बुंदेलखंड-यूपी के सात जिलों में पिछले 5 महीनों, यानी जनवरी 2011 से 31 मई तक 519 आत्महत्या के मामले दर्ज किए गए। राज्य सरकार इन आत्महत्याओं का गृहकलह जैसी वजहों से जोड़ती है। सवाल ये है कि गृहकलह तो अंबानी भाईय़ों के बीच भी हुआ था, और हजार-लाख रुपयों के लिए नहीं, कई हजार-लाख करोड़ रुपयों के लिए हुआ था। उनने आत्महत्या क्यों नहीं की, तनाव पवा गांव की रामकली को ही क्यों..कोकिलाबेन को क्यों नहीं..?
सुबह जब हम बांदा के पीडब्ल्यूडी गेस्ट हाउस से निकले तो मेरे मन में कहीं भी यह बात नहीं थी कि आज का दिन मेरी जिंदगी, खासकर पत्रकारीय अनुभवों को एकदम से बदल देगा। हमारे पास छोटी कार थी। हमलोग, यानी मैं, कैमरामैन राजकुमार रॉकी, साथी रिपोर्टर आशुतोष शुक्ला, ड्राइवर राकेश और साथ में थे भाई पुष्पेन्द्र।
दिल्ली से जाने वाले पत्रकारों के लिए भाई पुष्पेन्द्र मार्गदर्शक का काम करते है। स्वाति माथुर, टाइम्स ऑफ इंडिया वाली रिपोर्टर, जिनकी रिपोर्ट पर इलाहाबाद हाई कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लिया था, वो भी पुष्पेन्द्र भाई की मदद से ही रिपोर्ट लिख पाई थीं।
बहरहाल, हम बांदा जिला के आखिरी छोर पर पहुंच गए। केन नदी के किनारे। जिसके दूसरी तरफ था हमीरपुर जिला। केन नदी दोनों जिलों का बांटती तो है लेकिन वह नहीं बांट पाई है तो दोनों तरफ भूख की तस्वीर को, लोगों की तकदीर को और आत्महत्याओं के सिलसिले को।
केन पार करने के लिए हमारी पूरी टीम को पैंट उतारनी पड़ी। पुष्पेन्द्र भाई मजाक में बोले कि वह हर पत्रकार की पैंट बुंदेलखंड दर्शन से पहले उतरवा लेते हैं। हम हंसे। लेकिन हमारी यह हंसी थोड़ी ही देर में काफूर हो गई। जब हम गढ़ा गांव में दाखिल हुए। गढ़ा गांव, किसी भी आम हिंदुस्तानी गांव की तरह ही है...घरौंदों की तरह कच्चे-पक्के मिट्टी के घर, और आटा-चक्की से आती एक जानी-पहचानी आवाज..लेकिन इस गांव में आज की तारीख में कहीं उम्मीद की झलक तक नहीं दिखती।
उम्मीद...जिसके सहारे जिंदगी आगे बढ़ती है। शायद इसी उम्मीद ने जिंदा रखा था, गढा गांव के प्रह्लाद सिंह को। बड़ी-बड़ी शानदार मूंछों वाले प्रह्लाद सिंह ने अपनी जवानी में किसी का क़त्ल कर दिया था। कत्ल के जुर्म में 1962 में सज़ा-ए-मौत मिली। लेकिन, प्रह्लाद सिंह ने अपनी जिंदगी की उम्मीद नहीं छोड़ी थी उन्होंने राष्ट्रपति से जीवनदान की गुहार लगाई। उनकी सज़ा आजीवन कारावास में बदल गई।
सन बहत्तर में उनकी नेकचलनी से उन्हें वक्त से पहले रिहा कर दिया गया। गांव लौटे तो नई उम्मीद के साथ जिंदगी फिर शुरु की।
अभी एक दशक पहले तक उनके साथ कोई समस्या नहीं थी। लेकिन परिवार बड़ा हुआ तो प्रह्लाद सिंह और उनके भाई ने मिलकर ट्रैक्टर के लिए बैंक से कर्ज ले लिया...और इसी कर्ज ने उनके परिवार को बरबाद कर दिया।
2002 के बाद बुंदेलखंड लगातार सूखे की गिरफ्त में आता गया। पहले से ही कम बारिश वाला इलाका धीरे-धीरे अकाल की चपेट में आता गया। साल 2007 में बैंक ने भाड़े के गुंडों से प्रह्लाद सिंह के ट्रैक्टर को कब्जे में ले लिया...ट्रैक्टर नीलामी के बाद बाकी की रकम की देनदारी की आखिरी नोटिस भी निकाल दी गई। पहले तो परेशान भाई ने फिर बेटे, बच्ची सिंह ने आत्महत्या कर ली। पोती मनोरमा भी ब्याह के खर्च से बेचारे दादा को बचाने की खातिर एक दिन डाई पीकर हमेशा के लिए सो गई।
दिवंगत बेटे और पोती की तस्वीर दिखाते प्रह्लाद सिंह कहते हैं कि उन्होंने ऐसे बुढापे के लिए क्षमादान नहीं मांगा था राष्ट्रपति से। उनके घर में उनके एक पोते का विवाहोत्सव है, लेकिन खुशियों की बूंद तक नहीं दिखती।
हमें देखते ही गांव के कई लोगों को लगता है कि हम उनकी रिपोर्ट दिखाएंगे तो शायद उनका कर्ज माफ हो जाएगा। बुंदलेखंड का एक खुद्दार किसान, कर्ज चुकाना तो चाहता है लेकिन प्रह्लाद सिंह की मजबूरी है कि जिस खेती पर उन्होंने अपनी जिंदगी गुजार दी वह खेती आज उनके बीज तक वापस नहीं कर पा रही।
2002 से 2011 दस साल हो गए, उनकी खेती उन्हें दाने-दाने को मोहताज बना दे रही है।
सात जिले, 5 महीने, 519 किसान आत्महत्याएं |
प्रह्लाद सिंह की यह कहानी पूरे बुंदेलखंड की 2 करोड़ 10 लाख की आबादी की कहानी से कमोबेश मिलती-जुलती है। प्रह्लाद सिंह की ही तरह बाकी के लोगों की उम्मीदों की डोर टूटने लगी है। कर्ज एक तरह से गांव के लोगों के लिए जीने की शर्त बन गए हैं।..लेकिन ये शर्त जानलेवा है।
बुंदेलखंड के 13 में से सात जिले उत्तर प्रदेश में हैं...और उनमें सबसे ज्यादा बदहाली है बांदा में..। इस साल जनवरी से लेकर मई तक सिर्फ बांदा जिला अस्पताल में ही आत्महत्या के करीब 330 मामले दर्ज हैं।
हालांकि, यह सिर्फ दर्ज हुए मामले ही हैं। असली तस्वीर ज्यादा भयानक हो सकती है। इस साल के पहले पांच महीने में ही बुंदेलखंड के सात जिलों में 519 मौतों की खबर है।
पिछले पांच महीने बुंदेलखंड के लोगों के लिए अच्छे नहीं रहे। 519 लोगों की आत्महत्याओं की खबर खतरे की एक घंटी है। साल 2009 में बुंदेलखंड के उत्तर प्रदेश वाले हिस्से में सात जिलों, यानी महोबा, चित्रकूट, ललितपुर, हमीरपुर, बांदा, झांसी और जालौन में कुल 568 मौते दर्ज की गई थीं। साल 2010 में आत्महत्याओं का आंकड़ा 583 था। जबकि, साल 2001 से 2005 के बीच 1275 आत्महत्याओं के मामले सामने आए थे।
ध्यान देने वाली बात यह है कि इन 1275 आत्महत्याओं में साल 2002 और 2004 का वह दौर भी शामिल है, जो सूखे के सबसे भयावह साल थे। यानी आत्महत्याओं का सूखे से संबंध तो है, लेकिन बहुत ज्यादा नहीं।
आल्हा-ऊदल की धरती, जंग में हमेशा सीना तानकर लड़ने वाले जुझारु वीरों की धरती के लोग सिर्फ सूखे से ही मौत की राह चलने को मजबूर नहीं हुए हैं।
कुछ तो ऐसा है जिसने इस इलाके में आत्महत्या की सामूहिक प्रवृत्ति को बढावा दिया है।
भयावह......
ReplyDeleteदिल्ली में बैठकर पढ़ना ......
और वहाँ गूंगे बहरों के राज़ में अपनी किस्मत पर रोना.
विधाता ने शायद यही रचा है और यही लिखा है.
कारण और कारक क्या हैं, शायद आसान नहीं इनकी पड़ताल, ये स्थिति कब से है, क्या उसके पहले खुशहाली थी, जैसे कई सवाल उठ रहे हैं, आशा है आगे की रिपोर्ट में बारी बारी से जवाब मिलता जाएगा.
ReplyDeleteआल्हा-ऊदल की धरती, जंग में हमेशा सीना तानकर लड़ने वाले जुझारु वीरों की धरती के लोग सिर्फ सूखे से ही मौत की राह चलने को मजबूर नहीं हुए हैं।
ReplyDelete...सच में हमारे देश में किसानों की बहत भयावह स्थिति है, जिसकी ओर आजादी के बाद सबसे कम ध्यान दिया गया है.. खेत-खलियानों तक सिर्फ राजनीति घुस-पैठ भर है और हल तरफ अपनी रोटियां सिकने के लिए लालयित सरकारों में बैठे नुमैन्दे और राजनेताओं को सिर्फ अपना घर भरने के चिंता भर है..
किसानों की वास्तविक चिंतनशील तस्वीर प्रस्तुत कर जन जाग्रति हेतु आभार!
क्या कहूँ..! कृषि प्रधान देश के किसान आत्महत्या करते है ...ओर लोग इसे निजी सरोकार मान कर विचार नहीं करते ..... ऐसा लगता है देश के कई हिस्से है ....ओर हर हिस्से के दुःख है ..
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