रामायण या रामकथा की परंपरा न केवल भारत में, बल्कि पूरे दक्षिण-पूर्व एशिया में मौजूद है. भगवान राम, सीता और लक्ष्मण के इर्द-गिर्द घूमती कहानियां ग्रामीण हो या शहरी हर परिवेश में मौजूद हैं. रामकथाओं के तहत कलाएं न तो लोककथाएं रहती हैं और न ही शास्त्रीय कलाएं.
रामकथाएं साहित्यिक रूपों के साथ ही अलग-अलग स्वरूपों में दंतकथाओं, चित्रकलाओं और संगीत हर ललित कला में उपस्थित है. हर रामकथा का अपने खालिस देसी अंदाज में मौलिकता लिए हुए भी और उसमें स्थानीयता का भी शानदार समावेश है.
रामकथा के उत्तरी भारत, दक्षिण भारत या पूर्वी तथा पश्चिम भारत में मौजूद साहित्यिक स्वरूपों के अलावा यह दंतकथाओं के मौखिक रूप में और किस्से-कहानियों के रूप में भी प्रचलित है. श्रीराम की कहानी स्थानीय रिवाजों, उत्सवों, लोकगायन, नाट्य रूपों, कठपुतली और तमाम कला रूपों में समाई हुई है.
रामकथा का वाचन करने वाले कथाकार तो पूरे भारत भर में फैले हैं ही. हिंदी पट्टी में कथाकार और रामायणी (रमैनी), ओडिशा में दसकठिया (दसकठिया शब्द एक खास वाद्य यंत्र काठी या राम ताली से निकला है. यह लकड़ी का एक क्लैपर सरीखा वाद्य है जिसे प्रस्तुति के दौरान बजाया जाता है. राम कथा की इस प्रस्तुति में पूजा की जाती है और प्रसाद को दास यानी भक्त की ओर से अर्पित किया जाता है) एक खास परंपरा है. इसके साथ ही, बंगाल में कथाक और पंची, मणिपुर में वारी लीब, असम में खोंगजोम और ओझापाली, मैसूर में वेरागासी लोकनृत्य, केरल में भरत भट्टा और आंध्र में कथाकुडुस प्रमुख हैं.
बंगाल की पांचाली, पावचालिका या पावचाल से निकला शब्द है, जिसका अर्थ होता है कठपुतली. मणिपुर के वारी लिब्बा परंपरा में सिर्फ गायन का इस्तेमाल होता है और इसमें व्यास आसन पर बैठा गायक किसी वाद्य की बजाए तकिए के इस्तेमाल से रामकथा गाकर सुनाता है.
असम के ओझापल्ली में एक अगुआ होता है जिसे ओझा कहते हैं और उसके साथ चार-पांच और गायक होते हैं जो मृदंग आदि के वादन के जरिए रामकथा कहते हैं. मैसूर के वीरागासे लोकनृत्य को दशहरे के वक्त किया जाता है.
मेवात के मुस्लिम जोगी भी राम की कहानी के इर्द-गिर्द रचे गए लोकगीत गाते हैं और उन रचनाओं के रचयिता थे निजामत मेव. निजामत मेव ने इन्हें आज से कोई साढ़े तीन सौ साल पहले लिखा था. राम की कथा पर मुस्लिम मांगनियार गायकों के लोकगीत कुछ अलग ही अंदाज में गाए जाते हैं.
रामकथा के जनजातीय समाज के भी अलग संस्करण हैं. भीलों, मुंडा, संताल, गोंड, सौरा, कोर्कू, राभा, बोडो-कछारी, खासी, मिजो और मैती समुदायों में राम की कथा के अलग संस्करण विद्यमान हैं. इन कथाओं का बुनियादी तत्व या ढांचा तो वही है लेकिन इन समुदायों ने इन रामकथाओं में अपने क्षेपक और उपाख्यान जोड़ दिए हैं.
रामायण की कथा में स्थानीय भूगोल और रिवाजों का समावेश किया गया है और स्थानीय खजाने से लोकगीत और आख्यानों को भी रामायण की कथा में जोड़ दिया गया है. स्थानीय समुदायों के नैतिक मूल्यों को भी इन कथाओं में जगह दी गई है. कई समुदायों के अपने रामायण हैं और वहीं से इन समुदायों ने अपनी उत्पत्ति की कथा भी जोड़ रखी है.
रामायण के जनजातीय और लोक संस्करणों के साथ ही बौद्ध और जैन प्रारूप भी हैं. पूर्वोत्तर की ताई-फाके समुदाय की कथाओं में भगवान राम बोधिसत्व बताए गए हैं.
यद्यपि असमिया में वाल्मिकी रामायण का सबसे पहला अनुवाद 14वीं शताब्दी में माधव कंडाली ने किया था, लेकिन इस क्षेत्र में राम की कथा से जुड़ी एक जीवंत लोकप्रिय और लोक परंपरा है.
असम में, संत-कवि शंकरदेव द्वारा रचित और माधव कंडाली की रामायण पर आधारित नाटक राम-विजय बहुत लोकप्रिय है और इसका मंचन अंकिया नट और भाओना शैली में किया जाता है. रामायण-गोवा ओजापालिस की एक और परंपरा में गीत, नृत्य और नाटक शामिल हैं. कुसान-गान एक प्रचलित लोकनाट्य है और इसका नाम राम के पुत्र कुश से जुड़ा है.
राम कथा के संस्करण बोडो-कचारी, राभा, मिसिंग, तिवेस, करबीस, दिमासा, जयंतिया, खासी, ताराओन मिशमिस के बीच भी लोकप्रिय हैं. मिज़ो जनजातीय समुदाय में भी राम कथा से प्रभावित कहानियां हैं. मणिपुर में राम कथा वारी-लीबा (पारंपरिक कहानी कहने), पेना-सक्पा (गाथा गायन), खोंगजोम पर्व (ढोलक के साथ कथा गायन) और जात्रा (लोक-नाट्य) शैलियों में प्रदर्शित की जाती है.
पूर्वी भारत की बात करें तो, उड़ीसा में बिसी रामलीला का आयोजन होता है. यह 18वीं शताब्दी में विश्वनाथ कुंडिया की विचित्र रामायण पर आधारित और सदाशिव द्वारा नाटक में बदले नृत्य नाटिका का एक रूप है. बिसी रामलीला के अलावा, उड़ीसा में उपलब्ध एक और शानदार रूप साही जात्रा का है, जो एक जात्रा का ही एक रूप है, इसको जगन्नाथ मंदिर के सामने प्रदर्शित किया जाता है.
गौरतलब है कि उड़ीसा कोसल नामक प्राचीन क्षेत्र का हिस्सा था. छत्तीसगढ़ के साथ इसके सटे हिस्सों में रामायण के कई प्रसंग घटे हैं. यह क्षेत्र रामकथा के कई लोक और जनजातीय संस्करणों से भरपूर है.
इनमें से सबसे शानदार और रंग-बिरंगी शैली है छऊ. छऊ की तीन शैलियां हैं- मयूरभंज छऊ (ओडिशा) पुरुलिया छऊ (पश्चिम बंगाल) और सरायकेला छऊ (झारखंड). पुरुलिया और सरायकेला छऊ में बडे और सुंदर मुखौटों का प्रयोग किया जाता है. इस शैली में रामकथा का मंचन बेहद लोकप्रिय है.
पश्चिम बंगाल में जात्रा नाटकों, पुतुल नाच (कठपुतली नृत्य) और कुशान रामायण की बेशकीमती परंपरा है. बंगाल के मुस्लिम पटुआ लोग रामकथा को कागज पर उकेरते हैं और कथा गाते हुए एक गांव से दूसरे गांव जाते हैं. कठपुतली परंपरा में छड़ी कठपुतलियों का उपयोग किया जाता है और इसकी कहानी जात्रा शैली से प्रभावित ग्रंथों पर आधारित है. कुषाण रामायण इस क्षेत्र में उपलब्ध एक जीवंत नाटक रूप है.
कर्नाटक में गोंबेयट्टम भी कठपुतली नृत्य का प्रकार है जिसमें रामकथा दिखाई जाती है. छाया नृत्यों में तोल पावाकुट्टू केरल की और तोलू बोम्मलाता आंध्र के छाया नृत्य हैं. ओडिशा में रावण छाया, बंगाल में दांग पुतुल भी कठपुतलियों के छाया नृत्यों के प्रकार हैं जिनमें राम और रावण के युद्ध का वर्णन किया जाता है.
कर्नाटक में यक्षगान और वीथीनाटकम, तमिलनाडु में तेरुक्कट्टू और भगवतमेला, केरल में कुट्टीयट्टम आदि ऐसी नृत्य शैलियां हैं जिनमें रामकथा का प्रदर्शन होता है. आज कथकली काफी मशहूर है लेकिन सातवीं सदी में इसकी जब शुरुआत हुई थई तो इसका नाम रामानट्टम (राम की कथा) ही था.
उत्तर प्रदेश में नौटंकी, महाराष्ट्र में तमाशा और गुजरात में भवई लोकनाट्य रूप हैं जिनमें रामकथाओं का मंचन किया जाता रहा है.
हिमालयी इलाके में कुमाऊंनी रामलीला रागों के आधार पर प्रस्तुत की जाती है. गढ़वाल इलाके में रामवार्ता (ढोलक पर) और रम्मन (मुखौटे के साथ लोकनृत्य) में स्थानीयता के पुट के साथ रामकथा सुनाई जाती है. हिमाचल में ढोल-धमाऊं में रामायनी गाई जाती है. गद्दी रमीन, कांगड़ा में बारलाज, शिमला में छड़ी, कुल्लू रमायनी, लाहौल में रामकथा, रामायण की कहानियों की स्थानीयता की कुछेक मिसाले हैं.
विलक्षणता यह है कि राम को भी नायक, अवतार, खानाबदोश सांस्कृतिक नायक और राजा के रूप में तो पेश किया ही जाता है कई जनजातीय समुदायों में रामायण के असली नायक लक्ष्मण हैं. कई रामकथाओं में लक्ष्मण शांत, धीर-गंभीर और युवा हैं और उनके स्वभाव में जरा भी आक्रामकता नहीं है.
मध्य भारत में बैगा जनजाति की कथाओं में, एक कथा प्रचलित है कि लक्ष्मण को अग्निपरीक्षा देकर अपनी शुद्धता साबित करनी होती है. कई लोककथाओं में सीता माता ही काली का अवतार धारण करती हैं और रावण समेत अन्य राक्षसों का वध करती हैं.
कहते हैं राम कण-कण में है तो रामकथा भी भारत ही नहीं दुनिया के अलग-अलग स्थानों पर अपने अलग स्वरूप में मौजूद हैं. हर किसी के लिए राम का अपना रूप है. पर सबका मौलिक संदेश एक ही हैः मर्यादा, न्याय और समानता.