बुंदेलखंड का त्रासदी सिर्फ बारिश की कमी ही नहीं है। प्रशासन में समझदारी और संवेदनशीलता की कमी हालात को बदतर बना रहे हैं। सरकारी मशीनरी के चक्कर में आम जनता चकरघिन्नी बनी है।सूखा राहत में 12 रुपये के चैक किसानों को दिए गए हैं..ये आखिर माजरा क्या है?
2002 से ही सूखे की स्थिति से निपटने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने सूखा राहत अभियान चलाया..और किसानों को इसके लिए मुआवजा भी दिया। लेकिन..10 बीघे के काश्तकार के लिए सूखा राहत की रकम अगर 12 रुपये हो तो... तो आपको ये एक मज़ाक लग सकता है।
..थोड़ा कड़वा सही, लेकिन सच यही है कि सूखा राहत के नाम पर किसानों को 12, 15, 27, 30 और 39 रुपये के चैक राज्य सरकार ने दिए हैं। मालूम हो कि इन चैकों को भुनाने के लिए खुलने वाले बैंक खाते का खर्च 500 रुपये आता है।
सुशील कुमार, मंझोले किसान हैं। उनके तीन भाईय़ों को सरकार ने 30-30 रुपये के सूखा राहत चैक दिए। चैक तुलसी बैंक का है। सुशील कहते हैं, ये राज्य सरकार ने हमारे साथ अच्छा मजाक किया है, सूखा राहत के नाम पर।
लेकिन बुंदेलखंड में सूखे से राहत पाना कोई मजाक नहीं।
पानी की समस्या से निजात पाने के लिए ही बड़े किसानों ने ट्यूब वैल का सहारा लिया। ट्यूब-वैलों के बढ़ते चलन से भूमिगत जल का दोहन बढता गया...और अब यह जलस्तर खतरनाक तरीके से नीचे जा रहा है।
पूरे यूपी-बुंदेलखंड में समूचे खेती लायक ज़मीन का 41 फीसदी ही सिंचित है। कुल सिंचित भूमि का 48 फीसद नहरों से, 4 फीसद कुओं से, 7 फीसद निजी स्रोतों से और 41 फीसद बाकी के दूसरे साधनों से सींचा जाता है। ट्यूब वैल और पंपिंग सैट इन्ही बाकी के 41 फीसद में आते हैं।
जाहिर है, भूमिगत जल पर दबाव काफी बढा है।
साल 2003 में बांदा में भूमिगत जलस्तर 0.75 मीटर, चित्रकूट में 1.05 सेमी, महोबा में 2.11 सेमी, और हमीरपुर में 1.55 सेमी था। साल 2005 में भूमिगत जलस्तर घटकर बांदा में 1.02 सेमी, चित्रकूट में 1.79 सेमी, महोबा में 1.89 सेमी, और हमीरपुर में 1.59 सेमी हो गया। जबकि, 2006 में इसी ट्रेंड में बांदा में यह 1.62 सेमी, चित्रकूट में 2.19 सेमी, महोबा में 2.09 सेमी, और हमीरपुर में 1.69 सेमी तक चला गया।
बारिश की कमी से भूमिगत जलस्तर रिचार्ज नहीं हो पा रहा..और सूखे की वजह से लगातार हो रहे दोहन ने धरती का कलेजा तार-तार कर दिया।
अब यह कुदरत का कहर है या धरती के भीतर से लगातार खींचे जा रहे पानी की वजह, बुंदेलखंड में धरती कई जगहों पर फट पड़ी है। सूखे के बाद कुदरत का ये एक और क़हर बुंदेलखंड के लोगों को डरा रहा है।
क्या बुंदेलखंड को सूखे से बचाने का एकमात्र ज़रिया बारिश ही है..? क्या कोई और उपाय नहीं..? उपाय है..और था।
बुंदेलों ने इस सूखे इलाके को हरा रखने के पुख्ता इंतजाम किए थे। तालाब बनाकर। लेकिन बदलते राज और समाज ने तालाबों को बिसरा दिया।
सूखे की वजह से पूरे बुंदेलखंड के करीब 2 लाख 80 हजार कुओं में से अधिकतर बेकार पड़ गए हैं। हालांकि, कुछ खर्च से उन्हें फिर से इस्तेमाल के लायक बनाया जा सकता है। लेकिन, ठेकेदारों और अधिकारियों के लिए नए कुएं-तालाब खुदवाना फायदे का सौदा होता है।
इसकी मिसाल हैं कुलपहाड़ तहसील के बरजोरा करन। बुंदेलखंड में सरकार की 30,000 कुएं खोदने की योजना के तहत बरजोरा करन की जमीन में कुएं खोदने को मंजूरी मिली। लेकिन पानी नहीं निकला...क्योंकि बरजोरा करन के बेटे ने 5 हजार की रिश्वत देने से इनकार कर दिया था।
ठेकेदार ने उनके पहले से ही खुदे हुए सूखे कुएं में थोड़ी खुदाई कर दी, और फिर उसे वैसे ही छोड़ गए।
बरजोरा के भाई इस समझौते के लिए तैयार थे...ऐसे में थोड़ी ही दूर पर उनके खेत में खुदे कुएं में पानी निकल आया।
ऐसी गड़बडियों का विस्तार तालाब की तरह चौड़ा है। राज्य सरकार की योजना थी, 30 हजार तालाब खुदवाने की। नारा था, खेत का पानी खेत में। इसके तहत ठेकेदारों के ज़रिए मॉडल तालाब खुदवाए गए।
इन मॉडल तालाबों के चारों ओर बाड़ लगी है। तर्क ये कि इससे तालाबों के किनारे लगाए गए पेड़ सुरक्षित रहेगे। ..लेकिन बाड़ से घिरी इस जमीन से पेड़ भी अदृश्य हैं, पानी भी..। इस जमीन को तालाब कहना बहुत मुश्किल है..जब तक कि यहां मॉडल तालाब का साइन बोर्ड न लगा हो।
खेत का पानी खेत में के नारे ने कई छोटे किसानों के खेत छीन लिए। तालाब खुदवाने के दौरान स्थानीय लोगों के तजुरबे को तवज्जो नहीं दी गई। नतीजा ये कि तालाब सबसे ऊंची जमीन पर खोद डाले गए। नतीजतन ये तालाब बारिश का पानी मापने के कटोरे बनकर रह गए हैं। कई किसान अब इन तालाबों की वजह से अपना सर पीट कर रह गए हैं।
तालाबों के ये काम मनरेगा के पैसे से किए गए थे। सोच ये थी कि शायद इससे सूखे से त्रस्त लोगों को थोड़ी राहत मिल जाएगी।
लेकिन महोबा जिले में मनरेगा लागू करने वाली पंचायत ही गड़बडियों की जड़ साबित हो रही है। जिले के बेलाताल विकास खंड के बमहोरी गांव में कच्ची सड़क बनाने का काम चल रहा है। लोग मनरेगा में काम तो कर रहे हैं...लेकिन उनके पास जॉब कार्ड नहीं है। सवाल है कि अगर जॉब कार्ड नहीं है तो मजदूरों को भुगतान कैसे होता है..? भुगतान होता है नकद, जो कि मनरेगा के निर्देशों का खुला उल्लंघन है।
मनरेगा के तहत काम कर रहे मजदूरों में महिलाएं भी हैं। लेकिन, न तो पानी पिलाने वाले की व्यवस्था है न बच्चों की देखभाल करने वाले की। मेडिकल किट की बात तो भूल ही जाइए। पंचायत सदस्य खुद काम के मेट बने हैं..इसके लिए रोजाना सौ रुपये उन्हें मिलते भी हैं, लेकिन हमें उनसे सवालों के जवाब नहीं मिलते।
इस काम में बच्चे भी लगे हैं। काम में बच्चों का लगाना भी मनरेगा के निर्देशों का खुला उल्लंघन है। बच्चों का पैसा उनके मां बाप को मिलता है। खाता नहीं है, जॉब कार्ड नहीं है..
भुगतान होता कैसे हैं..मेट साहब के पास फिर से जवाब नहीं..। मजदूरों का पिछला भुगतान भी बकाया है.. मेट साहब के पास इसका भी जवाब नहीं. वो ब्लॉक दफ्तर पर टालते हैं।
कुलपहाड़ तहसील में ही कर्रा गांव कौशल किशोर चतुर्वेदी बैंक के हाथों ट्रैक्टर और साढे तीन एकड़ जमीन गंवाने के बाद कौशल खेती छोड़कर मजदूरी में लगे। अब मनरेगा की मजदूरी उनके उसी बैंक के खाते में आई जिससे उन्होंने कर्ज लिया था। अब बैंक पहले उनसे कर्ज चुकाने को कह रहा है, उसके बाद ही वह मनरेगा की मजदूरी का भुगतान करेगा।
अब कौशल किशोर बकाया रकम केलिए बैंक का चक्कर काटने का भी कोई फायदा नहीं देखते। निराश आंखों से अपने बाकी के खेतों की तरफ देखते हैं।
कर्रा गांव के ही अमर सिंह, 2008-09 से ही मनरेगा के तहत किए गए अपने काम की मजदूरी के लिए भटक रहे हैं..वह न तो उनके जॉब कार्ड में दर्ज है न वन विभाग वाले बता रहे हैं। टालमटोल का यह खेल, चिंता पैदा करता है।
बेसहारा हनसू की वृद्धावस्था पेशन पिछले तीन साल से बंद है। उनकी सुनने वाला कोई नहीं। अनपढ़ गांववालों के लिए यह सब एक उलझाऊ तानाबाना है।
ऐसी हकीकत, जो बाहर से अमन-चैन का आभास कराती है.
ReplyDeleteदुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर,
ReplyDeleteऔर कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।