बीस साल पहले याद है मुझे, मैं प्राइमरी में पढ़ा करता था। तब, भी क्रिकेट को लेकर यहीं जुनून था। बड़े भाई साहब क्रिकेट खेलते भी थे, क्रिकेट सम्राट नाम की पत्रिका भी घर में आती थी। तो सचिन तेंदुलकर और अमोल मजूमदार नाम के दो शख्सों से परिचय हुआ। चौथी कक्षा में पढ़ता था, पाठ्य-पुस्तकों से ज्यादा मन क्रिकेट सम्राट में लगता था।
सचिन का चयन टीम में हुआ था। लेकिन स्कूल के दिनों मे मेरा दोस्त सचिन की बजाय अमोल को ज्यादा टैलेंटेड बताता रहा। लेकिन शारदाश्रम के इस बच्चे को लेकर मेरे मन में एक मोह-सा हो गया।
कुछ दिनों बाद भाई ने बताया कि पहले टेस्ट मैच मे यह लड़का कुछ खास नहीं कर पाया..पहले वनडे में भी सिफर। फिर भी मन नहीं माना।
बड़े भाई साहब उन दिनों वेंगसरकर, शास्त्री और कपिल के दीवाने थे। अज़हर की कलाई की लोच पर फिदा थे, और मैदान पर अज़हर जैसा ही दिखना और खेलना पसंद करते थे। लेकिन फिर हमने अखबार में पढ़ा कि सचिन नाम के इस लडके ने अजीबोगरीब एक्शन वाले अब्दुल कादिर के धुनक दिया। मेरे मन को ठंडक पहुंची।
सचिन का कारवां बढ़ निकला था। मेरे खपरैल घर में सचिन का एक पोस्टर विराजमान हो गया। सन ९१ का साल था, बूस्ट वाला कोई विग्यापन था। गले में सोने की चेन, घुंघराले बाल। सोफे पर पसारा हुआ सचिन..। उन दिनों नवजोत सिंह सिद्दू ६ शतक मार कर वनडे भारतीय बल्लेबाज़ी में शीर्ष पर थे। उनका लाठीचार्ज मशहूर हुआ करता था।
सन ९४ में सिंगर कप में सचिन का पहला शतक आया तो हमने यही सोचा कि क्या यह सिद्धू के ६ शतकों की बराबरी कर पाएगा? डेसमंड हेंस के १७ शतकों को तो हम अजेय मान चुके थे। उन दिनों सचिन की तुलना अपने समकालीनों इंजमाम और लारा से होने लगी थी।
लेकिन इसके बाद क्या हुआ, इसके लिए मुझ अपने ब्लॉग पर लिखने की ज़रुरत नहीं। सारे समुद्र के पानी को स्याही बनाकर और सारे जंगलों की लकड़ी को कलम बनाकर सारी पृथ्वी क कागज बना कर पीटर रीबॉक से लेकर गावस्कार तक ढेर सारा लिख चुके हैँ। कमेंट्री में जेफरी बायकॉट वॉट अ शॉट, वाट अ शॉट चिल्ला-चिल्ला कर अपना गला बैठा चुके हैं।
लेकिन मुझे साल ९८ का शारजाह याद है। सेमिफाइनल में १४३ और फाइनल में १३६ बनाकर जीतने वाले सचिन की तारीफ में उन्ही के हाथों कुटने-पिसने वाले वॉर्न और माइकल कास्परोविच ने पुल नही फ्लाई ओवर बांध दिए। हमारी सहयोगी विनीता उनकी बड़ी फैन हैं। कहती हैं, जबतक सचिन क्रीज पर रहता है, जीत की उम्मीद बंधी रहती है। वह इसकी ताकीद करती हुई ऑस्ट्रेलिया के साथ पिछले मैच का हवाला भी देती हैं, जिसमें सचिन ने १७५ रन ठोंके थे।
बहरहाल, मैं कोई सचिन के आंकडो का बड़ा जानकार नहीं। लेकिन उनकी विनम्रता और जमीन से जुड़ाव का कायल हूं। सचिन और रहमान जैसी बड़ी शख्सियते मुझ पर असर करती हैं, और उन्हें मिलता हुआ सम्मान मुझे खुद को मिलता सम्मान लगता है। कई बार तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
सचिन किसी की रगो में एड्रिनलीन दौड़ाने के लिए काफी नहीं है?
मै तो शुक्रिया अदा करता हूँ गावस्कर का ..जिन्होंने एक नन्हे बालक को ख़त लिख कर उसे इंस्पायर किया.....लंच में सभी खिलाडियों से मिलाया ....नवजोत सिद्धू का के उन्हें गर्दन का दर्द हुआ ......वर्ना हमें ये बेमिसाल शख्स न मिलता .....
ReplyDeleteहम तो कोलेज के ज़माने से उसके तगडे पंखे है ..शारजाह में उसकी पारी के बाद हमने कॉलेज में एक मशाल जलूस निकाला था .लकीली अगले दिन सचिन का जन्म दिन था ..केंटिन के बाहर एक लामी चौडी इमोशनल पट्टी लगा दी थी .....इसके आलावा बटोर इन्सान ये शख्स इतने सालो से अपेक्षायो का बोझ इतनी विनम्रता से ढो रहा है..... ये सचिन की सबसे बड़ी खासियत है .हर भज़न,श्रीसंत जैसे लोगो को सीखना चाहिए ....ओर आम जीवन में भी लोगो को इतनी फेम इतने पैसे के बाद भी विनम्र होना कैसे इन्सान के कद को ओर बढाता है
यहाँ ठीक से नाय लिख सकब... तकनीक से अनजान अछी... टूटल-फूटल जैसन भी छे... माफ़ करब... अहाँ क दोनों ब्लॉग नीक आछ... खूब लिखू... हमर शुभकामना.... फुर्सत मिले त बातो करब...
ReplyDeleteअभी अभी Times Now पर सचिन का इंटरव्यू देख रही थी और यहाँ यह पोस्ट दिख गयी....सचिन के बारे में कहीं भी कोई कुछ लिखे या कहें और हम एक पल को ना ठिठकें यह तो मुमकिन नहीं...मुझे भी पता नहीं सचिन और रहमान दोनों में हमेशा समानताएं दिखती हैं,अपने अपने क्षेत्र के जीनियस,सामान कद,घुंघराले बाल के अलावा जो चीज़ सबसे ज्यादा खींचती है वह है दोनों का ही humbe होना...और चहरे पर हमेशा सादी सी मुस्कान.
ReplyDelete'क्रिकेट सम्राट' के जिक्र ने भी यादों की वादियों में धकेल दिया.मेरे लेखन की शुरुआत इसी पत्रिका से हुई थी.तब मैं दसवीं में थी,इसके सम्पादक ने लिखा था 'लड़कियों को क्रिकेट बिलकुल समझ नहीं आता और वे सिर्फ क्रिकेट प्लेयर्स के पीछे भागती हैं'.,मैंने विरोध में एक कठोर पत्र लिखा,अंतिम पेज पर संपादक की किसी ना किसी खिलाडी के साथ खिंची तस्वीर भी होती थी,उसकी भी बहुत खिल्ली उडाई.सहेलियों ने कहा,वो नहीं छपेगा.फिर मैंने दो पत्र,एक नम्र और एक ह्यूमरस वे में अलग अलग नामो से लिखे.संपादक ने तीनो पत्र एक अलग पेज पर छापे और माफ़ी भी मांगी,दूसरे अंक में एक परिचर्चा ही शुरू कर दी,"क्या लड़कियों का क्रिकेट से कोई वास्ता है"