देश के विभिन्न हिस्सों में नववर्ष अलग रीतियों से मनाए जाते हैं. गुड़ी परवा हो या बैशाखी, बिहू हो या फिर जूड़-शीतल. जूड़ शीतल मिथिला का परंपरागत त्योहार है, जो मूल रूप से पर्यावरण संरक्षण, जल संरक्षण और स्वच्छता से जुड़ा है. इस त्योहार के साथ ही मिथिला के नववर्ष की शुरुआत होती है.
असल में, यह मिथिला की प्रकृतिपूजक संस्कृति का अद्भुत त्योहार है. इस त्योहार के संबंध में अयोध्या प्रसाद ‘बहार’ ने अपनी किताब ‘रियाज-ए-तिरहुत’में भी ऐसा ही जिक्र किया है. लेकिन, परंपराओं के परे, ग्लोबल वॉर्मिंग के इस दौर में, जब समूची कुदरत में अलग-अलग किस्म के बदलाव दिख रहे हैं और दर्ज किए जा रहे हैं, जब परंपराओं को खारिज किया जा रहा है, उस वक्त इस त्योहार की सार्थकता और उपयोगिता और अधिक बढ़ जाती है.
जूड़-शीतल उस इलाके की परंपरा है जहां डूबते सूर्य को भी छठ में अर्घ्य दिया जाता है. जूड़ शीतल में गर्मी से पहले तालाब की उड़ाही और चूल्हे की मरम्मत भी की जाती है. चूल्हे को भी आराम देने की शायद मैथिला की संस्कृति एकमात्र संस्कृति है.
जूड़-शीतल में कर्मकांड नहीं होते. यह लोकपर्व है. इससे जुड़ी कहानियां भी नहीं हैं और बाजार को भी इससे कुछ खास हासिल नहीं होता, न ग्रीटिंग कार्ड और न बेचने लायक कुछ सामान, ऐसे में भारत के लोग इसके बारे में ज्यादा नहीं जानते. यहां तक कि मिथिला में भी अब इसका दायरा सिमटता जा रहा है.
मूलतः यह त्योहार शुचिता और पवित्रता का त्योहार है. और इस दो दिनों तक मनाया जाता है. इसके पहले दिन को कहते हैं सतुआइन और दूसरे दिन को कहते हैं धुरखेल.
सतुआइनः अमूमन यह 14 अप्रैल को मनाया जाता है और जैसा कि इसके नाम से ही प्रतीत होता है, इसका रिश्ता सत्तू के साथ है. सतुआइन के दिन लोग सत्तू और बेसन से बने व्यंजन खाते हैं. वैसे भी सत्तू को बिहारी हॉर्लिक्स कहा जाता है. पर गर्मी के इस मौसम में, सत्तू और बेसन के व्यंजनों के खराब होने का अंदेशा कम होता है, इसलिए सत्तू और बेसन के इस्तेमाल के पीछे यह तर्क दिया जा सकता है. आखिर, अगले दिन चूल्हा नहीं जलना और बासी खाना ही खाना होता है.
सतुआइन के दिन की भोर में घर में सब बड़ी स्त्री परिवार के सभी छोटों के सर पर एक चुल्लू पानी रखती है. ऐसा माना जाता है कि ऐसा करने से पूरी गर्मी के मौसम में सर ठंडा रहेगा. सतुआइन के दिन अपने सभी पेड़ों में पानी देना जरूरी होता है. गांव के हर वर्ग, और वर्ण के लोग हर पेड़ में एक-एक लोटा पानी जरूर डालते हैं. हालांकि, इस काम को अनिवार्य बनाने के वास्ते इसको भी पाप और पुण्य से जोड़ दिया गया है और इसलिए कहा जाता है कि सतुआइन के दिन पेड़ों में जल देने से पुण्य हासिल होता है.
धुरखेलः धुरखेल 15 अप्रैल को मनाया जाता है और मिथिला में इस दिन की बहुत अहमियत है. साल का यह ऐसा दिन होता है जब घर के चूल्हे की मरम्मत होती है. याद रखना चाहिए कि यह त्योहार उस दौर के हैं जब घरों में लकड़ी के चूल्हे चलते थे जो मिट्टी के बने होते थे.
इस दिन सुबह उठकर लोग उन सभी स्थानों की सफाई करते हैं जहां पर पानी जमा होता है. मसलन, तालाब, कुएं, मटके, आदि. तालाबों की उड़ाही की जाती है और उसकी तली से निकली चिकनी मिट्टी से चूल्हों की मरम्मत होती है. मिट्टी की उड़ाही के दौरान लड़के-बच्चे एक-दूसरे पर पानी या कीचड़ फेंकते हैं.
पर वह कीचड़ गंदा नहीं होता था. क्योंकि तालाब और पोखरे रोजमर्रा के इस्तेमाल में आते थे और पानी गंदा नही हो पाता था. प्रदूषण भी कम होता था, लोगों और मवेशियों के लिए अलग तालाब होते थे. बहरहाल, तालाबों और कुओं की सफाई के दौरान इस छेड़छाड़ और मजाक से समाज के विभिन्न वर्गों में मेल-मिलाप बढ़ता था.
लोकपर्व छठ की ही तह जूड़-शीतल में न तो कोई कर्मकांड होता है और न ही कोई धर्म या जाति का बंधन. गांव के लोग मिल-जुलकर सार्वजनिक और निजी जलागारों की सफाई करते हैं.
हालांकि, परंपरापसंद लोग शहरों में अपने वॉटर फिल्टर, टंकियों और पंप की सफाई करके इस त्योहार को मनाते हैं. मिट्टी के चूल्हे की मरम्मत की जगह कई लोग गैसचूल्हे की ओवरहॉलिंग करवा लेते हैं.
जूड़-शीतल में तालाबों से लेकर रसोई तक की सफाई के बाद लोग बासी भोजन करते हैं. खासतौर पर बासी चावल और दही से बने कढ़ी-बड़ी (पकौड़े) खाने का चलन है. कई स्थानों पर पतंगें भी उड़ाई जाती हैं और कई गांवों मे जूड़-शीतल के मेले भी लगते हैं.
मिथिला में तालाबों की उड़ाही के दौरान धुरखेल किया जाता है और तालाब की तली की मिट्टी से एकदूसरे को नहलाया जाता है