आज के दिन कृपया प्रेम न करें। न देश से, न इंसान से, न जानवर से। करना तो दूर, उसकी बात तक न करें। किसी का फोन आए तो काट दें। कोई फूल दे, तो नज़रें फेर लें। संस्कृति के तथाकथित रखवाले ऐसा ही तो चाहते हैं। क्या त्रासदी है। लोगों को प्रेम से बचना होगा ताकि टीवी चैनलों और कल के अखबारों की सुर्खियों में कोई अप्रिय घटना का समाचार न देखना-सुनना-पढ़ना पड़े।
हमें याद रखना होगा कि हम एक ऐसे समाज में रहते हैं, जिसमें हिंसा जायज़ है, प्रेम नाजायज है, शादी सज़ा है। मंगलौर की घटना बता रही है कि प्रम करने पर प्रेमियों के साथ क्या होता है। लेकिन कई सवाल सामने हैं, क्या हम लकीर के फकीरों से डर जाएंगे? क्या दो-तिहाई युवा आबादी वाले मुल्क को चंद अतीतजीवी हांकेंगे? क्या एक फोबियाको कल्चर क ीहिफाजत की गलतफहमी में रहने दिया जाए? क्या उनके बेतुके फरमानों को चुपचाप निबाहा जाए?
साभार- दो टूक, हिंदुस्तान, १४ फरवरी, २००९(पढ़कर रोक नहीं पाया हूं छापने से)
मंगलोर में जो हुआ उसकी जितनी भी निंदा की कम है. भारतीय संस्कृति किसी एक व्यक्ति या संगठन की बपौती नहीं है.
ReplyDeleteऔर न किसी एक व्यक्ति या संस्था को “संस्कृति” को परिभाषित करने का अधिकार है. संस्कृति को संरक्षित रखना है या बदलना है इस पर नियंत्रण नहीं रखा जा सकता. समाज या संस्कृति की विकास करने की अपनी गति होती है . न ही पब जाने वाले लड़के लडकियां इस गति को तेज कर सकते हैं और न ही हम लंबे लंबे लेख लिखकर या बच्चों को रामायण-महाभारत पढाकर इसे कम कर सकते हैं. कई संस्कृतियों ने बाहरी दबावों को झेलते हुए अपने को हजारों वर्षों तक संरक्षित रखा है तो कईयों ने छोटे छोटे अंतरालों पर नए तत्वों को समावेशित करके अपने को परिवर्तित किया है. इस गति को रोकने का प्रयास करना भी मूर्खता है.
दूसरी बात, जो काम हम अपने बच्चों को करते हुए नहीं देखना चाहते, हमें क्या अधिकार है कि हम दुनिया में सबको वो काम करने से रोक दें. हो सकता है कि हमारे परिवेश, पारिवारिक और सामाजिक पृष्ठभूमि के कारण हम उन चीजों को बहुत ग़लत मानते हैं जो शायद दूसरे परिवेश में पले बढे और रहने वाले लोगों के लिए ग़लत न हो. हमें दुनिया को सिर्फ़ अपने चश्मे से देखने की आदत बदलनी होगी.
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