Wednesday, April 16, 2025

व्यंग्यः ट्रेन में एटीएम, बिहार के चुनाव के लिए मास्टर स्ट्रोक


खबर है कि ट्रेनों में अब एटीएम लगा करेगा. पंचवटी एक्सप्रेस में शायद लग भी गया है. यह अच्छा है. सरकार सबका भला चाहती है, ट्रेन लुटेरों का भी.

पहले लुटेरे लोग कट्टा-चाकू दिखाकर घड़ी-चेन-बटुआ निकालते थे. मोबाइल छीनते थे. गहना-गुरिया तो अब ज्यादा लोग पहनते नहीं. और बाकी का माल सेकेंडहैंड जवानी की तरह कौड़ी के दाम बिकती थी. तो सरकार ने लूट के काम को बूस्ट करने के वास्ते ट्रेन में एटीएम लगाने का काम किया है. अब लुटेरे प्रो-लेवल पर आएंगे. मुसाफिरों को भी कष्ट नहीं होगा.


ट्रेन में एटीएमः AI इमेज



लुटेरे आए, आपको कट्टा या चाकू जो भी उनके पास उपलब्ध हो दिखाया, आपको उठाकर ले गए दरवाजें के पास लगे एटीएम के पास. फिर बैलेंस चेक करवा कर दूसरी बार में सारा माल-मत्ता निकलवा लिया. यह सब आसानी से कर लेंगे.

इससे मुसाफिर भी खुश रहेंगे कि भारतीय रेल में सफर करते हुए पहले जब लुटते थे--और लुटते तो थे ही काहे कि सुरक्षा की स्थिति तो आप जानते ही हैं--तो कुछ न मिलने की सूरत में डाकू लोग चाकू-वाकू मार देते थे. अब चाकू तो नहीं मारेंगे कम से कम.

आप में से कोई शक्की यह कह देगा कि भाई सारी ट्रेनें तो नहीं लूट ली जातीं है. अरे भाई, सुरक्षा के मद्देनजर संभावनाएं तो हर ट्रेन में हैं कि जब चाहे तब लूटी जा सकती हैं. लेकिन वह तो लुटेरों का अभी वर्क फोर्स कम है--कुछ लोग असल में राजनीति में चले गए हैं, कुछ पत्रकार बन गए हैं--और कुछ तो उनकी भलमनसाहत है. दूसरी, मूड का मसला है कि जाओ जी, इस ट्रेन को नहीं लूटेंगे.

बिहार जाने वाले यात्रियों से अनुरोध है भैय्ये जरा धेयान से, सूबे में इलेक्शन आने वाला है. इलेक्शन के टाइम में उधर ट्रेने बहुत लूटी जाती हैं. लूटी नहीं जाएंगी तो क्या लोग घर के खर्चे से इलेक्शन लड़ेंगे? घर फूंक कर तमाशा देखने कह रहे हैं आप लोग! जनसेवा क्या घर की बचत से होगी? तो चुनावी खर्चे के लिए ट्रेन नहीं लूटी जाएगी तो क्या डाकू घर-घर जाकर वोट और नोट दोनों छीनें! हां नीं तो!

यह तो सरकार ने अच्छा किया है कि ट्रेनों में एटीएम लगवा दिया. चुनाव को सपोर्ट करने का यह अच्छा सिस्टम है. सरकार चुनावी लोकतंत्र को मजबूत करना चाहती है. सरकार का पूरा भरोसा है कि सिर्फ मछली पकड़ना सिखाना ही किसी को सपोर्ट करना नहीं होता, कई दफे उसकी झोरी में पांच किलो का रोहू सीधे-सीधे भी डाल दिया जाना चाहिए.

#ठर्राविदठाकुर

Thursday, April 10, 2025

वेबसीरीज दुपहियाः जनहित में जारी सरकारी विज्ञापन जैसी जमीन से कटी सीरीज

मंजीत ठाकुर

हाल ही में अमेजन प्राइम वीडियो ओटीटी प्लेटफॉर्म पर वेबसीरीज दुपहिया आई है. दुपहिया मोटे तौर पर पंचायत की लाईन पर बनी है, या ऐसा कहना चाहिए कि पंचायत की प्रेरणा से बनी सीरीज है. बेशक यह सीरीज अपने केंद्रीय विषय दहेज प्रथा को लेकर चलती है. लेकिन साथ में हिंदुस्तानी गांवो (और शहरों में भी) व्याप्त गोरेपन को लेकर जो पूर्वाग्रह और दुराग्रह है उसे लेकर कड़ी टिप्पणी करती है.

बिलाशक इस बेवसीरीज ने दो बेहद बढ़िया और जरूरी विषय उठाए हैं. लेकिन, विषय उठाने तक ही मामला अच्छेपन पर खत्म हो जाता है. एक अच्छे विषय का ट्रीटमेंट इतना सतही है कि लोगों का ध्यान दहेज की बुराई की तरह कम ही जाता है. हां, प्रतिभावान लेकिन रंग से काली लड़की के अहसासे-कमतरी का चित्रण बहुत अच्छे से हुआ है.

इस बेवसीरीज के साथ बहुत सारे किंतु-परंतु हैं और इस सीरीज का लेखन बेहद कम रिसर्च के साथ हुआ है. लेखक और क्रिएटिव टीम के लोग ऐसा प्रतीत होता है कि कभी बिहार गए नहीं हैं. पहली बात, बनवारी झा (गजराज राव) की बेटी रोशनी झा (शिवांगी रघुवंशी) की शादी कुबेर प्रसाद से हो रही है. चौबीस साल से अपराधमुक्त गांव इतना पिछड़ा है कि मोटरसाइकिल को दुपहिया कहता है. चलिए, मान लेते हैं. लेकिन अगर इतना पिछड़ा है तो लेखक को यह पता होना चाहिए कि दहेज प्रथा को जी-जान से अपनाने वाले गांव में किसी ‘प्रसाद’ लड़के की शादी किसी ‘झा’ लड़की से नहीं हो सकती. हालांकि, विकिपेडिया में दी गई जानकारी के मुताबिक, इस सीरीज में दूल्हे का नाम कुबेर त्रिपाठी है. तो भी, लेखकों को बिहार की जाति-व्यवस्था का रंच मात्र भी ज्ञान नहीं है और त्रिपाठी ब्राह्मणों की शादी बगैरे किसी झमेले के मिथिला के ब्राह्मण की बेटी से की जा रही है. लेखकों को पता होना चाहिए कि बिहार में जाति एक सच है और वहां गोरे काले के भेद से ज्यादा गहरा भेद जाति का होता है.

असल में, सिनेमा या वेबसीरीज में देखकर बिहार के गांवों के पहचानने और जानने की कोशिश का यह कुफल है.

गांव को ठीक से नहीं समझ पाने का एक उदाहरण यह भी है कि धड़कपुर गांव में काले लोगों को गोरा बनाने का दावा करने वाली क्लीनिक मौजूद है, लोग स्मार्ट फोन पर रील देखते हैं और बनाते हैं पर बाकी दुनिया का पिछड़ापन मौजूद है.

तीसरी बड़ी खामी बिहार की पंचायती राज व्यवस्था को लेकर लेखकों का अज्ञान है. बिहार में पंचायती राज में मुखिया होते हैं, सीरीज में मुखिया का जिक्र ही नहीं है. बिहार के पंचायतों में 33 फीसद महिला आरक्षण है, यहां धड़कपुर में सिर्फ एक ही महिला पंच है. और तो और पार्टी की तरफ से सरपंच के लिए टिकट भी बांटते दिखाया गया है.

सिनेमा की दुनिया में बिहार के साथ दिक्कत यह हो रही है कि हर कोई इसे अपनी सीरीज की प्रयोगशाला बनाए हुए है. संवादों की भाषा यह है हर संयुक्त अक्षर को लोग तोड़कर बोल रहे हैं. महिला पंच बनी पुष्पलता यादव (रेणुका शहाणे) की स्क्रीन पर इतनी बुरी स्थिति मैंने आज तक नहीं देखी थी. वह अपनी गरिमा के साथ मौजूद तो हैं किरदार में ढल भी गई हैं लेकिन उनके संवाद लेखकों ने उन्हें अच्छे संवाद नहीं दिया है. मसला संवादों के लहजे का है.

दुपहिया सीरीज की बिरयानी बनाने के लिए निर्देशक ने सारे मसाले झोंक दिए हैं और इससे यह व्यंजन बेजायका हो गया है. और कुछ न हुआ तो रोशनी झा के भाई बने भूगोल झा (स्पर्श श्रीवास्तव) जिन्होंने लापता लेडीज में बड़ा मुतमईन करने वाला परफॉर्मेंस दिया था और रोशनी के पूर्व प्रेमी अमावस (भुवन अरोड़ा) को लौंडा डांस में उतार दिया. उससे भी मन नहीं भरा तो दोनों के बीच फाइटिंग सीन डाल दिया.

पहले कुछ एपिसोड में तो स्पर्श श्रीवास्तव ओवर एक्टिंग करते दिखे लेकिन बाद में जाकर वह सहज लगने लगे. संवादों को मजेदार बनाने की खातिर कई बार ऐसी बातें की गई हैं जिससे हंसी नहीं आती, बल्कि वह हास्यास्पद लगती है.

रोशनी के पिता के रूप में गजराज राव ने भावप्रवण अभिनय किया है. बृजेंद्र काला एक स्थानीय अखबार के मालिक-संपादक के रूप में मजेदार हैं. हालांकि, वह कैमियो रोल में ही हैं. पत्रकार के रूप में चंदन कुमार ठीक लगे हैं. एएसआई बने मिथिलेश कुशवाहा (यशपाल शर्मा) राहत के झोंके की तरह बीच-बीच में आते हैं. वह किसी भी किरदार में फिट बैठते हैं.

बिहार के देहातों पर बनी किसी भी सीरीज की तुलना हमेशा पंचायत से बनेगी. पंचायत की तरह सूदिंग बनाने के चक्कर में इस सीरीज में हर किसी को अच्छा बनाने की कोशिश की गई है. साथ ही, अमावस और रोशनी के बीच प्रेम को खुलेआम दिखाया गया है और इस बात का पता न सिर्फ रोशनी के परिवार को होता है बल्कि दोनों बेरोकटोक मिलते हैं. बिहार के गांव इतने आसान नहीं हैं.

पंचायत की तुलना में दुपहिया का संगीत कमजोर है.

झा परिवार की शादी में मिथिला की संस्कृति की कोई झलक नहीं दिखती है. शादी के घर में न गाना न बजाना. बिहार के गांव के सेट अप में यह सीरीज ऑर्गेनिक नहीं लगती.

आखिरी एपिसोड तो खैर, जनहित में जारी सरकारी विज्ञापन सरीखा हो जाता है. दहेज प्रथा पर भाषण, गोरे-काले के भेद पर भाषण और हां, क्लिप्टोमेनिया यानी छोटी चीजें चुराने की आदत पर भी एक ज्ञान.

सीरीज एक बार मनोरंजन के लिए देखी जा सकती है, पर कभी भी याद नहीं रखी जाएगी. पंचायत सीरीज जिस तरह लोगों की जबान को परिष्कृत कर चुकी है और दामाद जी तथा बनराकस मीम मटेरियल बनने में कामयाब रहे, और बाकी किरदारों को भी प्रेम मिला, वैसी लोकप्रियता दुपहिया हासिल नहीं कर पाएगी.







Wednesday, February 12, 2025

वैलेंटाइन पखवाड़ाः हग डे पर पाखाने वाली पोस्ट

जिनको शीर्षक गंदा लग रहा हो, आगे न पढ़ें. पर क्या करें, नामी-गिरामी, कमाई, सुपरस्टार यूट्यूबर अपने-अपने चैनलों पर रोज हग दे रहे हैं, आई मीन हग डे मना रहे हैं. रैना के नाम पर मैं सिर्फ सुरेश रैना, एम के रैना जैसे काबिल लोगों को जानता था. समय रैना ने उस प्रतिष्ठा पर बट्टा लगा दिया.

यह देश अभिव्यक्ति की आजादी, माफ कीजिएगा 'स्वच्छंदता' वाला देश है जो ‘कुछ भी बक दो साणू की’ के सिद्धांत पर चलता है. पर क्यों न चले. देश में सबको छूट है. होनी भी चाहिए.

असल में किसी ने कहा है, “ए लॉट ऑफ पीपल बिकम अनएट्रैक्टिव वन्स यू फाइंड आउट व्हॉट दे थिंक.” सोच का पता चलते ही बहुत सारे लोग अनाकर्षक लगने लगते हैं. मेरी इस फेहरिस्त में बहुत सारे नेता-अभिनेता पहले से थे, अब हजारों यूट्यूबर और सोशल मीडिया सेलिब्रिटी हैं. मुझे सोशल मीडिया पर पोस्ट्स पढ़ने और अलग किस्म की शख्सियत बनाने के मारे बहुत सारे लोग अनाकर्षक और भद्दे लगने लगे हैं. जाहिर है, वह निजी रूप से टन टना टन होंगे पर सोशल मीडिया पर उनकी प्रोफाइल किसी न किसी पेशेवर दवाब में होगी. खैर. बात हगने आई मीन हग डे की हो रही थी.

यार इतनी अंट-शंट बातों में दिमाग फिर गया है कि गू (आई मीन पाखाना) की बात रह जा रही है. असल में सोशल मीडिया पर समय रैना और रणबीर इलाहाबादिया ने ऐसा ‘चिरक’ दिया है कि उसको समेटना मुश्किल हो रहा है. केस-पेस, संसदीय समिति आदि की बातें उठ रही है.

मैं इस बात से सहमत हूं कि सोशल मीडिया कंटेंट का नियमन करने की सख्त जरूरत है और बेशक इससे ‘कोलैटरल डैमेज’ होगा पर अभिव्यक्ति की आजादी की सीमा वहीं तक है जहां तक किसी और की निजता की सरहद न हो.

इलाहाबादिया से याद आया कि इलाहाबाद आई मीन प्रयागराज में महाकुंभ पर लोग अपनी गोटी लाल करने में लगे हैं. कोई कह रहा है इससे गरीबी दूर नहीं होगी. ठीक है, दूर नहीं होगी. तो आप बताइए कि कैसे दूर होगी? और जब आपको तरीका पता था तो अब तक दूर क्यों नहीं की?

खैर, जब चंद्रयान-2 लॉन्च होने वाला था तो मेरे एक मित्र ने (नाम लेना समुचित नहीं) इसरो के चेयरमैन की तिरुपति मंदिर जाने की तस्वीर पोस्ट की थी. साथ में उनकी टिप्पणी का मूल भाव था कि एक वैज्ञानिक मंदिर कैसे जा सकता है!

असल में, कथित उदारवादियों को किसी वैज्ञानिक के मंदिर (या मस्जिद, दरगाह आदि) जाने पर बहुत हैरत होती है. वहां उनके लिए 'चॉइस' का विकल्प सीमित हो जाता है. स्थिति यह है कि वाम विचारक इस बात पर हमेशा हैरत जताते हैं कि एक वैज्ञानिक या डॉक्टर या इंजीनियर, एक ही विषय के बारे में वैज्ञानिक नजरिए के साथ ‘धार्मिक’ भी कैसे हो सकता है!

असल में, हमें यह सिखाया जाता है कि वैज्ञानिक होने का मतलब उद्देश्यपरक होना है. यह उद्देश्यपरकता लोगों को खालिस वस्तुनिष्ठ बनाती है यानी दुनिया को एक मानव के रूप में या मनुष्यता के तौर पर नहीं देखने का गुण विकसित करना ही नहीं, बल्कि खुद को एक अवैयक्तिक पर्यवेक्षक के रूप में तैयार करना भी.

वैसे, ज्यादातर मामलों में यह हैरत सिर्फ मंदिर जाने पर जताई जाती है. पर मुझे नहीं लगता कि विज्ञान के मामले में धर्म के अस्तित्व से डरना चाहिए. धर्म की अपनी स्थिति और अवस्थिति है, विज्ञान की अपनी. वैज्ञानिक सोच को अपनाना है तो आपको जीवन में उसे हर क्षेत्र में अपनाना होगा. विज्ञान इस मामले में निर्दयी होने की हद तक ईमानदार है.

पर, विज्ञान की आड़ में धर्म पर फर्जी एतराज जताने वाले लोग न तो वैज्ञानिक सोच वाले हैं और न ही, उनको विज्ञान में कोई आस्था है.

मुद्दे पर वापस आइए, एक बात पर आपने गौर किया है? हग डे के बाद किस डे आता है!

मेरे एक दोस्त हैं जो शराबनोशी से पहले फारिग होकर आते हैं. मतलब फ्रेश होने जाते हैं और वैज्ञानिक भाषा में कहें तो पाखाना करके पेट साफ करके आते हैं ताकि पीते समय शर-आब यानी पानी की चिनगारी के सिवा कोई और चिनगारी महसूस न हो.

वैलेंटाइन पखवाड़े में किस क्लाइमेक्स वाले हिस्से से ऐन पहले की बात है. मतलब सिनेमा की भाषा में सत्रहवां रील. (अगर फिल्म अठारह रील की मान ली जाए). तो किस के नशे से पहले हग लेना (आलिंगन मरदे, आलिंगन.) बहुत आवश्यक कर्मकांड है.

किस, जिसे आप अपनी सौंदर्यदृष्टि के मुताबिक चुंबन, पुच्ची, चुम्मा आदि नामों से अभिहीत कर सकते हैं. इसमें जब तक सामने वाले को पायरिया न हो, बू नहीं आती. लेकिन पाखाने की बू आप क्या खाते हैं उस पर निर्भर करती है. वैसे यह निजी काम शुचिता से जुड़ा है पर इस विचार में कई पेच हैं. पर यह शरीर का ऐसा धर्म है जिसका इशारा भी सभ्य समाज में अटपटा माना जाता है. राजा हो या भिखारी, कपड़े खोलकर कोई इंसान जब मलत्याग करने बैठता है तो सभ्यता और सांस्कृतिक विकास की धारणाएं फीकी पड़ जाती हैं.

कम से कम हिंदी में ‘मलत्याग’ के दैनिक कर्म के लिए सीधे शब्द नहीं है. ‘पाखाना’ फारसी से आया है, जिसका अर्थ होता है ‘पैर का घर’. ‘टट्टी’ आमफहम हिंदी शब्द है जिसका मतलब है कोई ‘पर्दा या आड़’ जो फसल की ठूंठ आदि से बना हो. खुले में शौच जाने को ‘दिशा-मैदान’ जाना कहते हैं. कुछ लोग ‘फरागत’ भी कहते हैं जो ‘फारिग’ होने से बना है. ‘आब’ को ‘पेश’ करने से बना ‘पेशाब’ तो फिर भी सीधा है पर ‘लघु शंका’ और ‘दीर्घ शंका’ जैसे शब्द अर्थ कम बताते हैं, संदेह अधिक पैदा करते हैं.

मलत्याग के लिए ‘हगना’ और ‘चिरकना’ जैसे शब्द भी हैं, मूलतः ये क्रिया रूप हैं और इनका उपयोग पढ़े-लिखे समाज में करना बुरा माना जाता है. इस हगने के साथ मैंने हग डे पर वर्ड प्ले किया है मितरों. जाहिर है आप अब तक मुझे सौ गालियां दे चुके होंगे क्योंकि इन शब्दों के साथ घृणा जुड़ी हुई है.

बहरहाल, सोचिएगा इस बात पर कि जिन सरकारी अफसरों और संभ्रांत लोगों को गरीबों की दूसरी समस्याओं से ज्यादा मतलब नहीं होता वे उनके शौचालय बनाने की इतनी चिंता क्यों करते हैं. क्या खुले में शौच जाना रुक जाए तो समाज स्वच्छ हो जाएगा?

सोशल मीडिया पर कुछ ‘छंटे हुए बुद्धिजीवी’ अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर वाचिक पाखाने को छूट देना चाहते हैं. खुलेआम चुम्माचाटी को प्रेम का प्रतीक बताते हुए लोग कह रहे हैं कि 'किस' निजी चीज है. बिल्कुल. हम भी तो वही कह रहे हैं. किस निजी चीज है तो हगना भी निजी है. चुंबन के साथ-साथ सार्वजनिक स्थलों पर हगने की भी छूट क्रांतिकारियों को दी जाए. (अगेन हगना शब्द पढ़े-लिखों को बुरा लग सकता है आप उस हर जगह पर मलत्याग पढ़ें जहां मैंने हगना लिखा है)

वैसे, पाखाने से जुड़ी एक और बात. आपको याद होगा कि चांद पर अपोलो 11 को गए 50 साल हो गए हैं. नील आर्मस्ट्रांग के कदमों के निशान तो अब भी चांद पर हैं जिसमें कोई परिवर्तन नहीं आया होगा. काहे कि चांद पर न तो हवा है न अंधड़-बरसात.

लेकिन इस पदचिन्ह से भी बड़ी (और बदबूदार) निशानियां इंसान चांद पर छोड़ आया है. रिपोर्ट्स के मुताबिक, इंसानों ने छह अपोलो मिशनों से पाखानों से भरे 96 बैग चांद की राह (ऑर्बिट) में फेंके हैं और इनमें से कुछ चांद पर भी पड़े हैं. तो अंतरिक्ष में, इंसान की गैरमौजूदगी में भी उसकी निशानियां (पता नहीं अब किस रंग की होंगी, और बदबू तो खैर हवा ने होने से फैलती भी नहीं होगी, पर गू तो गू है भई.) उसके आने की गवाही चीख-चीखकर दे रही हैं.

चांद पर इब्न-ए-सफ़ी का लिखा सुंदर-सा शेर याद आ रहा है

चाँद का हुस्न भी ज़मीन से है
चाँद पर चाँदनी नहीं होती

इस शेर में आप चाहें तो ‘हुस्न’ लफ्ज को ‘पाखाने’ या ‘गू’ से बदलकर पढ़ सकते हैं और तब जाकर आपको मेरे लेख का ऊपर वाली बात शायराना अंदाज में समझ में आएगी.