Saturday, January 19, 2008

पिछड़े मुसलमानों को आरक्षण मिलेगा?


संसद के शीतकालीन सत्र के आखरी दिनों में जस्टिस रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट संसद में पेश करने और उस पर जल्द ही कार्रवायी करने की मांग उठी। इस पर किसी भी दल के मुस्लिम सांसदों ने उन्हें समर्थन नहीं दिया। इस पूरी प्रक्रिया पर प्रतिक्रिया जताते हुए ज़ी न्यूज के वरिष्ठ रिपोर्टर युसुफ अंसारी ने भाई संदीप के ब्लाग पर एक आलेख लिखा है।

अंसारी ने मिश्र आयोग की सिफारिशों का पुरज़ोर समर्थन करते हुए लिखा है कि- अगर ये सिफारिश अमल में आती है तो मुसलमानों की एक बड़ी आबादी को इसका सीधा फायदा पहुंचेगा। मुसलमानों में जुलाहा ( अंसारी ) , धोबी , हलालखोर , कुम्हार , बंजारे , फकीर समेत करीब चालीस से पचास जातियों के लोग दलित आरक्षण के तहत मिलने वाली तमाम सुविधाओं के हक़दार हो जाएंगे। अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण लोकसभा और विधानसभा सीटों पर मुसलमानों के चुनाव लड़ने का रास्ता भी खुल जाएगा। इससे हर क्षेत्र में मुसलमानों के पिछड़ेपन की समस्या काफी हद तक हल हो जाएगी।

यहां पर मेरा सवाल है कि क्या राजनीतिक कद बढाने से पिछड़े मुसमानों को वाकई फायदा होगा और मुसलमानों में दलितों की स्थिति को दलित क्यों माना जाए, जबकि उनका धर्म ऐसे किसी भेदभाव से इनकार करता है। इस मज़हब की खासियत है कि यह बराबरी और भाईचारे पर टिका धर्म है। ऐसे में अगड़े और पिछड़े मुसलमानों का सवाल ही बेमानी हो जाता है।

भई... मुझे तो सख्त आपत्ति है। बाकी सुविधाओं के लिए शरीयत का हवाला देने वाले लोग आरक्षण के लिए अपनी जाति बताने पर क्यों उतर आए हैं? और इस बात की क्या गारंटी है कि आरक्षण मिलने के बाद इसका फायदा वंचितों के बदले फुरकान अंसारी जैसा मलाईदार तबका नहीं उठा लेगा? और सोचिए ज़रा कि आखिर अंसारी जैसे पिछड़े(?) मुसलमानों ने अपनी बिरादरी के हक़ में अब तक किया क्या है?

वहीं, एक सवाल और है कि आरक्षण का फायदा तो आप संविधान के तहत लेना चाहते हैं, लेकिन बाकी मसलों पर आपका धर्म आपको इस बात की इजाज़त नहीं देता। मसलन, एकसमान नागरिक संहिता आपको अपने अधिकारों का हनन लगता है, बहुविवाह आपको सांस्कृतिक परंपरा दिखती है, विवाह के पंजीकरण पर आपका रवैया ढुलमुल ही है। सिर्फ जाति आधारित आरक्षण के मामले में आप संविधान का हवाला क्यों देना चाहते हैं, यहां बराबरी की बात करने वाले धर्म को क्यों नज़रअंदाज करना चाहते हैं आप?

नहीं, पहले फैसला कीजिए कि आप मुसलमानों को मिलने वाली सुविधाओं का उपभोग करना चाहते हैं या पिछड़ों को मिलने वाली सुविधाओं का। दोनों हाथ में लड्डू नहीं चलेगा। वैसे आपकी मांग नाजायज़ भी नहीं मानी जा सकती, क्यों कि संसाधनों पर पहला हक़ तो बकौल प्रधानमंत्री, आपकी कौम का ही है। अपनी कौम और जाति के लिए आवाज उठाना बेहद ज़रूरी है युसुफ भाई लेकिन अपनी कमियों को दूर करना उससे भी ज़्यादा ज़रूरी।

मुस्लिम वोट बैंक लिए एक बेहतर कौम -जो कम से कम जाति के स्तर पर बराबरी की बात तो करता है- जातियों में बांटना एक बेहतर विकल्प नहीं ही है।

वे आगे कहते हैं, आबादी के हिसाब से महिलाओं को आरक्षण की पुरज़ोर वकालत करने वालों का ध्यान कभी इस तरफ नहीं गया है या फिर इतनी बड़ी आबादी को माकूल राजनीतिक प्रतिनिधित्व क्यों नहीं मिल रहा है। महोदय इसके जवाब तो आपको खुद पता होने चाहिएं। जब तक कोई बिरादरी चाहे हिंदुओं की हो या फिर मुसमानों की , औरतों को घर से बाह निकल कर खुद के विकास करने के लिए रास्ता साफ नहीं करेगी, तबतक आंकड़े आपके मनमाफिक नहीं हो पाएंगे।

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