एक बार क्या हुआ कि वाकया बहुत दिलचस्प हुआ। अंधेर नगरी नामक राज्य के राजा को- जो कि एक बब्बर शेर था- एक चैनल की जरुरत महसूस हुई। ताकि वह चैनल जंगल राज के किस्सों को दिखा सके।
जंगल राज में कई किस्म की योजनाएं चलाई जाती थीं। बब्बर शेर चूंकि शेर था लेकिन उनके पिता- जो उनके जैविक पिता भी थे- ने उनका नाम चौपट सिंह रखा था। जंगल राज में नाम से ज्यादा महत्व काम का था और काम से भी ज्यादा महत्व उस चीज का था, जिसे अंग्रेजी में चीज, अथवा बटर या मक्खन कहते हैं। यहां चमचागिरी अकेले कारगर नहीं थी, उसमेंम बटरिंग यानी मक्खनबाजी की जरुरत थी। बहरहाल, बजाय देश की महिमा का बखान करने के, हम आपको सीधे चैनल में लिए चलते हैं।
तो उस चैनल का नाम भी देश के नाम पर ही अंधेर चैनल ही रखा गया। अंधेर चैनल में समान रुप से घोड़े -गधे भरे गए। वहां घोड़ों गधों में कोई फर्क नहीं था। लेकिन क्राइसिस आइडेंटिटी की थी। ये ठीक से पता ही नहीं चलता था कि घोड़ा कौन है और गधा कौन..।
दरअसल, घोड़े गधों को गधा समझते थे और गधे घोड़ों को...। गधे एक समान थे एक ही रंग के घोड़ों का रंग अलग-अलग था। कोई घोड़ा काला, कोई सफेद, कोई भूरा या कोई चितकबरा था। किसी घोड़े से काम लेने के दिन भी नियत नहीं थे। तो गधे जो घोड़ो को गधा समझते थे, उनको स्थायी तौर पर चैनल में रहने नहीं दिया गया।
चूंकि जंगल राज में प्रायः दंगल हुआ करते तो दूसरे महकमों को भी गधों की समान आवश्यकता हुआ करती थी। देश को घोड़ो की आवश्यकता तो थी लेकिन जंगल घने होने के साथ ही घोड़ा होना आसान होता गया था और गधा होना मुश्किल।
चूंकि गधे काम के बोझ से दबे हुए थे और उनको प्रोत्साहित करना जरुरी था। इसलिए अंधेर चैनल उनको हर साल सम्मानित करता था। चूंकि घोड़ों को वक्त पर घास दे दी जाती, कभी कभार कुछ वफादार घोड़ों को चना और गुड़ भी दिया जाता।
....जारी।
जंगल राज में कई किस्म की योजनाएं चलाई जाती थीं। बब्बर शेर चूंकि शेर था लेकिन उनके पिता- जो उनके जैविक पिता भी थे- ने उनका नाम चौपट सिंह रखा था। जंगल राज में नाम से ज्यादा महत्व काम का था और काम से भी ज्यादा महत्व उस चीज का था, जिसे अंग्रेजी में चीज, अथवा बटर या मक्खन कहते हैं। यहां चमचागिरी अकेले कारगर नहीं थी, उसमेंम बटरिंग यानी मक्खनबाजी की जरुरत थी। बहरहाल, बजाय देश की महिमा का बखान करने के, हम आपको सीधे चैनल में लिए चलते हैं।
तो उस चैनल का नाम भी देश के नाम पर ही अंधेर चैनल ही रखा गया। अंधेर चैनल में समान रुप से घोड़े -गधे भरे गए। वहां घोड़ों गधों में कोई फर्क नहीं था। लेकिन क्राइसिस आइडेंटिटी की थी। ये ठीक से पता ही नहीं चलता था कि घोड़ा कौन है और गधा कौन..।
दरअसल, घोड़े गधों को गधा समझते थे और गधे घोड़ों को...। गधे एक समान थे एक ही रंग के घोड़ों का रंग अलग-अलग था। कोई घोड़ा काला, कोई सफेद, कोई भूरा या कोई चितकबरा था। किसी घोड़े से काम लेने के दिन भी नियत नहीं थे। तो गधे जो घोड़ो को गधा समझते थे, उनको स्थायी तौर पर चैनल में रहने नहीं दिया गया।
चूंकि जंगल राज में प्रायः दंगल हुआ करते तो दूसरे महकमों को भी गधों की समान आवश्यकता हुआ करती थी। देश को घोड़ो की आवश्यकता तो थी लेकिन जंगल घने होने के साथ ही घोड़ा होना आसान होता गया था और गधा होना मुश्किल।
चूंकि गधे काम के बोझ से दबे हुए थे और उनको प्रोत्साहित करना जरुरी था। इसलिए अंधेर चैनल उनको हर साल सम्मानित करता था। चूंकि घोड़ों को वक्त पर घास दे दी जाती, कभी कभार कुछ वफादार घोड़ों को चना और गुड़ भी दिया जाता।
....जारी।
गुरुदेव, जंगल की कहानी कहने में आप माहिर हैं|
ReplyDeleteअगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी...
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