिन खासतौर पर बिहार में शादी-ब्याह के न्यौतों में शामिल होने का न सिर्फ इसरार किया जा रहा है (अभी भी) बल्कि बाकायदा धमकी तक दी जा रही है उससे तो यही लगता है कि जनता वाकई भांग पीकर बैठी है.
मेरे एक वरिष्ठ राज झा, जो मशहूर विज्ञापन निर्माता हैं और एक साथी किसान-पत्रकार गिरीन्द्रनाथ झा हैं. राज झा मधुबनी के पास और गिरीन्द्र पूर्णिया के पास रहते हैं. उन दोनों ने अपनी सोशल मीडिया पोस्ट्स के जरिए बताया कि बिहार के लोग, कोरोना के प्रसार से जरा भी चिंतित नहीं हैं. बारातें निकल रही हैं, डीजे तेज आवाज में ढिंचक बज रहा है और भोज-भात पूरे शबाब पर है. बिहार में जिसतरह से कोरोना को लेकर लोग लापरवाह रहे हैं, उससे यक्ष-युधिष्ठिर वार्ता में यक्ष का प्रश्न याद आता है.
यक्ष ने पूछा था, आश्चर्य क्या है?
युधिष्ठिर ने कहा, लोग रोज अपने आसपास दूसरों को मरते देखते हैं, पर वह यह कभी नहीं सोचते कि कभी वह भी मर सकते हैं, यही आश्चर्य है.
लोग भले ही यह न सोचें कि कोरोना का संकट कितना गहरा हो सकता है, और उनकी यादद्दाश्त भी इतनी कमजोर है कि पिछले साल इन्हीं दिनों जब कोरोना की वजह से देशव्यापी लॉकडाउन लगा था तो लोगों को सड़को पर पैदल चलते हुए अपने घर लौटना पड़ा था. उन दर्दनाक तस्वीरों में सबसे ज्यादा पैदल प्रवासी बिहार के ही थे. पिछले साल का दर्दनाक मंजर बिहार भूल गया पर शायद वहां की सरकार वहां लोगों से अधिक संवेदनशील साबित हुई है. कम से कम इस बार तो जरूर.
लॉकडाउन की तैयारियों के ही मद्देनजर शायद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने प्रवासियों को जल्दी लौट आने का आग्रह किया और एक ओर जहां, मिथिला, मगध और भोजपुर में ब्याह की शहनाइयां गूंज रही थी, स्पीकर फटने की हद तक डीजे का वॉल्यूम बढ़ा हुआ था, सरकार ने 15 मई तक लॉकडाउन की घोषणा कर दी है.
सच में, बिहार में लोगों ने ‘कोरोना आश्चर्य’ पेश किया है. मैंने मधुबनी जिले में जयनगर के पास दुल्लीपट्टी गांव के एक मित्र को जब फोन पर कहा कि सावधानी जरूरी है, क्योंकि बीमार पड़े तो बिहार में खस्ता स्वास्थ्य सुविधाओं के मद्देनजर ऑक्सीजन भी नहीं मिलेगा. पर दोस्त आत्मविश्वास से लबरेज थे. उन्होंने मुझे फौरन जवाब दिया कि बिहार में ऑक्सीजन की जरा भी कमी नहीं है. आपको कितना ऑक्सीजन चाहिए भला! आइए हमारे गांव... आम की गाछी (अमराई) में ऑक्सीजन ही ऑक्सीजन है.
न्यायमूर्ति काटजू वाकई आप सही थे. क्योंकि कम से कम बिहार निवासियों को यही लगता है कि दुनिया में जीवन से भी आवश्यक अपने चचेरे भाई के सबसे छोटे बेटे का मुंडन है.
Tuesday, May 11, 2021
इब्न सिना थे संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए क्वॉरंटीन का तरीका बताने वाले वैज्ञानिक
आज की तारीख में हिंदुस्तान कोरोना वायरस से बहुत अधिक त्रस्त है और पिछले साल फरवरी–मार्च में जब कोरोना का प्रसार शुरू ही हुआ था तब लोगों ने—जिन्होंने विज्ञान या कृषि विज्ञान नहीं पढ़ा था—एक नया शब्द सुना थाः क्वॉरंटाइन या गाढ़ी हिंदी में जिसका अनुवाद था संगरोध.
वायरस के प्रसार को रोकने के लिए क्वॉरंटाइन करने को सबसे अच्छा तरीका माना गया है और दुनियाभर में और भारत में भी जो लॉकडाउन लगाया गया है, वह भी क्वॉरंटाइन का सामूहिक तरीका ही है. यानी, इसके पीछे अवधारणा है लोगों को संक्रमण से बचाने के लिए एक-दूसरे से अलग-थलग रखना. आपको हैरत होगी कि इस तरीके की खोज की थी, एक मुस्लिम वैज्ञानिक ने और उनका नाम है इब्न सिना.
पश्चिमी देशों में मध्यकाल के इस मुस्लिम वैज्ञानिक को एविशियेना (Avicenna) के नाम से जाना जाता है और उनका समय 980 ईस्वी से 1037 ईस्वी तक का माना जाता है. इनका जन्म बुखारा के पास अफसां में हुआ था और इनका निधन हमदां में हुआ था. इनके माता-पिता ईरानी वंश के थे. इनके पिता खरमैत: के शासक थे. इब्न सिना ने बुखारा में शिक्षा हासिल की और शुरू में कुरान और साहित्य का अध्ययन किया.
इब्न सिना का पूरा नाम अली अल हुसैन बिन अब्दुल्लाह बिन अल-हसन बिन अली बिन सिना है. इब्न सिना न सिर्फ वैज्ञानिक थे, बल्कि यह चिकित्सक, खगोलशास्त्री, गणितज्ञ और दार्शनिक भी थे.
उनकी गणित पर लिखी 6 पुस्तकें मौजूद हैं जिनमें ‘रिसाला अल-जराविया’, ‘मुख्तसर अक्लिद्स’, ‘अला रत्मातैकी’, ‘मुख़्तसर इल्म-उल-हिय’, ‘मुख्तसर मुजस्ता’, ‘रिसाला फी बयान अला कयाम अल-अर्ज़ फी वास्तिससमा’ (जमीन की आसमान के बीच रहने की स्थिति का बयान) शामिल हैं.
असल में, आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था में, जिसे यूरोप ने अपनाया और फिर विकसित किया, इब्न सिना का योगदान बेहद अहम है.
ये इस्लाम के बड़े विचारकों में से थे, इब्न सिना ने 10 साल की उम्र में ही कुरआन हिफ्ज़ कर लिया था. शरिया के अध्ययन के बाद इन्होंने तर्कशास्त्र, गणित, रेखागणित और ज्योतिष में योग्यता हासिल की. जल्दी ही, इन्होंने निजी अध्ययन से भौतिकी और चिकित्सा की पढ़ाई की और हकीमी सीखते हुए ही उसकी प्रैक्टिस भी शुरू कर दी.
एक बार जब बुखारा के सुल्तान नूह इब्न मंसूर बीमार हो गए और उनके इलाज में किसी हकीम की कोई दवा कारगर साबित नहीं हो रही थी, तब इब्न सिना ने उनका इलाज किया था. और उस वक्त उनकी उम्र महज 18 साल की थी.
बहरहाल, इब्न सिना की दवाई से सुल्तान इब्न मंसूर स्वस्थ हो गए तो उन्होंने खुश होकर इब्न सिना को पुरस्कार दिया. और यह पुरस्कार भी खास था. सुल्तान ने उन्हें एक पुस्तकालय सौगात में दिया था. इब्न सिना की स्मरण शक्ति बहुत तेज़ .थी उन्होंने जल्द ही पूरा पुस्तकालय छान मारा और जरूरी जानकारी एकत्र कर ली, और फिर 21 साल की उम्र में अपनी पहली किताब लिखी.
जानकारों का मानना है कि इब्न सिना ने कुल 21 बड़ी और 24 छोटी किताबें लिखी थीं. लेकिन कुछ विद्वानों का दावा है कि उन्होंने 99 किताबों की रचना की.
बिला शक उनकी सबसे मशहूर किताब है ‘किताब अल कानून’, जो चिकित्सा की एक मशहूर किताब है. इस किताब का अनुवाद अन्य भाषाओं में भी हो चुका है. खास बात यह है कि उनकी यह किताब 19वीं सदी के अंत तक यूरोप के विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती रही है.
इन्होंने कई बड़ी पुस्तकें लिखीं जिनमें अधिकतर अरबी में और कुछ फारसी में थीं. इनमें खासतौर पर दर्शन कोश 'किताबुल् शफ़ा', जो 1313 ई. में तेहरान से छपा था, और हकीमी पर लिखा ग्रंथ 'अलक़ानून फीउल् तिब' है जो 1284 ई. में तेहरान से छपा था. 'किताबुल् शफ़ा' अरस्तू के विचारों पर केंद्रित है, जो नव अफ़लातूनी विचारों तथा इस्लामी धर्म के प्रभाव से संशोधित हो गए थे. इसमें संगीत की भी व्याख्या है. इस ग्रंथ के 18 खंड हैं और इसे पूरा करने में 20 महीने लगे थे.
'अल्क़ानून फीउल् तिब' में यूनानी तथा अरबी वैद्यकों का अंतिम निचोड़ पेश किया गया है. इनका एक कसीदा बहुत प्रसिद्ध है जिसमें इन्होंने आत्मा के उच्च लोक से मानव शरीर में उतरने का वर्णन किया है. मंतिक (तर्क या न्याय) में इनकी श्रेष्ठ रचना 'किताबुल् इशारात व अल्शबीहात' है.
इन्होंने अपनी आत्मकथा भी लिखी थी जिसका संकलन इनके प्रिय शिष्य अल्जुर्जानी ने किया.
इब्न सिना के नाम पर कई यूरोपीय देशों में उके नाम से डाक टिकट जारी किये गए हैं. इब्न सिना के जीवन पर पर एक फिल्म भी बनी. 2013 में रिलीज हुई इस फिल्म का नाम था ‘द फिजिशियन’ और इसमें इब्न सिना का किरदार निभाया था हॉलीवुड के मशहूर अदाकार बेन किंग्सले ने.
वायरस के प्रसार को रोकने के लिए क्वॉरंटाइन करने को सबसे अच्छा तरीका माना गया है और दुनियाभर में और भारत में भी जो लॉकडाउन लगाया गया है, वह भी क्वॉरंटाइन का सामूहिक तरीका ही है. यानी, इसके पीछे अवधारणा है लोगों को संक्रमण से बचाने के लिए एक-दूसरे से अलग-थलग रखना. आपको हैरत होगी कि इस तरीके की खोज की थी, एक मुस्लिम वैज्ञानिक ने और उनका नाम है इब्न सिना.
पश्चिमी देशों में मध्यकाल के इस मुस्लिम वैज्ञानिक को एविशियेना (Avicenna) के नाम से जाना जाता है और उनका समय 980 ईस्वी से 1037 ईस्वी तक का माना जाता है. इनका जन्म बुखारा के पास अफसां में हुआ था और इनका निधन हमदां में हुआ था. इनके माता-पिता ईरानी वंश के थे. इनके पिता खरमैत: के शासक थे. इब्न सिना ने बुखारा में शिक्षा हासिल की और शुरू में कुरान और साहित्य का अध्ययन किया.
इब्न सिना का पूरा नाम अली अल हुसैन बिन अब्दुल्लाह बिन अल-हसन बिन अली बिन सिना है. इब्न सिना न सिर्फ वैज्ञानिक थे, बल्कि यह चिकित्सक, खगोलशास्त्री, गणितज्ञ और दार्शनिक भी थे.
उनकी गणित पर लिखी 6 पुस्तकें मौजूद हैं जिनमें ‘रिसाला अल-जराविया’, ‘मुख्तसर अक्लिद्स’, ‘अला रत्मातैकी’, ‘मुख़्तसर इल्म-उल-हिय’, ‘मुख्तसर मुजस्ता’, ‘रिसाला फी बयान अला कयाम अल-अर्ज़ फी वास्तिससमा’ (जमीन की आसमान के बीच रहने की स्थिति का बयान) शामिल हैं.
असल में, आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था में, जिसे यूरोप ने अपनाया और फिर विकसित किया, इब्न सिना का योगदान बेहद अहम है.
ये इस्लाम के बड़े विचारकों में से थे, इब्न सिना ने 10 साल की उम्र में ही कुरआन हिफ्ज़ कर लिया था. शरिया के अध्ययन के बाद इन्होंने तर्कशास्त्र, गणित, रेखागणित और ज्योतिष में योग्यता हासिल की. जल्दी ही, इन्होंने निजी अध्ययन से भौतिकी और चिकित्सा की पढ़ाई की और हकीमी सीखते हुए ही उसकी प्रैक्टिस भी शुरू कर दी.
एक बार जब बुखारा के सुल्तान नूह इब्न मंसूर बीमार हो गए और उनके इलाज में किसी हकीम की कोई दवा कारगर साबित नहीं हो रही थी, तब इब्न सिना ने उनका इलाज किया था. और उस वक्त उनकी उम्र महज 18 साल की थी.
बहरहाल, इब्न सिना की दवाई से सुल्तान इब्न मंसूर स्वस्थ हो गए तो उन्होंने खुश होकर इब्न सिना को पुरस्कार दिया. और यह पुरस्कार भी खास था. सुल्तान ने उन्हें एक पुस्तकालय सौगात में दिया था. इब्न सिना की स्मरण शक्ति बहुत तेज़ .थी उन्होंने जल्द ही पूरा पुस्तकालय छान मारा और जरूरी जानकारी एकत्र कर ली, और फिर 21 साल की उम्र में अपनी पहली किताब लिखी.
जानकारों का मानना है कि इब्न सिना ने कुल 21 बड़ी और 24 छोटी किताबें लिखी थीं. लेकिन कुछ विद्वानों का दावा है कि उन्होंने 99 किताबों की रचना की.
बिला शक उनकी सबसे मशहूर किताब है ‘किताब अल कानून’, जो चिकित्सा की एक मशहूर किताब है. इस किताब का अनुवाद अन्य भाषाओं में भी हो चुका है. खास बात यह है कि उनकी यह किताब 19वीं सदी के अंत तक यूरोप के विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती रही है.
इन्होंने कई बड़ी पुस्तकें लिखीं जिनमें अधिकतर अरबी में और कुछ फारसी में थीं. इनमें खासतौर पर दर्शन कोश 'किताबुल् शफ़ा', जो 1313 ई. में तेहरान से छपा था, और हकीमी पर लिखा ग्रंथ 'अलक़ानून फीउल् तिब' है जो 1284 ई. में तेहरान से छपा था. 'किताबुल् शफ़ा' अरस्तू के विचारों पर केंद्रित है, जो नव अफ़लातूनी विचारों तथा इस्लामी धर्म के प्रभाव से संशोधित हो गए थे. इसमें संगीत की भी व्याख्या है. इस ग्रंथ के 18 खंड हैं और इसे पूरा करने में 20 महीने लगे थे.
'अल्क़ानून फीउल् तिब' में यूनानी तथा अरबी वैद्यकों का अंतिम निचोड़ पेश किया गया है. इनका एक कसीदा बहुत प्रसिद्ध है जिसमें इन्होंने आत्मा के उच्च लोक से मानव शरीर में उतरने का वर्णन किया है. मंतिक (तर्क या न्याय) में इनकी श्रेष्ठ रचना 'किताबुल् इशारात व अल्शबीहात' है.
इन्होंने अपनी आत्मकथा भी लिखी थी जिसका संकलन इनके प्रिय शिष्य अल्जुर्जानी ने किया.
इब्न सिना के नाम पर कई यूरोपीय देशों में उके नाम से डाक टिकट जारी किये गए हैं. इब्न सिना के जीवन पर पर एक फिल्म भी बनी. 2013 में रिलीज हुई इस फिल्म का नाम था ‘द फिजिशियन’ और इसमें इब्न सिना का किरदार निभाया था हॉलीवुड के मशहूर अदाकार बेन किंग्सले ने.
Sunday, April 18, 2021
पंचतत्वः जंगलों का प्रबंधन स्थानीय समुदायों के हाथों में क्यों नहीं देते!
उत्तराखंड के पिथौड़ागढ़ जिले में एक गांव है, सरमोली. यहां की वन पंचायत को राज्य की सबसे बेहतरीन जगहों में गिना जाता है. वजह! इस वन पंचायत की सरपंच मल्लिका विर्दी कहती हैं, "जहां भी जंगल लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा कर रहे हैं, जंगल स्वस्थ हैं."
असल में, सरमोली वन पंचायत ने स्वतः संज्ञान लेकर सामुदायिक वनों का प्रबंधन शुरू किया है, जिसमें यह ध्यान रखा जाता है कि वनोपजों का इस्तेमाल टिकाऊ विकास के मानको के अनुरूप हो. मिसाल के तौर पर,
विर्दी के गांव में, समुदाय के लोग जंगलों से झाड़ियां साफ करते हैं, खरपतवार निकालते हैं और अच्छी गुणवत्ता वाली घास हासिल करते हैं. सरपंच विर्दी के मुताबिक, "अगर जंगलों को ऐसे ही छोड़ दिया जाए, तो झाड़ियां पेड़ों की तरह लंबी हो जाएंगी. इसलिए वनों का प्रबंधन आवश्यक है."
2020-21 के उत्तराखंड आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, उत्तराखंड में 51,125 वर्ग किलोमीटर के कुल क्षेत्र में से लगभग 71.05 फीसद भूमि वनाच्छादित है. इसमें से 13.41 फीसद वन क्षेत्र वन पंचायतों के प्रबंधन के अंतर्गत आता है और राज्य भर में ऐसे 12,167 वन पंचायत हैं.
उत्तराखंड की खासियत है कि हर वन पंचायत स्थानीय जंगल के उपयोग, प्रबंधन और सुरक्षा के लिए अपने नियम खुद बनाती है. ये नियम वनरक्षकों के चयन से लेकर बकाएदारों को दंडित करने तक हैं. सरमोली के विर्दी गांव में, जंगल की सुरक्षा के पंचायती कानून के तहत जुर्माना 50 रुपये से 1,000 रुपये तक है.
असल में, स्थानीय तौर पर वनों के संरक्षण की जरूरत इस संदर्भ में और अधिक महत्वपूर्ण हो जाती हैं, जब उत्तराखंड के जंगल दावानल से जूझ रहे हैं. वैसे,
विर्दी के गांव में, समुदाय के लोग जंगलों से झाड़ियां साफ करते हैं, खरपतवार निकालते हैं और अच्छी गुणवत्ता वाली घास हासिल करते हैं. सरपंच विर्दी के मुताबिक, "अगर जंगलों को ऐसे ही छोड़ दिया जाए, तो झाड़ियां पेड़ों की तरह लंबी हो जाएंगी. इसलिए वनों का प्रबंधन आवश्यक है."
2020-21 के उत्तराखंड आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, उत्तराखंड में 51,125 वर्ग किलोमीटर के कुल क्षेत्र में से लगभग 71.05 फीसद भूमि वनाच्छादित है. इसमें से 13.41 फीसद वन क्षेत्र वन पंचायतों के प्रबंधन के अंतर्गत आता है और राज्य भर में ऐसे 12,167 वन पंचायत हैं.
उत्तराखंड की खासियत है कि हर वन पंचायत स्थानीय जंगल के उपयोग, प्रबंधन और सुरक्षा के लिए अपने नियम खुद बनाती है. ये नियम वनरक्षकों के चयन से लेकर बकाएदारों को दंडित करने तक हैं. सरमोली के विर्दी गांव में, जंगल की सुरक्षा के पंचायती कानून के तहत जुर्माना 50 रुपये से 1,000 रुपये तक है.
असल में, स्थानीय तौर पर वनों के संरक्षण की जरूरत इस संदर्भ में और अधिक महत्वपूर्ण हो जाती हैं, जब उत्तराखंड के जंगल दावानल से जूझ रहे हैं. वैसे,
वन पंचायतें ज्यादातर एक-दूसरे से स्वतंत्र रूप से काम करती हैं, लेकिन सहयोग की मिसालें भी मिलती हैं. सरमोली में ही, जाड़ों में ग्रामीणों को अपने ही जंगल से पर्याप्त घास नहीं मिलती है, वे अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए शंखधुरा के निकटवर्ती गांव में जंगल जाते हैं.
पर इन वन पंचायतों की असली भूमिका, वन संसाधनों के इस्तेमाल को दोहन में तब्दील होने से बचाने की भी है. यहां जून से सितंबर तक मॉनसून में ग्रामीणों और उनके मवेशियों के जंगल में जाने की मनाही होती है. इस अवधि के दौरान, लोग गांव के भीतर से ही अपने मवेशियों के लिए घास और चारे की व्यवस्था करते हैं. कुछ जंगलों में गश्त करने और घुसपैठियों को पकड़ने के लिए ग्रामीणों को भी तैनात किया जाता है.
इस उदाहरण को देश के अन्य जंगलों में भी लागू किया जा सकता है. स्थानीय रूप से जरूर कानून रहे होंगे, और वनोपज के इस्तेमाल को लेकर वनाधिकार कानून भी है. पर, कानून लागू करने में किस स्तर की हीला-हवाली होती है, वह छिपी नहीं है. मसलन, मेरे गृहराज्य झारखंड
में मैंने संताल जनजाति की स्त्रियों को जंगल जाकर साल के पत्ते, दातुन आदि लाते देखा है. वे शाम को लौटते वक्त कई दफा लैंटाना (झाड़ी) भी काट लाती हैं, जलावन के लिए.
पर, उन्हें यह छिपाकर लाना होता है. अगर वन विभाग थोड़े दिमाग की इस्तेमाल करे तो लैंटाना जैसी प्रजाति, जिसके कर्नाटक के जंगल में प्रति वर्ग किमी उन्मूलन के लिए दस लाख रूपए से भी अधिक की लागत आती है, को सफाया मुफ्त में हो सकता है.
लैंटाना ने वन विभाग को परेशान किया हुआ है. वन विभाग चाहे तो स्थानीय लोगों को जंगल के भीतर से इस झाड़ी को काटकर लाने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है.
वनोपजों और उसके प्रबंधन की बात करते हुए मुझे अक्सर ओडिशा के नियामगिरि के जरपा गांव में एक कोंध-डंगरिया महिला की बात याद आती है, जिनके लिए नियामगिरि पर्वत एक पहाड़ भर नहीं था. उसने मुझसे कहा था, ये हमारे नियामराजा है, हमारे घर, हमारा मंदिर, कचहरी, अस्पताल सब.
जंगलों को अगर इस निगाह से देखने लगें और उसकी उपज के दोहन का नहीं, इस्तेमाल और प्रबंधन की जिम्मेदारी और अधिकार स्थानीय समुदायों को दें, तो वन संरक्षण का मामला सरल हो सकता है. पर सवाल नीयत पर जाकर अटक जाता है.
पर इन वन पंचायतों की असली भूमिका, वन संसाधनों के इस्तेमाल को दोहन में तब्दील होने से बचाने की भी है. यहां जून से सितंबर तक मॉनसून में ग्रामीणों और उनके मवेशियों के जंगल में जाने की मनाही होती है. इस अवधि के दौरान, लोग गांव के भीतर से ही अपने मवेशियों के लिए घास और चारे की व्यवस्था करते हैं. कुछ जंगलों में गश्त करने और घुसपैठियों को पकड़ने के लिए ग्रामीणों को भी तैनात किया जाता है.
इस उदाहरण को देश के अन्य जंगलों में भी लागू किया जा सकता है. स्थानीय रूप से जरूर कानून रहे होंगे, और वनोपज के इस्तेमाल को लेकर वनाधिकार कानून भी है. पर, कानून लागू करने में किस स्तर की हीला-हवाली होती है, वह छिपी नहीं है. मसलन, मेरे गृहराज्य झारखंड
में मैंने संताल जनजाति की स्त्रियों को जंगल जाकर साल के पत्ते, दातुन आदि लाते देखा है. वे शाम को लौटते वक्त कई दफा लैंटाना (झाड़ी) भी काट लाती हैं, जलावन के लिए.
पर, उन्हें यह छिपाकर लाना होता है. अगर वन विभाग थोड़े दिमाग की इस्तेमाल करे तो लैंटाना जैसी प्रजाति, जिसके कर्नाटक के जंगल में प्रति वर्ग किमी उन्मूलन के लिए दस लाख रूपए से भी अधिक की लागत आती है, को सफाया मुफ्त में हो सकता है.
लैंटाना ने वन विभाग को परेशान किया हुआ है. वन विभाग चाहे तो स्थानीय लोगों को जंगल के भीतर से इस झाड़ी को काटकर लाने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है.
वनोपजों और उसके प्रबंधन की बात करते हुए मुझे अक्सर ओडिशा के नियामगिरि के जरपा गांव में एक कोंध-डंगरिया महिला की बात याद आती है, जिनके लिए नियामगिरि पर्वत एक पहाड़ भर नहीं था. उसने मुझसे कहा था, ये हमारे नियामराजा है, हमारे घर, हमारा मंदिर, कचहरी, अस्पताल सब.
जंगलों को अगर इस निगाह से देखने लगें और उसकी उपज के दोहन का नहीं, इस्तेमाल और प्रबंधन की जिम्मेदारी और अधिकार स्थानीय समुदायों को दें, तो वन संरक्षण का मामला सरल हो सकता है. पर सवाल नीयत पर जाकर अटक जाता है.
Monday, March 8, 2021
पंचतत्वः अधिक पड़ता है निचले तबकों और औरतों पर जलवायु परिवर्तन का असर
दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन हो रहा है इस बात में किसी को कोई शक नहीं हो सकता और इसके असरात भी हर तबके पर अलग किस्म से पड़ रहे हैं. जलवायु परिवर्तन के असर बहुस्तरीय होते हैं और अब यह देखना भी बेहद दिलचस्प होगा कि आखिर महिलाओं की आधी आबादी पर जलवायु परिवर्तन का क्या असर है.
क्या यह महज पर्यावरणीय मुद्दा न होकर सामाजिक न्याय से जुड़ा मसला भी है? क्या इसको सामाजिक-आर्थिक मसले के रूप में देखने क साथ राजनैतिक मुद्दे के रूप में देखा जा सकता है?
पर्यावरण के मुद्दे पर हुए एक बेविनार में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की प्रोफेसर सुचित्रा सेन ने कहा, “जलवायु परिवर्तन पर असर डालने वाले कारकों में उन्ही बीमारियों जैसी समानता है जो महामारी में तब्दील हो जाती हैं.”
कुछ वैज्ञानिक मानते हैं कि जलवायु परिवर्तन मौसमी घटनाओं में अचानक और अत्यधिक रूप से आई बढोतरी है और जो कई संक्रामक बीमारियों के फैलने में सहायक होती हैं.
प्रो. सेन ने अपने संबोधन में आगे कहा, “वैश्विक आर्थिक परिदृश्य ऐसा हो चला है कि कोई भी महामारी या संक्रमण अब स्थानीय नहीं रहता, वैश्विक रूप अख्तियार कर लेता है.”
वैसे, यह तय है कि जलवायु परिवर्तन का असर गरीबों और अमीरों पर अलग अंदाज में होता है और आने वाली पीढ़ियों में यह और बढ़ेगा ही. उसी वेबिनार में प्रो. सेन ने कहा, “जलवायु परिवर्तन से निबटने के लिए तैयार की गई नीतियां खतरनाक तरीके गैर-बराबरी के नतीजे देंगी और इसमें गरीब और कमजोर लोग नीतियों के दायरे से बाहर हो जाएंगे.”
मानवजनित जलवायु परिवर्तन को स्पष्ट रूप से बढ़ते तापमान, समुद्र के जलस्तर में वृद्धि, ग्लेशियरों के पिघलने, बाढ़, सूखे, हर साल चक्रवात आने की संख्या बढ़ने में देखा जा सकता है, पर जो स्पष्ट रूप से नहीं दिख रहा है कि इन परिवर्तनों का समाज के कमजोर तबको पर क्या खास असर पड़ता है.
चूंकि, यह दिख नहीं रहा है इसलिए यह तबका नीतिगत विमर्शों के दायरे से बाहर है.
असल में सिंधु-गंगा का उत्तरी भारत का मैदान बेहद उपजाऊ है और इस इलाके में खेती में पुरुषों का ही वर्चस्व है. जबकि, समाज में स्त्रियों की दशा की स्थिति में ब्रह्मपुत्र बेसिन में ऊपरी इलाकों में अलग आयाम हैं. पूर्वोत्तर के पहाड़ी इलाकों में कामकाज में महिलाओं की अधिक हिस्सेदारी है और मैदानी भारत की तुलना में पूर्वोत्तर के पहाड़ी इलाकों में महिला साक्षरता की दर भी अलग है.
प्रो सेन ने अपने अध्ययन में भी बताया है कि ब्रह्मपुत्र नदी के नजदीक रहने वालों में गरीबी अधिक है और वह अधिक बाढ़, अपरदन और नदी की धारा बदलने का सामना करते हैं और उनका संपत्ति (भूमि) पर अधिकार भी पारिभाषित नहीं है. ऐसा इसलिए क्योंकि कटाव का असर उधर अधिक होता है. दूसरी तरफ नदी से दूर बसे इलाकों में जमीन की मिल्कियत स्पष्ट रूप से चिन्हित होती है.
जलवायु परिवर्तन के सीधे लक्षणों में अमूमन तापमान और बारिश में बढ़ोतरी को ही शामिल किया जाता है. लेकिन नदी के बढ़ते जलस्तर, जब तब होने वाली बारिश और तूफान, मछली, परिंदों और जानवरों के नस्लों का खत्म होता जाना, भूमि की उर्वरा शक्ति घटना यह ऐसी बातें है, जिनका असर हमारी आधी आबादी पर अधिक पड़ रहा है.
मैदानी इलाकों में भी जहां, खेती का नियंत्रण भले ही मर्दों के हाथ में हो लेकिन खेती के अधिकतर काम, बुआई, कटाई और दोनाई में महिलाओं की हिस्सेदारी अधिक होती है, जलवायु परिवर्तन का असर साफ दिख रहा है.
क्या यह महज पर्यावरणीय मुद्दा न होकर सामाजिक न्याय से जुड़ा मसला भी है? क्या इसको सामाजिक-आर्थिक मसले के रूप में देखने क साथ राजनैतिक मुद्दे के रूप में देखा जा सकता है?
पर्यावरण के मुद्दे पर हुए एक बेविनार में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की प्रोफेसर सुचित्रा सेन ने कहा, “जलवायु परिवर्तन पर असर डालने वाले कारकों में उन्ही बीमारियों जैसी समानता है जो महामारी में तब्दील हो जाती हैं.”
कुछ वैज्ञानिक मानते हैं कि जलवायु परिवर्तन मौसमी घटनाओं में अचानक और अत्यधिक रूप से आई बढोतरी है और जो कई संक्रामक बीमारियों के फैलने में सहायक होती हैं.
प्रो. सेन ने अपने संबोधन में आगे कहा, “वैश्विक आर्थिक परिदृश्य ऐसा हो चला है कि कोई भी महामारी या संक्रमण अब स्थानीय नहीं रहता, वैश्विक रूप अख्तियार कर लेता है.”
वैसे, यह तय है कि जलवायु परिवर्तन का असर गरीबों और अमीरों पर अलग अंदाज में होता है और आने वाली पीढ़ियों में यह और बढ़ेगा ही. उसी वेबिनार में प्रो. सेन ने कहा, “जलवायु परिवर्तन से निबटने के लिए तैयार की गई नीतियां खतरनाक तरीके गैर-बराबरी के नतीजे देंगी और इसमें गरीब और कमजोर लोग नीतियों के दायरे से बाहर हो जाएंगे.”
मानवजनित जलवायु परिवर्तन को स्पष्ट रूप से बढ़ते तापमान, समुद्र के जलस्तर में वृद्धि, ग्लेशियरों के पिघलने, बाढ़, सूखे, हर साल चक्रवात आने की संख्या बढ़ने में देखा जा सकता है, पर जो स्पष्ट रूप से नहीं दिख रहा है कि इन परिवर्तनों का समाज के कमजोर तबको पर क्या खास असर पड़ता है.
चूंकि, यह दिख नहीं रहा है इसलिए यह तबका नीतिगत विमर्शों के दायरे से बाहर है.
असल में सिंधु-गंगा का उत्तरी भारत का मैदान बेहद उपजाऊ है और इस इलाके में खेती में पुरुषों का ही वर्चस्व है. जबकि, समाज में स्त्रियों की दशा की स्थिति में ब्रह्मपुत्र बेसिन में ऊपरी इलाकों में अलग आयाम हैं. पूर्वोत्तर के पहाड़ी इलाकों में कामकाज में महिलाओं की अधिक हिस्सेदारी है और मैदानी भारत की तुलना में पूर्वोत्तर के पहाड़ी इलाकों में महिला साक्षरता की दर भी अलग है.
प्रो सेन ने अपने अध्ययन में भी बताया है कि ब्रह्मपुत्र नदी के नजदीक रहने वालों में गरीबी अधिक है और वह अधिक बाढ़, अपरदन और नदी की धारा बदलने का सामना करते हैं और उनका संपत्ति (भूमि) पर अधिकार भी पारिभाषित नहीं है. ऐसा इसलिए क्योंकि कटाव का असर उधर अधिक होता है. दूसरी तरफ नदी से दूर बसे इलाकों में जमीन की मिल्कियत स्पष्ट रूप से चिन्हित होती है.
जलवायु परिवर्तन के सीधे लक्षणों में अमूमन तापमान और बारिश में बढ़ोतरी को ही शामिल किया जाता है. लेकिन नदी के बढ़ते जलस्तर, जब तब होने वाली बारिश और तूफान, मछली, परिंदों और जानवरों के नस्लों का खत्म होता जाना, भूमि की उर्वरा शक्ति घटना यह ऐसी बातें है, जिनका असर हमारी आधी आबादी पर अधिक पड़ रहा है.
मैदानी इलाकों में भी जहां, खेती का नियंत्रण भले ही मर्दों के हाथ में हो लेकिन खेती के अधिकतर काम, बुआई, कटाई और दोनाई में महिलाओं की हिस्सेदारी अधिक होती है, जलवायु परिवर्तन का असर साफ दिख रहा है.
Tuesday, February 23, 2021
पंचतत्वः एक संकल्प हमारे नदी पोखरों के लिए भी
पूरब के महत्वपूर्ण और पवित्र माने जाने वाले त्योहार छठ का एक अभिन्न हिस्सा है नदी तालाबों में कमर भर पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देना. सूर्य शाश्वत है, पर समाज ने तालाबों और नदियों को बिसरा दिया है. तालाब-पोखरों और नदियों के अस्तित्व पर आया गंभीर संकट इसी बिसराए जाने का परिणाम है. अगस्त के महीने में आपने बिहार, असम और केरल जैसा राज्यों में भयानक बाढ़ की खबरें भी पढ़ी होंगी, ऐसे में अगर मैं यह लिखूं कि देश की बारहमासी नदियां अब मौसमी नदियों में बदल रही हैं और उनमें पानी कम हो रहा है तो क्या यह भाषायी विरोधाभास होगा? पर समस्या की जड़ कहीं और है.
क्या आपने पिछले कुछ बरसों से मॉनसून की बेढब चाल की ओर नजर फेरी है? बारिश के मौसम में बादलों की बेरुखी और फिर धारासार बरसात का क्या नदियों की धारा में कमी से कोई रिश्ता है? मूसलाधार बरसात के दिन बढ़ गए और रिमझिम फुहारों के दिन कम हो गए हैं. मात्रा के लिहाज से कहा जाए तो पिछले कुछ सालों में घमासान बारिश ज्यादा होने लगी है. पिछले 20 साल में 15 सेंटीमीटर से ज्यादा बारिश वाले दिनों में बढोतरी हुई है, लेकिन 10 सेमी से कम बारिश वाले दिनों की गिनती कम हो गई है.
तो मॉनसून की चाल में इस बदलाव का असर क्या नदियों की सेहत पर भी पड़ा है? एक आसान-सा सवाल हैः नदियों में पानी आता कहां से है? मॉनसून के बारिश से ही. और मूसलाधार बरसात का पानी तो बहकर निकल जाता है. हल्की और रिमझिम बरसात का पानी ही जमीन के नीचे संचित होता है और नदियों को सालों भर बहने का पानी मुहैया कराता है. लेकिन नदियों के पानी में कमी से उसका चरित्र भी बदल रहा है और बारहमासी नदियां अब मौसमी नदियों में बदलती जा रही हैं और यह घटना सिर्फ हिंदुस्तान में नहीं पूरी दुनिया की नदियों में देखी जा रही है.
दुनिया की सारी नदियों का बहाव जंगल के बीच से हैं. इसके चलते नदियां बची हैं. जहां नदियों के बेसिन में जंगल काटे गए हैं वहां नदियों में पानी कम हुआ है. नदियों को अविरल बहने के लिए पानी नहीं मिल रहा है. बरसात रहने तक तो मामला ठीक रहता है लेकिन जैसे ही बरसात खत्म होती है नदियां सूखने लग रही हैं. भूजल ठीक से चार्ज नहीं हो रही है. यह मौसमी चक्र टूट गया है.
पुणे की संस्था फोरम फॉर पॉलिसी डायलॉग्स ऑन वॉटर कॉन्फ्लिक्ट्स इन इंडिया का एक अध्ययन बताता है कि बारहों महीने पानी से भरी रहने वाली नदियों में पानी कम होते जाने का चलन दुनिया भर में दिख रहा है और अत्यधिक दोहन और बड़े पैमाने पर उनकी धारा मोड़ने की वजह से अधिकतर नदियां अब अपने मुहानों पर जाकर समंदर से नहीं मिल पातीं. इनमें मिस्र की नील, उत्तरी अमेरिका की कॉलरेडो, भारत और पाकिस्तान में बहने वाली सिंधु, मध्य एशिया की आमू और सायर दरिया भी शामिल है. अब इन नदियों की औकात एक पतले नाले से अधिक की नहीं रह गई है. समस्या सिर्फ पानी कम होना ही नहीं है, कई बारहमासी नदियां अब मौसमी नदियों में बदल रही हैं.
वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड ने पहली बार दुनिया की लंबी नदियों का एक अध्ययन किया है और इसके निष्कर्ष खतरनाक नतीजों की तरफ इशारा कर रहे हैं. मई, 2019 में प्रकाशित इस रिपोर्ट में कहा गया है कि धरती पर 246 लंबी नदियों में से महज 37 फीसदी ही बाकी बची हैं और अविरल बह पा रही हैं.
इस अध्ययन में आर्कटिक को छोड़कर बाकी सभी नदी बेसिनों में जंगलों की बेतहाशा कटाई हुई है. अमेज़न के वर्षावनों का वजूद ही अब खतरे में है. सिर्फ अमेज़न नदी पर 1500 से ज़्यादा पनबिजली परियोजनाएं हैं. विकास की राह में नदियों की मौत आ रही है.
इसकी मिसाल गंगा भी है. पिछले साल जून के दूसरे पखवाड़े में उत्तर प्रदेश के जलकल विभाग को एक चेतावनी जारी करनी पड़ी क्योंकि वाराणसी, प्रयागराज, कानपुर और दूसरी कई जगहों पर गंगा नदी का जलस्तर न्यूनतम बिंदु तक पहुंच गया था. इन शहरों में कई जगहों पर गंगा इतनी सूख चुकी थी कि वहां डुबकी लगाने लायक पानी भी नहीं बचा था. कानपुर में गंगा की धारा के बीच में रेत के बड़े-बड़े टीले दिखाई देने लगे थे. यहां तक कि पेयजल की आपूर्ति के लिए भैरोंघाट पंपिंग स्टेशन पर बालू की बोरियों का बांध बनाकर पानी की दिशा बदलनी पड़ी. गर्मियों में गंगा के जलस्तर में आ रही कमी का असर और भी तरीके से दिखने लगा था क्योंकि प्रयागराज, कानपुर और वाराणसी के इलाकों में हैंडपंप या तो सूख गए या कम पानी देने लगे थे.
पानी कम होने का ट्रेंड देश की लगभग हर नदी में है और नदी बेसिनों में बारिश की मात्रा में कमी भी है. हमने इस पर अभी ध्यान नहीं दिया तो बड़ी संपदा से हाथ धो देंगे.
क्या आपने पिछले कुछ बरसों से मॉनसून की बेढब चाल की ओर नजर फेरी है? बारिश के मौसम में बादलों की बेरुखी और फिर धारासार बरसात का क्या नदियों की धारा में कमी से कोई रिश्ता है? मूसलाधार बरसात के दिन बढ़ गए और रिमझिम फुहारों के दिन कम हो गए हैं. मात्रा के लिहाज से कहा जाए तो पिछले कुछ सालों में घमासान बारिश ज्यादा होने लगी है. पिछले 20 साल में 15 सेंटीमीटर से ज्यादा बारिश वाले दिनों में बढोतरी हुई है, लेकिन 10 सेमी से कम बारिश वाले दिनों की गिनती कम हो गई है.
तो मॉनसून की चाल में इस बदलाव का असर क्या नदियों की सेहत पर भी पड़ा है? एक आसान-सा सवाल हैः नदियों में पानी आता कहां से है? मॉनसून के बारिश से ही. और मूसलाधार बरसात का पानी तो बहकर निकल जाता है. हल्की और रिमझिम बरसात का पानी ही जमीन के नीचे संचित होता है और नदियों को सालों भर बहने का पानी मुहैया कराता है. लेकिन नदियों के पानी में कमी से उसका चरित्र भी बदल रहा है और बारहमासी नदियां अब मौसमी नदियों में बदलती जा रही हैं और यह घटना सिर्फ हिंदुस्तान में नहीं पूरी दुनिया की नदियों में देखी जा रही है.
दुनिया की सारी नदियों का बहाव जंगल के बीच से हैं. इसके चलते नदियां बची हैं. जहां नदियों के बेसिन में जंगल काटे गए हैं वहां नदियों में पानी कम हुआ है. नदियों को अविरल बहने के लिए पानी नहीं मिल रहा है. बरसात रहने तक तो मामला ठीक रहता है लेकिन जैसे ही बरसात खत्म होती है नदियां सूखने लग रही हैं. भूजल ठीक से चार्ज नहीं हो रही है. यह मौसमी चक्र टूट गया है.
पुणे की संस्था फोरम फॉर पॉलिसी डायलॉग्स ऑन वॉटर कॉन्फ्लिक्ट्स इन इंडिया का एक अध्ययन बताता है कि बारहों महीने पानी से भरी रहने वाली नदियों में पानी कम होते जाने का चलन दुनिया भर में दिख रहा है और अत्यधिक दोहन और बड़े पैमाने पर उनकी धारा मोड़ने की वजह से अधिकतर नदियां अब अपने मुहानों पर जाकर समंदर से नहीं मिल पातीं. इनमें मिस्र की नील, उत्तरी अमेरिका की कॉलरेडो, भारत और पाकिस्तान में बहने वाली सिंधु, मध्य एशिया की आमू और सायर दरिया भी शामिल है. अब इन नदियों की औकात एक पतले नाले से अधिक की नहीं रह गई है. समस्या सिर्फ पानी कम होना ही नहीं है, कई बारहमासी नदियां अब मौसमी नदियों में बदल रही हैं.
वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड ने पहली बार दुनिया की लंबी नदियों का एक अध्ययन किया है और इसके निष्कर्ष खतरनाक नतीजों की तरफ इशारा कर रहे हैं. मई, 2019 में प्रकाशित इस रिपोर्ट में कहा गया है कि धरती पर 246 लंबी नदियों में से महज 37 फीसदी ही बाकी बची हैं और अविरल बह पा रही हैं.
इस अध्ययन में आर्कटिक को छोड़कर बाकी सभी नदी बेसिनों में जंगलों की बेतहाशा कटाई हुई है. अमेज़न के वर्षावनों का वजूद ही अब खतरे में है. सिर्फ अमेज़न नदी पर 1500 से ज़्यादा पनबिजली परियोजनाएं हैं. विकास की राह में नदियों की मौत आ रही है.
इसकी मिसाल गंगा भी है. पिछले साल जून के दूसरे पखवाड़े में उत्तर प्रदेश के जलकल विभाग को एक चेतावनी जारी करनी पड़ी क्योंकि वाराणसी, प्रयागराज, कानपुर और दूसरी कई जगहों पर गंगा नदी का जलस्तर न्यूनतम बिंदु तक पहुंच गया था. इन शहरों में कई जगहों पर गंगा इतनी सूख चुकी थी कि वहां डुबकी लगाने लायक पानी भी नहीं बचा था. कानपुर में गंगा की धारा के बीच में रेत के बड़े-बड़े टीले दिखाई देने लगे थे. यहां तक कि पेयजल की आपूर्ति के लिए भैरोंघाट पंपिंग स्टेशन पर बालू की बोरियों का बांध बनाकर पानी की दिशा बदलनी पड़ी. गर्मियों में गंगा के जलस्तर में आ रही कमी का असर और भी तरीके से दिखने लगा था क्योंकि प्रयागराज, कानपुर और वाराणसी के इलाकों में हैंडपंप या तो सूख गए या कम पानी देने लगे थे.
पानी कम होने का ट्रेंड देश की लगभग हर नदी में है और नदी बेसिनों में बारिश की मात्रा में कमी भी है. हमने इस पर अभी ध्यान नहीं दिया तो बड़ी संपदा से हाथ धो देंगे.