Friday, February 29, 2008

झारखंड- गधों का पंजीरी खाना




भारत के प्रधानमंत्री साझा सरकार को लेकर अपनी पीडा़ पहले ही व्यक्त कर चुके हैं। साझा सरकार का गंभीर संकट उनकी बड़ी पीड़ा है। साझा सरकार की भूमिका, उनका काम, निर्दलीयों की निरंकुशता के अनुभव, झारखंड और उसके निवासियों से बेरतर किसे है? यह हालात जनता ही बदल सकती है। किसी दल को निर्णायक बहुमत देकर निरंकुशता पर अंकुश झारखंड की जनता का स्वर होना चाहिए।

जो झारखंड को बदलना चाहते हैं या जिन्होंने अलग झारखंड के लिए लंबा संघर्ष किया है, भोगा है। वे आज उदास और अलग-थलग हैं। वे देख रहे हैं कि गधे पंजीरी खा रहे हैं। वे बड़ा काम कर सकते हैं। ग्लोबलाईजेशन या तेज़ी से बदलती दुनिया को महज एक स्वर में नकारते रहने से हल नहीं निकलेगा। ऐसा करने वाले अप्रासंगिक हो जाएंगे।

आज ज़रूरत है मौजूदा माहौल के संदर्भ में एक सुस्पष्ट विचारधारा तय करना। इस विचारधारा के अनुकूल राजनीति गढ़ना। इस राजनीति या वैकल्पिक विचार के अनुसार इस कंज्यूमर ऑरिएंटेड पश्चिमी ग्रोथ मॉडल के विकल्प में स्वदेशी ग्रोथ मॉडल गढ़ना।
यह नहीं हुआ तो महज आलोचना, संघर्ष और नकारात्मक बातों से हम इस पश्चिमी ग्रोथ मॉडल, जीवन संस्कृति और मूल्यों को रोक नहीं सकते। दुनिया में यह टैक्नॉलजी लेड कंज्यूमर ग्रोथ मॉडल का दौर है। इस बाढ़ को रोकना कठिन है। दुनिया जिस तेज़ी से आज बदल रही है, पहले कभी नहीं बदली, यह तथ्य समझना ज़रूरी है।

झारखंड की खनिज संपदा का मामला लें। खनिज झारखंड की एकमात्र संपदा है। एक वर्ग मानता है कि इसका दोहन ही न हो। पर केंद्र और राज्य सरकार दोनों दोहन के लिए लाइसेंस बांट रही है। इन दोनों स्थितियों से अलग हर साल दो-ढाई हज़ार
करोड़ का कोयला कालाबाज़ार में जा रहा है। खुलेआम झारखंड से चीन को लौह अयस्क की तस्करी की जा रही है। यह सब सरकारा और शासन की देखरेक में हो रहा है।

खनिजों की कालाबाजारी से अरबों के वारे-न्यारे हो रहे हैं। झारखंड को कोई लाभ? क्यो नहीं कानून बनाकर झारखंड की संपदा का इस्तेमाल झारखंड की खातिर हो? यहां खनिज आधारित उद्योग लगें, रोज़गार सृजन हो। ताकि किसी मुंबईकर को बाहरी लोगों को भगाने की खातिर हिंसा का सहारा न लेना पड़े। लोग मुंबई जैसी जगह जाएं ही न।
बिना समझे विरोध करवने से कुछ नहीं होगा। जैसा अबरख के मामले में हुआ। भंडार खत्म हो गया. अबरख के कारोबारी और नेता अमीर हो गए। पर राज्य को क्या मिला? इसलिए एक प्रैक्टिकल खनन नीति और उद्योग नीति का बनना ज़रूरी है।

ऐसे अनेक प्रयास झारखंड में मौजूदा निराशा को तोड़ सकते हैं। निजी और सामाजिक स्तर पर छोटे प्रयास भी सकारात्मक पृष्ठभूमि बना सकते हैं।

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