Monday, June 15, 2009

सिनेमा से पहली मुलाकात-2


जब हम थोड़े और बड़े हुए तो उस काले परदे के आगे की दुनिया की खबर लेने की इच्छा बलवती होती गई। तब कर एक और सिनेमाघर शहर में बन गया। सिनेमाघर की पहली फिल्म थी- याराना। सन बयासी का साल था शायद। हम छोटे ही थे, लेकिन भाई के साथ फिल्म देखने के साथ गया। अमिताभ से पहला परिचय याराना के जरिए हुआ।




उस समय तक हमारे क़स्बे में वीडियों का आगाज़ नहीं हुआ था। बड़े भाई आसनसोल से आते तो बताते टीवी और वीडियो के बारे में। हॉल जैसा दिखता है या नहीं?? पता चला बित्ते भर के आदमी दिखते हैं, छोटा सा परदा होता है। निराश हो गया मैं । लेकिन घर पर भी लगा सकते हैं यह अहसास खुश कर गया।




बहरहाल, हमारे शहर में एक राजबाड़ी नाम की जगह है, जहां लड़कों ने आसनसोल से वीडियो लाकर फिल्में दिखाने का फैसला किया था। टिकट था - एक रुपया। औरतो के लिए फिल्म दिखाई जा रही थी-मासूम और एक और फिल्म थी दीवार। मम्मी और उनकी सहेलियां मासूम देखने गईँ। शाम में दीवार दिखाई जानी थी, बाद में जब हम और रतन भैया फिल्म देखकर लौट रहे थे। हम दोनों में विजय बनने के लिए झगड़ा हो गया। वह कहते रहे कि तुम छोटे हो कायदे से रवि तुम बनोगे, लेकिन रवि जैसा ईमानदार बनना मुझे सुहा नहीं रहा था। विजय की आँखों की आग अच्छी लगी और उस दिन के बाद से लगती ही रही।




उस दिन के बाद से फिल्मों का चस्का लग गया। आर्थिक कारणों से अहब मेरा दाखिला सरकारी स्कूल में करवा दिया गया। वजह-पिताजी का देहांत हो गया। घर में एक किस्म की संजीदगी आ गई थी। मम्मी, मां में बदल गई। उनके सरला, रानू और बाकी के उपन्यास पढ़ना छूट गया। बड़े भैया कमाने पर उतरे, मंझले भाई में पढाई का चस्का लगा। मुझे बेवजह ज्यादा प्यार मिलने लगा। घर के लोग सिनेमा से दूर होते गए। सबका बकाया मैं और बड़े भैया पूरा करने लगे।




सरकारी स्कूल से भाग कर सिनेमा देखने जाने लगा। लेकिन तीन घंटे तक स्कूल और घर से दूर रहने की हिम्मत नहीं थी। उन दिनों -८६ का साल था- मधुपुर के सिनेमाघरों में जबरदस्ती इंटरवल के बाद घुस आने वालों को रोकने के लिए एक नई तरकीब अपनाई गई थी। इंटरवल में बाहर निकलते वक्त गेटकीपर एक ताश के पत्ते का टुकडा़ देता था। अब हमने एक और दोस्त के साथ िस तरकीब का फायदा उठाया। इस तरीके में हम इंटरवल के पहले की फिल्म एक दिन और बाद का हिस्सा दूसरे दिन देख लेते थे।




गिरिडीह में सवेरा सिनेमा हो, या देवघर में भगवान टाकीज, मधुपुर में मधुमिता और सुमेर, आसनसोल में मनोज टाकीज, हर सिनेमाहॉल का पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा हमें पहचानने लगा. गेटकीपरों के साथ दोस्ती हो गई। फिल्म देखना एक जुनून बन गया। कई बार हमारे बड़े भाई ने सिनेमाहॉल में ही पकड़ कर दचककर कूटा। लेकिन हम पर असर पड़ा नहीं।





बाद में अपने अग्रीकल्चर कॉलेज के दिनों में या बाद में फिल्में पढाई के तनाव को दूर करने का साधन बन गईं। अमिताभ के तो हम दीवाने थे। शुरु में कोशिश भी की अंग्रेजी के उल्टे सात की तरह पट्टी बढा़ने की , लेकिन नाकामी ही हाथ लगी। बाद में शाहरुख ने अमिताभ को रिप्लेस करने की तरकीबें लगाईं, तो डीडीएलजे ने बहुत असर छोड़ा था हम पर। नकारात्मक भूमिकाओं को लेकर मै हमेशा से सकारात्मक रहा हूं। ऐसे में बाजीगर और डर वाले शाहरुख को हमने बहुत पसंद किया था। उसके हकलाने की कला, साजन में संजय के बैसाखी लेकर लंगड़ाने की अदा, अजय देवगन की तरह फूल और कांटे वाला सोशल एलियनेशन, .. सब पर हाथ आजमाया।




लेकिन दूरदर्शन की मेहरबानी से फिल्मों से हमारा रिश्ता और मजबूत ही हुआ। दूरदर्सन पर मेरी पहली फिल्म याद नहीं आ रहा साल लेकिन समझौता थी। गाना अब भी याद है समझौता गमो से कर लो..। फिर अमृत मंथन, अवतार, मिर्च-मसाला, पेस्टेंजी, आसमान से गिरा, बेनेगल निहलाणी की फिल्में देखने का शौक चर्राया।




लगा कि मिथुन के हिटलर,जल्लाद, और गोविंदा की कॉमिडी से इतर भी फिल्में हो सकती हैँ। तो हर तरह की फिल्में देखना शुरु से शौक में शामिल रहा। और दूरदर्शन की इसमें महती भूमिका रही। जिसने कला फिल्में देखने की आदत डाल दी. तो हर स्तर की हिंदी अंग्रेजी फिल्में देखते रहे। हां, डीडी की कृपा से ही ऋत्विक घटक और सत्यजित् रे की फिल्मों से परिचय हुआ। तो सिनेमा एक शगल न रह कर ज़रुरत में बदल गया।




बहुत बाद में २००७ में एफटीआईआई में फिल्म अप्रीशिएशन के लिए पहुंचा तो पता चला कि एक पढाई ऐसी भी होती है जिसमे पढाई के दौरान फिल्मे दिखाई जाती हैं। तो पूरे कोर्स को एंजाय किया। फिल्में देखने और फिल्मे पढ़ने की तमीज आई। विश्व सिनेमा से परिचय गाढा हुआ।





गोवा और ओसियान जैसे फिल्मोत्सवों में ईरानी, फ्रेंच और इस्रायली सिनेमा से दोस्ती हुई और सिनेमा का वायरस मुझे नई जिंदगी दे रहा हैं... मैं हर स्तर के फिल्मे जी रहा हूं, और गौरव है मुझे इस बात का कि दुनिया में सिनेमा एक कला और कारोबार के रुप में जिंदा है तो मेरे जैसे दर्शक की वजह से, जो एक ही साथ रेनुवां-फेलेनी और राय-घटक के साथ गोविंदा के सुख, और सांवरिया भी भी झेल सकता है।





6 comments:

  1. मुझे पूरा यकीन है की एक दिन ये यात्रा ..मल्लिका शेरावत के पिक्चरों तक जरूर पहुंचेगी..आप पिक्चरें तो देख रहे हो न अभी भी..
    दिलचस्प संस्मरण...हाँ तो ताश के पत्ते का पास वाला आईडिया बढिया था....मुझे तो पहली पिक्चर थोड़ी थोड़ी याद है वो थी...गीत गाया पत्थरों ने ...हमने भी पिक्चर शुरू होने पर खूब तालियाँ बजाईए हैं..यहाँ दिल्ली में मल्टीप्लेक्स में भी बजाते हैं..मगर साथ वाली सीट वाला हमें ही बजाने वाली नजरों से देखने लगता है सो मन मसोस का रह जाता हूँ..तो फिर आउंगा..ये जानने की किसने किसने आप पर प्रभाव डाला..मुझ पर मल्लिका शेरावत..सिर्फ उसकी अदायगी के बारे में सोचें,,,,ने बड़ा ही प्रभाव डाला...

    अच्छा लगा आपको पढ़ कर...

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  2. अच्छा लगा आपको पढ़ना. मगर आजकल दिखते नहीं..सब ठीक तो है, मित्र?

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  3. आपके संस्‍मरण पढकर काफी सारे नए अनुभव हुए। शुक्रिया।

    -Zakir Ali ‘Rajnish’
    { Secretary-TSALIIM & SBAI }

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  4. मंजीत वाकई तुम बहुत अच्छा लिखते हो...ये मौलिकता दुर्लभ है।

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  5. बड़े सौभाग्‍यशाली हो जो पढ़ाई के दौरान भी सिनेमा देखते रहते हो। अब पसंदीदा फिल्‍मों के बारे में अपनी राय भी लिखो तो और मज़ा आएगा।

    - आनंद

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  6. bada hi sanjeeda sa laga lekh...mazaak mazaak me kai baate kahi aapne par jahaan par jazbaat zaahir kiye dil me utar gaye...bahut achha likha aapne

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