बहरहाल, गांव के प्रायः हरेक घर से खटा-खटाखट की आवाज़ आ रही थी। हथकरघे की..। कबीर जी साकार हो गए। दूर किसी घर में किसी मरदाना आवाज़ ने स्वागत किया... झीनी-झीनी बीनी चदरिया बीनी रे बीनी.. काहे का ताना काहे का भरनी....देखा सफेद दाढी में शख्स। हमें देखते ही राम-राम।
ताज्जुब हुआ। हमने कहा अस्सलामवालेकुम..। उत्तर आया राम-राम। हमारी हैरत पर और परदे डालते हुए उन्होंने कहा हम हिंदुओं और मुसलमानों का फरक नहीं करते। सिर झुक गया। असली हिंदोस्तां यहीं है, न अयोध्या में है,न गोधरा में.. न सांप्रदायिक रंग लिए किसी और जगह।
लेकिन आध्यात्मिकता के इस रंग को वास्तविकता ने थोड़ा हलका ज़रुर कर दिया। पूरा गांव बुनकरों का है। यहां के लोग अपने पुश्तैनी धंधे में जुटे हैं, दिनभर करघों की आवाज़ गूंजती है, लेकिन रात को नहीं क्योंकि रात को बिजली नहीं होती। कम रौशनी में काम करने की वजह से कई लोगों की आँखें चौपट हो गई हैं। बिजली आती है लेकिन देर रात दो बजे के बाद...। और सुबह होते ही फौरन चली जाती है। सांझ को काम गैसलाईट में होता है... रेणु जी की कहानी पंचलैट याद आ गई। ऊपर से तुर्रा ये कि अमेरिका से शुरु हुई मंदी ने बनारस के बुनकरों पर असर दिखाना शुरु कर दिया है। रोज़ाना मज़दूरी पर काम करने वाले कटवां गांव के बुनकरों को साहूकार पहले ही कम मज़दूरी देते थे, लेकिन मंदी की मार ने मज़दूरी की उस रकम को भी लील लिया है। ..
इसी धंधे में लगे मो. अल हुसैन हमसे मिले। कम होती मज़दूरी ने इन्हें इस लायक नहीं छोड़ा है कि वो अपनी बेटी को स्कूल भी भेज सकें। आखिर इन्हें पेट और पढाई में से एक ही चीज़ चुननी थी और इन्होंने पेट को तरजीह दी, देनी ही थी। उनकी बेटी पोलियोग्रस्त है.. उनकी शादी की चिंता भी है। हम नीम की घनी छाया में बैठे। नौजवान बुनकर भी कबीर ही गुनगुना रहे थे। एक ने फिल्मी रोमांटिक तान छेड़ी..स्वाति मुस्कुरा उठी...। हमें भी अच्छा लगा। आनंद अपने काम में लगे रहे।
तब तक कोक की बोतल में हैंडपंप का शीतल जल आ गया। कोक की पहुंच यहां तक हो गई है। लेकिन राहत ये कि सिर्फ बोतल था, पानी ऑरिजिनल था। अजब मिठास था पानी में। एक बुजुर्ग प्लेट में दोलमोठ और बिस्कुट ले आए. हमें बहुत शर्म आई.. तकरीबन पूरा गांव शूटिंग देख रहा था, खिड़कियों से झांकती पर्दानशीं महिलाएं.. बकरियों के आगे पीछे खड़े नंग-धडग बच्चे।
फुसफुसाते बतियाते नौजवान...। उनकी आंखों में उम्मीद की एक किरण थी। बैंक से कर्ज नहीं मिलता कि पावरलूम लगवाऐं.. राशनकार्ड नहीं है..बीपीएल कार्ड प्रदान जी ने अपने नज़दीकियों को दिया है..समस्याओं का अंबार था। हमें लगा कि हम महज रिपोर्ड बनाने और उसे अपने कार्यक्रम में दिखाने के और कर क्या सकते हैं?? स्वाति भावुक थी.. मुझसे कहा हम कर क्या रहे है? मैंने कहा, हम अपनी ड्यूटी निभा रहे हैं। एक बार में बात न पहुंची तो कई बार इस रिपोर्ट को दिखाएंगे.. क्या हमारी बात उत्तर प्रदेश और केंद्र सरकार तक पहुंच पाएगी?? शंका मुझे भी है।
गांव में पीने के पानी की समस्या थी। पूरे गांव में एक मात्र हैंड पंप है जो नीम के पेड़ के नीचे है।मंदी के असर से खूबसूरत और दिलकश बनारसी साड़ियों की मांग पर असर पड़ा है। और जाहिर है, बनारस के आसपास के गांव के बुनकर इससे परेशान हैं। बुनकरो की रोजाना दिहाड़ी पहले ६०-७० पुरये थी अब वह ४० रुपये हो गई है। मंहगाई ने कमर पहले से तोड़ दी है। बुनकरो को मलाल है कि उनकी माली हालत पर किसी की नज़र नहीं। बिचौलियों और साहूकारों के कर्ज़ से दबे बुनकर अपनी शिकायत करें भी तो किससे। मंदी में साडियों की मांग में आई कमी ने उनकी हालत सोचनीय बना दी है।
बहरहाल, शूटिंग पूरी होते और बाईट लेते दोपहर बीत गई। हमें फिर बनारस वापस भी जाना था. बल्कि यूं कहें कि मुझे एक और तीर्थ जाना था जहां जाने का सपना संजोये मैं दिल्ली निकला था। जल्ली-जल्दी दालमोठ फांक कर और कबीर के गांव मे ढेर सारा निर्मल जल पीकर मैं वापसी की तैयारियों में लग गया। सारा गांव हमें छोड़ने बाहर तक आ रहा था। आनंद जी ने अपनी पत्नी के लिए एक साड़ी खरीदी.. खूबसूरत मरुन कलर की साड़ी..
मेरे दिमाग़ में अगली मंजिल थी..लमही.. होरी के विधाता के गांव..। अगले पोस्ट में. लमही चलेंगे।
मंजीत ठाकुर, लहरतारा गांव बनारस से
बेहतरीन मंजीत...कबीर के गांव की हालत तुम ही बता सकते थे...और कोई नहीं। मुंशीजी के गांव पर लिखे पोस्ट का इंतजार रहेगा।
ReplyDeletebahut accha laga kabeer ke gaon ki zamini hakikat padhkar.is dasa par to aapne accha likha hai jaise hum bhi ussi gaon mein pahunch gaye hon.
ReplyDeletekeep it up sir
shanti deep verma
manjit ji.. aapkey saujnya se darshan yaaaatra to chal he rahi hai..kripiya thodi jaldi jaldi post karey.. itna intezaar na karwaye..
ReplyDeletemohit..