tag:blogger.com,1999:blog-73386825646132896992024-03-13T19:11:42.436+05:30गुस्ताख़मेरे अदब से सारे फरिश्ते सहम गए,
ये कैसी वारदात मेरी, शायरी में है...Manjit Thakurhttp://www.blogger.com/profile/09765421125256479319noreply@blogger.comBlogger874125tag:blogger.com,1999:blog-7338682564613289699.post-36229189572524577872024-03-08T23:29:00.004+05:302024-03-08T23:29:34.976+05:30महाशिवरात्रिः आज विश्व को शिव की जरूरत है.आज के समय में जब निजता की अवधारणा ही संदेहों के घेरे में है. न तो आपकी निजता का सम्मान कोई प्रतिष्ठान करता है और न ही आप खुद गोपन रहना चाहते हैं. प्रतिष्ठान को आपकी सूचना चाहिए और आपको अपने हर काम को शेयर करना है, ऐसे में शिवत्व बेहद महत्वपूर्ण है. <br /><br /><div>वह, उनका परिवार, उनका कल्याण बेहद गोपन है. आप सहज शिव को जान नहीं सकते, पर इसके साथ ही शिव हमेशा हर किसी के लिए उपलब्ध हैं. स्वर्णाभरणों से ढंकी अन्य देवमूर्तियों को छूना जहां मुश्किल है, शिव की पूजा की महत्ता स्पर्शपूजा में है. कुछ ऐसे ही जैसे कोई बहुत बड़ा आदमी हमेशा आपके साथ सेल्फी के लिए मुस्कुराता बैठा रहे.<br /><br /></div><div>पर मैंने कहा कि आज शिव की जरूरत है. कोई भी पूछ सकता है कि इस औघड़दानी, महादेव, भोलेबाबा की ज़रूरत क्यों है? कपड़ों को महत्व देने वाले इस समय में बेहद बुनियादी कपड़ों में रहने वाले को कौन पूछेगा भला? असल में, जरूरत इसी वास्ते है.<br /><br /></div><div>शिव मुझे बहुत पसंद हैं. एक ईश्वर के रूप में, सभी समुदायों में समन्वयकारी मध्यस्थ के रूप में, एक सुखी परिवार के मुखिया के रूप में. <br /><br /></div><div>जरा गौर से देखिए, रहते हैं हिमालय की ऐसी जगह पर जहां घास का तिनका तक नहीं उगता. और उनका वाहन नंदी (बैल) कैसे रहता होगा? देवी पार्वती का वाहन बाघ है, उसका भोजन बैल हो सकता है. गणेश जी का वाहन मूषक है, वह शिवजी के गले में लिपटे रहने वाले नाग का भोजन हो सकता है. <br /><br /></div><div>बड़े बेटे कार्तिकेय का वाहन मयूर है, जो नाग को ग्रास बना सकता है. पर, सब एक साथ रहते हैं. निस्पृह शिव की पत्नी सौभाग्य की देवी हैं. एक पुत्र देवों का सेनापति है और एक बुद्धि का. सभी समुदायों के मिलजुल कर रहने का यह ऐसा पावन उदाहरण है, जिसको अभी भारत में सख्त ज़रूरत है. <br /><br /></div><div>आइए, शिव का महज जलाभिषेक ही न करें, बल्कि उनके गुणों पर चलने का प्रयास भी करें. हर हर महादेव.</div>Manjit Thakurhttp://www.blogger.com/profile/09765421125256479319noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7338682564613289699.post-32625283353298767232024-02-10T22:27:00.003+05:302024-02-10T22:27:54.233+05:30सबके रामः देश के अलग हिस्सों में राम की कथा के अलग स्वरूप प्रचलितरामायण या रामकथा की परंपरा न केवल भारत में, बल्कि पूरे दक्षिण-पूर्व एशिया में मौजूद है. भगवान राम, सीता और लक्ष्मण के इर्द-गिर्द घूमती कहानियां ग्रामीण हो या शहरी हर परिवेश में मौजूद हैं. रामकथाओं के तहत कलाएं न तो लोककथाएं रहती हैं और न ही शास्त्रीय कलाएं. <br /><br />रामकथाएं साहित्यिक रूपों के साथ ही अलग-अलग स्वरूपों में दंतकथाओं, चित्रकलाओं और संगीत हर ललित कला में उपस्थित है. हर रामकथा का अपने खालिस देसी अंदाज में मौलिकता लिए हुए भी और उसमें स्थानीयता का भी शानदार समावेश है. <br /><br />रामकथा के उत्तरी भारत, दक्षिण भारत या पूर्वी तथा पश्चिम भारत में मौजूद साहित्यिक स्वरूपों के अलावा यह दंतकथाओं के मौखिक रूप में और किस्से-कहानियों के रूप में भी प्रचलित है. श्रीराम की कहानी स्थानीय रिवाजों, उत्सवों, लोकगायन, नाट्य रूपों, कठपुतली और तमाम कला रूपों में समाई हुई है. <br /><br />रामकथा का वाचन करने वाले कथाकार तो पूरे भारत भर में फैले हैं ही. हिंदी पट्टी में कथाकार और रामायणी (रमैनी), ओडिशा में दसकठिया (दसकठिया शब्द एक खास वाद्य यंत्र काठी या राम ताली से निकला है. यह लकड़ी का एक क्लैपर सरीखा वाद्य है जिसे प्रस्तुति के दौरान बजाया जाता है. राम कथा की इस प्रस्तुति में पूजा की जाती है और प्रसाद को दास यानी भक्त की ओर से अर्पित किया जाता है) एक खास परंपरा है. इसके साथ ही, बंगाल में कथाक और पंची, मणिपुर में वारी लीब, असम में खोंगजोम और ओझापाली, मैसूर में वेरागासी लोकनृत्य, केरल में भरत भट्टा और आंध्र में कथाकुडुस प्रमुख हैं. <br /><br />बंगाल की पांचाली, पावचालिका या पावचाल से निकला शब्द है, जिसका अर्थ होता है कठपुतली. मणिपुर के वारी लिब्बा परंपरा में सिर्फ गायन का इस्तेमाल होता है और इसमें व्यास आसन पर बैठा गायक किसी वाद्य की बजाए तकिए के इस्तेमाल से रामकथा गाकर सुनाता है. <br /><br />असम के ओझापल्ली में एक अगुआ होता है जिसे ओझा कहते हैं और उसके साथ चार-पांच और गायक होते हैं जो मृदंग आदि के वादन के जरिए रामकथा कहते हैं. मैसूर के वीरागासे लोकनृत्य को दशहरे के वक्त किया जाता है. <br /><br />मेवात के मुस्लिम जोगी भी राम की कहानी के इर्द-गिर्द रचे गए लोकगीत गाते हैं और उन रचनाओं के रचयिता थे निजामत मेव. निजामत मेव ने इन्हें आज से कोई साढ़े तीन सौ साल पहले लिखा था. राम की कथा पर मुस्लिम मांगनियार गायकों के लोकगीत कुछ अलग ही अंदाज में गाए जाते हैं. <br /><br />रामकथा के जनजातीय समाज के भी अलग संस्करण हैं. भीलों, मुंडा, संताल, गोंड, सौरा, कोर्कू, राभा, बोडो-कछारी, खासी, मिजो और मैती समुदायों में राम की कथा के अलग संस्करण विद्यमान हैं. इन कथाओं का बुनियादी तत्व या ढांचा तो वही है लेकिन इन समुदायों ने इन रामकथाओं में अपने क्षेपक और उपाख्यान जोड़ दिए हैं. <br /><br />रामायण की कथा में स्थानीय भूगोल और रिवाजों का समावेश किया गया है और स्थानीय खजाने से लोकगीत और आख्यानों को भी रामायण की कथा में जोड़ दिया गया है. स्थानीय समुदायों के नैतिक मूल्यों को भी इन कथाओं में जगह दी गई है. कई समुदायों के अपने रामायण हैं और वहीं से इन समुदायों ने अपनी उत्पत्ति की कथा भी जोड़ रखी है. <br /><br />रामायण के जनजातीय और लोक संस्करणों के साथ ही बौद्ध और जैन प्रारूप भी हैं. पूर्वोत्तर की ताई-फाके समुदाय की कथाओं में भगवान राम बोधिसत्व बताए गए हैं. <br /><br />यद्यपि असमिया में वाल्मिकी रामायण का सबसे पहला अनुवाद 14वीं शताब्दी में माधव कंडाली ने किया था, लेकिन इस क्षेत्र में राम की कथा से जुड़ी एक जीवंत लोकप्रिय और लोक परंपरा है. <br /><br />असम में, संत-कवि शंकरदेव द्वारा रचित और माधव कंडाली की रामायण पर आधारित नाटक राम-विजय बहुत लोकप्रिय है और इसका मंचन अंकिया नट और भाओना शैली में किया जाता है. रामायण-गोवा ओजापालिस की एक और परंपरा में गीत, नृत्य और नाटक शामिल हैं. कुसान-गान एक प्रचलित लोकनाट्य है और इसका नाम राम के पुत्र कुश से जुड़ा है. <br /><br />राम कथा के संस्करण बोडो-कचारी, राभा, मिसिंग, तिवेस, करबीस, दिमासा, जयंतिया, खासी, ताराओन मिशमिस के बीच भी लोकप्रिय हैं. मिज़ो जनजातीय समुदाय में भी राम कथा से प्रभावित कहानियां हैं. मणिपुर में राम कथा वारी-लीबा (पारंपरिक कहानी कहने), पेना-सक्पा (गाथा गायन), खोंगजोम पर्व (ढोलक के साथ कथा गायन) और जात्रा (लोक-नाट्य) शैलियों में प्रदर्शित की जाती है. <br /><br />पूर्वी भारत की बात करें तो, उड़ीसा में बिसी रामलीला का आयोजन होता है. यह 18वीं शताब्दी में विश्वनाथ कुंडिया की विचित्र रामायण पर आधारित और सदाशिव द्वारा नाटक में बदले नृत्य नाटिका का एक रूप है. बिसी रामलीला के अलावा, उड़ीसा में उपलब्ध एक और शानदार रूप साही जात्रा का है, जो एक जात्रा का ही एक रूप है, इसको जगन्नाथ मंदिर के सामने प्रदर्शित किया जाता है. <br /><br />गौरतलब है कि उड़ीसा कोसल नामक प्राचीन क्षेत्र का हिस्सा था. छत्तीसगढ़ के साथ इसके सटे हिस्सों में रामायण के कई प्रसंग घटे हैं. यह क्षेत्र रामकथा के कई लोक और जनजातीय संस्करणों से भरपूर है. <br /><br />इनमें से सबसे शानदार और रंग-बिरंगी शैली है छऊ. छऊ की तीन शैलियां हैं- मयूरभंज छऊ (ओडिशा) पुरुलिया छऊ (पश्चिम बंगाल) और सरायकेला छऊ (झारखंड). पुरुलिया और सरायकेला छऊ में बडे और सुंदर मुखौटों का प्रयोग किया जाता है. इस शैली में रामकथा का मंचन बेहद लोकप्रिय है. <br /><br />पश्चिम बंगाल में जात्रा नाटकों, पुतुल नाच (कठपुतली नृत्य) और कुशान रामायण की बेशकीमती परंपरा है. बंगाल के मुस्लिम पटुआ लोग रामकथा को कागज पर उकेरते हैं और कथा गाते हुए एक गांव से दूसरे गांव जाते हैं. कठपुतली परंपरा में छड़ी कठपुतलियों का उपयोग किया जाता है और इसकी कहानी जात्रा शैली से प्रभावित ग्रंथों पर आधारित है. कुषाण रामायण इस क्षेत्र में उपलब्ध एक जीवंत नाटक रूप है. <br /><br />कर्नाटक में गोंबेयट्टम भी कठपुतली नृत्य का प्रकार है जिसमें रामकथा दिखाई जाती है. छाया नृत्यों में तोल पावाकुट्टू केरल की और तोलू बोम्मलाता आंध्र के छाया नृत्य हैं. ओडिशा में रावण छाया, बंगाल में दांग पुतुल भी कठपुतलियों के छाया नृत्यों के प्रकार हैं जिनमें राम और रावण के युद्ध का वर्णन किया जाता है. <br /><br />कर्नाटक में यक्षगान और वीथीनाटकम, तमिलनाडु में तेरुक्कट्टू और भगवतमेला, केरल में कुट्टीयट्टम आदि ऐसी नृत्य शैलियां हैं जिनमें रामकथा का प्रदर्शन होता है. आज कथकली काफी मशहूर है लेकिन सातवीं सदी में इसकी जब शुरुआत हुई थई तो इसका नाम रामानट्टम (राम की कथा) ही था. <br /><br />उत्तर प्रदेश में नौटंकी, महाराष्ट्र में तमाशा और गुजरात में भवई लोकनाट्य रूप हैं जिनमें रामकथाओं का मंचन किया जाता रहा है. <br /><br />हिमालयी इलाके में कुमाऊंनी रामलीला रागों के आधार पर प्रस्तुत की जाती है. गढ़वाल इलाके में रामवार्ता (ढोलक पर) और रम्मन (मुखौटे के साथ लोकनृत्य) में स्थानीयता के पुट के साथ रामकथा सुनाई जाती है. हिमाचल में ढोल-धमाऊं में रामायनी गाई जाती है. गद्दी रमीन, कांगड़ा में बारलाज, शिमला में छड़ी, कुल्लू रमायनी, लाहौल में रामकथा, रामायण की कहानियों की स्थानीयता की कुछेक मिसाले हैं. <br /><br />विलक्षणता यह है कि राम को भी नायक, अवतार, खानाबदोश सांस्कृतिक नायक और राजा के रूप में तो पेश किया ही जाता है कई जनजातीय समुदायों में रामायण के असली नायक लक्ष्मण हैं. कई रामकथाओं में लक्ष्मण शांत, धीर-गंभीर और युवा हैं और उनके स्वभाव में जरा भी आक्रामकता नहीं है. <br /><br />मध्य भारत में बैगा जनजाति की कथाओं में, एक कथा प्रचलित है कि लक्ष्मण को अग्निपरीक्षा देकर अपनी शुद्धता साबित करनी होती है. कई लोककथाओं में सीता माता ही काली का अवतार धारण करती हैं और रावण समेत अन्य राक्षसों का वध करती हैं. <br /><br />कहते हैं राम कण-कण में है तो रामकथा भी भारत ही नहीं दुनिया के अलग-अलग स्थानों पर अपने अलग स्वरूप में मौजूद हैं. हर किसी के लिए राम का अपना रूप है. पर सबका मौलिक संदेश एक ही हैः मर्यादा, न्याय और समानता. <br /><br /> <br /><br /> Manjit Thakurhttp://www.blogger.com/profile/09765421125256479319noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7338682564613289699.post-8917586435606313312023-08-23T22:14:00.008+05:302023-08-23T22:14:50.072+05:30चांद पर पाखाना जिनको शीर्षक गंदा लग रहा हो, आगे न पढ़ें. पर क्या करें, अपना टीवी न्यूज़ मीडिया अच्छे-भले संजीदा मसले का भी कचरा कर देता है. भूकंप से लेकर चंद्रयान-मंगलयान सब पर एक ही राग. छोटका से लेकर बड़का तब सारे चैनलों पर एक जैसा मसाला चल रहा है. <br /><br /><div>पर क्यों न चले. देश का उत्सव है, देश की तरक्की का उत्सव है. और तमाशा जैसा लग रहा है तो होना भी चाहिए. <br />पर इस तमाशे में कई लोगों के पोस्ट बदमजगी पैदा कर रहे हैं. और ऐसे-वैसे लोग नहीं हैं, जहीन और बुद्धिजीवी किस्म के लोग हैं. पर आप कहीं जाइएगा मत. चांद पर पाखाना वाली बात करेंगे हम.<br /><br /></div><div>वैसे कुछ लोग चांद पर झंडा, झंडे पर चांद वाला फिकरा कस कर भारत की कामयाबी को एक अलग कोण से देख रहे हैं, पर यह देश की इस विशाल कामयाबी को छोटा करना होगा. टाइम लाइन पर स्क्रॉल करते समय किसी ने कहा कि पाकिस्तान ने इसरो को बधाई दी है और हम लोग पाकिस्तान नीचा दिखा रहे हैं. <br /><br /></div><div>अब यह बात सौ फीसद सच है कि हिंदुस्तान का मुकाबला किसी असफल और कंगाल राष्ट्र से नहीं किया जाना चाहिए, जिसको खुद नहीं पता कि भारत को क्षति पहुंचाने के बददिमाग इरादे के अलावा उसका दुनिया में आखिर अस्तित्व है भी तो क्यों है? तो ऐसे पाकिस्तान के बधाई संदेश को भी संदेह से ही देखना होगा और देखा जाना चाहिए. <br /><br /></div><div>पर कहा न, तमाशे के बीच अपनी पींपनी अलग फूंकने का भी अलग ही मजा है. पर अपनी असली बात तो चांद पर पाखाने की है. <br /><br /></div><div>असल में किसी ने कहा है, “ए लॉट ऑफ पीपल बिकम अनएट्रैक्टिव वन्स यू फाइंड आउट व्हॉट दे थिंक.” सोच का पता चलते ही बहुत सारे लोग अनाकर्षक लगने लगते हैं. <br /><br /></div><div>मुझे सोशल मीडिया पर पोस्ट्स पढ़ने और अलग किस्म की शख्सियत बनाने के मारे बहुत सारे लोग अनाकर्षक और भद्दे लगने लगे हैं. जाहिर है, वह निजी रूप से टन टना टन होंगे पर सोशल मीडिया पर उनकी प्रोफाइल किसी न किसी पेशेवर दवाब में होगी. खैर. बात चांद पर पाखाने की.<br /><br /></div><div>पर चंद्रयान 3 जब लॉन्च हुआ था तब बिहार में रहने वाले एक पूर्व आइपीएस अधिकारी ने दुखी होकर लिखा था कि चांद पर राकेट भेजकर देश को क्या मिलेगा? और चांद को शायरों के लिए छोड़ देना चाहिए. मुझे तब उनकी बात से खीज से ज्यादा दुख हुआ कि अपनी ऐसी सोच के साथ उन्होंने लंबे समय तक प्रशासन चलाया होगा. <br /><br /></div><div>और ऐसे लोग आज सफल लैंडिंग के लिए देशभर में की जा रही पूजा प्रार्थना, दुआ-नमाज को गलत बता रहे हैं. उनको अब वैज्ञानिक सोच की चिंता हो रही है. सिर्फ चिंता ही नहीं हो रही है, बल्कि वे लोग भयंकर रूप से दुबले हुए जा रहे हैं और डॉक्टरों ने कहा इतनी चिंता से उनकी चतुराई घटती जा रही है. <br /><br /></div><div>यार इतनी अंट-शंट बातों में दिमाग फिर गया है कि चांद पर गू (आई मीन पाखाना) की बात रह जा रही है.<br />सोशल मीडिया पर लोग अंट-शंट लिखते ही हैं. बहरहाल, एक जहीन शख्स ने लिखा कि नमाज-पूजा वगैरह की जरूरत ही क्या थी. बल्कि देश को वैज्ञानिकता का जश्न मनाना चाहिए. इस मरदे ने, उस पूर्व आईपीएस की उस पोस्ट पर दिल बनाया था, जिस में उन पूर्व अधिकारी ने चंद्रयान लॉन्च को निरर्थक बताया था.<br /><br /></div><div>खैर, जब चंद्रयान-2 लॉन्च होने वाला था तो मेरे एक मित्र ने (नाम लेना समुचित नहीं) इसरो के चेयरमैन की तिरुपति मंदिर जाने की तस्वीर पोस्ट की थी. साथ में उनकी टिप्पणी का मूल भाव था कि एक वैज्ञानिक मंदिर कैसे जा सकता है! <br /><br /></div><div>असल में, कथित उदारवादियों को किसी वैज्ञानिक के मंदिर (या मस्जिद, दरगाह आदि) जाने पर बहुत हैरत होती है. वहां उनके लिए चॉइस का विकल्प सीमित हो जाता है. स्थिति यह है कि वाम विचारक इस बात पर हमेशा हैरत जताते हैं कि एक वैज्ञानिक या डॉक्टर या इंजीनियर, एक ही विषय के बारे में वैज्ञानिक नजरिए के साथ ‘धार्मिक’ भी कैसे हो सकता है! <br /><br /></div><div>असल में, हमें यह सिखाया जाता है कि वैज्ञानिक होने का मतलब उद्देश्यपरक होना है. यह उद्देश्यपरकता लोगों को खालिस वस्तुनिष्ठ बनाती है यानी दुनिया को एक मानव के रूप में या मनुष्यता के तौर पर नहीं देखने का गुण विकसित करना ही नहीं, बल्कि खुद को एक अवैयक्तिक पर्यवेक्षक के रूप में तैयार करना भी. <br /><br /></div><div>वैसे, ज्यादातर मामलों में यह हैरत सिर्फ मंदिर जाने पर जताई जाती है. <br /><br /></div><div>पर मुझे नहीं लगता कि विज्ञान के मामले में धर्म के अस्तित्व से डरना चाहिए. धर्म की अपनी स्थिति और अवस्थिति है, विज्ञान की अपनी. वैज्ञानिक सोच को अपनाना है तो आपको जीवन में उसे हर क्षेत्र में अपनाना होगा. विज्ञान इस मामले में निर्दयी होने की हद तक ईमानदार है. <br /><br /></div><div>पर, विज्ञान की आड़ में धर्म पर फर्जी एतराज जताने वाले लोग न तो वैज्ञानिक सोच वाले हैं और न ही, उनको विज्ञान में कोई आस्था है. <br /><br /></div><div>देखिए, दूसरों की बात में मैं पाखाने जैसी जरूरी बात कैसे भूल जा रहा हूं. वह भी धरती वाली नहीं, चांद पर पाखाने की.<br /><br /></div><div>आपको याद होगा कि चांद पर अपोलो 11 को गए 50 साल हो गए हैं. नील आर्मस्ट्रांग के कदमों के निशान तो अब भी चांद पर हैं जिसमें कोई परिवर्तन नहीं आया होगा. काहे कि चांद पर न तो हवा है न अंधड़-बरसात.<br /><br /></div><div>लेकिन इस पदचिन्ह से भी बड़ी (और बदबूदार) निशानियां इंसान चांद पर छोड़ आया है. रिपोर्ट्स के मुताबिक, इंसानों ने छह अपोलो मिशनों से पाखानों से भरे 96 बैग चांद की राह (ऑर्बिट) में फेंके हैं और इनमें से कुछ चांद पर भी पड़े हैं. तो अंतरिक्ष में, इंसान की गैरमौजूदगी में भी उसकी निशानियां (पता नहीं अब किस रंग की होंगी, और बदबू तो खैर हवा ने होने से फैलती भी नहीं होगी, पर गू तो गू है भई.) उसके आने की गवाही चीख-चीखकर दे रही हैं.<br /><br /></div><div>अच्छा चलते-चलते चांद पर इब्न-ए-सफ़ी का लिखा सुंदर-सा शेर याद आ रहा है<br /><br /></div><div><b>चाँद का हुस्न भी ज़मीन से है <br />चाँद पर चाँदनी नहीं होती <br /></b><br /></div><div>...और ये बात, विक्रम लैंडर को पता चल गई होगी.</div>Manjit Thakurhttp://www.blogger.com/profile/09765421125256479319noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7338682564613289699.post-32783409916304526792023-06-18T12:50:00.002+05:302023-06-18T12:50:05.471+05:30मेरा पहला उपन्यास गर्भनाल<p>एक अच्छी खबर शेयर करनी है. बहुत लंबे समय से प्रतीक्षा थी, वह क्षण आ गया है. मेरा पहला प्रिंट उपन्यास गर्भनाल बस आ रहा है. यह उपन्यास अभिजीत और मृगांका की प्रेम कहानी तो है ही, यह उस प्रेम को अलग स्तर पर ले जाती है. यहां जड़ों की तलाश में निकले नायक अभिजीत को मिलता है मृगांका का साथ. </p><p>कैसे, इसका उत्तर आपको उपन्यास में ही मिलेगा. ऐसे दौर में, जब लंबी रेखीय कहानी को भी उपन्यास कहा जाता है. गर्भनाल को मैंने औपन्यासिक शैली में लिखने की कोशिश की है, जिसकी कथा अरेखीय और बहुस्तरीय है. </p><p>इस किताब को आपके प्रेम और स्नेह की आवश्यकता है.</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiW2YeovNrAlevzZeS4pmJJqku04W8dITBdJjFUx7IuQTiZRBcVVM1HR6vyJ1CE_kjUvOjuOsufkwgZF_yTfdE4ZFkhByBUcKXYIIgx56jszs2roVdlu1H81ufw5FUe-rKwSZ1ab7ZvoJMuIZqaYKvRDZfab40kozRHlRrvrGGpwo4DWI5OMpKU-seJ/s600/Garbhnaal.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="600" data-original-width="600" height="452" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiW2YeovNrAlevzZeS4pmJJqku04W8dITBdJjFUx7IuQTiZRBcVVM1HR6vyJ1CE_kjUvOjuOsufkwgZF_yTfdE4ZFkhByBUcKXYIIgx56jszs2roVdlu1H81ufw5FUe-rKwSZ1ab7ZvoJMuIZqaYKvRDZfab40kozRHlRrvrGGpwo4DWI5OMpKU-seJ/w452-h452/Garbhnaal.jpg" width="452" /></a></div><div><br /></div>यह उपन्यास ईसमाद प्रकाशन ने प्रकाशित किया है और यह अमेजन, फ्लिपकार्ट, दिनकर पुस्तकालय, पोथीघर और ईसमाद के वेबसाइट के जरिए खरीदा जा सकेगा. 20 जून से यह ऑनलाइन उपलब्ध होगा. लिंक कल शेयर करुंगा.<div><br /></div><div>उपन्यास की कीमत 399 रुपए मात्र है. </div><div><br /></div><div>#Garbhnaal #गर्भनाल </div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjqmHYBr7dI2NVAM_thyzlLLzLA6AE1bwUeMP4PHqVnnPXB5WAc64Z9YT-bkhh479frlwz7MIQ-a91FKvUkIE_9wmD1wj_aHu9rATsXDopFsld3VF2XbaawSeU5kiH9FQ7wuAhIKm_uwP0x9FQJ8u4pa1WTuODoqy87SXmoQhedCTZhQXUgvvS8DtoH/s1080/Meet%20Mriganka.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1080" data-original-width="1080" height="510" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjqmHYBr7dI2NVAM_thyzlLLzLA6AE1bwUeMP4PHqVnnPXB5WAc64Z9YT-bkhh479frlwz7MIQ-a91FKvUkIE_9wmD1wj_aHu9rATsXDopFsld3VF2XbaawSeU5kiH9FQ7wuAhIKm_uwP0x9FQJ8u4pa1WTuODoqy87SXmoQhedCTZhQXUgvvS8DtoH/w510-h510/Meet%20Mriganka.jpg" width="510" /></a></div><br /><div><br /><p><br /></p></div>Manjit Thakurhttp://www.blogger.com/profile/09765421125256479319noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7338682564613289699.post-71652240410467282902023-06-07T13:14:00.003+05:302023-06-07T13:15:25.349+05:30लोकसभा चुनाव 2024- पश्चिम बंगाल में बिछ गई जातीय बिसात, कुर्मी और संताल आदिवासी आमने-सामनेपश्चिम बंगाल (West Bengal) में लगता है लोकसभा चुनाव (Loksabha Election 2024) की तैयारियां ग्यारह महीने पहले से शुरू हो गई हैं. और इस बार पहल सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस (Trinmool Congress) ने की है. असल में, पश्चिम बंगाल (West Bengal) के कुर्मी समुदाय (Kurmi) ने आरोप लगाया है कि राज्य में संताल जनजातीय समुदाय को उनके खिलाफ भड़काया जा रहा है और यह साजिश प्रशासन की है. <br /><br />गौरतलब है कि कुर्मी समुदाय (Kurmi) के लोग पश्चिम बंगाल (West Bengal) में अनुसूचित जनजाति के दर्जे के लिए इन दिनों प्रदर्शन कर रहे हैं. कुर्मी नेता अजीत महतो ने कहा एक न्यूज एजेंसी को बताया, “आदिवासी समुदाय के लोगों को हमारे खिलाफ भड़काने की साफ साजिश है. इस साजिश के पीछे प्रशासन है. इस साजिश के पीछे मुख्य दिमाग कोलकाता से चल रहा है.” <br /><br />हालांकि, उन्होंने कोई नाम देने से इनकार कर दिया.<div><br /><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEifp4QHyr5YpN67kYkvRgfXX21XLFBDktB6pBn_6eBiSU0Mgg8cl4v9efrI5d3_6Cn_uiQJr0QlNX56OR4hQXoZi3DZ4sua8ZcqkX4lsP_dcVb--yFOHk7klPZM0buY2hQWuIqx3UCTO0VYI9sBAWwNGkbRFbByDqUsJDjJBN_6wbRpoCh0NHaja_Ll/s2000/40fc202c4753fb7cd4c514d02876f270.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1117" data-original-width="2000" height="339" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEifp4QHyr5YpN67kYkvRgfXX21XLFBDktB6pBn_6eBiSU0Mgg8cl4v9efrI5d3_6Cn_uiQJr0QlNX56OR4hQXoZi3DZ4sua8ZcqkX4lsP_dcVb--yFOHk7klPZM0buY2hQWuIqx3UCTO0VYI9sBAWwNGkbRFbByDqUsJDjJBN_6wbRpoCh0NHaja_Ll/w605-h339/40fc202c4753fb7cd4c514d02876f270.jpg" width="605" /></a></div><br />कुर्मी जाति (Kurmi) के लोगों और राज्य सरकार के बीच कुछ समय से तनाव बढ़ रहा है. पहले एसटी दर्जे की मांग को लेकर लगातार विरोध कार्यक्रम आयोजित किए गए और फिर हाल ही में तृणमूल कांग्रेस (Trinmool Congress) के राष्ट्रीय महासचिव अभिषेक बनर्जी के काफिले पर हमला हो गया. इससे तनाव चरम पर पहुंच गया है. <br /><br />आरोप लगाए जा रहे हैं कि कथित तौर पर इस हमले के पीछे कुर्मी समुदाय (Kurmi) के लोगों का हाथ था. उस हमले में बनर्जी के काफिले में चल रहे पश्चिम बंगाल के मंत्री बीरबाहा हांसदा के वाहन को क्षतिग्रस्त कर दिया गया था. इधर, संताल समुदाय से आने वाली मंत्री हांसदा ने उस समय हमलावरों के खिलाफ तीखा हमला किया और अंत तक अंजाम भुगतने की धमकी भी दी. <br /><br />मामले में अब तक पुलिस ने तीन शीर्ष कुर्मी (Kurmi) नेताओं समेत कुल 11 लोगों को गिरफ्तार किया है. महतो ने कहा कि अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की मांग के समर्थन में आंदोलन जारी रखने के अलावा गिरफ्तार किए गए कुर्मी नेताओं की रिहाई की मांग को लेकर धरना-प्रदर्शन आने वाले दिनों में और उग्र होगा. <br /><br />महतो ने कहा, प्रदर्शन के तहत सांसद व विधायक जैसे निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के आवास तक बाइक रैली निकाली जाएगी. हम राज्य में त्रिस्तरीय पंचायत व्यवस्था के आगामी चुनावों के लिए जल्द ही अपनी रणनीति को अंतिम रूप देंगे. हम अपनी मांग को पूरा करने के लिए अंत तक लड़ेंगे. <br /><br />जो भी हो, जातीय द्वेष के आधार पर बंगाल में आगामी लोकसभा चुनाव (Loksabha Election 2024) काफी दिलचस्प होने वाला है क्योंकि तृणमूल कांग्रेस (Trinmool Congress) के पास पहले ही मुस्लिम मतदाताओं का झुकाव है. यह पिछले विधानसभा चुनाव 2021 में स्पष्ट दिखा था. <br /><br />जिस बंगाल (West Bengal) की राजनीति को वर्गीय चेतना की राजनीति का गढ़ माना जाता था वहां अब पहले धार्मिक और अब जातीय विभेद राजनीति की दिशा तय करेंगे. <br /><br /> </div></div>Manjit Thakurhttp://www.blogger.com/profile/09765421125256479319noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7338682564613289699.post-90067354924201476322023-05-30T23:00:00.004+05:302023-05-30T23:02:27.782+05:30यार ! धोनी भी इमोशनल होते हैंहम बचपन से इस गलतबयानी पर यकीन करते आए हैं कि भावुकता कमजोरी की निशानी है. पराजय के बाद गुस्से से बल्ला पटकना और जीत के बाद हवा में मुट्ठियां लहराना, हल्के-फुल्के खिलाड़ियों के लक्षण हैं, लेकिन महेंद्र सिंह धोनी के नहीं. <br /><br />लेकिन, आइपीएल के फाइनल में जीत का मौका ऐसा आया कि धोनी भी जज्बाती हो उठे. आखिरी दो गेंदों में दस रन चाहिए थे और जाडेजा ने वह असंभव कर दिखाया. इस जीत के बाद, धोनी ने जाडेजा को गले से लगाया और फिर गोद में उठा लिया. और कैमरा जूम होकर जब धोनी के चेहरे पर फिक्स हुआ तो पता चला कि धोनी की आंखें नम हैं. यह दुर्लभ क्षण था.<div><br /><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhkkIUNpPgg1MiVR2QG8MUaBIJoe4uxsxsoVOQ1PoktrwYiYTcrL4nL4tuO7Gst9bE6Qz9xlcJzd_VMvi1y9yiclKlVFJO3a1fjwOv9j5-eq03hUzBUck4tH3ycSO5D9FEYZ4Zk9snlMQKWPTTAf41_Vvo4sx0iBnAc1XEaMulXlSLV2-OVzQdrMkwF/s851/350097326_970498674295712_2819468403965241155_n.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="851" data-original-width="637" height="550" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhkkIUNpPgg1MiVR2QG8MUaBIJoe4uxsxsoVOQ1PoktrwYiYTcrL4nL4tuO7Gst9bE6Qz9xlcJzd_VMvi1y9yiclKlVFJO3a1fjwOv9j5-eq03hUzBUck4tH3ycSO5D9FEYZ4Zk9snlMQKWPTTAf41_Vvo4sx0iBnAc1XEaMulXlSLV2-OVzQdrMkwF/w412-h550/350097326_970498674295712_2819468403965241155_n.jpg" width="412" /></a></div><br />जीत के बाद भी सामान्य बने रहने में धोनी को अगर कोई टक्कर दे सकता है तो वह इकलौता भारतीय है अभिनव बिंद्रा. क्रिकेट में शांत बने रहने की जरूरत नहीं होती, उसके बावजूद धोनी ने अपने धैर्य से अपनी शख्सियत को और आभा ही बख्शी है. </div><div><br /></div><div>जाडेजा को गले से लगाने के बाद क्षणांश के लिए भावुक हुए धोनी एक बार फिर से अपने मूल अवस्था में लौट आए और ट्रॉफी लेने के लिए जाडेजा और रायुडू को आगे भेज दिया. सेनानायक ने एक बार फिर जीत के बाद खुद नेपथ्य में रहना चुना. उस्ताद रणनीतिकार ने जीत का श्रेय एक बार फिर हरावल दस्ते को दे दिया. <br /><br /> </div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjNskuwzCMkbBCHszPBG7hPfWw4lyRj3O5sLexZGMuKOzWs1c7FqtZvzG1wEiJD52qupmdM7_syLzDW416F2t9VsRuoyuddONxc6QO7rCV4ojGARIVPisNnSzVu8Q0a3mPk9kr-TsHyVs1VIqh9F4sOj3oYWX13tsn5V8JF9AISOJBIbfKamd3SrRpY/s812/350125126_843404850549726_5656516398517359653_n.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="812" data-original-width="634" height="533" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjNskuwzCMkbBCHszPBG7hPfWw4lyRj3O5sLexZGMuKOzWs1c7FqtZvzG1wEiJD52qupmdM7_syLzDW416F2t9VsRuoyuddONxc6QO7rCV4ojGARIVPisNnSzVu8Q0a3mPk9kr-TsHyVs1VIqh9F4sOj3oYWX13tsn5V8JF9AISOJBIbfKamd3SrRpY/w417-h533/350125126_843404850549726_5656516398517359653_n.jpg" width="417" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span style="text-align: left;"><br /></span></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><span style="text-align: left;">यह एक परिपक्व और स्थिर मस्तिष्क का संकेत है, जो इस बात को समझता है कि कामयाबी कोई एक बार में बहक जाने वाली चीज नहीं, इसे लगातार बनाए रखना पड़ता है. ऐसे लोग अतिउत्साहित नहीं होते. वे अपनी खुशी को अपने तक रखते हैं, इस तरह औसत लोगों से ज्यादा उपलब्धियां हासिल करते हैं. उन्होंने हमेशा आलोचकों का मुंह बंद किया है और सीनियर खिलाड़ियों से अपनी बात मनवाई है. उन्होंने छोटे शहरों की एक समूची पीढ़ी के लिए प्रेरणा का काम किया है. धोनी की कहानी शब्दों में बयां करना आसान नहीं. उनकी पारी अब भी जारी है. (उन्होंने कल कहा भी)</span></div><div style="text-align: justify;"><br /></div>पहले एक किस्साः बात थोड़ी पुरानी है. एक दफा धोनी नए खिलाड़ियों को क्रिकेट प्रशिक्षक एम.पी. सिंह से बल्लेबाजी के गुर सीखता देख रहे थे. बता रहे थे कि कैसे बैकलिफ्ट, पैरों का इस्तेमाल और डिफेंस करना है. सत्र के बाद उन्होंने क्रिकेट प्रशिक्षक एम पी सिंह से कहा कि वे दोबारा उन्हें वह सब सिखाएं. सिंह अकचका गए. उन्होंने कहा, ''तुम इंडिया के खिलाड़ी हो, शतक मार चुके हो और ये सब अब सीखना चाहते हो? धोनी ने सहजता से कहा, ''सीखना जरूरी है, कभी भी हो.” जाहिर है, खेल धोनी के स्वभाव में है और क्रिकेट उनके लिए पैदाइशी बात है.<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiS8UMGWCsVkevuBa6VdBZVNNCgZxCxhnmbiME4vwyabo0vElHlAOxRRL9F0Gmab57jwxL0klq1Pdyt4vtoMCE3OZGaJ0LlByMwgkmrWukpgt2_dLh-6-p63cyCYoWrixXmkZafJm2Q2B6TW_wTmZ4vQ3fkd92Sbt-TsZECHNjpTekStJDTIWR6xgts/s800/349865025_575034724765042_3759942147666597462_n.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="792" data-original-width="800" height="520" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiS8UMGWCsVkevuBa6VdBZVNNCgZxCxhnmbiME4vwyabo0vElHlAOxRRL9F0Gmab57jwxL0klq1Pdyt4vtoMCE3OZGaJ0LlByMwgkmrWukpgt2_dLh-6-p63cyCYoWrixXmkZafJm2Q2B6TW_wTmZ4vQ3fkd92Sbt-TsZECHNjpTekStJDTIWR6xgts/w524-h520/349865025_575034724765042_3759942147666597462_n.jpg" width="524" /></a></div><br /><div>फिल्म धोनी- द अनटोल्ड स्टोरी का वह दृश्य याद करिए, जब अपनी मोटरसाइकिलों की देख-रेख करते वक्त धोनी वह चीज हासिल कर लेते हैं, जो उनको कामयाब होने से रोक रही थी. धोनी रक्षात्मक खेल के लिए नहीं बने हैं. यही बात फिल्म में भी उनसे कही गई थी, और यही बात शायद धोनी ने इस बार समझ भी ली, पर इस दफा तरीका अलहदा रहा.<br /><br />बढ़ती उम्र का तकाजा था कि उन्हें अपनी टाइमिंग पर काम करने की जरूरत थी. धोनी ने अपने बल्लों (वह अमूमन अपनी पारियों में दो वजन के अलग-अलग बल्लों का इस्तेमाल करते हैं) के वजन को कम कर लिया. इसी से उनकी टाइमिंग बेहतर हो गई. और शायद इस वजह से धोनी इस बार के आइपीएल में वही शॉटस लगा पाए हैं, जिसके मुरीद हम सभी रहे हैं.<br /><br />आपको 2004 के अप्रैल में पाकिस्तान के खिलाफ विशाखपट्नम के मैच की याद है? नवागंतुक और कंधे तक लंबे बालों वाले विकेट कीपर बल्लेबाज महेंद्र सिंह धोनी ने पाकिस्तानियों को वॉशिंग पाउडर से धोया और 123 गेंदों में 148 रन कूट दिए थे. फिर तो आपको 2005 के अक्टूबर में जयपुर वनडे की भी याद होगी, जब श्रीलंका के खिलाफ धोनी ने 145 गेंदों में नाबाद 183 रन बनाए थे. पाकिस्तान के खिलाफ 2006 की फरवरी में लाहौर में नाबाद 72 रन की पारी हो, या फिर कराची में 56 गेंदों में नाबाद 77 रन.<br /><br />यहां तक कि 2011 विश्व कप फाइनल में भी आखिरी छक्का उड़ाते धोनी का भावहीन चेहरा आपके चेहरे पर मुस्कुराहट ला देता होगा.<br /><br />इस बार के आइपीएल में महेंद्र सिंह धोनी भले ही कम गेंदें खेलने के लिए आते थे—कभी-कभी तो महज दो गेंद—लेकिन वह अपने पुराने अवतार में दिखे. इस बार उन्होंने ऐसे छक्के उड़ाए जैसे उस्ताद कसाई चापड़ (बड़ा चाकू) चलाता है. इस बार के आइपीएल में धोनी के आते ही जियोसिनेमा पर लॉग इन करने वाले लोगों की संख्या लाखों की तादाद में बढ़ जाती थी. स्टेडियम में धोनी के आते ही हजारों की संख्या में मोबाइल की बत्तियां रोशन हो उठती थीं. लोग धोनी के विकेट पर आने के लिए जाडेजा के आउट होने की प्रार्थना करते थे. लेकिन, जाडेजा... उफ्. उनकी इस बार की गाथा भी अद्भुत रही.<br /><br />सीजन की शुरुआत मे जाडेजा लय में नहीं थे. दो मैच पहले बुरी तरह पिटे जाडेजा को कप्तान धोनी ने कुछ कहा भी था और सोशल मीडिया पर लोग इसबात को लेकर उड़ गए. जाडेजा ने एक बार कहा भी थाः लोग उनके आउट होने की प्रार्थना करते हैं. पर जाडेजा ने बुरा नहीं माना क्योंकि सम्राट जब स्वयं युद्ध भूमि में उतर रहे हों तो सिपहसालारों के लिए को-लैटरल डैमेज अनहोनी बात नहीं.</div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiA9GWOiwI8gftFlNmA2UWFCX7fOiNTetsB1PdcvhtvdYzGIeUVM3-jl0Mfe-al8vrS4k_lhA1STOEUlOcrICnbSKihry03z805FdiE3OVsvNTf9yotf0MivqwRPDI9IMPd4gt2ccu9cwrBMAPyNpmEnqsINf39fs3pa0O-tocPEErLrLQm6jXJIM0R/s951/12122.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="513" data-original-width="951" height="329" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiA9GWOiwI8gftFlNmA2UWFCX7fOiNTetsB1PdcvhtvdYzGIeUVM3-jl0Mfe-al8vrS4k_lhA1STOEUlOcrICnbSKihry03z805FdiE3OVsvNTf9yotf0MivqwRPDI9IMPd4gt2ccu9cwrBMAPyNpmEnqsINf39fs3pa0O-tocPEErLrLQm6jXJIM0R/w609-h329/12122.jpg" width="609" /></a></div><br /><div>बहरहाल, उम्र के चौथे दशक में चल रहे अधेड़ धोनी के हाथों में हरक्यूलीज वाली ताकत अभी भी बरकरार है. और इस बार धोनी ने उस ताकत का बखूबी इस्तेमाल किया.<br /><br />हेलीकॉप्टर शॉट लगाने वाले धोनी ने खुद को इस बार रॉकेट की तरह स्थापित किया है. शुभमन गिल को स्टंप करने में चीता भी पीछे रह जाता. धोनी ज्यादा तेज साबित हुए.<br /><br />अब भी कमेंटेटर उनकी तेज नजर को धोनी रिव्यू सिस्टम कहकर हैरतजदा हो रहे हैं, तो कभी धन धनाधन धोनी कहकर मुंह बाए दे रहे हैं. कभी उनको तंज से महेंद्र बाहुबली कहने वाले सहवाग जैसे कमेंटेटर भी खामोश हैं. खामोश तो धोनी भी हैं, पर इस बार उनके बल्ले से जैज़ के धुन निकले हैं.<br /><br />धोनी का नायकत्व अभी भी चरम पर है, शायद पहले से कहीं ज्यादा. यह एक ऐसा तिलिस्म है जिस से निकलने का जी नहीं करता.<br /><br />कल रात धोनी भावुक थे, जब धोनी रिटायर होंगे तो उनके सभी प्रशंसक और पूरा देश भावुक होगा.<br /></div></div><div><br /></div>Manjit Thakurhttp://www.blogger.com/profile/09765421125256479319noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7338682564613289699.post-49747439907872442752023-05-07T21:32:00.005+05:302023-05-07T21:32:43.018+05:30ब्रिटेन के राजा की ताजपोशी पर लहालोट मत होइए, हमें लूटकर अमीर बना है ब्रिटेनबड़ी ठसक से ताज पहन लिया नए लेकिन बुढ़ा चुके सम्राट ने. लेकिन यह सब सोने-चांदी के खजाने, मुकुट और उसमें लगे हीरे-जवाहरात हिंदुस्तान और इस जैसे देशों की लूट का माल है. इस राज्यारोहण पर लहालोट होने की बजाए लानत भेजिए. यह सोना नहीं, हिंदुस्तान के गरीबों का, जुलाहों का, किसानों का खून है.<br /><br /><div>आंकड़े बताते हैं कि अंग्रेजों ने 1765 से 1938 तक भारत से करीब 45 ट्रिलियन डॉलर की संपत्ति लूट ली. चार साल पहले अर्थशास्त्री उत्सव पटनायक ने एक अध्ययन में अंग्रेजी की लूटपाट का ब्योरा दिया था जिसे कोलंबिया यूनिवर्सिटी ने प्रकाशित किया था. <br /><br /></div><div>इतने बड़े पैमाने पर पैसा देश से बाहर व्यापार के माध्यम से गया जिसे अंग्रेज मनमाने तरीके से चलाते थे. 1765 में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना के साथ भारत का व्यापार अंग्रेजों की मुट्ठी में आ गया.<br /><br /></div><div>भारत से व्यापार करने के लिए किसी भी विदेशी को 'काउंसिल बिल' का इस्तेमाल करना होता था. यह 'पेपर करेंसी' सिर्फ ब्रिटिश क्राउन से मिलती थी. इसे हासिल करने के लिए लंदन में सोने और चांदी के बदले बिल लिए जाते थे. <br />भारत के व्यापारी जब इन्हें ब्रिटिश हुकूमत के पास कैश करवाने जाते थे तो उन्हें रुपयों में भुगतान मिलता था. ये वही पैसे थे जो टैक्स के रूप में व्यापारियों ने अंग्रेजों को दिए थे. एक बार फिर अंग्रेजों की जेब से कुछ नहीं जाता था और उनके पास सोना-चांदी भी आ जाता था. देखते-देखते 'सोने की चिड़िया' का घोंसला उजड़ गया.<br /><br /></div><div>इस अध्ययन के मुताबिक, भारत से लूटे गए पैसों का इस्तेमाल ब्रिटेन कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के विकास के लिए करता था. आसान शब्दों में कहें तो भारत के खजाने से न सिर्फ ब्रिटेन बल्कि कई अन्य देशों का भी विकास हुआ. 190 साल में ब्रिटेन ने भारत के खजाने से कुल 44.6 ट्रिलियन डॉलर चुराए. यही कारण है कि ब्रिटेन तेजी से तरक्की की सीढ़ियां चढ़ता गया और भारत संघर्षों में फंसा रह गया. <br /><br /></div><div>चोरी और लूट के माल से विकसित हुए देशों के साथ मेरी कोई सदिच्छा या सहानुभूति नहीं है.</div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><iframe allowfullscreen='allowfullscreen' webkitallowfullscreen='webkitallowfullscreen' mozallowfullscreen='mozallowfullscreen' width='401' height='334' src='https://www.blogger.com/video.g?token=AD6v5dxc1qqvrIptX6b5rcJFlWiWHqneBfmiAvVG9IkUYdgX_mrLCSOMaY3EqyuKTKizmCfnmd0HryFcQDyZvk3FUA' class='b-hbp-video b-uploaded' frameborder='0'></iframe></div><br /><div><br /></div>Manjit Thakurhttp://www.blogger.com/profile/09765421125256479319noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7338682564613289699.post-66128999924607647592023-04-25T23:15:00.000+05:302023-04-25T23:15:02.241+05:30वेब सीरीज जुबिली का मीन-मेखइससे पहले कि आप मेरी तरफ से जुबिली की मीन-मेख पढें, पहली बात, जुबिली देखी जा सकती है. सीरीज अच्छी है. लेकिन...<br /><br /><div>यह लेकिन शब्द जो है, वह आगे कई मीन-मेखों, छिद्रान्वेषणों के लिए इस्तेमाल किया जाएगा. तो जिनको जुबिली बहुत पसंद आई हो, वे लोग आगे न पढ़ें. जिनको परपीड़ा से सुख मिलता है, पढ़ते रहें. जुबिली भले ही फिल्मों की कहानी से जुड़ी है, पर यह धीमी है, और यह आपको उदासियों से भर देगा.<br /><br /></div><div>दूसरी बात, (पहली बात मैंने पहली लाईन में ही कह दी है) कि किसी भी सीरीज को सिर्फ इसलिए नहीं देखा जा सकता है, या देखा जाना चाहिए कि निर्देशक विक्रमादित्य मोटवाणी है. बेशक, मोटवाणी पाए के निर्देशक हैं. काम सलीके से करते हैं. लेकिन...<br /><br /></div><div>लेकिन, जुबिली में कई लूप होल्स निर्देशक महोदय ने छोड़े हैं. फिल्मों पर आधारित सीरीज को जरूरत से ज्यादा फिल्मी बनाना हो, और कई चीज को तो इतनी बार दोहराया गया है कि ऊबाऊ होने लगती है चीजें.</div><div><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi0FWRoAqgkEeOL2oIkkVUHu7LOzIjq8JdU1fxynG3b65woFqHaAN3zlRMGf0hGLWQuxsihVL0mbIVx4pEVdqTelGdctLUsZNfT_Fr7h-dp5Nba5rml2kmIgQSU9ei2IjzqnW6-WZjhio6V96ujec32nyBaa1sLGs7V1fmWZ0BkeVJQaOEw9F5KYUhJ/s647/343334888_2327150867453517_7873026925026225658_n.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="378" data-original-width="647" height="324" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi0FWRoAqgkEeOL2oIkkVUHu7LOzIjq8JdU1fxynG3b65woFqHaAN3zlRMGf0hGLWQuxsihVL0mbIVx4pEVdqTelGdctLUsZNfT_Fr7h-dp5Nba5rml2kmIgQSU9ei2IjzqnW6-WZjhio6V96ujec32nyBaa1sLGs7V1fmWZ0BkeVJQaOEw9F5KYUhJ/w554-h324/343334888_2327150867453517_7873026925026225658_n.jpg" width="554" /></a></div><br /><div><br /></div><div>मसलन, मदन कुमार के स्क्रीन टेस्ट को इतनी बार दोहराया गया है कि फॉरवर्ड करके देखना पड़ा. पहले एपिसोड में एक ऊबाऊ मुजरा भी है. पूरी सीरीज में संवाद भारी भरकम हैं कई बार संगीत कर्णप्रिय नहीं, बोदा भी लगता है. लेकिन...<br /><br /></div><div>लेकिन, जब तक आप जुबिली देखते हैं आप इसके किरदारों के साथ रहते हैं. हर किरदार को देखकर मन में एक सवाल तो उठता है, अरे ये किस के जैसा गढ़ा गया है या असल जिंदगी में यह है कौन? देविका रानी? अशोक कुमार? हिमाशु राय? देव आनंद या राज कपूर? नरगिस या सुरैया? <br /><br /></div><div>इस सीरीज में आपको कुछ बेहतरीन अदाकारी देखने को मिलेगी. इसलिए इसको एक ही रात में बिंज वॉच करके बदमजा न करें. बढ़िया से चबा-चबाकर खाएं. लेकिन...<br /><br /></div><div>लेकिन, आपने मोटवाणी की लुटेरा देखी है तो आपको जुबिली वैसी ही लगेगी. वैसे ही धीमे-धीमे एक आदमी के कत्ल की कहानी खुलती है और मदन कुमार उर्फ अपारशक्ति खुराना की दुविधा नजर आती है. अपारशक्ति खुराना ने बढ़िया अभिनय किया है. बढ़िया इसलिए क्योंकि वह अब तक इस तरह के गंभीर किरदार में नजर नहीं आए थे. लेकिन..<br /><br /></div><div>अपार शक्ति खुराना पहले कुछ एपिसोड में तो गंभीर और एकरस किरदार में ठीक लगते हैं पर बाद में बोरिंग लगने लगते हैं. उनकी किरदार पर लेखक को थोड़ा और काम करना चाहिए था. बिनोद दास के किरदार को बनाकर लेखक और निर्देशक ने उसको अनाथ छोड़ दिया. प्रसेनजीत अपने किरदार के हर फ्रेम में शानदार लगे हैं. लेकिन...<br /><br /></div><div>काश कोई अदिति राव हैदरी को समझा पाता कि आदमी (इस केस में अभिनेत्री) के मुखमंडल पर दुई ठो भाव ही नहीं रहते. एक होंठ आपस में चिपके हुए और दूसरा चवन्नी भर होंठ खुले हुए. लकड़ी जैसा फेस (फेस सुंदर है, भाव के अर्थ में कह रहे हैं) बनाकर कैसे एक्टिंग की है इनने? कास्टिंग किसने की है मुकेश छाबड़ा ने? लेकिन...<br /><br /></div><div>अदिति राव हैदरी के बर्फ की सिल्ली जैसी अदाकारी के सामने वामिकी गब्बी ने क्या जोरदार अभिनय किया है. अब आप गेस करते रह जाएंगे कि यह नरगिस है या सुरैया! उसी तरह जय खन्ना के किरदार में सिद्धांत कभी देव आनंद तो कभी राज कपूर बनने की कोशिश करते हैं. पर चालढाल से वह देव साहब जैसे ही दिखते हैं. लेकिन..<br />लेकिन आज आप लिखकर रख लीजिए, यह बंदा आगे बड़ा नाम करेगा. इसमें संभावनाएं बहुत हैं. इसमें स्टार बनने की क्षमता है. ऐसा इसलिए क्योंकि बंदे ने अपने हर जज्बात दिखाए हैं. खुशी, उदासियां, आंसू, नाच, खिलखिलाहट. सिद्धांत अभी करियर के शुरुआती दौर में ही हैं. इस लिहाज से उनका काम उम्दा है. लेकिन...<br /><br /></div><div>जुबिली के बारे कई समीक्षकों ने भांग खाकर तगड़ी राइटिंग बताई है. भक्क. आपको लूप होल बताता हूं. जमशेद खान का मेकअप मैन, उसके कत्ल के बाद उससे जुड़े सामान इकट्ठे करता है. कहां और कैसे? लेखक उसको सीधे मुंबई ले आता है. कैसे? चलिए बंदा न्याय के लिए बंबई आता है, पर उसके बाद उसको फोन की रिकॉर्डिंग सुनते हुए दिखाया जाता है वह भी रूसी जासूसों के साथ. कैसे? <br /><br /></div><div>यह सही है कि लेखकों को कुछ भी लिखने की छूट होती है. लेकिन...<br /><br /></div><div>जुबिली का कालखंड 1947 से 1953 का है और उसमें सिनेमास्कोप की बात होती है. लगभग ठीक ही है क्योंकि भारत में सिनेमास्कोप की पहली फिल्म कागज के फूल थी जो 1959 में रिलीज हुई थी. लेकिन...<br /><br /></div><div>आप को ध्यान देना चाहिए कि दुनिया की पहली सिनेमास्कोप फिल्म द रोब थी, जो 1953 में रिलीज हुई थी. शायद अमेरिकी में इस तकनीक के आने से पहले ही भारत में यह तकनीक मोटवाणी जी ले आए हैं.<br /><br /></div><div>राम कपूर ने कमीने किस्म के फाइनेंसर के रोल में बहुत प्रभावित किया. वह एक तरह से फिल्मी दुनिया के आलोक नाथ होते जा रहे थे. यह वैराइटी बढ़िया लगी. उनके किरदार को लेखक ने गहराई नहीं दी. <br /><br /></div><div>सेट-फेट, सिनेमैटोग्राफी तो बढ़िया है लेकिन आपको एक राज की बात बताऊं. इस्मत चुगताई का एक उपन्यास है, अजीब आदमी. मोटे तौर पर देवानंद और गुरुदत्त के जीवन से किरदार उठाए हैं उसमें इस्मत आपा ने. बेहतरीन उपन्यास है. जुबिली में जय खन्ना का किरदार उपन्यास के धर्मदेव से मिलता है और फाइनेंसर वालिया का किरदार उपन्यास के निर्माता किरदार वर्मा से. <br /><br /></div><div>कसम से, पढ़कर देखिएगा उपन्यास.<br /><br /></div><div>हो सकता है कि आने वाले सीजन में वर्मा जी ओह सॉरी, वालिया साहब का किरदार किसी हीरोईन के धोखे का शिकार होकर दिवालिया हो जाए, उपन्यास में ऐसा इच हुआ था. साहित्य का ऐसा प्रेरणा के रूप में ऐसा इस्तेमाल भी करते हैं फिल्म वाले. लेकिन...<br /><br /></div><div>मदन कुमार को पूरी सीरीज में 967 बार बहनचोद कहा गया है. ऐसा क्यों? एकाध बार तो ठीक है, वेबसीरीज को सर्टिफिकेट ही गालियों से मिलता है इसलिए मान लेते हैं. पर हर किसी के मुंह से मदन कुमार को गाली दिलवाई है मोटवाणी ने. <br /><br /></div><div>यह बात कुछ जमी नहीं. इसलिए जुबिली देखिए जरूर लेकिन....</div><div><br /></div>Manjit Thakurhttp://www.blogger.com/profile/09765421125256479319noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7338682564613289699.post-83793181361003001192023-04-04T20:18:00.002+05:302023-04-04T20:18:18.367+05:30पुस्तक समीक्षाः अभिषेक श्रीवास्तव की किताब कच्छ कथा बताती है कच्छ संस्कृति के बेशकीमती ब्योरे और सांप्रदायिक सौहार्द के अनसुने किस्सेबहुत सारे लोग कच्छ घूमने नहीं जा सकते. लेकिन अगर शब्दों के सफर पर कच्छ को देखना हो, तो अभिषेक श्रीवास्तव की एथ्नोग्राफिक यात्रा आख्यान ‘कच्छ कथा’ इसके लिए बिल्कुल मुफीद किताब है. कच्छ की धरती ने पिछली दो सदियों में कम से कम दो भीषण और भयावह भूकंपों का सामना किया है. और यह किताब उन भूकंपों के कच्छ की तहजीब पर पड़े प्रभावों को परत दर परत उधेड़ती है. <br /><br />एक तरह से कहें तो आपने अगर 'कच्छ कथा' पढ़ी तो लेखक आपको एक ऐसी धरती के सफर पर लिए चलते हैं, जहां आप कभी गए नहीं और अगर गए हों तो केवल आवरण देखकर आए गए हों. <br /><br />अभिषेक घुमंतू स्वभाव के पत्रकार हैं और पिछले एक दशक से ज्यादा वक्त के दौर में उन्होंने कई बार कच्छ की यात्रा की है और इस तजुर्बे के साथ वह कच्छ की सीवन उधेड़कर रख देते हैं. इस किताब में बारीक ब्योरे हैं, लोगों के बारे में विवरण है और ऐसी अनसुनी कहानियां हैं, जो मुख्यधारा में आता ही नहीं. <br /><br />कच्छ का भूगोल सामने से कुछ नजर आता है लेकिन किताब जब ब्योरे देते हुए आग बढ़ती है तो आप उसमें खोकर एक नई दुनिया के सफर पर निकल पड़ते हैं. मानो अभिषेक आगे चल रहे हों और आप पीछे-पीछे. <br /><br />पर अभिषेक ने सिर्फ कच्छ को देखा नहीं है. उनकी दृष्टि एकसाथ ही पैनोरेमिक और टेलीलेंसीय दोनो है. कच्छ कथा में कच्छ लॉन्ग शॉट में भी है और एक्स्ट्रीम क्लोज-अप में भी.<div><br /><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgPXfuwOOe1GP41SBsjNq216joEoCP6rPsFBWnCZnYOPbx4fOB-bu4HzqqZpAYLht0SYjZxOiA8WtNcrUaixfSUQOZkcMT1wayZ9Ggy97MG_m_7-40M3Udnz92kSlqFR9tRlBC3q9lbYfkb0VNfSWPBYdSwRiBS5aqbH18Mzd6qq5TFoledAQYDuCpZ/s750/holi%20(39).jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="500" data-original-width="750" height="354" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgPXfuwOOe1GP41SBsjNq216joEoCP6rPsFBWnCZnYOPbx4fOB-bu4HzqqZpAYLht0SYjZxOiA8WtNcrUaixfSUQOZkcMT1wayZ9Ggy97MG_m_7-40M3Udnz92kSlqFR9tRlBC3q9lbYfkb0VNfSWPBYdSwRiBS5aqbH18Mzd6qq5TFoledAQYDuCpZ/w532-h354/holi%20(39).jpg" width="532" /></a></div><br /> <br /><br />असल में, कई मंदिरों, दरगाहों, नमक के खेतों, मिथकों और मान्यताओं के जरिए लेखक ने इस किताब में न सिर्फ कच्छे के भूगोल को उकेरा है बल्कि उन्होंने उसका ऐतिहासिक और समाजशास्त्रीय विश्लेषण भी किया है. <br /><br />संभवतया उनकी यह वैचारिक टेक है कि विकास को लेकर एक आम बहस में वह कच्छी अस्मिता या तहजीब या विरासत की चिंता को बारंबार सामने लाते हैं. <br /><br />कच्छ कथा धोलावीरा के पुरातात्विक उत्खनन की पड़ताल करते हैं तो साथ ही लखपत के बारे में दिलचस्प ब्योरे देते हैं. नाथपंथी गुरु धोरमनाथ के बारे में अनजाने किस्से बटोरते हैं और फिर नमक के मजदूरों तक की बात करते हैं. <br /><br />हिंदी किताबों के बारे में बात करते समय हमेशा भाषा के बारे में टिप्पणी की जाती है. ऐसे में, कच्छ कथा की भाषा प्रवाहमय है. ऐसा लगता नहीं कि लेखक लिख रहा है, ऐसा लगता है कि वह आपसे आमने-सामने बात कर रहा है. यह किताब की बहुत बड़ी शक्ति है. <br /><br />दूसरी बात, किताब बात की बात में भारतीय संस्कृति की असली ताकत यानी इसकी समावेश संस्कृति की सीख देती चलती है. मसलन, किताब की शुरुआत में ही कच्छ के अंजार में हिंदू राजा पता नहीं किस सनक में अपनी प्रजा में सबको मुस्लिम धर्मान्तरित करने पर तुला था. लेकिन उसके खिलाफ फतेह मुहम्मद और मेघजी सेठ उठ खड़े हुए. राजा को कैद कर लिया गया और फिर कच्छ में बारभाया यानी बारह भाइयों के राज की स्थापना हुई. यह अपने किस्म का अलग ही लोकतंत्र था. इन बारह लोगों में हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के लोग थे. <br /><br />कच्छ कथा में लेखक वहां के इस्मायली पंथ का ब्योरा भी देते हैं, जिसमें सतपंथी और निजारी हिंदू भी हैं और मुसलमान भी. अभिषेक लिखते हैं, “यह व्यावहारिक और आध्यात्मिक जीवन की विवशताओं और श्रद्धा से उपजा परिवर्तन था. जहां इस्माइली बनने के बाद व्यावहारिक जीवन में कुछ खास नहीं अपनाना होता था. बस हिजाब और साड़ी का फर्क है, बाकी सतपंथियों की दरगाहें आज भी एक ही हैं. यह एक ऐसा धार्मिक समन्वयवाद है जहां आपको ओम भी मिलेगा, स्वास्तिक भी मिलेगा, हिंदू नाम और पहचान भी मिलेगी लेकिन प्रार्थनाओं में फारसी और अरबी की दुआएं भी मिलेंगी.” <br /><br />कच्छ कथा में कई ऐसे पीरों का जिक्र है जिनकी कहानी में एक लाचार बूढ़ी औरत होती है, और जिसके मवेशियों को डकैत उठा ले जाते हैं और उसकी मालकिन फरियाद लेकर पीर के पास पहुंचती है. पीर घोड़े पर बैठकर जाते हैं और औरत की गायों को बचाने के चक्कर में शहीर हो जाते है. <br /><br />अभिषेक ऐसे बहुत सारे पीरों की जिक्र करते हैं लेकिन कम से कम दो पीरों की किस्से ऐसे हैं जिनका उल्लेख वह विस्तार से करते हैं. इनमें से एक हैं हाजी पीर और दूसरे हैं रामदेव पीर. रामदेव पीर की कहानी में पीड़ित स्त्री मुस्लिम है जबकि हाजी पीर के किस्से में महिला हिंदू है, जिसके गाय चुरा लिए गए हैं. हाजी पीर ने हिंदू स्त्री के मवेशी बचाते हुए शहादत दी और रामदेव पीर ने मुस्लिम स्त्री की गायें बचाते हुए जान दी और इसलिए स्थानीय समुदाय में पीरों का दर्जा पाए और पूजित हुए. <br /><br />एक अन्य उल्लेखनीय मिसाल, एक महादेव मंदिर की दो बहनों का पुजारिन होना है. खासबात यह कि इस मंदिर के संरक्षण का जिम्मा मुस्लिमों के हाथ में है. वह गांव तुर्कों का ध्रब है. लखपत का गुरुद्वारा हिंदू परिवार चलाता था, और वहां के दरगाहों और मंदिरों के संरक्षण का काम वहां के हिंदू और मुस्लिम समुदाय के लोग मिलकर करते हैं. <br /><br />कुल मिलाकर कच्छ कथा अपने खास वैचारिक झुकाव के बावजूद एक अवश्य पढ़ी जाने वाली किताब है जो न सिर्फ कच्छ की समस्या से, बल्कि कच्छ की एकदम अलहदा विरासत से भी आपको रू ब रू कराती है. पन्ने दर पन्ने यह किताब आपको कच्छ के सफर पर लिए चलती है. <br /><br />हालांकि, आधी किताब के बाद अभिषेक एकरस भी होते हैं. खासकर तब, जब वह राजनैतिक समीकरणों और बाध्यताओं का जिक्र करते हैं लेकिन ऐसी किताबें आज के दौर में बेहद जरूरी हैं जो देश के बाकी हिस्से के लोगों को अपनी समृद्ध विरासत के बारे में बता सके. <br /><br /><br /><b>किताबः</b> कच्छ कथा <br /><br /><b>लेखकः </b>अभिषेक श्रीवास्तव <br /><br /><b>प्रकाशनः</b> राजकमल प्रकाशन <br /><br /><b>मूल्यः </b>299 पेपरबैक</div></div>Manjit Thakurhttp://www.blogger.com/profile/09765421125256479319noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7338682564613289699.post-28598398750209529602023-03-27T19:48:00.004+05:302023-03-27T19:48:18.396+05:30रिश्तों की सिलवट को दूर करें, एंट्रॉपी से सीख लेंआपने 'एन्ट्रॉपी' के बारे में सुना है? <br /><br /><div>किसी भी तंत्र में अव्यवस्था या अनियमतिता की मात्रा एंट्रॉपी कही जाती है. थर्मोडायनेमिक्स का दूसरा नियम कहता है कि एंट्रॉपी समय के साथ बढ़ती जाती है. यह समय के साथ किसी तंत्र की अस्थिरता प्रदर्शित करती है यदि उसे स्थिर रखने के लिए ऊर्जा का कोई निवेश न किया जाए. <br /><br /></div><div>एक मिसाल लीजिए. मान लीजिए कि आप लाइब्रेरी से एक किताब घर लाते हैं. आपको पिताजी ने एक और किताब आपको उपहार में दी है. आपकी गर्लफ्रेंड ने आपको एक मैगजीन दिया और आपके पास अपनी भी कुछ किताबें और म्युजिक सीडी का भंडार है और आपने यह सब अपनी मेज पर ढेर के रूप में रख दिया है. जहां पहले से कलमें, पेंसिलें, और बहुत सारा अल्लम-गल्लम पड़ा हो. सोचिए जरा कितनी अस्त-व्यस्तता हो जाएगी. <br /><br /></div><div>यही नहीं, यह भी मान लीजिए कि आपके कपड़े फर्श पर बिखरे हुए हैं. बिस्तर पर गीला तौलिया है और जुराबें बिस्तर के नीचे हैं, आपकी जींस पेंट कुरसी पर लटकी हुई है और व्यवस्था में एक किस्म की अराजकता है. <br /><br /></div><div>आप आखिरकार इस गड़बड़ से परेशान हो जाएंगे. आप चीजों को व्यवस्थित करना शुरू कर देते हैं. आप किताबों को आलमारी में करीने से रखते हैं और कपड़ों को धो-सुखाकर इस्तिरी करके आलमारी में उसकी जगह पर रखते हैं और अपना बिस्तर भी ठीक करते हैं. अब आपका कमरा व्यवस्थित और साफ-सुथरा दिखने लगता है. और यह स्थिति तब तक बनी रहती है जब तक आप दोबारा सामान न बिखेर दें. यानी, आपको कमरे को व्यवस्थित रखने के लिए लगातार ऊर्जा का निवेश करते रहना होगा. <br /><br /></div><div>जैसा पहले भी कहा है मैंने, किसी भी तंत्र में अव्यवस्था या अनियमतिता की मात्रा एंट्रॉपी कही जाती है. थर्मोडायनेमिक्स का दूसरा नियम कहता है कि 'एंट्रॉपी' 'समय' के साथ बढ़ती जाती है. यह समय के साथ किसी तंत्र की 'अस्थिरता' प्रदर्शित करती है यदि उसे स्थिर रखने के लिए ऊर्जा का कोई निवेश न किया जाए.</div><div><br /></div><div>यह 'एंट्रॉपी का सिद्धांत' रिश्तों पर भी लागू होता है. मानवीय रिश्ते भी उस अव्यवस्था से अस्थिर हो सकते हैं. हम अंदर ही अंदर चीजों को इकट्ठा होने देते हैं. आंतरिक अव्यवस्था बढ़ने का कारण यह है कि हम अत्यधिक भावनाओं और प्रतिक्रियाओं को इकट्ठा करते हैं. ठीक वैसे ही, जैसे कमरे में पड़ी किताबें और कपड़े. <br /><br /></div><div>हम नाराजगी और चिड़चिड़ाहट को पालते रहते हैं और यदि इसके समाधान के लिए कुछ न किया जाए, तो किसी दिन फट पड़ते हैं. रिश्तों को स्थायित्व देने के लिए हमें कुछ निवेश करने की जरूरत होती है. रिश्तों की सिलवटों को दूर करना होता है ताकि हम हमेशा के लिए उन बातों को अपने मन में पालते और जमा करते न रहें.<br />बूझे?</div>Manjit Thakurhttp://www.blogger.com/profile/09765421125256479319noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7338682564613289699.post-14666316450092649182023-03-23T23:39:00.005+05:302023-03-23T23:39:41.248+05:30आने वाले दशक भयावह जलसंकट के होंगेदुनिया पानी में है लेकिन पीने लायक पानी में नहीं. पूरी धरती पर मौजूद कुल पानी का महज 4 फीसद हिस्सा ही पीने लायक है. और कहने वाले कहते हैं कि तीसरा विश्वयुद्ध पानी की वजह से लड़ा जाएगा.<br /><br /><div>दुनियाभर के 40 देश गहरे जलसंकट से जूझ रहे हैं और बढ़ती आबादी और बढ़ते शहरीकरण के मद्देनजर भारत में भी यह संकट गहरा होता जा रहा है. भूमिगत जल तेजी से नीचे खिसकता जा रहा है. जैसे-जैसे दुनिया की आबादी बढ़ती जाएगी, शहरीकरण भी बढ़ता जाएगा और उसके साथ जलवायु परिवर्तन भी तेज होगा और इसके प्रभाव भी स्पष्ट रूप से दिखने लगे हैं.<br /><br /></div><div>इसके साथ ही लोगों की खाने की आदतों में भी बदलाव आएगा और इन सबके मिले-जुले प्रभाव से भविष्य में पानी का मांग में जबरदस्त इजाफा होगा.<br /><br /></div><div>नीति आयोग ने जून, 2019 में ‘कंपॉजिट वाटर मैनेजमेंट इंडैक्स रिपोर्ट’ जारी की थी, इसमें बताया गया है कि देश में 60 करोड़ लोग अत्यधिक जल संकट का सामना कर रहे हैं. विशेषज्ञों के मुताबिक, सालाना 1700 क्यूबिक मीटर प्रतिव्यक्ति से कम पानी की उपलब्धता को ‘जलसंकट’ माना जाता है. <br /><br /></div><div>मौजूदा चलन के हिसाब से देखा जाए तो 2030 तक जल की मांग में करीबन 40 फीसद की वृद्धि होगी और धारा के विरुद्ध (अपस्ट्रीम) जलापूर्ति के लिए सरकारों को करीबन 200 अरब डॉलर सालाना खर्च करना होगा. इसकी वजह यह होगी कि पानी की मांग जलापूर्ति के सस्ते साधनों से पूरी नहीं हो पाएगी. वैसे, बता दें अभी दुनिया भर में कुल मिलाकर औसतन 40 से 45 अरब डॉलर का खर्च जलापूर्ति यानी वॉटर सप्लाई पर आता है.<br /><br /></div><div>टिकाऊ विकास के लिए स्वच्छ जल का विश्वसनीय स्रोत होना बेहद जरूरी है. जब स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं होगा, तो दुनिया की गरीब आबादी को अपनी आमदनी का बड़ा हिस्सा इसे खरीदने में खर्च करना होगा, या फिर उनकी जिंदगी का बड़ा हिस्सा इसको ढोने में खर्च हो जाएगा. इससे विकास बाधित होगा.<br /><br /></div><div>पूरी दुनिया में ताजे पानी के एक फीसद का भी आधा हिस्सा ही मानवता और पारितंत्र (इकोसिस्टम्स) की जरूरतों के लिए उपलब्ध है. जाहिर है, हमें कम मात्रा में इसका इस्तेमाल बेहतर तरीके से करना सीखना होगा. मिसाल के तौर पर, दुनिया भर में ताजे पानी का खर्च का 70 फीसद हिस्सा कृषि सेक्टर में इस्तेमाल में लाया जाता है. दुनिया भर में आबादी बढ़ने के साथ ही, कृषि क्षेत्र भी जल संसाधनों पर दबाव बढ़ाने लगेगा. <br /><br /></div><div>ऐसे में हमें उन जल संरक्षण परंपराओं को ध्यान में रखना और विकसित करना होगा, जिसको हमारे पुरखे अपनाते आए हैं. पर हमें खास खयाल रखना होगा कि नदियां बची रहें. हमने लापरवाही की वजह से, और कई बार जान-बूझकर कई नदियों को खत्म कर दिया है. बहुत सारी नदियां बारहमासी नदियों से मौसमी नदियों में तब्दील हो गई हैं. ज्यादातर नदियों की पाट में अतिक्रमण करके घर, खेत, फैक्ट्री, रिजॉर्ट बना लिए गए हैं.<br /><br /></div><div>असल में, नदियों को लेकर हमारे विचारों में बहुत पोलापन है. या तो हम सीधे मां और देवी कह कर नदियों की आरती करेंगे, चूनर और प्रसाद चढ़ाएंगे, लेकिन अपने घरों का गू भी उसी में बहाएंगे.<br /><br /></div><div>आम तौर पर माना जाता है कि नदी का काम पानी ले जाना है, जो आगे जाकर समुद्र में मिल जाती है. लेकिन, क्या हमने कभी यह सुना है कि नदी का काम गाद ले जाना भी है? ख़ासकर गंगा जैसी नदियों के संदर्भ में यह और भी महत्वपूर्ण है. यह बुनियादी सोच ही शायद योजनाओं और परियोजनाओं में जगह नहीं बना पाई है. <br /><br /></div><div>मैं आज, 2023 में आपको अगले पांच सालों में भयावह रूप अख्तियार कर रहे जल संकट की चेतावनी दे रहा हूं. हमारी आबादी पेड़ों और नदियों की दुश्मन हो गई है, अभी भी नहीं चेते तो बाद में मैय्यो-दय्यो करने से कुछ हासिल नहीं होगा.</div>Manjit Thakurhttp://www.blogger.com/profile/09765421125256479319noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7338682564613289699.post-38071568261872104932023-03-20T21:41:00.004+05:302023-03-20T22:15:38.171+05:30माइक लेकर चिल्ला दिए तो बन गए अर्णव गोस्वामी?अभी एक यूट्यूब के गिरफ्तार होने पर बहुत लोग अपने-अपने ध्रुवों पर खड़े हो गए. कुछ लोगो मनीष कश्यप के खांटी विरोधी दिखे, कुछ सपोर्ट में हैं. <br /><br />पर, पत्रकारिता को लेकर एक गहन विमर्श अब समय की आवश्यकता हो गई है. कौन है पत्रकार? क्या है पत्रकारिता? माइक लेकर खड़े हो गए और बन गए अर्णब गोस्वामी? <br /><br />सोशल मीडिया पत्रकारिता का सबसे सबल माध्यम है. लेकिन, अभिव्यक्ति की इस आजादी का हम दुरुपयोग तो नहीं कर रहे? <br /><br />पत्रकार बनने से पहले, व्यक्ति लोकप्रिय होना चाहता है. वह खुद मीम बनाना नहीं, बल्कि मीम का विषय बनना चाहता है. वह चिल्लाना चाहता है जैसे टीवी पर उनके आदर्श चीख रहे हैं. <br /><br />एक वीडियो में तो कोरोना काल में एक पत्रकार मुखिया प्रत्याशी को थप्पड़ मारता दिखा था मुझे. मुझे पता है वह स्टेज्ड था. वह स्क्रिप्टेड था लेकिन डिस्क्लेमर तो उसने बाद में लगाया. वह वायरल हुआ, लोग हंसे, पर पत्रकारिता की भद पिट गई. पत्रकारिता वाकई में इतनी छोटी चीज नहीं कि माइक लेकर खड़े हो गए और बन गए ....!<br /><br />मेरे एक फेसबुक मित्र ने, नाम याद नहीं आ रहा, लिखा कि ऐसे यूट्यूबरों से माइक छीन ली जाए. नहीं. कत्तई नहीं. इससे अभिव्यक्ति की आजादी पर बंदिश आयद होगी और उन लोगों की माइक भी छीन ली जाएगी जो वाकई बेहद उम्दा काम कर रहे हैं. जो लोग जमीनी काम कर रहे हैं, जो सिद्धांतो के तहत काम कर रहे हैं.<br /><br />आपको याद होगा कि कुछ यूट्यूबर पत्रकार स्कूल में कक्षाओं में घुसकर शिक्षकों से अंग्रेजी शब्दों की स्पेलिंग पूछने लगते हैं. ऐसे वीडियो काफी पॉपुलर होते हैं. पर, क्या यह वाकई मापदंडों के तहत पत्रकारिता भी है? क्या उन वीडियोज के बाद पुलिस ने स्कूल में जबरिया घुसने और वीडियोग्राफी करने पर कोई एक्शन लिया? इन पत्रकारों से किसी ने पत्रकारिता के स्तर वाले सवाल पूछे? <br /><br />लेकिन इसके बरअक्स एक विचार मेरे मन में यह भी है कि अगर फेक न्यूज के मामले में छोटे स्तर के यूट्यूबर धरे जा रहे हैं तो उन अखबारों पर क्या कार्रवाई हुई जिन्होंने यह फेक खबर प्रकाशित की थी. अब तक अखबार में छपी खबरों को हम लगभर विश्वसनीय मान रहे थे. दूसरी बात, क्रेडिबिलिटी की बात हो तो एक नामी एंकर ने दो हजार के नोट में चिप वाली खबर बना दी. वह आज भी प्रतिष्ठित एंकर हैं, कॉमिडी वॉमिडी शो में नमूदार हो रही हैं. उनकी क्रेडिबिलिटी को कोई खतरा नहीं हुआ. क्यों?<br /><br />जब मैं आइआइएमसी में पढ़ता था तो स्वनामधन्य प्रभाष जोशी हमारी कक्षा लेने आए थे. आजकल के छौने पत्रकारों को प्रभाष जी का नाम भी नहीं पता. (जी हां, मैं मजाक नहीं कर रहा, मैंने अपने छात्रों से पूछा तो प्रभाष जोशी ही नहीं, उन्हें कुलदीप नैय्यर, पी. साईंनाथ वगैरह किसी का कुछ पता नहीं था) <br /><br />बहरहाल, आदरणीय प्रभाष जोशी ने 2004 के लोकसभा चुनावों में एक्जिट पोल के गलत हो जाने के संदर्भ में एक किस्सा सुनाया था कि मध्य प्रदेश में मालवा इलाके में जानपांड़े हुआ करते थे.<br /><br />जानपांड़े यानी ज्ञानपांडे. <br /><br />उन दिनों जब कुआं खोदना ही पानी हासिल करने का एकमात्र विकल्प था, जमीन की छाती खोदने पर पत्थर निकल आए तो खर्चा और मेहनत दोनों बेकार हो जाते. इसलिए लोग ऐसे विशिष्ट व्यक्तियों को खोजकर लाते थे जो जमीन के कंपन को समझ कर बतला देते थे कि अमुक जगह पर खोदो तो पानी निकलेगा.<br /><br />अधिकतर मामलों में जानपांड़े सही होते थे. <br /><br />पत्रकारों को ऐसे ही जानपांड़े होना चाहिए. चीखकर, गाली-गलौज की भाषा के जरिए क्षणिक लोकप्रियता मिल जाएगी. पर, इससे उन लोगों का बुरा होगा, जो जमीनी स्तर पर अच्छी पत्रकारिता कर रहे हैं. <br /><br />चीखना इस देश की पत्रकारिता का राष्ट्रीय ध्येय बन गया है.<br /><br />बेशक, मीडिया वाले सेंसरशिप से बिदकते हैं, पर ऐसा ही जारी रहा तो कुछ न कुछ बंदिश तो आयद हो ही जाएगी और फिर आप कहेंगे ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ पर हमला है. सरकार को चाहिए कि ऐसे यूट्यूबर्स के लिए एक कार्यशाल आयोजित करे. डू ऐंड डोंट्स समझाए.<br /><br />स्वतंत्रता और स्वच्छंदता में अंतर को समझिए. पत्रकारिता में लोकप्रियता से पहले श्रेष्ठता को आने दीजिए.<br />Manjit Thakurhttp://www.blogger.com/profile/09765421125256479319noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7338682564613289699.post-16178736670611783232022-12-26T20:33:00.001+05:302022-12-26T20:33:21.241+05:30फिल्म समीक्षाः कांतारा लोककथा और वर्तमान की समस्या के कमाल का मिश्रण है<b>मंजीत ठाकुर </b><br /><br />लोककथाओं को फिल्मी परदे पर उतारना बहुत मुश्किल नहीं है. लेकिन जब उसी लोककथा और आमजनों के विश्वास को आधुनिक समाज की समस्याओं के साथ मिलाकर समाधान के आयाम के तौर पर पेश किया जाए तो मुश्किलें आती हैं. <br /><br />इस लिहाज से कांतारा देखना विस्मयकारी है. खासकर, इसके शुरुआती बीस मिनट और आखिरी के बीस मिनट तो आह्लादकारी सिनेमाई अनुभव है. <br /><br />फिल्मों को कहानी के आधार पर खारिज किए जाने का आम चलन है हिंदुस्तान में. खासतौर पर कांतारा में फिल्म में नायिका के प्रति नायक का बरताव नारी विमर्श के झंडाबरदारों के लिए इस फिल्म को खारिज किए जाने का एक आधार बन रहा है. लेकिन, इस मानक पर नब्बे फीसद भारतीय सिनेमा स्त्री-विरोधी है. हां, वामपंथी फिल्मकारों की कथित प्रगतिशील फिल्में भी इसके आधार पर खारिज की जा सकती हैं. पर कांतारा में मुद्दा वह नहीं है. <br /><br />किसी भी फिल्म के लेखन बारे में सबसे अच्छी बात यही होती है कि पहले आधे घंटे में आपयह अनुमान लगा ही न पाएं कि फिल्म का खलनायक कौन है. कांतारा इस मामले में सौ फीसद बेहतरीन पटकथा है कि आप यह तय ही न कर पाएं कि आखिर खलनायक कौन है और इसके काम का मंतव्य क्या है. <br /><br />सबसे बेहतर बात यह भी है कि आपको क्लाइमेक्स में जाकर चीजों का पता लगना शुरू होता है. <br /><br />कांतारा की एक बड़ी खासियत इसकी कमाल की सिनेमैटोग्राफी और इसका रंग संपादन है. कांतारा देखते हुए, मैं दोबारा कहता हूं कि आपको अद्भुत सिनेमाई अनुभव होगा. <br /><br />इस फिल्म में लोककथा की भावभूमि को लेकर स्थानीय लोगों के अधिकारों की बात की गई है. आरआरआर की भावभूमि भी यही थी लेकिन वह इतिहास के कथ्य की ओर मुड़ गई, कांतारा लोककथा का सहारा लेती है. <br /><br />आखिर, वनभूमि के अधिकार को लेकर आप बगैर वैचारिक टेक लिए कोई फिल्म बना सकते हैं क्या? साथ ही उसको हिट कराने का माद्दा भी है क्या? इस फिल्म में स्थानीय भूमि माफिया या जमींदारों, सरकार के वन विभाग के कामकाज और स्थानीय लोगों के वनोपज पर अधिकार का संघर्ष बुना गया है और क्या खूब बुना गया है. <br /><br />एक मिसाल देखिएः फिल्म में एक स्थानीय व्यक्ति अपन झड़ते बालों के लिए किसी पौधे की जड़ लेकर आ रहा होता है और वन अधिकारी मुरलीधर उसको रोकता है और एक थप्पड़ मारते हुए कहता है, ‘तुम्हें क्या लगता है ये जंगल तुम्हारे बाप का है?’ आपको क्या लगता है? इसका उत्तर क्या होन चाहिए? <br /><br />जिसतरह से हमारे आदिवासी हजारों सालों से जंगल के साथ रहते आए हैं, चाहे वह कूनो-पालपुर के सहरिया हों या नियामगिरि के डंगरिया-कोंध, उस लिहाज से तो इस सवाल का एक ही और संक्षिप्त सा उत्तर हैः हां. आखिर स्थानीय लोगों का जंगल की उपज पर अधिकार होना ही चाहिए, क्योंकि इन आदिवासियों की संस्कृति उस जंगल के नदी-पहाड़ और वनस्पतियों के साथ गुंथी हुई है. <br /><br />ऐसे में वन अधिकारी और स्थानीय लोगों का संघर्ष शुरू होता है. वन अधिकारी के पास उस जंगल को रिजर्व फॉरेस्ट में तब्दील करने का सरकारी आदेश है और पर्यावरण की रक्षा के लिए यह जरूरी भी है. वन अधिकारी ईमानदार है, वह जंगल के जानवरों की रक्षा करना चाहता है और स्थानीय लोग शिकार. स्थानीय लोगों के मन में भी शिकार किसी द्वेषवश नहीं है, यह तो उनकी संस्कृति का हिस्सा है और आप संस्कृति को बदलने वाले और उसको रोकने वाले होते कौन हैं! <br /><br />यहां आकर फिल्म आपको सोचने विचारने के लिए एक मुद्दा देती है. आप ऐसे मुद्दे फिल्म के बाद दिमाग में नहीं बिठा पाते तो फिर फिल्म देखने के तौर तरीके बदल लीजिए. <br /><br />फिल्म के नायक शिवा, जिसकी भूमिका फिल्म के निर्देशक ऋषभ शेट्टी ने निभाई है, भूता कोला की खानदानी परंपरा के हैं. लेकिन शिवा इस अनुशासन में नहीं बंधते. बिहार जैसे राज्यों में भूता कोला की तरह ही कुछ सिद्ध लोगों पर देवी या देवता या स्थानीय देवताओं का आगमन होता है. भगता खेलना कहते हैं उसको. <br /><br />उधर, वन अधिकारी शिकार खेलने पर बंदिश लगाता है तो उसके साथ ही गांववाले उसका मजाक उड़ाने के लिए शिकार करना बढ़ा देते हैं. क्या आपको ऐसी मिसालें भारत के हर हिस्से के जंगलों से नहीं मिलतीं? <br /><br />निर्देशक ने कर्नाटत के तुलुनाडु इलाके की लोककथा को कमाल के रंगों के जरिए परदे पर पेश किया है. इस मामले में इसकी जोड़ की दूसरी फिल्म बस मराठी तुंबाड की है, जहां बारिश के मेटाफर का इस्तेमाल किया गया था. <br /><br />फिल्म के हर फ्रेम में आप कर्नाटक की माटी की खुशबू को देख सकते हैं. जीवनशैली, खानपान और जंगल अपने अदम्य रूप में. खासकर, भूतआराधने से फिल्म में रहस्य का पुट बढ़ता है और हम कांतारा की स्टोरी में अंदर जाते हैं. <br /><br />सिनेमैटोग्राफी में अरविंद एस. कश्यप ने कमाल किया है और कर्नाटक के उस इलाके के चप्पे-चप्पे को लेंस में कैज किया है. और संगीत भी शानदार है. <br /><br />लेकिन फिल्म की शुरुआत में जहां नैरेटिव सेट होता है, वहां के क्षण आपको दोबारा आह्लादकारी लगेंगे जब आप आखिरी बीस मिनट को भी गौर से देखेंगे. <br /><br />आखिरी बीस मिनटों में भीषण संग्राम होता है और तभी कांतारा के वह स्थानीय देवता फिर से प्रकट होते हैं. उन पलो मे ऋषभ शेट्टी ने अतुलनीय अभिनय किया है. आप उसे महसूस कर पाएंगे अगर आप फिल्म में रंगों की अहमियत और कलरिस्ट की मेहनत, शेट्टी के प्रचंड अभिनय के पीछे उसको ऊपर ले जाने वाले संगीत और कैमरे की निगाह को बारीक तरीके से देख पाएंगे. <br /><br />पटकथा में बेशक, बीच में कुछ हल्की सी ढील है. पर वह न हो तो फिल्म बेहद गंभीर हो जाती. <br /><br />कुल मिलाकर कांतारा देखना एक आह्लादकारी सिनेमाई अनुभव है. <br /><br /> Manjit Thakurhttp://www.blogger.com/profile/09765421125256479319noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7338682564613289699.post-73640119638773156052022-12-12T20:13:00.003+05:302022-12-12T20:13:24.023+05:30पुस्तक समीक्षाः अजित राय की किताब बॉलीवुड की बुनियाद भारतीय सिनेमा का दस्तावेज हैभारत में सिनेमा पर गंभीर लेखन का चलन कम है. खासकर हिंदी में सिनेमा पर लेखन को ही गंभीर नहीं माना जाता है. लेकिन, कुछ किताबों को संदर्भ पुस्तकों की तरह हमेशा पढ़ा जाएगा और वरिष्ठ सिनेमा और सांस्कृतिक पत्रकार अजित राय की किताब ‘बॉलीवुड की बुनियाद’ उसी पाए की किताब है. <br /><br />असल में, यह किताब इस बात को पन्ना-दर-पन्ना दर्ज करती जाती है कि आखिर आज हिंदी सिनेमा के जिस साम्राज्य के बारे में बोलकर, कहकर और सुनकर हम छाती फुलाते हैं, असल में उसके पीछे एक खास परिवार का योगदान था. यह बात अहम इसलिए भी है क्योंकि उस उद्योगपति ‘परिवार’ के किसी सदस्य ने इसका कभी कोई श्रेय लेने की कोशिश भी नहीं की. <br /><br />बॉलीवुड की बुनियाद किताब के बारे में इसके फ्लैप पर बीबीसी के वरिष्ठ पत्रकार रेहान फजल लिखते हैं, “जिसे हम हिंदी सिनेमा का स्वर्ण युग कहते हैं, वह दुनियाभर में हिंदी फिल्मों की वैश्विक सांस्कृतिक यात्रा का भी स्वर्ण युग था. आज हिंदी फिल्में सारी दुनिया में अच्छा बिजनेस कर रही हैं, लेकिन इसकी बुनियाद 1955 में हिंदुजा बंधुओं ने ईरान में रखी थी. ईरान से शुरू हुआ ये सफर देखते-देखते सारी दुनिया में लोकप्रिय हो गया.” <br /><br />आज हम फिल्मों के बायकॉट के दौर में हैं. और इन्हीं परिस्थितियों में ‘ब्रह्मास्त्र’ नामक फिल्म की पीआर एजेंसियां फ्लॉप के तमगे से बचने के लिए वैश्विक कारोबार का संदर्भ देती हैं. अगर कथित रूप से वैश्विक कारोबार में ब्रह्मास्त्र ने शानदार बिजनेस किया भी है, तो इसका श्रेय बेशक हिंदुआ बंधुओं का जाता है जिन्होंने पचास के दशक में हिंदी फिल्मों के विदेशों में प्रदर्शिन की व्यवस्था की. हैरतअंगेज बात यह भी है कि इन फिल्मों का प्रदर्शन उस ईरान से हुआ, जिसको आज इस्लामिक कट्टरता की भूमि कहा जाता है और जहां कड़ी परंपराओं के खिलाफ महिलाएं आंदोलनरत हैं. <br /><br />यह किताब अंग्रेजी और हिंदी दोनों में आई है. अजित राय की इस किताब का बढ़िया अंग्रेजी अनुवाद मुर्तजा अली खान ने किया है और अंग्रेजी में इस किताब का नाम हिन्दुजा एंड बॉलीवुड के नाम से किया गया है. <br /><br />यह किताब सिने-प्रेमियो के साथ ही सिनेमा के शोधार्थियों के लिए भी महत्वपूर्ण है. अजित राय खुद हिंदी के संभवतया इकलौते पत्रकार हैं जो कान फिल्म फेस्टिवल में रिपोर्टिंग के लिए जाते रहे हैं और उसपर लगातार लिखते रहे हैं. <br /><br />असल में यह किताब हिंदी सिनेमा के वैश्विक विस्तार का दस्तावेज भी है. आज शायद ही किसी को इस बात का यकीन होगा कि करीबन पचास साल पहले राज कपूर की फिल्म ‘संगम’ जब फारसी में डब होकर ईरान में प्रदर्शित हुई तो यह फिल्म तीन साल तक और मिस्र की राजधानी काहिरा में एक साल तक चली. <br /><br /> महबूब ख़ान की ‘मदर इंडिया’ और रमेश सिप्पी की ‘शोले’ भी ईरान में एक साल तक चली. भारतीय उद्योगपति हिन्दुजा बन्धुओं ने 1954-55 से 1984-85 तक करीब बारह सौ हिंदी फिल्मों को दुनियाभर में प्रदर्शित किया और इस तरह बना ‘बॉलीवुड’. <br /><br />यह किताब कई नई कहानियां और अंतर्कथाएं पेश करती है. एक तरह से यह भारतीय सिनेमा को दुनियाभर में ले जाने के हिंदुजा बंधुओं के उपक्रम का दस्तावेजीकरण है. बेशक, यह किताब अजित राय ने निजी अंदाज में लिखा है. यह पूरी किताब हिंदुजा बंधुओं के सिनेमा के योगदान पर घूमती है. यह कुछ-कुछ अजित राय के निजी संस्मरण जैसा भी है कि कैसे वह कॉन फिल्म फेस्टिवल में हिंदुजा बंधुओं के शाकाहारी डिनर में आमंत्रित किए गए, कैसे ब्रिटेन के सबसे अमीर आदमी रहे हिंदुजा उनके साथ मुंबई की सड़को पर ऑटो रिक्शा में सफर करने से भी नहीं हिचकिचाए. <br /><br />इस किताब में, राज कपूर की शराबनोशी की लत का भी जिक्र सुनहरे वर्क में लपेटकर किया गया है कि राज कपूर के कैसे तेहरान की थियेटर से जेल की गाड़ी में बिठाकर निकालना पड़ा. और ऐसी एक फिल्म के बार में भी दिलचस्प किस्सा है कि जिसके प्रदर्शन के दौरान सिनेमा हॉल में दर्शक नमाज पढ़ने लगते थे. हिंदी फिल्मों को विदेशों में प्रदर्शित करने से पहले कैसे गोपीचंद हिंदुजा उसे खुद संपादित करवाकर छोटी करवा लेते थे, यह वाकया भी मजेदार है. <br /><br />किताब फिलहाल हार्ड कवर में है और इसकी कीमत 395 रुपए है. विषय वस्तु के लिहाज से किताब जरूरी और अनछुए विषय पर है लेकिन किताब के अंदर की सजावट और अधिक बेहतर बनाई जा सकती थी. तस्वीरों को लगाते समय सौंदर्यशास्त्र (एस्थेटिक्स) का ख्याल नहीं रखा गया है. <br /><br />बहरहाल, आज जब हर व्यक्ति सिनेमा के बारे में अपनी राय रखता है और ओटीटी के जमाने में लोगों के पास वैश्विक सिनेमा का कंटेंट उपलब्ध है, बॉलीवुड कैसे, बॉलीवुड बना यह जानना दिलचस्प है. <br /><br />सिनेमा के विद्यार्थियों के लिए यह किताब अपरिहार्य है. <br /><br />किताबः बॉलीवुड की बुनियाद <br /><br />लेखकः अजित राय <br /><br />प्रकाशकः वाणी प्रकाशन <br /><br />कीमतः 395 रुपए (हार्ड कवर) <br /><br /> <br /><br /> <br /><br /> Manjit Thakurhttp://www.blogger.com/profile/09765421125256479319noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7338682564613289699.post-31862273768346272312022-10-15T00:16:00.000+05:302022-10-15T00:16:00.199+05:30आर्यों के आक्रमण का सिद्धांत मनमाना प्रतीत होता है<b>मंजीत ठाकुर</b><div><br />बीसवीं सदी की शुरुआत तक इतिहासकार मानते थे कि भारत में पहले असभ्य पाषाणयुगीन लोग रहते थे और करीब 1500 ईसापूर्व में जब आल्प्स की पहाडियों के पास से ‘आर्य’ घोड़ों पर चढ़कर और लोहे के हथियारों के साथ आए तब जाकर यहां पर एक नए युग की शुरुआत हुई. औपनिवेशिक इतिहासकार इस आक्रमण का ही परिणाम भारतीय सभ्यता का विकास मानते हैं. इन इतिहासकारों के मुताबिक, आर्य आक्रमण सिद्धांत ही एकमात्र सिद्धांत है. <br /><br />लेकिन, इन इतिहासकारों का मुताबिक, 1500 ईसापूर्व में आर्य इधर आए थे (200 बरस के स्टैंडर्ड डेविएशन के साथ भी) तो भी यह तारीख तय करना एकदम से मनमाना था. असल में, इस तारीख के पीछे ‘उनके पास’ कोई पुरातात्विक या लिखित साक्ष्य नहीं था. <br /><br />इस सिद्धांत के पीछे दो कारक काम कर रहे थे. पहला, बाद के सालों में मध्य एशिया की तरफ से हुआ लगातार आक्रमण. दूसरा, यूरोपीय और (उत्तर) भारतीय भाषाओं के बीच भाषायी समानता. (कुछ लोग इसके पीछे साजिश भी बताते हैं कि बाद के आक्रमणकारियों को डायल्यूट किया जा सके यह कह कर कि, हम बाद के आक्रमणकारी हैं और तुम पहले के) <br /><br />हमारी गरदन उस वक्त अंग्रेजों के बूटों के नीचे थे इसलिए इतिहासकारों के लिए यह कहना भी मुफीद रहा होगा कि अंग्रेज भी बाद के दौर के आर्य हैं और हम लोगों को ‘सभ्य’ बनाने आए हैं. (हालांकि, यूरोप के इतिहास को ध्यान से पढ़िएगा तो पता चलेगा कि ये लोग, खुद कितने असभ्य लुटेरे थे) <br /><br />लेकिन हडप्पा-मुएन-जो-दड़ो जैसे शहरों के पता लगने और हडप्पा सभ्यता के शहरों की खुदाई के बाद इस सिद्धांत पर सवालिया निशान लग गए. उसी समय यह पता चल गया कि भारत की सभ्यता के लिए 1500 साल ईसापूर्व पहले का वक्त तो एकदम हाल की घटना है. <br /><br />आप भी थोड़ा हिसाब लगाइए. अगर आर्य 1500 ईसापूर्व आए थे और उस वक्त वे लोग घोड़ों पर सवार पशुपालक भर थे तो दूसरा प्रस्थान बिंदु आप बुद्ध के जन्म का लीजिए. बुद्ध ईसा से 563 साल पहले हुए. यानी बीच की अवधि बची 900 सालों की. <br /><br />इन नौ सौ सालों में भारत में आर्य आए, घोड़ो से उतरकर खेती करनी शुरू की. गांव बनाए. उनको शहरों में तब्दील किया. ऋग्वेद से लेकर यजुर्वेद तक की रचना की. सोलह महाजनपद बसाए. हिंदू धर्म फला-फूला और उसमें साथ के साथ इतनी बुराइयां आ गईं कि उसको ठीक करने के लिए बुद्ध और महावीर को नया धर्म बनाना पड़ा! इतनी सारी घटनाएं महज 900 साल में! <br /><br />लेकिन, साहब वैचारिक रूप से कलर्ड इतिहासकार इतनी आसानी से हार नहीं मानते. उन्होंने तर्क दिया कि हडप्पा की सभ्यता द्रविड़ों की थी (जिनको आप आज का तमिल कहते हैं) और द्रविड़ों ने यह शहर बसाया और ‘आक्रमणकारी आर्यो’ ने उन शहरों को नष्ट कर दिया. इसलिए आर्यों के देवता इंद्र को ‘पुरंदर’ यानी ‘किलों को तोड़ने वाला’ कहा जाता है. <br /><br />लेकिन, इस थ्योरी में भी झोल है. <br /><br />असल में इतने बड़े पैमाने पर हुए आक्रमणों का कोई पुरातात्विक साक्ष्य अभी तक नहीं मिला है. दूसरी तरफ, राखीगढ़ी में ईसा से 4500 साल पुराना एक शव मिला है, इससे ‘रंगे’ इतिहासकारों में अलगै सनसनी-खलबली है. <br /><br />अब हडप्पा शहरों में कोई अचानक तो ध्वंस दिखता नहीं है. हर इतिहासकार आपको कहेगा (एकदम ही ब्लैंक चेक पर न बिका हो तो) कि हड़प्पा के शहरों का विघटन शनैः शनैः हुआ है. शनैः शनैः नहीं समझते? जा मरदे, अंग्रेजी वाला शब्द लिख देंगे तो लोटपोट होते रहोगे. आसान हिंदी में शनैः शनैः का अर्थ है धीरे-धीरे, उर्दू में आहिस्ते-आहिस्ते और अंग्रेजी में आप यूं समझेः Harappan cities suffered a slow decline. अब तो बूझ गए होगे. ठीक? <br /><br />अब राष्ट्रपति पद के लिए द्रौपदी मुर्मू के उम्मीदवार बनते ही आपको राजनैतिक बिसात की याद आ रही होगी और आपको पता चल गया होगा कि वह संताल जनजाति की हैं. मौजूदा राष्ट्रपति दलित हैं. <br /><br />मने, अगल-बगल नजर दौड़ाइए तो आपको जाति, जनजाति, भाषा और न जाने किस-किस किसिम की विभिन्नता नजर आएगी. <br /><br />अच्छा, आपको इसके अलावा यहूदी, पारसी, तुर्क और अहोम भी दिखेंगे. <br /><br />इसके अलावा आप इस बात से शायद ही इनकार कर पाएं कि हजारों सालों से देश के अंदर आंतरिक विस्थापन और पलायन होता रहा है. आज राजस्थानी मारवाड़ी सिलीगुड़ी और अरुणाचल तक में कपड़े से लेकर खिचड़ीफरोश की दुकान लिए बैठा है. सरदार जी का ढाबा कन्याकुमारी में भी है और गोहाटी में भी. <br /><br />उधर अंडमान-निकोबार द्वीपसमूह से लेकर पूर्वोत्तर के राज्यों में कुछ ऐसी जनजातियां हैं जिनका मुख्यधारा के भारत के साथ मेल-जोल ज्यादा नहीं है. लेकिन हमारे हिंदुस्तान की इस बड़ी और मिली-जुली आबादी को लेकर आनुवांशिक अध्ययनों ने कमाल के नतीजों की तरफ इशारा किया है. <br /><br />पहली बात, भारत में कोई भी नस्ल शुद्ध नहीं है. चाहे वह दरभंगा महाराज के खरोड़े भौर हों या महाराजा हरिसिंह कर्ण सिंह का खानदान. नस्ल के मामले में नेहरू-गांधी परिवार तो अलग ही मिसाल है. <br /><br /><br /></div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhFaq9jAeMB0RMgCI6CnUQTJRAGWeNfl6IxKfhbXopDTM6iUxFTbiypPCF7yKQOT_jcblRuvMyxzQ4T9pOGa5lb73GR4rDyPvhDdZls0evmEuo2W7MAcBkPUFy2B5qncwoUT_h6_eTNMpgModsdWJYJNBHJbDE1ZIIA7A5ZyY33FwsaLNRhEUVdmYZF/s810/289768015_10160062097803007_4357465349810564978_n.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="540" data-original-width="810" height="367" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhFaq9jAeMB0RMgCI6CnUQTJRAGWeNfl6IxKfhbXopDTM6iUxFTbiypPCF7yKQOT_jcblRuvMyxzQ4T9pOGa5lb73GR4rDyPvhDdZls0evmEuo2W7MAcBkPUFy2B5qncwoUT_h6_eTNMpgModsdWJYJNBHJbDE1ZIIA7A5ZyY33FwsaLNRhEUVdmYZF/w551-h367/289768015_10160062097803007_4357465349810564978_n.jpg" width="551" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><b>इस फोटो का इस लेख से ताल्लुक नहीं है. </b></td></tr></tbody></table><br /><div>फिर भी, हर खानदान में आनुवांशिक मिलावट है आप यह मानकर चलिए. <br /><br />कुछ न हो तो अपने अगल-बगल चाचा-ताऊ-मामा-मौसा (और सबके स्त्रीलिंग रूपों) को नाप-तौल कर ही देख लीजिए. सबके रंग अलग. चाचा गहरे, पर आपके पिताजी गेहुआं, नानाजी एकदम झक्क अंग्रेज जैसे गोरे तो मौसी थोड़ी सांवली. होगा, चेक करिए. <br /><br />लेकिन, 2006 में एक अध्ययन किया गया था जिसका नतीजा यह निकला है कि भले ही हम लोग अलग साइज और शेप में हो पर भारतीयों के मोटे जीन पूल में पिछले 10,000 (दस हजार) साल से कोई बड़ा जीन इंजेक्शन नहीं हुआ है. <br /><br />इसका सीधा मतलब यह हुआ कि अगर इंडो-यूरोपियनों (पढ़ें आर्यों) का कोई बड़ा आगमन हुआ भी होगा तो यह कम से कम 10 हजार साल पहले हुआ होगा. और उस वक्त तक न तो घोड़े पालतू बनाए गए थे और न ही लोहे के हथियार बनाने की कला विकसित हुई थी. <br /><br />इसी तरह, यही अध्ययन यह भी बताता है कि द्रविड़ भाषी लोग लंबे समय से दक्षिण भारत में रहते आए हैं और उनका ‘कथित’ द्रविड़ जीनेटिक पूल का भी उधर-इच उद्भव ऐंड विकास हुआ होगा. <br /><br />लेकिन बाद में जो अध्ययन हुए इससे तो इतिहासकारों का खाना गरगट हो गया. (खाना गरगट होना , मैथिली कहावत है मने कौर गले से न उतरना. बिना पानी पिए नहीं उतरेगा) <br /><br />खैर. हार्वर्ड मेडिकल कॉलेज में डेविड रीख ने एक शोध किया जो नेचर पत्रिका में 2009 में छपा था. उसमें लिखा गया है कि, भारतीय आबादी के अधिकांश हिस्से की पुरखों के दो समूहों (एंसेस्ट्रल ग्रुप) के मिश्रण के रूप में व्याख्या की जा सकती है. <br /><br />पहला है एएसआइ (Ancestral South Indians) और दूसरा है एएनआइ (Ancestral North Indians). <br /><br />शोध के मुताबिक, एएसआइ पुराना ग्रुप है और इसका कोई रिलेशन किसी यूरोपीय. पूर्वी एशियाई या इस उपमहाद्वीप के बाहर के किसी समूह से नहीं है. <br /><br />लेकिन, एएनआइ यानी एनसेस्ट्रल नॉर्थ इंडियन समूह की उत्तर भारत में अधिक हिस्सेदारी है और कश्मीरी पंडितों और सिंधियों में तो इनकी जीन पूल में 70 फीसद से अधिक की हिस्सेदारी है. <br /><br />अब, आपके मन में लप्प से ख्याल आया होगा वही पुराने आर्य आक्रमण के सिद्धांत पर इस आंकड़े को रख देने का. है न, है न? हे हे. <br /><br />ऐसा करने का नय. रुको. रुक जाओ. अगले पोस्ट तक रुक जाओ. <br /><br /> </div>Manjit Thakurhttp://www.blogger.com/profile/09765421125256479319noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7338682564613289699.post-41377676404039389702022-10-11T21:14:00.003+05:302022-10-11T21:15:35.178+05:30 AWAZ – The Voice offers virtual internships in content writing.<p>Awaz – The Voice, a Delhi-based multi-media digital platform, has invited applications for a virtual internship in Content Writing. During the three-months long work-from-home internship, the interns will be assigned projects on the themes of inclusive India, communal harmony, spirituality, culture and heritage under the mentorship of senior professionals. It can be in English, Hindi or Urdu. </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiFNO0WOCPRKj_-1EdjyqKD4oQiJz2F7v5MvJhIS2MS68Q-F7-UzWBEFyK9KllizZLPGlkEaUGwATr5yFd9QqD1unNe6aT6CqTM63LJMXT1Eay37s76E0Lu4VdKUc2GPpqjNIs-4g-s9D8cgxT2C5zb5uA09KZ1C51t6Q-C2looLeV-YpaTe--3Z1cE/s586/Opera%20Snapshot_2022-10-11_211448_www.hindi.awazthevoice.in.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="475" data-original-width="586" height="335" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiFNO0WOCPRKj_-1EdjyqKD4oQiJz2F7v5MvJhIS2MS68Q-F7-UzWBEFyK9KllizZLPGlkEaUGwATr5yFd9QqD1unNe6aT6CqTM63LJMXT1Eay37s76E0Lu4VdKUc2GPpqjNIs-4g-s9D8cgxT2C5zb5uA09KZ1C51t6Q-C2looLeV-YpaTe--3Z1cE/w414-h335/Opera%20Snapshot_2022-10-11_211448_www.hindi.awazthevoice.in.png" width="414" /></a></div><br /><p><br /></p><p>The internship is open to graduate students of Journalism, Literature, History, Design and related fields.</p><p>Interested candidates are requested to submit a writing sample on any of the above themes and email it to input@awazthevoice.in by 30 October, 2022. </p><p>The selections shall be made after the scrutiny of the submissions.</p><p>A certificate and a letter of appreciation will be given after the successful completion of internship.</p><p>Awaz – the Voice is a multi-media digital platform that promotes the idea of inclusive India. Over the period of last two years Awaz – The Voice has done more than 45000 stories that reflect syncretic and pluralistic ethos of India. These stories amplify the narrative of mutual co-existence, harmony, and human flourishing.</p><p>Details on www.awazthevoice.in.</p><p><br /></p>Manjit Thakurhttp://www.blogger.com/profile/09765421125256479319noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7338682564613289699.post-80687691507787744362022-10-09T15:08:00.006+05:302022-10-09T15:08:52.640+05:30शरद पूर्णिमा यानी कोजागरा में करिए लक्ष्मी पूजन, अपन अब पांचवी बड़ी अर्थव्यवस्था हैंएकतरफ रूस-यूक्रेन युद्ध, दूसरी तरफ बढ़ती मुद्रास्फीति... आर्थिक हालात पूरी दुनिया में चिंताजनक हैं. लेकिन इस नामउम्मीदी के दौर में भी भारत एक चमकीले स्पॉट की तरह उम्मीद जगा रहा है. रविवार को शरद पूर्णिमा का दिन है. अगर आप धार्मिक हैं तो इस दिन देवी लक्ष्मी की पूजा करें. असल में, रविवार को शरद पूर्णिमा है. पूरे भारत में इस पूर्णिमा की अहमियत अलग है. आप चौंक गए होंगे कि देवी लक्ष्मी की पूजा तो दिवाली के दिन होती है, शरद पूर्णिमा को उनकी पूजा कैसे हो सकती है! <br /><br />असल में, शरद पूर्णिमा के दिन इस लेख के जरिए हम देश के अलग-अलग हिस्सों में इस दिन प्रचलित कुछ सांस्कृतिक परंपराओं के बारे में बताने जा रहे हैं.<div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjTx0_86QgeeiuqiEYUtyAiHPrfXXsvhjSsJyUg1niwS_FH-V4G0DZuFWleNpUvcIoGxgkl5ESDM3-KfDWKC4v6sX4ZrrzTXYK6Daqg8Rka1ddTcqC8Xpl_aRxVTQHRTpOOvMjsL2sQajv2eRriynkTjDfcmo9IOEDw882lhv_qI7Tq6bMQAZkFF8WQ/s750/G%20(65).webp" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="500" data-original-width="750" height="305" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjTx0_86QgeeiuqiEYUtyAiHPrfXXsvhjSsJyUg1niwS_FH-V4G0DZuFWleNpUvcIoGxgkl5ESDM3-KfDWKC4v6sX4ZrrzTXYK6Daqg8Rka1ddTcqC8Xpl_aRxVTQHRTpOOvMjsL2sQajv2eRriynkTjDfcmo9IOEDw882lhv_qI7Tq6bMQAZkFF8WQ/w458-h305/G%20(65).webp" width="458" /></a></div><br /> <br /><br />वैसे तो शरद पूर्णिमा की शाम को चांद के निहारने की रात मानी जाती है, क्योंकि इस रात चांद कुछ ज्यादा ही खिला-खिला नजर आता है. हो सकता है कि देश के अधिकतर हिस्सों में हो रही बारिश की वजह से आप चांद दा दीदार न कर पाएं. पर ऐसे ही मौकों के लिए एक शायर लाला मौजी राम मौजी ने लिखा हैः <br /><br /><b>दिल के आईने में थी तस्वीर-ए-यार, <br />जब जरा गरदन झुकाई देख ली <br /></b><br />आपको गरदन झुकाने की नौबत नहीं आएगी, आप चाहें तो अपनी छत पर या आंगन में खड़े होकर गरदन उठाइए और चांद को निहारिए. आप चलेंगे तो चांद साथ चलेगा. आप भागेंगे तो चांद साथ भागेगा. इसी को तो कविताई में कहा है किसी नेः <br /><br /><b>'चलने पर चलता है सिर पर नभ का चन्दा. <br />थमने पर ठिठका है पाँव मिरगछौने का.' <br /></b><br />कभी धान के खेतों में फूटती बालियों के बीच खड़े होकर चांद को निहारा है आपने? खेतिहर इलाकों में जाइए तो धान की बालियों से निकलती सुगंध से मतवाले हो जाइएगा. दूर-दूर तक छिटकी हुई चांदनी थी और अपूर्व शीतल शान्ति. बस यों कहिए कि 'जाने किस बात पे मैं चांदनी को भाता रहा, और बिना बात मुझे भाती रही चांदनी. </div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhIrD-dKw26WS1c3mnwNAYbuu1uJM8X4wAUJUzQWyrKPdKLcPMCg_uBG40zSZQSKao31y5zKHsgL8e48H6aYas3cw-wpwygmL7lHc2b_zbEx-LdpJcrTiSsMVggfYJU-n-T2MY3wZZ9k3zexUnImQ8z7YqbKpriNvn6ypqnQvmfdiOzzpq6HqtUUFZS/s750/G%20(64).jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="500" data-original-width="750" height="350" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhIrD-dKw26WS1c3mnwNAYbuu1uJM8X4wAUJUzQWyrKPdKLcPMCg_uBG40zSZQSKao31y5zKHsgL8e48H6aYas3cw-wpwygmL7lHc2b_zbEx-LdpJcrTiSsMVggfYJU-n-T2MY3wZZ9k3zexUnImQ8z7YqbKpriNvn6ypqnQvmfdiOzzpq6HqtUUFZS/w525-h350/G%20(64).jpg" width="525" /></a></div><br /><div><br /><br />मिथिला में नवविवाहित वर-वधू के लिए शरद पूर्णिमा का बड़ा महत्व है. चांदनी रात में गोबर से लिपे और अरिपन (अल्पना) से सजे आंगन में माता लक्ष्मी और इन्द्र के साथ कुबेर की पूजा और अतिथिय़ों का पान-मखान से सत्कार और वर-वधू की अक्ष-क्रीड़ा (जुआ खेलना) कोजागरा पर्व का विशेष आकर्षण है. <br /><br />नव विवाहित जोड़ों के आनंद के लिए दोनो को कौड़ी से जुआ खेलाया जाता है. चूंकि वधू अपनी ससुराल में नई होती है, जहां वरपक्ष की स्त्रियां अधिक होती हैं, इसलिए मीठी बेइमानी कर वर को जिता भी दिया जाता है. <br /><br />लक्ष्मी-पूजन के बाद नवविवाहित जोड़े पूरे टोले भर के लोगों को पान-मखान बांटते हैं. कोजागरा के भार (उपहार) के रूप में वधू के मायके से बोरों में भरकर मखाना आता है. मखाने मिथिलांचल के पोखरों में ही होते हैं, दुनिया में और कहीं नहीं. इनके पत्ते कमल के पत्तों की तरह गोल-गोल मगर कांटेदार होते हैं. उनकी जड़ में रुद्राक्ष की तरह गोल-गोल दानों के गुच्छे होते हैं. जिन्हें आग में तपाकर उसपर लाठी बरसाई जाती है. जिससे उन दानों के भीतर से मखाना निकलकर बाहर आ जाता है. </div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEguG-1AECu0_KL2gTgV-g1h43r3xQR9WSEP8tF09UJLycoq04kkvTMGqgvkORu0bwuhJKCdPDeDaip9Bzme-aJCVsDLgtEbE5Hh9WUSFHtBbJyJYSYJlIigiXmgrJeowtbIRpUNPu3jNPKG-8Gbbb_t2ryMHrCcyJC8ujxjCeNqQbKX_S5Hknf2ATDk/s750/G%20(40).jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="500" data-original-width="750" height="289" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEguG-1AECu0_KL2gTgV-g1h43r3xQR9WSEP8tF09UJLycoq04kkvTMGqgvkORu0bwuhJKCdPDeDaip9Bzme-aJCVsDLgtEbE5Hh9WUSFHtBbJyJYSYJlIigiXmgrJeowtbIRpUNPu3jNPKG-8Gbbb_t2ryMHrCcyJC8ujxjCeNqQbKX_S5Hknf2ATDk/w435-h289/G%20(40).jpg" width="435" /></a></div><br /><div><br /><br />मखाने निकालना बड़ी श्रमसाध्य प्रक्रिया है, जिसे मल्लाह लोग ही पूरा कर पाते हैं. शरद के चंद्रमा की इस भरपूर चांदनी का मजा सिर्फ मिथिलांचल में ही नहीं लिया जाता बल्कि मध्य प्रदेश, गुजरात, बंगाल और महाराष्ट्र में भी इस दिन लक्ष्मी की पूजा की जाती है. इन इलाकों में खीर के पात्र को रात भर चांदनी में रखकर सवेरे खाया जाता है. कहते हैं, शरद पूर्णिमा की रात में खुले आकाश के नीचे चांदी के पात्र में खीर रखने से उसमें अमृत का अंश आ जाता है. <br /><br />असल में शरद पूर्णिमा या कोजागरी पूर्णिमा या कुआनर पूर्णिमा एक फसली उत्सव है. आसिन (आश्विन) के महीने में जब खेती-बाड़ी के सारे कामकाज खत्म हो जाते हैं, मॉनसून का बरसता दौरे-दौरा समाप्त हो जाता है, तब यह उत्सव आता है और इसे कौमुदी महोत्सव भी कहते हैं. कौमुदी का अर्थ चांदनी होता है. यह उत्सव गोपियों के साथ कृष्ण के रास का उत्सव है. <br /><br />दंतकथाएं कहती हैं कि एक राजा अपने बुरे दिनों में दरिद्र हो गया और उसकी रानी ने जब कोजागरा की रात को जागकर लक्ष्मी पूजन किया तो राजा की समृद्धि लौट आई. कोजागरा की रात देवताओं के राजा इंद्र को भी पूजा जाता है. <br /><br />अब कई लोगों का यह भी विश्वास है कि इन दिनों चांद धरती के ज्यादा नजदीक होता है और औषधियों के देवता चंद्र इन दिनों अपनी चांदनी में देह और आत्मा को शुद्ध करने वाले गुण भर देते हैं. <br /><br /><br />वेद कहता है कि चन्द्रमा का उद्भव विराट पुरुष के मन से हुआ, 'चन्द्रमा मनसो जात:, चक्षो: सूर्यो अजायत (पुरुषसूक्त). चन्द्रमा और सूर्य, इन्हीं दोनों से तो सृष्टि है. चन्द्रमा हमारे जीवन को कई रूपों में प्रभावित करता है. उसका सम्बन्ध पृथ्वी के जलतत्व से है. इसीलिए समुद्र में ज्वार-भाटा चन्द्रमा की कलाओं के अनुसार घटता-बढ़ता है. पूर्णिमा की रात समुद्र का ज्वार अपनी चरम सीमा पर रहता है. <br /><br /><b>यह कैसा अभिशाप, चांद तक <br />सागर का मनुहार न पहुंचे, <br />नदी-तीर एकाकी चकवे का <br />क्रन्दन उस पार न पहुंचे. <br /></b><br />समुद्र-मंथन के बाद महारत्न के रूप में एक साथ निकलने के कारण चन्द्रमा और लक्ष्मी भाई-बहन हुए. चूंकि संसार के पालनकर्ता विष्णु की पत्नी लक्ष्मी जगमाता हैं, इसलिए उनके भाई चन्द्रमा सबके मामा हैः चन्दा मामा. <br /><br />शास्त्र कहता है कि लक्ष्मी अगर विष्णु के साथ आती हैं, तो उनका वाहन गरुड़ होता है. लेकिन जब अकेली आती हैं तो उनका वाहन उल्लू होता है. मिथिला में कोजागरा की रात की लक्ष्मी-पूजा में त्रिपुरसुन्दरी लक्ष्मी का युवती के रूप में सांगोपांग वर्णन करते हुए उनसे हमेशा अपने घर में रहने की विनती की जाती हैः <br /><br /><b>या सा पद्मासनस्था विपुलकटितटी पद्मपत्रायताक्षी <br />गंभीरावर्तनाभि: स्तनभरनमिता शुभ्रवस्त्रोत्तरीया। <br />लक्ष्मीर्दिव्यैर्गजेन्द्रै: मणिगणखचितै: स्नापिता हेमकुम्भै: <br />नित्यं सा पद्महस्ता वसतु मम गृहे सर्वमांगल्ययुक्ता॥ <br /></b><br />कभी पूजा विधि को गौर से देखिए तो समझ में आएगा कि सामान्य पूजा के बाद बाकी देवताओं को तो अपने-अपने स्थान पर चले जाने का अनुरोध किया जाता है (पूजितोऽसि प्रसीद, स्व स्थानं गच्छ), लेकिन लक्ष्मी को सभी अपने पास ही रहने का आग्रह करते हैं (मयि रमस्व). <br /><br />कोजागरा की रात महाराष्ट्र का उत्सव थोड़ा अलग होता है. इसमें परिवार के सबसे बड़ी संतान को सम्मान दिया जाता है. <br /><br />गुजरात में यह शरद पूनम है. जहां गरबा और डांडिया के साथ लोग इसे मनाते हैं. तो बंगाल के लिए यह कोजागरी लक्खी पूजो है. ओडिशा में यह शिव के पुत्र कार्तिकेय की पूजा का दिन है. इसलिए वहां इसे कुमार पूर्णिमा कहते हैं. कार्तिकेय ने इसी दिन तारकासुर के साथ युद्ध किया था. <br /><br /><br /> </div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiR9wexvA12sI379sKLT615S6Tv2NZjGuN3anuR3jBmGT0QMmr25J8DlvaRDJLvSmbYLUaeLhJctq0ivCFG3tm_flO1sf6B3_nHDA9YFRyPQub_jU8AH9YFxXzyXzEfk0E_H4bSo9fSm8-2xxof-a_LkEAL3XZVM1aPjvyXeyyl7-dKiSRYsWH0CuRb/s885/9.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="885" data-original-width="715" height="481" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiR9wexvA12sI379sKLT615S6Tv2NZjGuN3anuR3jBmGT0QMmr25J8DlvaRDJLvSmbYLUaeLhJctq0ivCFG3tm_flO1sf6B3_nHDA9YFRyPQub_jU8AH9YFxXzyXzEfk0E_H4bSo9fSm8-2xxof-a_LkEAL3XZVM1aPjvyXeyyl7-dKiSRYsWH0CuRb/w389-h481/9.jpg" width="389" /></a></div><br /><div>ओडिशा की लड़कियां कार्तिकेय जैसा वर पाने के लिए पूजा करती हैं. क्योंकि कार्तिकेय या स्कंद—जिनको तमिलनाडु में मुरुगन कहते हैं—देवों में मोस्ट एलिजिबल बैचलर हैं. सबसे दिलेर, हैंडसम और खूबसूरत भी. लेकिन विचित्र है कि कार्तिकेय जैसा वर मांगने का दिन होने के बावजूद ओडिशा में इसका कोई कर्मकांड नहीं है. इसके बजाय सुबह में सूर्य की ही पूजा 'जान्हीओसा' होती है. शाम में चांद की पूजा होती है और उनके लिए खास भोग चंदा चकता बनता है. इसको घी, गुड़, केला, नारियल, अदरक, गन्ने, तालसज्जा, खीरा, मधु और दूध से बनाया है और फिर इसको कुला (पंखे) पर रखा जाता है. कोजागरा के दिन कटक से आगे केंद्रपाड़ा के तटीय इलाको में गजलक्ष्मी की पूजा भी होती है.<br /><br />इलाके अलग-अलग है तरीके भी अलग, लेकिन पूजा लक्ष्मी की ही होती है.<br /><br />हमलोग दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुके हैं. कोविड के दौर में -6.6 फीसद की नकारात्मक वृद्धि दर से उबरकर हमने 6-7 फीसद की वृद्धि दर से उम्मीदें जगा दी हैं. कोरोना के बाद हमारी रिकवरी की दर सबसे अधिक है. मुश्किल वक्त में भी हमारी ग्रोथ रेट बाकी देशों की तुलना में कम गिरी, तो उम्मीद में इससे अधिक और क्या चाहिए.<br /><br />आज हजरत साहब की जयंती मिलाद-उल-नबी भी है. चांद देखिए और दुनिया भर के महापुरुषों को याद करिए. आध्यात्मिकता, सांसारिकता, व्यावहारिकता सबका मेल है शरद पूर्णिमा में.<br /></div>Manjit Thakurhttp://www.blogger.com/profile/09765421125256479319noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7338682564613289699.post-1991220231468498892022-09-23T21:35:00.006+05:302022-09-23T21:35:51.849+05:30हम इंसानों में क्या मानवेतर जीन मौजूद है!आज से कोई 70,000 साल पहले की बात है. हिमयुग अफ्रीका में ही काट चुकने के बाद एक और मानव जत्था (होमोसेपियंस) हहास बांधकर निकला. इस बार उन्होंने निएंडरथल्स और दूसरी मानव प्रजातियों को खदेड़ दिया. उन्होंने निएंडरथल्स को न सिर्फ अरब प्रायद्वीपीय इलाके (अंग्रेजी मानसिकता वाले इसको 'मध्य-पूर्व' पढ़ें, स्वतंत्र विचारक 'अरब प्रायद्वीप' ही पढें) से निकाल दिया, बल्कि यह निएंडरथल्स के विनाश की शुरुआत थी. <br /><br />विचारणीय प्रश्न यह भी है कि करीब 45,000 साल पहले यही लोग पता नहीं कैसे, ऑस्ट्रेलिया जा पहुंचे. इस महाद्वीप में उस वक्त तक, इंसान नहीं पहुंचे थे. इन्हीं लोगों ने स्टाडेल में नर-सिंह (यानी सिर सिंह का का, शरीर इंसान का) को तराशा. (अपने नरसिंह अवतार को भी याद करते हुए हाथ जोड़ लो माराज.) <br /><br />इसका मतलब यही है कि हमारे पुरखे आज के इंसानों जितने ही अक्लमंद रहे होंगे. <br /><br />बहरहाल, बात को थोड़ा पीछे लिए चलते हैं. आज से कोई 65,000-70,000 साल पहले अफ्रीका से कुछ सौ लोगों का समूह निकला और अफ्रीका को पार करके अरब प्रायद्वीप के दक्षिणी हिस्से में पहुंचा. विद्वान मित्रों के लिए संदर्भ दे रहा हूं (निकोल माका-मेयर व अन्य, बीएमसी जेनेटिक्स, 2001 में प्रकाशित, मेजर जीनोमिक माइटोकोंड्रियल लिनियेजेज डेलिनेट अर्ली ह्यूमन एक्सपेंशन) <br /><br />तो जाति और रंग के आधार पर खुद को श्रेष्ठ मानने वाले दुनिया भर के मूर्खो, हम-आप सभी इसी कुछ सैकड़ों मनुष्यों की संतान हैं. चाहे छुटकी मूंछों वाला हिटलर हो या लंबी मूंछों वाला स्टालिन, क्लीन शेव्ड चर्चिल हो या बेतरतीब दाढ़ी-मूंछों वाला चे-गुएरा. सदाशयी मार्टिन लूथर किंग और सम्मोहक मुस्कुराहट वाले गांधी, सब एक ही छोटे समुदाय की संतानें हैं. <br /><br />इसका एक अन्य अर्थ हैः इन गैर-अफ्रीकी समुदायों में बहुत कम आनुवांशिक (जीनेटिक) अंतर होना चाहिए. क्या इसकी कोई चाबी इस बात में है कि वैश्विक महामारियों को लेकर हम सभी कथित नस्लों के लोग एक ही तरह से कैसे प्रभावित होते हैं? <br /><br />बेशक, आधुनिक इंसानों के भौगोलिक विस्तार पर पर्यावरण और जलवायु की बेहद महत्वपूर्ण भूमिका रही है. <br /><br />अपनी धरती का क्या है, इसका मिजाज भी हॉर्मोनल ही है. कभी ठंडा कभी गरम. आप स्त्री हैं तो अपने पति/ बॉयफ्रेंड को याद करे और पुरुष हैं तो तुनुकमिजाज पत्नी/ प्रेमिका को. सैकड़ों मौके मिल जाएंगे जब आपको उनके तापमान से तारतम्य बिठाना पड़ा होगा. <br /><br />खैर. शुरुआती इंसानों ने जब अफ्रीका से बाहर कदम रखा होगा, तब धरती आज के मुकाबले काफी ठंडी रही होगी. धरती का बहुत सारा पानी बर्फ की चादरों में कैद रहा होगा. इसका मतलब यह भी हुआ समुद्रों का जलस्तर काफी नीचे रहा होगा. एक वैज्ञानिक अनुमान है कि तब समुद्री जलस्तर आज से कोई 100 मीटर नीचे था. (इस संदर्भ में एलिस रॉबर्ट की द इन्क्रेडिबल ह्यूमन जर्नी पढ़ना अच्छा रहेगा. ब्लूम्सबरी ने छापी है.) <br /><br />तब तटीय इलाकों का भूगोल और जलवायु भी आज से एकदम अलहदा ही था. <br /><br />यानी, हमारे जो कुछ सौ पुरखे अफ्रीका से बाहर निकले थे और दक्षिणी अरब प्रायद्वीप पहुंचे थे उन्हें अपेक्षया उथले लाल सागर को पार करना पड़ा होगा. और अरब के तटीय इलाके भी अधिक नम और सुखद रहे होंगे. <br /><br />ऐसा प्रतीत होता है कि उसके बाद आधुनिक मानवों ने फारस की खाड़ी पार की होगी. आज फारस की खाड़ी की औसत गहराई करीबन 36 मीटर है. इस संदर्भ में जे काम्फ और एम. सदरीनासाब ने ‘द सर्कुलेशन ऑफ द पर्शियन गल्फ’ नाम का बेहतरीन अध्ययन किया है. <br /><br />अब, एक अध्ययन कहता है कि बर्फ की चादरों में सिमटे पानी की वजह से अगर समुद्री जलस्तर 100 मीटर नीचे था, तो इसका मतलब यह हुआ कि फारस की खाड़ी शानदार हरा-भरा मैदान रहा होगा. समझिए, ईडन का गार्डन जैसा कुछ. यहीं रुक गए होंगे शुरुआती आगंतुक. इधर ही काफी आबादी बढ़ी होगी, रुक गए होंगे. यहां से मध्य एशिया और यूरोप की तरफ बढ़ना थोड़ा मुश्किल रहा होगा. हिमयुग चल रहा था न. <br /><br />लेकिन मकरान तट के साथ-साथ भारतीय उपमहाद्वीप में उनका प्रवेश मुश्किल नहीं था. इधर यह बात याद रखने की है कि भारत की तट रेखा भी तब ऐसी नहीं थी, जैसी आज है. कई जगहों पर तो यह आज के तट से सौ-सवा सौ किमी आगे रहा होगा. <br /><br />यूरोप में तब निएंडरथल्स थे शायद. क्या फारस वाले लोग उधर बढ़ें होंगे तो उनके साथ युद्ध हुआ होगा या संभोग? जो भी हो, हालांकि वैज्ञानिक कहते हैं कि निएंडरथल्स के कुछ जीन अभी भी मौजूद हैं. यानी कुछ ऐसे लोग भी होंगे जिनमें मानवेतर जीन या गुण होंगे. यह राजनैतिक रूप से बवंडर खड़ा कर सकता है. इसलिए इस बात पर अभी यहीं मिट्टी डालिए. आगे बढ़िए. <br /><br />लेकिन जितने का जिक्र बुरा नहीं उतना कर देते हैं. <br /><br />जीव वैज्ञानिक बताते है कि इंसानों से संघर्ष के बाद निएंडरथल पच्छिम की ओर बढ़ते गए और जिब्राल्टर तक पहुंच गए, जहां उनका अंतिम समूह किसी गुफा में खत्म हो गया. हालांकि, निएंडरथल्स के खत्म होने के बारे में स्पष्टता नहीं है. यह भी अनुमान है कि शायद वे लोग सुमात्रा में टोबा ज्वालामुखी के फटने से मारे गए. उस ज्वालामुखीय विस्फोट का असर दक्षिण भारत तक हुआ था क्योंकि खुदाई में उसके राख दक्षिण भारत में भी मिले हैं. <br /><br />बहरहाल, इंसानों का प्रसार दक्षिण-पूर्व एशियाई इलाके और वहां से ऑस्ट्रेलिया तक हुआ और यही वहां के एबोरिजिनिल्स के पुरखे बने. हालांकि आनुवांशिक अध्ययनों ने यह साबित किया है कि ऑस्ट्रेलियाई एबोरिजिनल्स का दक्षिण-पश्चिम एशियाई स्थानीय आदिवासियों के साथ आनुवंशिक कड़ियां मिलती हैं. पर आज के आधुनिक भारतीयों के साथ अभी तक कोई लिंक करने वाला जीन नहीं मिला है. <br /><br />हो सकता है कि यह प्रवासी ग्रुप वह रहा हो जिसने भारत को छोड़कर मध्य एशिया वाला रास्ता पकड़ लिया हो. एनीवे. <br /><br />लेकिन, रुकिए. जल्दबाजी में कोई राय मत बनाइए. एंथ्रोपॉलॉजिलक सर्वे ऑफ इंडिया ने 2009 में एक अध्ययन प्रकाशित किया था जिसमें बताया गया है कि नेटिव ऑस्ट्रेलियाई लोगों और भारत के कुछ जनजातीयों के बीच जीनेटिक लिंक मौजूद हैं. यह लिंक बहुत हल्का है. 26 जनजातीय समूहों के 966 लोगों में से सिर्फ 7 में यह हल्का लिंक दिखा. और इसके लिए विद्वान कहते हैं कि भारतीय और ऑस्ट्रेलियाई ग्रुप कोई 60,000 साल पहले अलग हो गया था. <br /><br />बेशक, फारस की खाड़ी के इलाके में एक भरी-पूरी आबादी रह भी गई होगी, जो वहां से अंतर-हिमयुग अवधि (इंटरग्लेशियल अवधि) में यूरोप और मध्य एशिया की ओर निकली. <br /><br />ऊपर जितनी भी बातें लिखी गई हैं वह दसियों हजार साल की अवधि में घटी घटनाएं हैं. और जिस छोटे समूह के विस्तार की बात कही गई है वह भी 50-100 से अधिक लोगों का समूह नहीं रहा होगा. ये लोग भी कोई झुंड बांध लगातार यायावरों की तरह नहीं चले होंगे. रुककर, ठहरकर इधर-उधर इनकी गति रही होगी. भारतीय उपमहाद्वीप में जिसतरह झुंड आए होंगे, वैसे ही कुछ लोग निकले भी होंगे. <br /><br />उनके बीच हुए युद्धों, भोजन की कमी, सूखे, अकाल, बाढ़, महामारियों ने यह तय किया होगा कि कौन सा ग्रुप जिंदा बचेगा. <br /><br />यूनेस्को ने अपने भारत में भी एक ऐसी साइट को विश्व विरासत में शामिल किया है, भीमबेटका. करीब 30,000 साल पुराने वक्त में लोग यहां रहे होंगे ऐसा अनुमान है. भारत में शुतुरमुर्ग के अंडों के खोल से बनी मालाएं इस बात की ओर इशारा करती हैं कि इधर वह पक्षी पहले बहुतायत में पाया जाता होगा. ये भी हो सकता है कि इस फैशन की वजह से ही बेचारा परिंदा इधर से लुप्त हो गया. फैशन में जाने कितनी चीजें लुप्त हुई हैं इस देश से. कितनी बेशकीमती परंपराएं भी. <br /><br />बीबीसी की एक डॉक्यूमेंट्री में माइकल वुड्स कहते हैं, “भीमबेटका की आकृतियों में चूड़ी और त्रिशूल वाली नृत्यरत देवी को देखकर किसी को भी नटराज की याद आ सकती है.” <br /><br />आखिरी हिमयुग, करीबन 24,000 साल पहले शुरू हुआ था. करीब 20 हजार साल पहले यह उरूज पर था और उसके बाद गरमाहट बढ़नी शुरू हुई. आज से 14,000 वर्ष पहले से यह बर्फ की चादरें पिघलनी शुरू हुईं. समुद्र के तल में तेजी से वृद्धि होने लगी. और आज से कोई 8000 साल पहले, गल्फ ओएसिस (फारस की खाड़ी का हरा-भरा इलाका) पानी में डूब गया. <br /><br />अब सुमेरियाई सभ्यता में या बाइबिल में इसी को तो ग्रेट फ्लड नहीं कहा गया? भारत में मनु इसी जलप्रलय से तो नहीं बचाते हैं मानव सभ्यता को? सोचिएगा. <br /><br />फारस की खाड़ी के विस्थापित लोग बढ़ते सागर और मरुस्थलीकरण से प्रभावित होकर किधर गए होंगे? लेकिन साक्ष्य बताते हैं कि इस समय तक लोग नौकायन से परिचित हो गए थे. यह नवपाषाण युग का उत्तरवर्ती काल था और लोग कृषि, पशुपालन आदि के जानकार हो चुके थे. <br /><br />यहां के कुछ समूह यूरोप, कुछ मध्य एशिया की तरफ निकले होंगे. उधर, दक्षिण-पूर्व एशियाई समूह खुद को चीन में स्थापित कर चुका होगा. <br /><br />वैसे जलप्रलय की भारतीय कथा में मनु को भगवान विष्णु ने पहले ही चेतावनी दे दी थी. उनने भी बड़ी-सी नाव बनाई और उसको बीजों और जानवरों से भर लिया, उनकी नाव को भगवान विष्णु मछली के रूप में (मत्स्यावतार) में टोकर सूखी धरती की तरफ ले गए. <br /><br />अब यही कहानी पूरी मानव सभ्यता में है. संतालों के यहां भी यही कहानी है. नाम बदल दीजिए अवतारों या दिव्य पुरुषों के. बाइबिल में भी यही है. बहरहाल, भूगर्भशास्त्रियों का अनुमान है कि भारतीय तटरेखा उस समय मौजूद तटों से काफी आगे की तरफ होगी और श्रीलंका भी भारतीय मुख्य भूमि से जुड़ा था और एकदम से जुड़ा न हो, गलबहियां वाली पोजीशन में जरूर था. यहां से आप रामसेतु का संदर्भ पकड़ सकते हैं. <br /><br />वैसे, खंभात की खाड़ी में (कॉम्बे, गुजरात) 7500 साल पहले बसी बड़ी बस्तियों के दो सुबूत 2001 में ही पुरातत्वविद पेश कर चुके हैं. हालांकि, इस पर अभी और अधिक अध्ययन जरूरी है. <br /><br />कई इतिहासकार यह भी कहते हैं कि फारस की खाड़ी के लोगों ने ही खेती का ज्ञान दूसरों को बांटा. वैसे, यह बात पूरी तरह सच नहीं लगती. कोई 7000 साल पहले के साक्ष्य बताते हैं कि मेहरगढ़, बलूचिस्तान (जो सन 47’ तक भारत था) गेहूं और जौ की व्यवस्थित खेती करते थे. चूंकि ये पश्चिम एशियाई नस्लें हैं इसलिए इतिहासकारों ने यह निष्कर्ष निकाल लिया कि भारतीय लोगों ने खेती गाजा पट्टी वालों से सीखी. <br /><br />वैसे, बैंगन, गन्ना और तिल की खेती तो भारत में शुरू हुई यह सबको पता है. होगा ही. पर बाद में ऐसे साक्ष्य भी मिले हैं कि खेती भारतीयों ने पहले से, स्वतंत्र रूप से विकसित की थी. और धान अपन खूब उपजाते थे. <br /><br />गुजरात के तट पर उस समय भी बड़े शहर थे. इसका मतलब उन्हें खेती आती होगी. क्या खेती का विकास उस वक्त के टिहरी बने शहरों के लोगों ने विकसित की थी या विस्थापित लोग उसको देश के अलग हिस्सों में लेकर गए? <br /><br />जो भी हो, इतना तय है कि नवपाषाण युग में भी भारत में ठीक-ठाक जनसंख्या रहती थी. शहर भी थे और खेती भी. पर उस वक्त भारत राष्ट्र था या नहीं? बेशक नहीं था. पर उस समय के लिहाज से अपन दूसरे भूखंडों से अलग नहीं थे. <br /><br />इस कड़ी में इस बार इतना ही, आगे फिर लिखेंगे.Manjit Thakurhttp://www.blogger.com/profile/09765421125256479319noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7338682564613289699.post-8300157140176360392022-09-17T17:08:00.007+05:302022-09-17T17:08:57.198+05:30इंसान का विकासः दिल बदलते हैं तो चेहरे भी बदल जाते हैंआज से कोई बीस लाख साल पहले मनुष्य बेहद आदिम रूप में था. (यह कौन-सी रॉकेट साइंस वाली बात है भला!) लेकिन जैसा कि युवाल नोआ हरारी लिखते हैं, प्रागैतिहासिक मनुष्यों के बारे में जानने लायक सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे मामूली प्राणी थे, जिनके अपने पर्यावरण पर गुरिल्लाओं, जुगनुओं या किसी मछली से ज्यादा प्रभाव नहीं था. <br /><br />बहरहाल, इंसानों का विकास शुरू हुआ. विज्ञान के जानकार लोग जानते हैं कि जीव विज्ञान में जीवों को प्रजातियों (नस्लों) में बांटा जाता है. प्रजातियों को आप आसान भाषा में यह मान लें कि वह आपस में मिलन करके ऐसे बच्चे पैदा कर सकते हैं जो खुद भी वीर्यवान होती है. <br /><br />मिसाल के तौर पर, घोड़े और गधे दो प्रजातियां हैं. (हर लाइन में सियासत खोजना ठीक नहीं. मैं घोड़ों और गधों की ही बात कर रहा हूं) सामान्य तौर पर दो विभिन्न नस्लों के जीव आपस में यौन दिलचस्पी नहीं रखते. (ध्यान दीजिएगा, मैंने सामान्य तौर पर कहा है. मुझे पता है आपने बहुत तरह के वीडियोज देख रखे हैं. पर वह अपवाद हैं या आपको अभद्र मनोरंजन के लिए जानबूझकर बनाए गए होते हैं) <br /><br />बेशक, घोड़ों और गधों को उकसाया जाए तो वह आपस में मिलन करेंगे पर उनसे उत्पन्न संतान खच्चर कहाएगी और वह आगे वीर्यवान नहीं होगी. <br /><br />इसके उलट, कुत्ते, देशी हो या विदेशी, डॉबरमैन हो या जर्मन शेफर्ड आपस में मिलन कर सकते हैं और प्रजनन सक्षम पिल्ले पैदा कर सकते हैं. मैंने दोनों की कुत्तों की नस्लें विदेशी बताईं हैं क्योंकि ‘इंडिया दैट इज भारत’ में विदेशी कुत्तों की काफी प्रतिष्ठा है. न सिर्फ चमड़ी के रंग और भौंकने की विशिष्ट शैली की वजह से, बल्कि उनके विचार भी कई लोगों को भारतीय विचारों से श्रेष्ठ मालूम होते हैं. इसके विपरीत, भारतीय कुत्तों की विदेशों में क्या प्रतिष्ठा है इस पर अलग से शोध की जरूरत नहीं है. सबको मालूम है. <br /><br /><br /><div>खैर, जीव विज्ञान का मेरा नॉलेज यही कहता है कि हमलोग जीवों और पादपों को दो नामों से जानते हैं. जैसे कि पहला नाम उसका जीनस होगा (यानी साझा पूर्वज का नाम) और दूसरा नाम उसकी नस्ल या स्पीशीज का होगा. <br /><br />इस लिहाज से मैंगीफेरी इंडिका की मिसाल लें. यह आम का वानस्पतिक नाम है. आम मैंगो पीपल के राष्ट्र (मुझे नहीं पता कि जब आम का विकास हुआ था तब आम आदमी पार्टी का विचार तय हुआ था या नहीं या फिर इंडिया दैट इज भारत, एक राष्ट्र के तौर पर किस हालत में था) में इंडिका इसलिए क्योंकि आम भारत का है. वरना बौद्धिकों की राय में हर अच्छी चीज योरप से हिंदुस्तान को आई है. इनक्लूडिंग खैनी. (ये बात तो सच है वैसे) <br /><br />तो साहब इसी तरह अपन भी विकसित हुए, होमो सेपियंस. होमो मने मनुष्य और सेपियंस मने बुद्धिमान. <br /><br />इसका मतलब यह हुआ कि हमारे अलावा भी कई तरह के मनुष्य धरती पर थे. लेकिन, जैसे मिथिला में यह मान्यता है कि खरोड़े-भौर मूल के श्रोत्रिय ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ हैं (क्योंकि मिथिला का राजकुल इसी मूल का था. <br /><br />उसी तरह, वैज्ञानिकों ने खुद ही यह तय कर लिया है होमो सेपियंस ही सबसे बुद्धिमान थे. अब जो प्रजाति नष्ट हो गई, उससे अपन ये तो पूछ नहीं सकते हैं कि अंकिल, मैं बऊआ बोल रहा हूं, आपका आइक्यू टेस्ट करना है. <br /><br />इधर, अपना इंडिया दैट इज भारत, जो कि तब यूरोपीय परिभाषाओं के मुताबिक कत्तई राष्ट्र नहीं था, यूरेशिया से जाकर मिल गया तो इसका बाकी की दुनिया के पारितंत्र के साथ सम्मिलन हुआ. कई लोग यह मानते हैं कि आज के भारतीय और अफ्रीकी स्तनधारियों (मसलन, हाथी, शेर, गैंडा) में समानता इसलिए है क्योंकि अपना इंडिया कभी अफ्रीका से जुड़ा था. मेरा एक उदारवादी दोस्त कहता है यूरोप से राष्ट्र की परिभाषा भी तभी आई थी. (ओह नहीं, शायद उस वक्त नहीं) <br /><br />लेकिन, इसमें शक है. क्योंकि भारत तो डायनासोरों (असली वाले, सियासी नहीं) के युग में ही अफ्रीका महादेश से अलग हो गया था. इसलिए भारत में स्तनधारियों का प्रवेश यूरेशिया से जुड़ने के कारण ही हुआ था इसमें शक नहीं. <br /><br />मिसाल के लिए, साइबेरिया में एक मैमथ (बड़ा वाला हाथी) का जीवाश्म मिला है. उसकी सूंढ़ में घास के तिनके भी हैं. इसका मतलब हुआ कि साइबेरिया में हरियाली थी कभी. और साइबेरिया में कोयले के निक्षेप भी बहुत हैं. इसका अर्थ हुआ कि वहां घने और ऊंचे पेड़ों वाले जंगल भी थे. वैसे कोयले के निक्षेप तो करगिल में भी हैं. अरे अपने कश्मीर में. <br /><br />खैर, वैज्ञानिक मानते हैं कि इंडिया वाले हाथी (बसपा वाला नहीं) अफ्रीकी हाथी के मुकाबले इस साइबेरियाई हाथी से ज्यादा निकट है. (मेरा एक दोस्त कल रात को प्रेस क्लब में सैटरडे नाइट मना रहा था और उसने कहा कि भारत ने इसी वजह से यूक्रेन संकट के दौरान रूस से निकटता दिखाई है. खून का रिश्ता यू नो) <br /><br /></div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgpmimG9Bjumc4S19Wh8nSFflnBpnCFy7ViXF_7sgiZnY83F369zBeHO5qvdqnnle5DI8i42dSWBEJta8MNnh25GLmRdQBp3hNkYyIs7M7fr8RHz8obXGZavvihiKGsaT8ncLEZriT2lA9FnE2qcxRMDYmlX7V_KTBMPqGSX82nPqda4UjPltppH3Lg/s635/280935574_10159991661463007_4542052053147182152_n.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="357" data-original-width="635" height="401" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgpmimG9Bjumc4S19Wh8nSFflnBpnCFy7ViXF_7sgiZnY83F369zBeHO5qvdqnnle5DI8i42dSWBEJta8MNnh25GLmRdQBp3hNkYyIs7M7fr8RHz8obXGZavvihiKGsaT8ncLEZriT2lA9FnE2qcxRMDYmlX7V_KTBMPqGSX82nPqda4UjPltppH3Lg/w713-h401/280935574_10159991661463007_4542052053147182152_n.jpg" width="713" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><b style="text-align: start;">जैक्लीन फर्नांडीज (इस फोटो का इस लेख से कोई लेना-देना नहीं है, यह मात्र विजुअल रिलीफ है)</b></td></tr></tbody></table><br /><div><br />आनुवंशिकी के विद्वानों ने लिखा है कि साठ लाख साल पहले अफ्रीकी हाथियों के साथ हमारे हाथियों में बोलचाल बंद हो गई, परिवार दूर हो गया तो जीनेटिक सीक्वेंस टूट गया था.<br /><br />इसलिए अपने वाले हाथी को देखकर अफ्रीकी हाथी गुनगुना रहा थाः<br /><b><br />अपनी आवाज़ की लर्ज़िश पे तो क़ाबू पा लो<br />प्यार के बोल तो होंठों से निकल जाते हैं<br />अपने तेवर तो सम्भालो के कोई ये न कहे<br />दिल बदलते हैं तो चेहरे भी बदल जाते हैं<br /></b><br />लेकिन, ग्रू. इंडिया आने वाले ज्यादातर ‘जानवर’ पच्छिम से नहीं ढुके इधर. बहुत सारे तो पूरब से भी आए. एक मिसाल तो अपना बाघ ही है. और बघवा तो बहुत हाल में 12000 साल पहले इंडिया आया. हम बंगाल वाले बाघ की बात कर रहे हैं. पता नहीं छिपकर पीठ पीछे शिकार करने वाले बंगाली बाघ को ‘रॉयल’ काहे कहते हैं.<br /><br />उधर, पूर्वी अफ्रीका से निकलकर चीन और जावा में होमो इरेक्टस लोग सीधे खड़े होकर चलने की प्रैक्टिस कर रहे थे, वहीं पश्चिम एशिया और यूरोप में निएंडरथल मौजूद थे. यूरोप की जलवायु तब भी ठंडी थी और निएंडरथल लोग उसके अनुकूल थे.<br /><br />इधर, और बहुत सारी प्रजातियों के इंसान विकसित हो रहे थे. जिनके नाम गिना कर ज्ञान बघारने की मेरी मंशा नहीं है. इस बारे में, ज्यादा चर्चा करना चाहें और मैं व्यक्तिगत रूप से उपलब्ध हूं. (पर आपका खर्चा हो जाएगा)<br /><br />स्कूली बच्चों को बताया जाता था इस प्रजाति से उस प्रजाति में विकास हुआ. जैसे दसवीं कक्षा में हमने एक भाषण प्रतियोगिता की तैयारी करते हुए कहीं पढ़ा था कि होमो एर्गास्टर विकसित होकर होमो इरेक्टस बने थे. लेकिन यह बात गलत है. यह कोई कार का मॉडल नहीं था कि इंजन की कैपेसिटी में बदलाव लाकर नया मॉडल लॉन्च होता गया. सचाई यही है कि आज से कोई चौदह-पंद्रह हजार साल पहले तक बहुत सारी इंसानी प्रजातियों का अस्तित्व था. अब नहीं है. अब सिर्फ हमलोग हैं, होमो सेपियन्स, हमीं में से कुछ लोग काले, भूरे, पीले, उजले आदि हैं.<br /><br />इसलिए अगर कोई यूरोपीय नस्लीय श्रेष्ठता का दावा करे या कोई भारतीय सिर्फ गोरा होने के कारण इतराए तो आप बगैर पूछे कान की जड़ गर्म करें. (अन्य योग्ताओं वाले लोगों के साथ इतराने वालों के साथ हिंसक होना ठीक नहीं)<br /><br />वैसे, इंसानों का विकास पूर्वी अफ्रीका में हुआ था. और इस बात के साक्ष्य हैं कि उन लोगों ने हरमुमकिन कोशिश की थी कि जाकर स्वीडन या स्विट्जरलैंड जाएं और पाउट लेते हुए सेल्फी पोस्ट करें. इज्राएल के स्खूल और क्वॉफ्जेह गुफाओं में पुरातात्विक साक्ष्य मौजूद हैं कि आधुनिक इंसान लेवांत (आज के इज्राएल, जॉर्डन, लेबनान, सीरिया और अगल बगल के इलाके को लेवांत कहा जाता है) तक आज से 1,20,000 साल पहले ही पहुंच गए थे.<br /><br />ध्यान रखिएगा, उस वक्त अपनी धरती आज की तरह इंसानी भकचोन्हरी का शिकार नहीं हुई थी और पर्याप्त नम और इतनी गर्म थी कि वह उत्तर की तरफ निकल सकें. इदर गरम शब्द से भरमाने का नय. हिमयुग के बाद के दौर को अगर गरम लिखा जाएगा तो कुछ वैसा ही फील कीजिए, जैसा दिल्ली में फरवरी के पहले हफ्ते में खिल कर धूप निकलने पर महसूस करते हैं.<br /><br />लेकिन, यह जलवायविक सुखद मौसम उसी तरह अल्पकालिक साबित हुआ जैसे कुछ राज्यों में विधानसभा चुनावों या उप-चुनावों में जीत के बाद कांग्रेस के उत्साह का होता है. तो नया हिमयुग शुरू हो गया. इसलिए सवा लाख साल पहले पूर्वी अफ्रीका से आए आगंतुक उसी तरह टिक नहीं पाए जैसे किसी कैडर आधारित पार्टी में कोई अनुशासनहीन निर्दलीय विधायक नहीं टिक पाता.<br /><br />तो अगले 50 हजार साल तक अपने पुरखे अफ्रीका में ही रहे. और फिर आज से कोई 75000 साल पहले पूर्वी अफ्रीका से एक बहुत छोटा समूह फिर हहास बांधकर निकला.<br /><br />फिर क्या हुआ? सब बतवा एक्के दिन जान लीजिएगा क्या?</div>Manjit Thakurhttp://www.blogger.com/profile/09765421125256479319noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7338682564613289699.post-85905441265710578732022-09-14T21:11:00.002+05:302022-09-14T21:11:11.134+05:30लेग ग्लांस शॉट के जनक और भारतीय क्रिकेट के पितामह महाराजा रणजीत सिंह की डेढ़ सौवीं जयंतीइससे पहले कि अपन मेन सब्जेक्ट पर आएं, एक सवाल. हिंदुस्तान में किस क्रिकेटर को आप कलाइयों का जादूगर मानते हैं? बैकफुट पंच और पैडल स्वीप में तेंडुलकर, कवर ड्राइव में विराट कोहली और स्क्वॉयर कट के लिए गावस्कर के नाम की कसमें खाई जाती हैं, ऑफ साइड का ईश्वर बेशक गांगुली को माना जाता है लेकिन कलाइयों का जादूगर? वीवीएस लक्ष्मण? या मोहम्मद अजहरूद्दीन? छोड़िए, बताइए कौन था जिसने लेग ग्लांस शॉट का आविष्कार किया? ब्रिटिश प्रेस में किसकी कलाइयों की तारीफ में उसे स्प्रिंग बताया गया? <br /><br />ढेर सारे सवाल. जवाब एक ही है. पर उससे पहले थोड़ा इतिहास में पीछे चलते हैं.<div><br /><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEitVjWRYGrw6b8KhRRHWNuQjSMLkhs0mx3dj5OEW9AWuR5VmkBWGNa0OkCtVvvoKdxxS90uWd-lvWJsjlWFtz28rrspUpfH9gX0vcZA_HfuS1qCUkPJlhVnzEBSRO1yptHM9Z-9AJFsc1fM5DApHisdZVR2qA0F32jw0oz4av4MIytbKOWQKm0_-64X/s750/G%20(20).jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="500" data-original-width="750" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEitVjWRYGrw6b8KhRRHWNuQjSMLkhs0mx3dj5OEW9AWuR5VmkBWGNa0OkCtVvvoKdxxS90uWd-lvWJsjlWFtz28rrspUpfH9gX0vcZA_HfuS1qCUkPJlhVnzEBSRO1yptHM9Z-9AJFsc1fM5DApHisdZVR2qA0F32jw0oz4av4MIytbKOWQKm0_-64X/w601-h400/G%20(20).jpg" width="601" /></a></div><div><br /></div>आज से कोई सवा सौ साल पहले भारत के एक कमाल के क्रिकेटर ने टेस्ट क्रिकेट में पदार्पण किया. उस वक्त भारत की टीम नहीं थी इसलिए वह क्रिकेटर इंग्लैंड की टीम से खेल रहा था. इंग्लैंड की टीम में शामिल किया गया वह शख्स पहला एशियाई खिलाड़ी था. उनका नाम था महाराजा रणजीत सिंह.<br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgpZ4YrZnOkw_o3qGheimjNdJqD7ZG6GRPvcW9uEodmNOxk18pE5sjL2zfmLEjcZDMgPVm0TFHbOPLq8eqhGE-oFx561mebZXMaTCftfmDtjWpHm56QqyTRk3JCktyQQyGC64wjzCmBKK0ydbas4Ml3EfjfdqHshNMPrJlI5jcGR6vvDl6_CtwNFHRg/s1024/Ranjitsinhji_c1908.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1024" data-original-width="658" height="455" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgpZ4YrZnOkw_o3qGheimjNdJqD7ZG6GRPvcW9uEodmNOxk18pE5sjL2zfmLEjcZDMgPVm0TFHbOPLq8eqhGE-oFx561mebZXMaTCftfmDtjWpHm56QqyTRk3JCktyQQyGC64wjzCmBKK0ydbas4Ml3EfjfdqHshNMPrJlI5jcGR6vvDl6_CtwNFHRg/w293-h455/Ranjitsinhji_c1908.jpg" width="293" /></a></div>असल में, बात उन दिनों की है जब क्रिकेट को भलेमानसों को खेल कहा जाता है और मैचों में विरोधी टीम का कप्तान कभी लेग साइड में क्षेत्ररक्षक तैनात नहीं करता था. यह माना जाता था कि बल्लेबाज भद्रजन होगा और ऑफ साइड में ही स्ट्रोक खेलेगा. अगर कोई बल्लेबाज लेग साइड की ओर शॉट लगाता था तो वो गेंदबाज और विरोधी टीम से माफी मांगता था.</div><div><br /></div><div>लेकिन महाराजा रणजीत सिंह ने इस धारणा को बदल दिया और वह अपनी कलाइयों का कमाल का इस्तेमाल करते थे. <br /><br />महाराजा रणजीत सिंह ने ही लेग ग्लांस शॉट का आविष्कार किया. लेग ग्लांस यानी मिड्ल या लेग स्टंप पर आ रही गेंद को बल्ले के सहारे अपने पैरों के थोड़ा कोण बनाकर बाउंड्री की तरफ धकेलना. </div><div><br /></div><div>यह गेंद विकेट कीपर के एकदम पास से तेजी से बाऊंड्री की तरफ निकल जाती है. बहरहाल, स्क्वॉयर लेग और ऑन साइड में अपनी कलाइयो की बदौलत रणजीत सिंह काफी रन जुटा लेते थे. <br /><br />महाराजा रणजीत सिंह के इसी हस्त-कौशल के कारण इंग्लैंड के चयनकर्ताओं को उन्हें अपनी टीम में शामिल करने के लिए मजबूर होना पड़ा. <br /><br />रणजीत टेस्ट क्रिकेट के पहले खिलाड़ी थे, जिन्होंने अपने करियर के पहले टेस्ट मैच में ही शतक ठोंक दिया और नॉट आउट रहे. <br /><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhzeHx4H96bxnZu70Enk4MD21gaotrvQDYWwidBoDbNiqeLd_TfVC_oK9RsKWW8beBmBa5LjmRjQiDVOOFYPDF25ubH2UG6p7q3DGtQLZ3Bdz2inoOJp-SHHVG8SJ-hIu2py4uy8cZ9RSjX9X4xigr4ulN8sqqi8vcl7eNjmfw1ZhndgOJ1czrEMw6e/s906/Ranjitsinhji_c1905.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="906" data-original-width="614" height="516" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhzeHx4H96bxnZu70Enk4MD21gaotrvQDYWwidBoDbNiqeLd_TfVC_oK9RsKWW8beBmBa5LjmRjQiDVOOFYPDF25ubH2UG6p7q3DGtQLZ3Bdz2inoOJp-SHHVG8SJ-hIu2py4uy8cZ9RSjX9X4xigr4ulN8sqqi8vcl7eNjmfw1ZhndgOJ1czrEMw6e/w350-h516/Ranjitsinhji_c1905.jpg" width="350" /></a></div></div><div>इसी 10 सितंबर को उन्हीं महाराजा रणजीत सिंह का जन्मदिन था. लेकिन यह जन्मदिन इसलिए भी खास रहा क्योंकि इसके साथ ही महाराजा रणजीत सिंह के जन्म के डेढ़ सौ वर्ष भी पूरे हुए हैं. यह देश के क्रिकेटरों और क्रिकेट प्रेमियो के लिए खास मौका है.<br /><br />महाराजा रणजीत सिंह को भारतीय क्रिकेट का पितामह माना जाता है. रणजीत सिंह अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खेलने वाले पहले भारतीय थे. </div><div><br /></div><div>उनका जन्म 10 सितंबर, 1872 को गुजरात के जामनगर में हुआ था. अपने क्रिकेटीय जीवन में उन्होंने काफी उपलब्धियां हासिल की, यहां तक कि उन्होंने क्रिकेट को खेलने का तौर-तरीका भी बदल दिया. </div><div><br /></div><div>आज भारत में प्रथम श्रेणी क्रिकेट की सबसे अग्रणी प्रतियोगिता रणजी ट्रॉफी उन्हीं के नाम पर खेली जाती है.<br /><br />महाराजा रणजीत सिंह के बल्लेबाजी कौशल का लोहा तो क्रिकेट के जनक कहे जाने वाले डब्ल्यूजी ग्रेस भी मानते थे. ग्रेस ने एक बार कहा था कि दुनिया को अगले 100 साल तक रणजी जैसा शानदार बल्लेबाज देखने को नहीं मिलेगा.<br /><br />महाराजा रणजीत सिंह अपना पहला टेस्ट मैच 1896 में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ खेला था. यह टेस्ट मैच मैनचेस्टर में खेल गया था और इस टेस्ट की पहली पारी में उन्होंने 62 और दूसरी पारी में नाबाद 154 रन बनाए.<br /><br /><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhyHv9tyfWREnu2x5CT_697sMdi6poqzJofB5F8wOjzT4SDp1kgn6piWmUOq_eAzuyeg4KpkQ1I-ornoRLAjrrvxVrrb4elgPcYmLf_ZSLSU0B1r6-WtFNub-iD1Dg41sHHtqj-OlnfoOlLtc7Cy8GwfRR_ywmYcz6JU6EEItWdoRHfqz-zsI-1lDsD/s750/G%20(24).jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="500" data-original-width="750" height="390" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhyHv9tyfWREnu2x5CT_697sMdi6poqzJofB5F8wOjzT4SDp1kgn6piWmUOq_eAzuyeg4KpkQ1I-ornoRLAjrrvxVrrb4elgPcYmLf_ZSLSU0B1r6-WtFNub-iD1Dg41sHHtqj-OlnfoOlLtc7Cy8GwfRR_ywmYcz6JU6EEItWdoRHfqz-zsI-1lDsD/w586-h390/G%20(24).jpg" width="586" /></a></div><br /><div><br /></div><div>इस तरह रणजीत सिंह क्रिकेट के इतिहास में पहले ऐसे खिलाड़ी बन गए, जिसने अपने पदार्पण टेस्ट में अर्धशतक और शतक लगाया. साथ ही वह पदार्पण टेस्ट में नाबाद शतक ठोंकने वाले पहले खिलाड़ी भी बने.</div><div><br />लेकिन यह तो सिर्फ एक कारनामा था. महाराजा रणजीत सिंह ने एक कमाल और किया. अगस्त, 1896 में रणजी ने होव के मैदान पर एक दिन में दो शतक ठोक डाले. फर्स्ट क्लास मैच में एक दिन में दो शतक पहले किसी बल्लेबाज ने नहीं ठोके थे. महाराजा रणजीत सिंह ने इस मैच में 100 और नाबाद 125 रनों की पारी खेली थी.<br /><br />रणजीत सिंह को रणजी और स्मिथ के नाम से भी पुकारा जाता था.<br /><br />1897 में जब इंग्लिश टीम ऑस्ट्रेलिया दौरे पर गई तो रणजी ने सिडनी में पहले टेस्ट मैच में 7वें नंबर पर बल्लेबाजी के लिए उतरकर 175 रन की बेहतरीन पारी खेली. उनकी इस पारी की वजह से इंग्लैंड जीत दर्ज करने में कामयाब रहा. रणजीत सिंह इस मैच से पहले बीमार थे और वह कमजोरी महसूस कर रहे थे, लेकिन इंग्लैंड की टीम उन्हें बाहर नहीं रखना चाहती थी.<br /><br />मशहूर क्रिकेट पत्रिका विजडन ने उनकी इस पारी के बारे में लिखा था कि उनकी शारीरिक स्थिति को देखते हुए यह बल्लेबाजी का बेहतरीन नमूना था क्योंकि वह पहले दिन 39 रन बनाने के बाद बहुत कमज़ोरी महसूस कर रहे थे. दूसरे दिन सुबह का खेल शुरू होने से पहले तक डॉक्टर उनका इलाज कर रहा था.<br /><br />महाराजा रणजीत सिंह ने काउंटी क्रिकेट भी काफी खेली और उनको काउंटी क्रिकेट का बादशाह कहा जाता है. रणजीत सिंह ने लगातार 10 सीजन में 1000 से ज्यादा रन बनाए. 1899 और 1900 में तो रणजी ने एक सीजन में 3 हजार से ज्यादा रन बना डाले.<br /><br /><br /></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiQVg2uN1qR0bJsSVWoAKIlhcbaSKivMvQ8mcsm6Gs3Abjn7QBKpz7KD24hpyLbkcyi0xPLLq7xgTEyiT7Idbn2trWlgLz679vn7a9zliZnlILcQ4P-tMcrTRG22DnqvC0XApSDlCBvofEda9SEmHsQ4TctVeuThJTX_PRPuhV-WbnIG-kkXz0QsLYY/s4008/Kumar_Shri_Ranjitsinhji_c1910.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="4008" data-original-width="3072" height="563" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiQVg2uN1qR0bJsSVWoAKIlhcbaSKivMvQ8mcsm6Gs3Abjn7QBKpz7KD24hpyLbkcyi0xPLLq7xgTEyiT7Idbn2trWlgLz679vn7a9zliZnlILcQ4P-tMcrTRG22DnqvC0XApSDlCBvofEda9SEmHsQ4TctVeuThJTX_PRPuhV-WbnIG-kkXz0QsLYY/w431-h563/Kumar_Shri_Ranjitsinhji_c1910.jpg" width="431" /></a></div><div>महाराजा रणजीत सिंह ने इंग्लैंड की तरफ से कुल 15 टेस्ट मैच खेले और उन्होंने 44.95 के औसत से 989 रन बनाए. </div><div><br /></div><div>रणजीत सिंह ने इंटरनेशनल क्रिकेट में 2 शतक ठोके और फर्स्ट क्लास क्रिकेट में उनके बल्ले से 72 शतक निकले. </div><div><br /></div><div>प्रथम श्रेणी क्रिकेट में उनका औसत 56 से भी ज्यादा था. प्रथम श्रेणी क्रिकेट में उन्होंने 307 मैच खेले जिनमें 56.37 की औसत से 24,092 रन बनाए. इसमें 72 शतक और 109 अर्धशतक भी शामिल हैं.</div><div><br />महाराजा रणजीत सिंह पांच साल तक ससेक्स काउंटी के कप्तान रहे और इसके बाद उन्होंने 1904 में भारत लौटने का फैसला किया. </div><div><br /></div><div>महाराजा ने अपने भतीजे दलीप को क्रिकेट की बारीखियां सिखाई. दलीप सिंह ने भी कैंब्रिज में पढ़ाई की और इंग्लैंड के लिए खेलते हुए उन्होंने भी ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ लॉर्ड्स के मैदान पर 173 रन ठोके. महाराजा दलीप सिंह के नाम पर दलीप ट्रॉफी का आयोजन भी किया जाता है.<br /><br />इस महान क्रिकेटर का 60 वर्ष की उम्र में 2 अप्रैल, 1933 को जामनगर में निधन हो गया.</div>Manjit Thakurhttp://www.blogger.com/profile/09765421125256479319noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7338682564613289699.post-1957093298370735912022-09-07T12:39:00.008+05:302022-09-07T12:49:45.806+05:30क्या टेथिस सागर ही क्षीर सागर था!भले ही तब भारत 'राष्ट्र' न था, लेकिन उस वक्त भी मुंबई के पास पश्चिमी घाट से ज्वालामुखीय तरल लावा बेरोकटोक, बगैर महाराष्ट्र पुलिस, मध्य प्रदेश पुलिस, राजस्थान पुलिस और बाकी के राज्यों की पुलिस और अफसरों की चिंता किए पूरे मध्य और दक्षिण भारत में फैल गया. इधर, भारत गुटनिरपेक्ष की नीति को कांख में दबाकर नेहरूवियन मॉडल को फॉलो करते हुए उत्तर की तरफ रूस से सटता गया. <br /><br />आज से कोई 9 करोड़ साल पहले से भारत की प्लेट यूरेशिया के प्लेट से टक्कर खा रही थी. 5.5 करोड़ साल पहले यह टक्कर तेज हो गई. अपन तो इंडियन हैं तो अपन ने ऐसा धक्का दिया यूरेशियन प्लेट को, कि वह उछल गई. हिमालय और तिब्बत का पठार बन गया इस धक्के से. फटाकदेनी से नहीं बना, एकदम स्लो-स्लो बना. एकदम सरकती जाए है रुख से नकाब आहिस्ता-आहिस्ता की तर्ज पर. <br /><br />एक गांठ-सी बन गई यूरेशिया के निचले हिस्से में, पामीर गांठ बोलते हैं इसको. अंग्रेजी वाले व्याकुल न हो, पामीर नॉट पढ़ें आप. वहां से बहुत सारी पर्वत श्रेणियां निकलीं. हिंदूकुश, सुलेमान, काराकोरम, हिमालय और अकारान योमा. <br /><br /><div>भारतीय प्लेट और यूरेशियाई प्लेट के बीच में समंदर था एक. नाम था टेथिस सागर. अब उसकी तली ऊपर आ गई. जो कभी नीचे होता है उसका ऊपर आना तय है. आखिर, 1985 में 2 सीट पर सिमटी भाजपा 2014 में 273 और 2019 में 303 लोकसभा सीट जीती या नहीं! बस इसलिए लिए निरंतरता चाहिए होती है. <br /><br />तो टेथिस सागर का एक हिस्सा ऊपर उठता गया. आप भरोसा करिए कि हिमालय की एकदम आसमान को चुम्मा लेती चोटियों पर मछली के जीवाश्म मिले हैं. अब मछली चोटी पर कैसे चढ़ी होगी, इसको ईश्वर का चमत्कार न मानकर सीधे-सीधे यह मानिए कि यह प्लेट विवर्तनिकी (प्लेट टेक्टोनिक्स) का कमाल है. इसकी दूसरी मिसाल, हिमालयी इलाकों में चूना-पत्थर चट्टानों की खदानों का होना है. तीसरी मिसाल, हिंदुकुश रेंज में नमक का निक्षेप है. आप जो व्रत में शुद्ध सेंधा नमक खाते हैं असल में वह खदानों से निकाला जाने वाला रासायनिक रूप से अशुद्ध नमक है. खैर, अब चूना पत्थर कैसे बनता है और नमक का निक्षेप कैसे होता है इसके बारे में विस्तार से बताने के लिए हम निःशुल्क उपलब्ध ‘नहीं’ हैं. <br /><br />बहरहाल, उत्तर की तरफ बढ़ने का क्रम अभी भी रुका नहीं है. अपन अभी भी यूरेशियन प्लेट को उधर धकेल रहे हैं. जिद्दी हैं हमलोग. <br /><br />वैसे, मोटे तौर पर भूगोल पढ़े लोगों को मेरी अभी तक की बात में ज्यादा विवाद नजर नहीं आएगा क्योंकि दुनिया भर के भूगोलज्ञ यही सिद्धांत मानते हैं. लेकिन, कुछ लोग वैज्ञानिकों की बात भी नहीं मानते, जब तक उसको बोल्ड और इटेलिक्स में व्हॉट्सऐप पर उनके गांव के चाचा न फॉरवर्ड न करे कि पिछले 70 साल में हमने कुछ नहीं किया और अब देखो, भारतीय प्लेट यूक्रेन को रूस की तरफ धकेल रही हैं. ऐसा मेसेज आएगा, लोग तभी मानेंगे. जा रे जमाना. <br /><br />लेकिन, मजाक परे. इस सिद्धांत में कुछ अपवाद भी हैं. हमारे गुरुजी पटना वाले आरबी सिंह ने अपनी चवन्नी मुस्कान के साथ कहा थाः “अगर यह सिद्धांत एकदम खरंटन (सौ टका टंच) है तो गुजरात के कॉम्बे शेल में सूरत से 30 किमी उत्तर वास्तान में बड़ी संख्या में कीटों के जीवाश्म कैसे मिले हैं.” <br /><br />बात सच है, क्योंकि एकाध नहीं हैं ये. 55 कीट फैमिली के 700 स्पीशीज के कीट हैं. अब इन कीटों की समानता एकदम दूरदराज के इलाके स्पेन में पाए जाने वाले कीटों से है. अब अगर उत्तर की तरफ महाद्वीप के खिसकने के सिद्धांत को माने तो इसका एक मतलब यह हुआ कि अपना इंडिया, करोड़ों साल से इस प्लेट से अलग रहा होगा और मेडागास्कर से भी अलग होने के बाद तैरकर यूरेशिया से सटने में इसको काफी वक्त लगा होगा. और खासकर उस वक्त तो भारतीय भूखंड एकदम अलग-थलग रहा होगा जब कीटों की विकास हो रहा था. <br /><br /><br /> </div><table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhW1n1NFMR9jYdXxZNn_bYxVf4pz58iWgxmSS9pjJtS1duwO1MY5MMga88bqX1bhIQADRGt-_yh3-Yz6Ot6-8VXzpO3Zwqo_Xy7a7Np7td7TiBLyFFZ2DPorayms8C9l7Du_qyvT_RiNAeo4s4U86nJWXszM6Fxk2aE4dQ4uPVC6qxGT6JmmiUD8A8u/s577/280585733_10159978680878007_4494129666227856790_n.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="408" data-original-width="577" height="375" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhW1n1NFMR9jYdXxZNn_bYxVf4pz58iWgxmSS9pjJtS1duwO1MY5MMga88bqX1bhIQADRGt-_yh3-Yz6Ot6-8VXzpO3Zwqo_Xy7a7Np7td7TiBLyFFZ2DPorayms8C9l7Du_qyvT_RiNAeo4s4U86nJWXszM6Fxk2aE4dQ4uPVC6qxGT6JmmiUD8A8u/w530-h375/280585733_10159978680878007_4494129666227856790_n.jpg" width="530" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">लद्दाख में पेगॉन्ग झील पर फोटो खिंचवाने की आड़ी मुद्रा</td></tr></tbody></table><div><br /></div><div><br /></div><div>छोड़िए, थोड़ी देर के लिए हम क्या यह मान सकते हैं कि भारत यूरेशिया से जिस समयावधि में टकराया, हम उसको कम आंक रहे हों. क्या पता!<br /><br />वैसे, प्लेटों के टकराव से इस इलाके में पहले से मौजूद नदियों के रास्ते बदले होंगे. मसलन, सिंधु नदी. सिंधु हिमालय से पहले की नदी है और इसलिए इसके रास्ते में क्या बदलाव आए होंगे इस पर हमको विचार करना चाहिए.<br /><br />लेकिन इसी दौरान भारत की सबसे नई भूवैज्ञानिक संरचना का विकास हो रहा था. और यह था गंगा का मैदान. हिमालय और विध्यांचल के बीच का टेथिस सागर मलबा भरते-भरते दलदली जमीन जैसा रह गया था. क्या पता दिनानुदिन बढ़ रही लवणता से इस टेथिस सागर में झाग अधिक होता हो और संभवतया इसी को हिंदू परंपरा में (कृपया माइथोलजी का इस्तेमाल न करें) क्षीर सागर कहा गया होगा.<br /><br />लेकिन, यह हिमालय के मलबे और गंगा के अपवाह तंत्र की विभिन्न नदियों ने मलबे से वैसे ही भर दिया जैसे वाम दलों के वोटबैंक को तृणमूल और भाजपा ने अपने वोटबैंक से भर दिया. धीरे-धीरे टेथिस सागर गायब हो गया और इसके निशान भी नहीं बचे.<br /><br />(निशान नहीं बचे, ऐसा मैं वामदलों के संबंध में नहीं कह सकता. वह एक राज्य और कुछ छात्रसंघों में अभी भी अस्तित्व में है)<br /><br /></div>वैसे, गंगा एकमात्र जगह विंध्याचल से मिलती है. यानी विंध्याचल ही गंगा को दक्षिण की तरफ बढ़ने से रोकता है. और यह जगह है चुनार.<br /><br />अरे वही चुनार, जिसका जिक्र चंद्रकांता संतति में है. और जिस सीरियल में क्रूर सिंह बने थे अपने अखिलेंद्र मिश्रा. यक्कू.<br /><br />खैर, यह जानना दिलचस्प होगा कि भारतवर्ष, भले ही तब आधुनिक राष्ट्र न रहा हो, पर यहां इंसान आकर कैसे बसे? क्या हम मनु और शतरूपा, आदम और हव्वा, एडम और ईव... पिलचू हड़ाम और पिलचू बूढ़ी की सीधी संतानें हैं और यहीं पैदा हुए? या अपन कहीं और से आए? हम आए तो कैसे-कैसे आए? और आर्य कौन हैं और कब आए. लिखेंगे फिर कभी.<br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><br />Manjit Thakurhttp://www.blogger.com/profile/09765421125256479319noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7338682564613289699.post-71594843666261999012022-08-22T23:50:00.000+05:302022-08-22T23:50:05.025+05:30राष्ट्र की निरंतरता? चलिए, भूगोल के इतिहास की बात करते हैं<b>मंजीत ठाकुर </b><br /><br />राष्ट्र की निरंतरता वाली पोस्ट ने और उस पर आ रही टिप्पणियों ने मुझे इस संदर्भ में और अधिक पढ़ने के लिए प्रेरित किया. तो मैंने सोचा क्यों न 'शुरू से शुरू किया जाए?' <br /><br />तो जो मैं लिख रहा हूं, यह तकरीबन 'भूगोल का इतिहास' है. आप को इससे अधिक जानकारी है तो बेशक कमेंट में साझा करें. कमेंट बॉक्स में अतिरिक्त ज्ञान सिर्फ 'हिंदी' में स्वीकार किए जाएंगे. <br /><br />बहरहाल, बात तब की है, जब धरती का सारा भूखंड (लैंड मास) एक साथ था. इस एकीकृत भूखंड का नाम रखा गया 'रोडिनिया'. महान भूगोलज्ञ अल्फ्रेड वैगनर के 'महाद्वीपीय विस्थापन के सिद्धांत' के मुताबिक—जो उन्होंने 1915 में प्रकाशित अपनी किताब द ओरिजिन ऑफ कॉन्टिनेंट्स ऐंड ओशन में दिया था—यह विचार दिया गया है कि यह रोडिनिया विषुवत रेखा के दक्षिण में था. <br /><br />आज से कोई 75 करोड़ साल पहले यह महाद्वीपीय भूखंड टूट गया और उस समय इसका क्या आकार और आकृति रही थी इस बारे में भूगोलज्ञ एकमत नहीं हैं. इसलिए हम यह भी नहीं जानते कि अपना 'भारतवर्ष' इसमें कहां फिट बैठता था. <br /><br />और उस वक्त धरती पर जीवन भी एककोशीय जीवों से अधिक का नहीं था. इसलिए ‘राष्ट्र’ की परिभाषा क्या होगी यह भी यूरोपीय विद्वानों ने तय नहीं किया था. मोटे तौर पर इस युग को आप 'प्री-कैम्ब्रियन' मान सकते हैं. बहरहाल, अपने 'इंडिया, दैट इज भारत' में आज भी उस युग की निशानी मौजूद है. अरे, वही अपनी अरावली श्रेणी. (हालांकि हाल में झारखंड में भी दुनिया की सबसे पुरानी चट्टान होने की खबर आई थी, पर जो भी हो.) <br /><br />भूगोलज्ञ कहते हैं, यह अरावली अपने जमाने के कांग्रेस पार्टी जैसा मामला था. हिमालय से भी ऊंची थी यह श्रेणी. लगता था कि कभी घिसेगी ही नहीं. लेकिन वक्त की मार से अरावली घिस कर अपशिष्ट पर्वत बन गया है और कांग्रेस की ही तरह अपने महान अतीत की छाया मात्र रह गया है. इन दिनों कटवारिया सराय में गुटखा खाकर थूकते आइआइएमसी के बच्चे यह नहीं जानते कि वह दुनिया की सबसे पुरानी भूवैज्ञानिक संरचना पर थूक रहे हैं. <br /><br />अस्तु. <br /><br />जीवाश्मों से मिले संकेतों ने यह बताया है कि आज से कोई 53 करोड़ साल पहले दुनिया में जटिल जीवों का 'अचानक' (अचानक को लिटरल मीनिंग में मत समझिएगा. भूवैज्ञानिक घड़ी में अचानक कोई, ‘फटाकदेनी’ से होने वाली घटना नहीं होती) विकास होने लगा . यहां इस ‘अचानक’ का मतलब है कई करोड़ साल, जिसको हम 'कैंब्रियन विस्फोट' कहते हैं. <br /><br />अगले 7-8 करोड़ साल में उस समय के विश्व में विभिन्न किस्म के जीवों का विकास हुआ. <br /><br />लेकिन माराज, अजूबा जे भवा, कि सुपरकॉन्टिनेंट रोडिनिया (इसको टीवी न्यूज वाले पटकथा लेखक पत्रकार क्या लिखेंगे, महा-महाद्वीप!) के जो टुकड़े हुए थे सो महागठबंधन की छतरी तले आ गए. और आज से कोई 27 करोड़ साल उन छोटी क्षेत्रीय पार्टियों जैसे भूखंडों का विलय हो गया और एक बार फिर एकमात्र सुपर महाद्वीप तैयार हो गया. इसका नाम पड़ा, पेंजिया. <br /><br />इसके चारों तरफ पानी ही पानी था. एकदम बड़का महासागर. अनंत. उसका नाम रखा गया है 'पेंथालसा'. <br /><br />पेंजिया का जो नक्शा भूगोल विज्ञानियों ने तैयार किया है उसमें अपना इंडिया, जो कि तब ‘राष्ट्र’ नहीं था, वह अफ्रीका, मेडागास्कर, अंटार्कटिका और ऑस्ट्रेलिया के बीच वैसे ही फंसा हुआ था, जैसे मुकेश सहनी बिहार की सियासत में फंस गए हैं. <br /><br />तो इसी पेंजिया पर, आज से कोई 23 करोड़ साल पहले डायनोसोरस का अस्तित्व सामने आया था. <br /><br />लेकिन धरती सियासत की तरह बेचैन बनी रही. प्लेटों में संयुक्त परिवार से छिटकते बच्चों की तरह गतिविधियां जारी रहीं. कोई 17.5 करोड़ साल पहले जुरासिक युग (इसको सतयुग, त्रेतायुग की तरह का युग समझ कर व्याकुल नहीं होना है, ‘एरा’ को मैंने ‘युग’ लिख दिया है) में धरती फिर सन सतहत्तर वाली जनता पार्टी की तरह बिखरने लगी. <br /><br />पहले तो इंदिरा काल के कांग्रेस की तरह पेंजिया भी दो-फाड़ हो गया. उत्तर वाला हिस्सा 'लॉरेशिया' कहा गया. इसमें उत्तरी अमेरिका, यूरोप और एशिया (अपना इंडिया उस वक्त एशिया में नहीं था) का हिस्सा शामिल था. दक्षिण वाले महाद्वीपीय टुकड़े को 'गोंडवानालैंड' कहा गया. इस हिस्से में थे अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका, अंटार्कटिका, ऑस्ट्रेलिया और हां, इसी में था इंडिया दैट इज भारत, जो तब वेस्टफेलिया की संधि से निकली परिभाषा के मुताबिक ‘राष्ट्र’ नहीं था. <br /><br />लेकिन गोंडवाना से आपको कुछ याद नहीं आ रहा? यह शब्द मध्य भारत की एक जनजाति गोंड के नाम पर रखा गया है. <br /><br />लेकिन तब इस दोनों बड़े दलों में भी जनता पार्टी सरीखा बिखराव चलता रहा. आज से कोई 15.8 करोड़ साल पहले भारत और मेडागास्कर अफ्रीका से वैसे ही अलग हो गए जैसे जनता नामधारी दल से समता पार्टी हुई थी. और फिर 13 करोड़ साल पहले ये दोनों अंटार्कटिका से अलग हो गए. <br /><br />लेकिन भारत के मन में कुछ और था. वह उस वक्त भी भारत नेहरू के गुटनिरपेक्ष आंदोलन का पालन कर रहा था और कोई 9 करोड़ साल पहले भारत ने मेडागास्कर से भी राह जुदा कर ली और धीरे-धीरे रूस की तरफ (मने उत्तर की तरफ) कदम बढ़ाने शुरू कर दिए. 9 करोड़ साल पहले भारत की विदेश नीति नेहरू की नीति का पालन कर रही थी. इसको कहते हैं महानता. बूझे? <br /><br />वली मोहम्मद वली ने लिखा है न, <br /><br /><b>किया मुझ इश्क़ ने ज़ालिम कूँ आब आहिस्ता आहिस्ता <br />कि आतिश गुल कूँ करती है गुलाब आहिस्ता आहिस्ता <br /></b><br />खैर, भारतीय भूखंड उत्तर की तरफ सरकता रहा. उत्तर से उसकी नजदीकी वैसे ही बनी रही जैसे यूक्रेन संकट के बावजूद भारत अप्रत्यक्ष रूप से रूस के साथ बना रहा. वैसे ही, जैसे अदीब सहारनपुरी ने लिखा है. <br /><br /><b>मंज़िलें न भूलेंगे राह-रौ भटकने से <br />शौक़ को तअल्लुक़ ही कब है पाँव थकने से <br /></b><br />लेकिन जब मिलन होता है तो विस्फोट भी होता है (यार, मुझे यहां विस्फोट की जगह कुछ और लिखना था) तो 'री-यूनियन हॉटस्पॉट' पर जैसे ही अपना वाला टुकड़ा गुजरा, ज्वालामुखीय गतिविधियां शुरू हो गईं. इलाका वही मुंबई के आसपास का पश्चिमी घाट वाला है. आप कभी माथेरान जाएं तो पच्छिम की तरफ मुंह करके खड़े होंगे, तो आपको इस भूवैज्ञानिक घटना के सुबूतों के दीदार भी होंगे. <br /><br />लेकिन यह ज्वालामुखीय क्रिया वैसी नहीं थी जैसी जूपिटर पर तब फूटती है जब धरती पर साबू को गुस्सा आता है. ज्वालामुखीय विस्फोट से अपन आम तौर पर यही मानते हैं कि टीप जैसा तिकोना पहाड़ होगा और उसकी चोटी से जोरदार बम जैसा धमाका होगा. आग की लपटें निकलेंगी और धुआं निकलेगा. पर यहां ज्वालामुखीय गतिविधियां वैसी नहीं थीं. <br /><br />यहां की घटना तो वैसी थी कि जैसे बड़े फोड़े पर सुंदर नर्स ने हौले से चीरा लगा दिया हो, आप नर्स की लिपस्टिक का शेड समझने की कोशिश में मीठे दर्द को भूल जाएं और मबाद आराम से, रिस-रिसकर मुहब्बत की तरह फैल रहा हो, फैलता ही जा रहा हो और इतना फैला हो कि पूरा दक्कन ट्रैप बन जाए. मने मुंबई से लेकर मधुपुर तक और हरिलाटांड़ से लेकर हैदराबाद तक, पूरा लावा फैल गया. एक दम पतला लावा, जैसे पतला दही चूड़े पर फैल जाता है. <br /><br />जारीManjit Thakurhttp://www.blogger.com/profile/09765421125256479319noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-7338682564613289699.post-29158632270119911722022-08-18T15:59:00.004+05:302022-08-18T15:59:32.150+05:30भारत की राष्ट्रीयता 'धर्म' और 'भाषा' से कहीं अधिक व्यापक है<div>मंजीत ठाकुर</div><br />मेरे एक अनन्य मित्र हैं विश्वदीपक. वह प्रखर पत्रकार हैं और राष्ट्र की अवधारणा पर उनकी अलग राय है. <br /><br />विश्वदीपक ने सोशल मीडिया पर मेरे एक आलेख के जवाब में लिखा लिखा, “राष्ट्र की अवधारणा ही 19वीं-20वीं शताब्दी की है. इस पर नहीं जाऊंगा कि गायत्री मंत्र किसने रचा पर वैदिक काल को स्थापित हिंदू धर्म के खांचे में समेट लेना ठीक नहीं. इसका कोई आधार भी नहीं.” <br /><br />वह बेहद पढ़े-लिखे पत्रकार हैं और ट्रोल्स और घुड़कीबाजी के दौर में वह तर्कों के साथ प्रस्तुत होते हैं. <br /><br />विश्वदीपक समेत और बुद्धिजीवी मित्र वैदिक काल को स्थापित हिंदू धर्म के खांचे में समेट लेने से नाराज हैं. फिर भी, हिंदूपन को लेकर विश्वदीपक की अलग राय हो सकती है, रंगनाथ सिंह की अलग, सुशांत झा की अलग और मंजीत ठाकुर की एकदम अलहदा. वैसे ही, जैसे हिंदू धर्म को लेकर संघ, कांग्रेस, भाजपा, शिवसेना और बजरंग दल की अलग व्य़ाख्याएं रही हैं. <br /><br />हिंदू धर्म की सबने अलग व्याख्याएं की हैं. मिथिला के हिंदू धर्म की परंपराएं, तमिलनाडु के हिंदू धर्म से और तमिल हिंदू परंपराएं राजस्थानी हिंदू परंपराओं से अलग हैं. इन समाजों की स्थापित मान्यताएं और परंपराएं अलग हैं, फिर भी उनमें के प्रवाहित धारा एक है. और इसी वजह से तमिल, कन्नड़, मलयाली समाजों को अलग राष्ट्र नहीं कहा जा सकता. यह सारे समाज एक साझा प्रवाह के अंग हैं. यही प्रवाह वैदिक काल से लेकर आज के हिंदू धर्म में हैं. (कृपया कुरीतियों को इसमें न समेटें, सभी धर्मों में अपने हिसाब के कुरीतियां हैं और पर्याप्त हैं, वह मानव स्वभाव है) <br /><br />बहरहाल, हिंदू धर्म की खासियत ही यही है कि यह सुप्रीम कोर्ट की निगाह में 'जीवन शैली' है और इसकी व्याख्या में आप हर तरह की छूट ले सकते हैं. हिंदू होते हुए आप नास्तिक, आस्तिक, शैव, शाक्त, वैष्णव 'कुछ भी' या 'कुछ भी नहीं' हो सकते हैं. आप मांस खा सकते हैं, मछली खा सकते हैं, देवी के सामने बलि प्रदान कर सकते हैं और शाकाहारी भी हो सकते हैं. यहां तक कि एक ही परिवार में एक व्यक्ति शाकाहारी और दूसरा मांसाहारी हो सकता है. बच्चे के ननिहाल में देवी के सामने बलि प्रदान हो सकता है और अपने घर में कुलदेवी को बलि की मनाही हो सकती है. <br /><br />आपको मिली यही छूट हिंदू धर्म को एक साथ बेहद मजबूत, सहिष्णु और साथ ही सबसे अधिक कमजोर (आप ‘वलनरेबल’ पढ़ें) भी बनाता है. <br /><br />कम ज्ञानी लोग कहते हैं (और ऐसा सभी धर्मों के उग्र लोग कहते हैं) कि उनका धर्म खतरे में है. धर्म कभी खतरे में नहीं हो सकता क्योंकि धर्म तो शाश्वत है (अपनी-अपनी पवित्र किताबों में आप इसके संदर्भ को देख सकते हैं). आप को एक साथ गर्व है कि हिंदू धर्म तो भैय्या, बहुत सहिष्णु है, यह वसुधैव कुटुंबकम का संदेश देता है. दूसरी तरफ, इसी धर्म के कुछ लोग उग्रता और कट्टरता के उन्माद में दूसरे धर्मों के लोगों को निशाना बनाते हैं. (कृपया यहां तुलना न लाएं, विवेचना सिर्फ हिंदू धर्म की कर रहा हूं. अन्य धर्मों की कट्टरता और उग्रता के स्वादानुसार इसी व्याख्या में चिपका लें.) <br /><br />लेकिन, राष्ट्र के संदर्भ में एक दफा फिर से हमें याद रखना चाहिए कि अगर विद्वान साथी यह कह रहे हैं कि ‘राष्ट्र की अवधारणा ही 19वीं-20 शताब्दी की है’ तो हमें राष्ट्र को संकीर्ण परिभाषाओं की बजाए, उसके सांस्कृतिक संदर्भों में समझना चाहिए. <br /><br />यह राष्ट्र, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता के उस विचार जैसा नहीं है जो 1648 में जर्मनी के वेस्टफेलिया में 100 से अधिक यूरोपीय ताकतों के बीच हुए शांति समझौते से उपजा था. जिन दिनों हम गणितीय सूत्रों को सुलझाने में अनुपात के मुताबिक शहरों के नियोजन में व्यस्त थे यूरोपीय लोग तकरीबन बर्बर थे. मेरे एक मित्र सलीम सरमद ने उसका जवाब दिया कि ‘आप तुकाराम, कबीर को भूल गए.’ <br /><br />बेशक हिंदुस्तान के निर्माण में तुकाराम, कबीर, रसखान का योगदान अतुल्य है, पर वह तो बहुत बाद का मामला है. उस पर भी सही वक्त में आएंगे. <br /><br />बहरहाल, यूरोप का इतिहास और उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि भारतीय पृष्ठभूमि से अलहदा है. व्यक्तिवाद पर यूरोप के विचार भारतीय विचारों से अलग हैं. गुलाम मानसिकता के औपनिवेशिक किस्म के लोग हर भारतीय विचार और सिद्धांत, खोज और आविष्कार, परंपरा और आस्था को अविश्वास से देखते हैं और एक हद तक मखौल उड़ाते हैं. <br /><br />यूरोपीय राष्ट्र की परिभाषाओं की बैक स्टोरी अलग है, भारत की अलग. वहां के इतिहास में अलग-अलग समयावधि में जो कुछ घटा, उसी का नतीजा है कि उनके लिहाज का ‘राष्ट्र-राज्य’ (नेशन स्टेट) और लोकतंत्र का उनका अपना संस्करण निकला, जिस पर भारतीय बौद्धिक लहालोट होते हैं. <br /><br />भारत के इतिहास में यह तरीका नहीं रहा. यहां समाज, व्यक्ति या राज्य से अधिक शक्तिशाली इकाई रहा है. भारतीय समाज में हमेशा धर्मदंड राजदंड से अधिक शक्तिशाली रहा है. वरना, क्या वजह थी कि एक ऋषि किसी राजा से उसके दो बेटे मांगने आ जाता है और राजा भयभीत होकर, अपने दोनों बेटे ऋषि के साथ यज्ञों की सुरक्षा के लिए भेज देता है. <br /><br />फिलहाल, कई जगहों से पढ़ने और सुनने के बाद हमारे वाले ‘राष्ट्र’ को ‘नेशन’ का पर्यायवाची मानना उचित नहीं जान पड़ता. दोनों शब्दों का इस्तेमाल एक ही मतलब में करना, दोनों के प्रति अन्याय होगा. <br /><br />हमारा राष्ट्र ‘नेशन-स्टेट’ नहीं है बल्कि यह हमारी परंपराओं और विश्वासों की निरंतरता है. जो भी कुछ पढ़ा है उसमें मैं भी आर्यों के भारत आगमन के सिद्धांत को मानता रहा था, पर मोटे तौर पर मुझे इस पर शक होने लगा है. इस पर थोड़ा और गहरा अध्ययन करने के बाद ही मैं कुछ लिखूंगा. लेकिन मुझे लगता है कि हड़प्पा सभ्यता की जिस एक मिसाल से मैंने सांस्कृतिक और सभ्यतामूलक निरंतरता की बात की थी, उसको विस्तार देने की जरूरत है. <br /><br />विचारक किस्म के लोगों से मेरा अनुरोध यही है कि जब हमारी लोक विरासत ईसा से भी कई हजार साल (ईसा से कम से कम आठ हजार साल) पुरानी है तो हम अपनी विरासत को संकुचित करके क्यों देख रहे हैं? हमारी परिभाषाएं वेस्टफेलिया संधि से क्यों उधार लिए हुए हैं? हमारी अपनी समस्याओं के समाधान का तरीका भी हमारा अपना होना चाहिए. <br /><br />बाकी, जहां तक वामपंथ के विचारकों की बात है गोविंदाचार्य ने एक बार इंडिया टुडे के साथ साक्षात्कार में कहा था कि "आजादी के समय कम्युनिस्ट पार्टी आजादी के समय भारत में 17 अलग-अलग राष्ट्रीयता के अस्तित्व की बात करती थी. क्या आपको वाकई लगता है कि ऐसा ही था? कुछ लोग सन सैंतालीस के बाद के भारत को ही भारत मानते हैं और इसे एक राष्ट्र की निरंतरता की बजाए नवगठित देश मानते हैं." <br /><br />पर उनकी इस परिभाषाओं में बहुत झोल हैं. कि अगर भारत था ही नहीं, तो भारत को भारत नाम मिला कैसे? क्या भारत नाम आनंद भवन में गढ़ा गया था? इसलिए मुझे लगता है कि भारत राष्ट्र विभिन्न संस्कृतियों का एक मिश्रण है और ऐसा राष्ट्र कभी यूरोपीय लोगों ने देखा नहीं था इसलिए उनकी परिभाषा के विचार बिंदु में भी नहीं आया होगा. मिसाल के तौर पर मेरे मित्र विश्वदीपक ने कभी 'डोंका' का मांस नहीं खाया होगा. विश्वदीपक का पहला प्रश्न मुझसे मिलते ही यही होगा कि आखिर ‘डोंका’ होता क्या है. इसलिए जो डोंका को जानता ही नहीं हो, उसका जायका कैसे जानेगा? <br /><br />आपकी सूचना के लिए बता दूं कि मिथिला इलाके में धान के खेतों में सुनहरे रंग का घोंघा पाया जाता है, जिसका मांस काफी जायकेदार होता है. <br /><br />अधिकतर विचारक अनजाने में या जानबूझकर स्मृतिलोप का शिकार होते हैं. उनकी शह का परिणाम है कि बामियान में बुद्ध की मूर्ति का विध्वंस करने वाले ध्वंस के बाद भी इन्हीं कथित उदारवादियों की तरफ से मासूमों की तरह पेश किए जाते हैं हैं. <br /><br />भारत की निरंतरता बतौर राष्ट्र इसी में है कि इसने अपने मूल गुणसूत्रों को कमोबेश बनाए रखा है.Manjit Thakurhttp://www.blogger.com/profile/09765421125256479319noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7338682564613289699.post-22723334576259744782022-08-17T11:38:00.000+05:302022-08-17T11:38:17.918+05:30भारत@75 - आओ कि कोई ख्वाब बुनें कल के वास्तेआजादी के 75 साल पूरे हो रहे हैं और इस मौके पर कुछ लोग देशभक्ति प्रदर्शित कर रहे हैं, और कुछ लोग हैं जो कहते हैं कि देशभक्ति का भाव प्रदर्शित करने की चीज नहीं है. बेशक, ऐसे ही लोग होंगे जो आजादी की लड़ाई के वक्त भी सड़क पर उतरने की बजाए यह तर्क देते होंगे कि अंग्रेजों के खिलाफ मन ही मन लड़ रहे हैं. <div><br />पर, अब 75 साल के बाद हमें क्या नया संकल्प नहीं लेना चाहिए? क्या जज्बाती, कम जज्बाती, गैर-जज्बाती लोग या सेलेक्टिवली जज्बाती लोग अब यहां से एक नई राह की तरफ नहीं बढ़ना चाहेंगे?<br /><br /></div><div>जब देश आजाद हुआ था तब साक्षरता करीबन 12 फीसद थी और लोगों की प्रजनन क्षमता असाधारण रूप से ऊंची थी. उस वक्त देश में प्रतिव्यक्ति आमदनी 150 डॉलर से भी कम थी और देश का नेतृत्व अमूमन राजनैतिक रूप से रूसी साम्यवाद से चमत्कृत था. लिहाजा, कृषि और औद्योगीकरण में तथा शासन पर राज्य के नियंत्रण के मामले में राज्य की व्यवस्था ने रूसी मॉडल का ही अनुकरण किया. बेशक, अतीत के उस हिस्से में हमारे सभी पुरखे कमोबेश एक साझा झुकाव के सहभागी थे. <br /><br /></div><div>यह झुकाव इतना अधिक था कि हमने अपने संविधान की प्रस्तावना तक में संशोधन कर दिया और उसमें 'समाजवादी' शब्द जोड़ दिया, साथ ही 'धर्मनिरपेक्ष' (या पंथनिरपेक्ष, जो भी आपको भाए) शब्द जोड़ा ताकि हम इन दो शब्दों की पश्चिमी परिभाषा के खांचे में फिट बैठ जाएं. <br /><br /></div><div>उस वक्त दुनियाभर में गरीबी के मामले में हम आठवें सबसे गरीब देश थे. हालांकि, 1950 में हम दुनिया के दूसरे सबसे अधिक गरीब देश थे. यानी तीस साल में हमने कुछ तो सुधार किया था. उन दिनों हमारी आर्थिक वृद्धि दर 3.5 फीसद सालाना थी और अर्थशास्त्री मजाकिया लहजे में इसको 'हिंदू वृद्धि दर' कहते थे.<br /><br /></div><div>अभी कुछ दिन पहले हमलोगों ने एक लेख प्रतियोगिता का आयोजन किया था, जिसका विषय थाः हिंदुस्तान की वो खास बात, जिस पर है आपको नाज.<br /><br /></div><div>अधिकतर लोगों ने भारत की 'समेकित संस्कृति' के बारे में लेख लिखे. <br /><br /></div><div>पर भारत की समीक्षा लोकतंत्र और राष्ट्रीयता के संदर्भों में करने पर यह सवाल बेहद अहम हो जाता है कि हमें कौन-सी चीज एकसाथ जोड़ती है? यह सवाल बहुत मुश्किल है. एक और प्रश्न है—हमने वृद्धि हासिल करने और गरीबी उन्मूलन के दोहरे लक्ष्य को हासिल करने में कितनी कामयाबी पाई है? और इससे जुड़ा अनिवार्य प्रश्न चीन की कामयाबी के मॉडल के साथ हमारी तुलना का है.<br /><br /></div><div>अधिकतर (भले ही सभी न हो) समाजों का लक्ष्य एक समतामूलक होने की राह में प्रावधान जुटाने का है. अधिकतर लोग सहमत होंगे कि समतामूलक समाज के लिए लोकतंत्र अपरिहार्य है.<br /><br /></div><div>पिछले साढ़े सात दशक मे भी भारत और भारतीयों के पास गर्व करने लायक बहुत कुछ है. लेकिन सबसे बड़ी चुनौती एकता और विविधता दोनों को बनाए रखने की है.<br /><br /></div><div>भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और अमेरिका सबसे पुराना. इससे पहले कि हम दोनों की तुलना करे, भारत के सामने एक सवाल है—भारत ने एक लोकतंत्र के तौर पर कैसा प्रदर्शन किया है. लेकिन सच कहा जाए तो भारतीय लोकतंत्र ज्यादा कामयाब इसलिए है क्योंकि यहां एक मजबूत मध्य वर्ग उपस्थित है. पर एक समीकरण और है.<br /><br /></div><div>बैरिंगटन मूर ने 'सोशल ऑरिजिंस ऑफ डेमोक्रेसी एंड डिक्टेटरशिप, 1964' में लिखा है कि यह जादुई समीकरण 'नो बुर्जुआ, नो डेमोक्रेसी' है. अर्थशास्त्री सुरजीत एस.भल्ला के मुताबिक, “1947 में अधिकतर परिभाषाओं के मुताबिक भी, कोई मध्य वर्ग मौजूद नहीं था. इसलिए 1947 में भारत द्वारा लोकतंत्र अपनाया जाना एक पहेली और अजूबा ही है.”<br /><br /></div><div>भारत द्वारा लोकतंत्र अपनाने को लेकर कई अलग तरह की व्याख्याएं हैं और यह भी यह लोकतांत्रिक क्यों और कैसे बना रहा? भारत ने एक लोकतंत्रात्मक शासन इसलिए अपनाया क्योंकि लोकतंत्र उसकी विरासत रही है. इस विरासत के दो पहलू हैः भारत एक ब्रिटिश उपनिवेश तो था ही, यह नस्लीय और सांस्कृतिक रूप से वैविध्य भरा भी था. एक अन्य कारक विकल्पहीनता भी है.<br /><br /></div><div>लोकतंत्र शासन का एकमात्र तरीका है, जो विभिन्न नस्लीय और सांस्कृतिक समूहों की अहम भूमिका की गारंटी दे सकता है. यही वह विविधता है जो पारस्परिक हितों को जोड़कर रखती है. अपने पड़ोसियों, पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार और श्रीलंका को देखिए. उनमें काफी समांगता (होमोजेनिसिटी) है, बहुत कम विविधता है लेकिन वहां लोकतंत्र पर लगातार खतरा बना रहता है.<br /><br /></div><div>स्वतंत्रता के समय दक्षिण एशिया में लोकतंत्र के प्रति प्रबल रुझान था. चार प्रमुख दक्षिण एशियाई अर्थव्यवस्थाओं, भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका, सभी ने अपने शासन के पहले रूप के रूप में लोकतंत्र को अपनाया. हालांकि, वे उस पर टिके नहीं रह सके, खासकर पाकिस्तान में. पाकिस्तान को तो फौजी शासन और उसके बूट कुछ ज्यादा ही भाते हैं.<br /><br /></div><div>ऐसे में, भारत में लोकतंत्र को बनाए रखने में अन्य कारक महत्वपूर्ण हो सकते हैं. ऐसा ही एक कारक भारतीय राजनीति में विविधता की चरम प्रकृति की मौजूदगी हो सकती है. शोध में आंकड़े एक बात की ओर इशारा करते हैं कि ब्रिटिश उपनिवेशों में एक महत्वपूर्ण रुझान लोकतांत्रिक शासन पद्धति को अपनाने की ओर रहा है.<br /><br /></div><div>संभवतया, यह कोई संयोग नहीं है कि दुनिया का सबसे समृद्ध लोकतंत्र और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र, दोनों पर ही ब्रिटिश शासन रहा था. इसके उलट, बेहद कम फ्रांसीसी या जर्मन, या पुर्तगाली या स्पेनी उपनिवेशों ने लोकतंत्र के मोर्चे पर कोई अच्छा प्रदर्शन किया है. लेकिन, नस्लीय विविधता भी महत्वपूर्ण है, संभवतया यही वह गोंद है जो विभिन्न किस्म के लोगों को जोड़कर रखती है. नस्लीय विविधता जितनी अधिक होगी, लोकतंत्र को अपनाने की संभाव्यता भी उतनी अधिक होगी.<br /><br /></div><div>वास्तव में, भारत में लोकतंत्र इसलिए भी कामयाब रहा क्योंकि यह एकमात्र राजनैतिक व्यवस्था थी जो इसकी जातीय, नस्लीय, धार्मिक, भाषायी रूप से खिचड़ी आबादी के लिए माकूल थी. लोकतांत्रिक व्यवस्था, कम से कम सैद्धांतिक रूप से ही, हरेक समूह और हरेक व्यक्ति को एक मौका देती है कि वह निर्णय प्रक्रिया में हिस्सा ले सके. बेशक इसे एक छोटा मौका कहा जा सकता है लेकिन अगर व्यवस्था अलोकतांत्रिक हो, चाहे राजतंत्र हो या कम्युनिस्ट तानाशाही, तो इस छोटे मौके की बात के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता. <br /><br /></div><div>ऐसे में, पचहत्तर के लोकतंत्र में हमें पीछे पलट कर देखने को मात्र संदर्भ बिंदु की तरह लेना चाहिए. 15 अगस्त 2022 को प्रस्थान बिंदु बनाकर हम एक नई शुरुआत करें तो बेहतर होगा. जिसमें मजहब को कम और ‘हम भारत के लोग’ की भावना को अधिक मजबूत बनाया जाए. <br /><br /></div><div>नई शुरुआत हमेशा ताजादम करने वाली होती है.</div><div><br /></div>Manjit Thakurhttp://www.blogger.com/profile/09765421125256479319noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-7338682564613289699.post-65160480437445082632022-08-11T16:06:00.009+05:302022-08-11T16:06:54.062+05:30भारत से अधिक निरंतरता किस राष्ट्र में है भला!भारत के बारे में मेरे बहुत अधिक ‘उदार’ मित्र एक बात कहते रहे हैं कि भारत तो कभी एक ‘राष्ट्र’ था ही नहीं. और यह एक ‘राष्ट्र’ बना ही है 1947 के बाद. अभिनेता अतुल कुलकर्णी ने भी भारत को कई राष्ट्रों से बना एक देश कहकर ट्वीट भी किया था. रंगनाथ सिंह ने बाद में बताया कि उन्होंने यह ट्वीट 2018 में ही किया था. <br /><br />बहरहाल, ऐसे कई लोग जो राजनैतिक रूप से मध्यममार्गी (पढ़ें, कांग्रेस) हैं या वाम दलों के सदस्य हैं या सक्रिय या 'अक्रिय' रूप से इन पार्टियों से संबद्ध हैं. एक 'राष्ट्र' की 'परिभाषा' के रूप में इन बौद्धिकों को पश्चिम की अवधारणाएं ही समझ में आती हैं. पर, सहस्राब्दियों से देश के सभ्यतामूलक या संस्कृतिमूलक एकरूपता को यह लोग आसानी से नजरअंदाज कर देते हैं. हड़प्पा शहरों की खुदाई में निकली बैलगाड़ी क्या अब भी हाल तक भारत के देहातों में प्रचलित नहीं थी? मैंने खुद लकड़ी के पहियों वाली इन बैलगाड़ियों में यात्राएं की हैं. हां, यह बात और है कि अब उनके कटही (काठ की) पहियों की जगह रबर के टायरों ने ले ली है और मेरे गांव में अब उस गाड़ी को बैलगाड़ी की जगह ‘टैरगाड़ी’ कहा जाता है. <br /><br />'गायत्री मंत्र' और नहीं तो आज से कम से कम साढ़े चार हजार साल पहले रचा गया, लेकिन उत्तर हो या दक्कन करोड़ों सनातनी हिंदू घरों में इस पवित्र मंत्र का पाठ होता है. <br /><br />भारतीयता को लेकर और भारतीय इतिहास को लेकर एक ‘मिसकॉन्सेप्शन’ इन बुद्धिजीवियों ने यह फैलाया, और जानबूझकर फैलाया कि भारत के लोग खुद के एक 'राष्ट्र' नहीं मानते और हम भारतीयों ने कभी अपने इतिहास की परवाह नहीं की. <br /><br />इस विचार को पहले तो औपनिवेशिक काल के अधिकारियों ने फैलाया और उनके राजनैतिक हितों के बारे में अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है. इस बात को आजादी के बाद जिन बुद्धिजीवियों ने बनाए रखा, उनके भी निजी और राजनैतिक हितों के बारे में अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है. <br /><br />सर जॉन स्ट्रेची ने उन्नीसवीं सदी के अंत में लिखा था, ‘भारत के बारे में जानने लायक सबसे अहम बात यही है कि पहले कभी कोई भारत था ही नहीं.’ (याद करिए, पिछले एकाध बरस में ऐसा किस-किस व्यक्ति ने कहा था और उनके राजनैतिक रुझान क्या रहे हैं.) <br /><br />खैर, स्ट्रेची के इस बात कहने के आधी सदी के बाद विन्स्टन चर्चिल ने लगभग यही बात कही थी कि “भारत एक भौगोलिक टर्म है. यह उतना ही एकीकृत राष्ट्र है, जितना कि बिषुवत रेखा.” <br /><br />याद करिए कि आज के दौर के कौन से लोग हैं जो भारत के संदर्भ में 'चर्चिल' की तरह की बातें कर रहे हैं. मेरे एक और मित्र हैं और उनका वामपंथी रुझान (मैं रुझान शब्द का इस्तेमाल सोच-समझ कर कर रहा हूं) स्पष्ट है, उनने मुझसे कहा था कि 'आखिर भारत का योगदान क्या है दुनिया को!' <br /><br />मैं चकित रह गया. वह प्रखर पत्रकार हैं. खैर. <br /><br />भारत अपनी प्राचीन सभ्यता के उत्कर्ष की निरंतरता क्यों नहीं बनाए रख सका. इसके उत्तर को खोजना कोई कठिन काम नहीं है. कभी लंदन जाकर देखें, उनके आलीशान शहर की ईंट-ईंट की रकम हिंदुस्तान और हम जैसे अन्य उपनिवेशों के लूट-खसोट के माल पर टिकी है. जहां तक निरंतरता की बात है, आप एक अनुपात लें. 5:4. आठवीं में गणित की किताब में 'अनुपात' वाले अध्याय को कामचलाऊ ढंग से भी पढ़ा होगा तो आपको पता चल जाएगा कि इस अनुपात में लंबाई, चौड़ाई से 1.25 गुना अधिक है. <br /><br />हिंदी की पट्टी में इतनी ही मात्रा को ‘सवा’ कहते हैं. <br /><br />फिलहाल इतना जान लीजिए कि हड़प्पा के शहरों में शहर नियोजन में यह अनुपात काम में लाया गया था. और वह वक्त ईसा मसीह के जन्म से कोई तीन हजार साल पहले का था. तब, यूरोपीय देशों के लोग तकरीबन बर्बर थे और संभवतया शौच से निबटने के बाद हाथ भी नहीं धोते थे. बहरहाल, गुजरात के हड़प्पा शहर धौलावीरा का आकार 771 मीटर गुणा 617 मीटर का था. कैलकुलेटर तो होगा ही आपको मोबाइल में. <br /><br />इसके कोई एक हजार साल के बाद, 'शतपथ ब्राह्मण' और 'शुल्व सूत्र' में भी यज्ञ वेदी बनाने और वैदिक कर्मकांडों के लिए इसी अनुपात का पालन किया गया. <br /><br />इसके ठीक एक हजार साल बाद और, इसी अनुपात को 'वास्तु शास्त्र' से जुड़े पाठ्यों में बनाए रखा गया. चीनी फेंग शुई की तरह इस वास्तु शास्त्र का भी प्रयोग लोग अब करते हैं. छठी सदी में वराहमिहिर ने कहा कि राजमहलों का निर्माण इस तरह होना चाहिए कि महल की लंबाई, चौड़ाई से कोई एक चौथाई अधिक रहे. (सवा) कुतुब मीनार गए हों तो वहां के लौह स्तंभ के बारे में भी पढ़कर आइएगा. वहां भी यही सवा है. लंबाई 7.67 मीटर. चौड़ाई 6.12 मीटर. अनुपात 5:4. <br /><br />हिंदुस्तान, आर्यावर्त, भारतवर्ष, जंबूद्वीप... कुछ भी कहें. पर आप आंख मूंद लीजिए कि भारत एक राष्ट्र नहीं था, पर जितनी निरंतरता भारत में है. दुनिया में कहीं नहीं. <br /><br /> Manjit Thakurhttp://www.blogger.com/profile/09765421125256479319noreply@blogger.com0