Monday, March 27, 2023

रिश्तों की सिलवट को दूर करें, एंट्रॉपी से सीख लें

आपने 'एन्ट्रॉपी' के बारे में सुना है?

किसी भी तंत्र में अव्यवस्था या अनियमतिता की मात्रा एंट्रॉपी कही जाती है. थर्मोडायनेमिक्स का दूसरा नियम कहता है कि एंट्रॉपी समय के साथ बढ़ती जाती है. यह समय के साथ किसी तंत्र की अस्थिरता प्रदर्शित करती है यदि उसे स्थिर रखने के लिए ऊर्जा का कोई निवेश न किया जाए.

एक मिसाल लीजिए. मान लीजिए कि आप लाइब्रेरी से एक किताब घर लाते हैं. आपको पिताजी ने एक और किताब आपको उपहार में दी है. आपकी गर्लफ्रेंड ने आपको एक मैगजीन दिया और आपके पास अपनी भी कुछ किताबें और म्युजिक सीडी का भंडार है और आपने यह सब अपनी मेज पर ढेर के रूप में रख दिया है. जहां पहले से कलमें, पेंसिलें, और बहुत सारा अल्लम-गल्लम पड़ा हो. सोचिए जरा कितनी अस्त-व्यस्तता हो जाएगी.

यही नहीं, यह भी मान लीजिए कि आपके कपड़े फर्श पर बिखरे हुए हैं. बिस्तर पर गीला तौलिया है और जुराबें बिस्तर के नीचे हैं, आपकी जींस पेंट कुरसी पर लटकी हुई है और व्यवस्था में एक किस्म की अराजकता है.

आप आखिरकार इस गड़बड़ से परेशान हो जाएंगे. आप चीजों को व्यवस्थित करना शुरू कर देते हैं. आप किताबों को आलमारी में करीने से रखते हैं और कपड़ों को धो-सुखाकर इस्तिरी करके आलमारी में उसकी जगह पर रखते हैं और अपना बिस्तर भी ठीक करते हैं. अब आपका कमरा व्यवस्थित और साफ-सुथरा दिखने लगता है. और यह स्थिति तब तक बनी रहती है जब तक आप दोबारा सामान न बिखेर दें. यानी, आपको कमरे को व्यवस्थित रखने के लिए लगातार ऊर्जा का निवेश करते रहना होगा.

जैसा पहले भी कहा है मैंने, किसी भी तंत्र में अव्यवस्था या अनियमतिता की मात्रा एंट्रॉपी कही जाती है. थर्मोडायनेमिक्स का दूसरा नियम कहता है कि 'एंट्रॉपी' 'समय' के साथ बढ़ती जाती है. यह समय के साथ किसी तंत्र की 'अस्थिरता' प्रदर्शित करती है यदि उसे स्थिर रखने के लिए ऊर्जा का कोई निवेश न किया जाए.

यह 'एंट्रॉपी का सिद्धांत' रिश्तों पर भी लागू होता है. मानवीय रिश्ते भी उस अव्यवस्था से अस्थिर हो सकते हैं. हम अंदर ही अंदर चीजों को इकट्ठा होने देते हैं. आंतरिक अव्यवस्था बढ़ने का कारण यह है कि हम अत्यधिक भावनाओं और प्रतिक्रियाओं को इकट्ठा करते हैं. ठीक वैसे ही, जैसे कमरे में पड़ी किताबें और कपड़े.

हम नाराजगी और चिड़चिड़ाहट को पालते रहते हैं और यदि इसके समाधान के लिए कुछ न किया जाए, तो किसी दिन फट पड़ते हैं. रिश्तों को स्थायित्व देने के लिए हमें कुछ निवेश करने की जरूरत होती है. रिश्तों की सिलवटों को दूर करना होता है ताकि हम हमेशा के लिए उन बातों को अपने मन में पालते और जमा करते न रहें.
बूझे?

Thursday, March 23, 2023

आने वाले दशक भयावह जलसंकट के होंगे

दुनिया पानी में है लेकिन पीने लायक पानी में नहीं. पूरी धरती पर मौजूद कुल पानी का महज 4 फीसद हिस्सा ही पीने लायक है. और कहने वाले कहते हैं कि तीसरा विश्वयुद्ध पानी की वजह से लड़ा जाएगा.

दुनियाभर के 40 देश गहरे जलसंकट से जूझ रहे हैं और बढ़ती आबादी और बढ़ते शहरीकरण के मद्देनजर भारत में भी यह संकट गहरा होता जा रहा है. भूमिगत जल तेजी से नीचे खिसकता जा रहा है. जैसे-जैसे दुनिया की आबादी बढ़ती जाएगी, शहरीकरण भी बढ़ता जाएगा और उसके साथ जलवायु परिवर्तन भी तेज होगा और इसके प्रभाव भी स्पष्ट रूप से दिखने लगे हैं.

इसके साथ ही लोगों की खाने की आदतों में भी बदलाव आएगा और इन सबके मिले-जुले प्रभाव से भविष्य में पानी का मांग में जबरदस्त इजाफा होगा.

नीति आयोग ने जून, 2019 में ‘कंपॉजिट वाटर मैनेजमेंट इंडैक्स रिपोर्ट’ जारी की थी, इसमें बताया गया है कि देश में 60 करोड़ लोग अत्यधिक जल संकट का सामना कर रहे हैं. विशेषज्ञों के मुताबिक, सालाना 1700 क्यूबिक मीटर प्रतिव्यक्ति से कम पानी की उपलब्धता को ‘जलसंकट’ माना जाता है.

मौजूदा चलन के हिसाब से देखा जाए तो 2030 तक जल की मांग में करीबन 40 फीसद की वृद्धि होगी और धारा के विरुद्ध (अपस्ट्रीम) जलापूर्ति के लिए सरकारों को करीबन 200 अरब डॉलर सालाना खर्च करना होगा. इसकी वजह यह होगी कि पानी की मांग जलापूर्ति के सस्ते साधनों से पूरी नहीं हो पाएगी. वैसे, बता दें अभी दुनिया भर में कुल मिलाकर औसतन 40 से 45 अरब डॉलर का खर्च जलापूर्ति यानी वॉटर सप्लाई पर आता है.

टिकाऊ विकास के लिए स्वच्छ जल का विश्वसनीय स्रोत होना बेहद जरूरी है. जब स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं होगा, तो दुनिया की गरीब आबादी को अपनी आमदनी का बड़ा हिस्सा इसे खरीदने में खर्च करना होगा, या फिर उनकी जिंदगी का बड़ा हिस्सा इसको ढोने में खर्च हो जाएगा. इससे विकास बाधित होगा.

पूरी दुनिया में ताजे पानी के एक फीसद का भी आधा हिस्सा ही मानवता और पारितंत्र (इकोसिस्टम्स) की जरूरतों के लिए उपलब्ध है. जाहिर है, हमें कम मात्रा में इसका इस्तेमाल बेहतर तरीके से करना सीखना होगा. मिसाल के तौर पर, दुनिया भर में ताजे पानी का खर्च का 70 फीसद हिस्सा कृषि सेक्टर में इस्तेमाल में लाया जाता है. दुनिया भर में आबादी बढ़ने के साथ ही, कृषि क्षेत्र भी जल संसाधनों पर दबाव बढ़ाने लगेगा.

ऐसे में हमें उन जल संरक्षण परंपराओं को ध्यान में रखना और विकसित करना होगा, जिसको हमारे पुरखे अपनाते आए हैं. पर हमें खास खयाल रखना होगा कि नदियां बची रहें. हमने लापरवाही की वजह से, और कई बार जान-बूझकर कई नदियों को खत्म कर दिया है. बहुत सारी नदियां बारहमासी नदियों से मौसमी नदियों में तब्दील हो गई हैं. ज्यादातर नदियों की पाट में अतिक्रमण करके घर, खेत, फैक्ट्री, रिजॉर्ट बना लिए गए हैं.

असल में, नदियों को लेकर हमारे विचारों में बहुत पोलापन है. या तो हम सीधे मां और देवी कह कर नदियों की आरती करेंगे, चूनर और प्रसाद चढ़ाएंगे, लेकिन अपने घरों का गू भी उसी में बहाएंगे.

आम तौर पर माना जाता है कि नदी का काम पानी ले जाना है, जो आगे जाकर समुद्र में मिल जाती है. लेकिन, क्या हमने कभी यह सुना है कि नदी का काम गाद ले जाना भी है? ख़ासकर गंगा जैसी नदियों के संदर्भ में यह और भी महत्वपूर्ण है. यह बुनियादी सोच ही शायद योजनाओं और परियोजनाओं में जगह नहीं बना पाई है.

मैं आज, 2023 में आपको अगले पांच सालों में भयावह रूप अख्तियार कर रहे जल संकट की चेतावनी दे रहा हूं. हमारी आबादी पेड़ों और नदियों की दुश्मन हो गई है, अभी भी नहीं चेते तो बाद में मैय्यो-दय्यो करने से कुछ हासिल नहीं होगा.

Monday, March 20, 2023

माइक लेकर चिल्ला दिए तो बन गए अर्णव गोस्वामी?

अभी एक यूट्यूब के गिरफ्तार होने पर बहुत लोग अपने-अपने ध्रुवों पर खड़े हो गए. कुछ लोगो मनीष कश्यप के खांटी विरोधी दिखे, कुछ सपोर्ट में हैं.

पर, पत्रकारिता को लेकर एक गहन विमर्श अब समय की आवश्यकता हो गई है. कौन है पत्रकार? क्या है पत्रकारिता? माइक लेकर खड़े हो गए और बन गए अर्णब गोस्वामी?

सोशल मीडिया पत्रकारिता का सबसे सबल माध्यम है. लेकिन, अभिव्यक्ति की इस आजादी का हम दुरुपयोग तो नहीं कर रहे?

पत्रकार बनने से पहले, व्यक्ति लोकप्रिय होना चाहता है. वह खुद मीम बनाना नहीं, बल्कि मीम का विषय बनना चाहता है. वह चिल्लाना चाहता है जैसे टीवी पर उनके आदर्श चीख रहे हैं.

एक वीडियो में तो कोरोना काल में एक पत्रकार मुखिया प्रत्याशी को थप्पड़ मारता दिखा था मुझे. मुझे पता है वह स्टेज्ड था. वह स्क्रिप्टेड था लेकिन डिस्क्लेमर तो उसने बाद में लगाया. वह वायरल हुआ, लोग हंसे, पर पत्रकारिता की भद पिट गई. पत्रकारिता वाकई में इतनी छोटी चीज नहीं कि माइक लेकर खड़े हो गए और बन गए ....!

मेरे एक फेसबुक मित्र ने, नाम याद नहीं आ रहा, लिखा कि ऐसे यूट्यूबरों से माइक छीन ली जाए. नहीं. कत्तई नहीं. इससे अभिव्यक्ति की आजादी पर बंदिश आयद होगी और उन लोगों की माइक भी छीन ली जाएगी जो वाकई बेहद उम्दा काम कर रहे हैं. जो लोग जमीनी काम कर रहे हैं, जो सिद्धांतो के तहत काम कर रहे हैं.

आपको याद होगा कि कुछ यूट्यूबर पत्रकार स्कूल में कक्षाओं में घुसकर शिक्षकों से अंग्रेजी शब्दों की स्पेलिंग पूछने लगते हैं. ऐसे वीडियो काफी पॉपुलर होते हैं. पर, क्या यह वाकई मापदंडों के तहत पत्रकारिता भी है? क्या उन वीडियोज के बाद पुलिस ने स्कूल में जबरिया घुसने और वीडियोग्राफी करने पर कोई एक्शन लिया? इन पत्रकारों से किसी ने पत्रकारिता के स्तर वाले सवाल पूछे?

लेकिन इसके बरअक्स एक विचार मेरे मन में यह भी है कि अगर फेक न्यूज के मामले में छोटे स्तर के यूट्यूबर धरे जा रहे हैं तो उन अखबारों पर क्या कार्रवाई हुई जिन्होंने यह फेक खबर प्रकाशित की थी. अब तक अखबार में छपी खबरों को हम लगभर विश्वसनीय मान रहे थे. दूसरी बात, क्रेडिबिलिटी की बात हो तो एक नामी एंकर ने दो हजार के नोट में चिप वाली खबर बना दी. वह आज भी प्रतिष्ठित एंकर हैं, कॉमिडी वॉमिडी शो में नमूदार हो रही हैं. उनकी क्रेडिबिलिटी को कोई खतरा नहीं हुआ. क्यों?

जब मैं आइआइएमसी में पढ़ता था तो स्वनामधन्य प्रभाष जोशी हमारी कक्षा लेने आए थे. आजकल के छौने पत्रकारों को प्रभाष जी का नाम भी नहीं पता. (जी हां, मैं मजाक नहीं कर रहा, मैंने अपने छात्रों से पूछा तो प्रभाष जोशी ही नहीं, उन्हें कुलदीप नैय्यर, पी. साईंनाथ वगैरह किसी का कुछ पता नहीं था)

बहरहाल, आदरणीय प्रभाष जोशी ने 2004 के लोकसभा चुनावों में एक्जिट पोल के गलत हो जाने के संदर्भ में एक किस्सा सुनाया था कि मध्य प्रदेश में मालवा इलाके में जानपांड़े हुआ करते थे.

जानपांड़े यानी ज्ञानपांडे.

उन दिनों जब कुआं खोदना ही पानी हासिल करने का एकमात्र विकल्प था, जमीन की छाती खोदने पर पत्थर निकल आए तो खर्चा और मेहनत दोनों बेकार हो जाते. इसलिए लोग ऐसे विशिष्ट व्यक्तियों को खोजकर लाते थे जो जमीन के कंपन को समझ कर बतला देते थे कि अमुक जगह पर खोदो तो पानी निकलेगा.

अधिकतर मामलों में जानपांड़े सही होते थे.

पत्रकारों को ऐसे ही जानपांड़े होना चाहिए. चीखकर, गाली-गलौज की भाषा के जरिए क्षणिक लोकप्रियता मिल जाएगी. पर, इससे उन लोगों का बुरा होगा, जो जमीनी स्तर पर अच्छी पत्रकारिता कर रहे हैं.

चीखना इस देश की पत्रकारिता का राष्ट्रीय ध्येय बन गया है.

बेशक, मीडिया वाले सेंसरशिप से बिदकते हैं, पर ऐसा ही जारी रहा तो कुछ न कुछ बंदिश तो आयद हो ही जाएगी और फिर आप कहेंगे ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ पर हमला है. सरकार को चाहिए कि ऐसे यूट्यूबर्स के लिए एक कार्यशाल आयोजित करे. डू ऐंड डोंट्स समझाए.

स्वतंत्रता और स्वच्छंदता में अंतर को समझिए. पत्रकारिता में लोकप्रियता से पहले श्रेष्ठता को आने दीजिए.