आज हमने टीवी पर एक एंकर को देखा। टीवी दे्खे तो एंकर ही दिखती है। एकर पुलिंग भी हैं, और स्त्रीलिंग भी। लेकिन मज़ा सिर्फ स्त्रीलिंग को ही देखने में आता है। हमारे एक दोस्त हैं, बेसाख्ता उनके मुंह से कुछ असंसदीय निकल गया। स्त्री-पुरुष संबंधों पर उनके बेबाक बयानों और उन अंतरंग क्षणों का विवरण सुनकर कान मधुमय ोह जाते हैं. लब्बोलुआब ये कि हमारे जिगर पर छुरी चल गई।
लड़कों के पास एक अदद जिगर होता है। जो आम तौर पर छुरियों के नीचे पड़ा होता है। लड़की देखी नहीं कि जिगर पर छुरी चल जाती है। मेरे एक और दोस्त है। (मेरे दोस्तों की संख्या पर कृपया सवाल खड़े न करें, वे बहुत सारे और बहुत तरह के हैं।) तो हजरत, मेरे दोस्त लड़कियों को लेकर बहुत उत्साहित रहते हैं। कैंटीन ले जाकर उन लड़कियों को चाहे वे इंटर्न ही क्यों न हो चाय पिलाना उनका शगल है। ये बात दीगर है कि हमें ये हमारी तरह के लद्दू दूसरे लड़कों को उन्होंने पानी तक के लिए नहीं पूछा है। अस्तु, लड़की ने उन्हें देखा, लड़की ने जींस पहनी है, लड़की ने खांसा, लड़की के बाल लंबे हैं, लड़की के बाल छोटे हैं, लड़की सलवार सूट में है, लड़की छत पर आई, लड़की ने दुपट्टा पहना है, नहीं पहना है, लड़की ने उन्हें देख कर थूका नहीं, लड़की ने समय बताया, लड़की लड़की है. बस इतना ही काफी है। लड़की का लड़की होना ही काफी है, बाकी उद्दीपन वे खुद स्थापित कर लेते हैं।
लड़कियों को हम भी टापते रहे उम्र भर। लेकिन किसी ने घास नहीं डाली। उनमें क्या कला है, कि वे सीधे लड़कियों को लेकर अंसल प्लाजा का रुख कर लेते हैं। हम फ्रस्टिया रहे हैं। फ्रस्टियाए भी क्यों न... दरअसल, उम्र के एक खास मोड़ तक आदमी हीर-रांझा, लैला-मजनूं के उल्टे-सीधे किस्से पढ़कर इसी गफलत में रहता है कि प्यार किया नहीं जाता हो जाता है। लेकिन बाद में जब लड़कियां धड़ाधड़ दूसरे लोगों की बांहो इत्यादि में जाने लगती हैँ। तो उसे इस बात का , इस शाश्वत सत्य का भान होता है कि प्यार होता नहीं, वरन तिकड़म और जुगाड़ की हद तक जाकर किया जाता है। उसके लिए फील्डींग करवानी होती है। प्यार हो जाना एक बात है और उसे निभा पाना जिसे खराब भाषा में खींच पाना दूसरी बात है। क्यों कि इसमें पैसे लगते हैं।
महर्षि मार्क्स ने बहुत पहले कह दिया था कि लव इज़ मॉडिफाइड इकॉनमिक रिलेशन... यानी प्यार रूपांतरित आर्थिक संबंध हैं। आपका क्या विचार है?....
Bhai tum toh feature ke hi aadmi ho moolatah...aur tumne ye kamal apne ess aalekh mein bakhoobi dikhaya hai...kalam ki dhar aur pukhta huyi hai ..mere khayal mein purani vishayon per bhi tum accha likh sakte ho jise kayi 'Gurughantal'nayi idea ke chakkar mein andekhi kar rhe hai..
ReplyDeleteभाई हम बिहारी फ्रस्टिआने के लिए ही पैदा होते हैं। वो चाहे कैरियर को लेकर हो या फिर लड़की। 28-30 साल की उम्र में प्यार हो जाता है। उसी समय माँ-बाप बहू की खोज़ में लगे रहते हैं। आकांक्षाएं वहीं दम तोड़ देती हैं। ऐसे मैं तुम्हारे लेखनी की प्रशंसा नहीं करूंगा.... तुम पहले से ही इस्टेबलिस्ड लिक्खाड़ हो।
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