Friday, January 28, 2011

जाड़े की सुबह-कविता

बहुत सुबहों के बाद,
आज सुबह जगा,
पाया,
आज बहुत ठंड है,
खोजता रहा कहीं गरमाहट,
उम्मीद की...
लाल सूरज भी सिकुड़ता-सा लगा..
कोहरा तो नहीं था,
फड़कती बाईं आंख ने कह दिया
बहुत कुछ..।

3 comments:

  1. इस छोटी कविता ने कह दिया बहुत कुछ।

    ReplyDelete
  2. रोज चढता है उतरता है सूरज
    जाने क्या खोजता रहता है सूरज
    मुंडेर पर बैठ के तक्ता है सूरज
    पेड की परछायी से डरता है सूरज
    मैने पूछा जो लपक कर उस दिन
    ...झट जा के पहाडो पे छिपा है सूरज
    मुझको मिलता ही नही है तबसे
    किसी मासूम से चेहरे मे छिपा है सूरज
    मैने खोजा तो बहुत है उसको
    जाने कहा जा के छुपा है सूरज
    कोई बताता ही नही है मुझको
    क्या तुमने कही देखा है सूरज ?

    ReplyDelete
  3. गुरु जी कैसा है सूरज ?

    ReplyDelete