---राकेश दीवान
( भोपाल में राकेश दीवान जी से मुलाकात हुई, एक सेमिनार मेँ। मेरी फिल्म पर उनकी प्रतिक्रिया वाकई उत्साह बढाने वाली थी। उनका यह लेख बिना छापे मन नहीं मान रहाः गुस्ताख)
पलायन की चपेट में चकरघिन्नी होते लोगों को यह जानकारी चौंका सकती है कि एक जमाने में हुनरमंद पलायन करने वालों को पूजा भी जाता था. अपने-अपने इलाकों की मौजूदा बदहाली के बवंडर में फंसकर दाल-रोटी कमाने के लिए सैकडों मील दूर, अनजान इलाकों में जाने वाले आज भले ही शोषित, गरीब और बेचारे कहे-माने जाते हों, लेकिन एक समय था जब उन्हें उनकी श्रेष्ठ कलाओं, तकनीक के कारण सम्मान दिया जाता था.
महाकौशल, गोंडवाना और बुंदेलखंड समेत देश के कोने-कोने में बने तालाब, नदियों के घाट, मंदिर इसी की बानगी हैं. सुदूर आंध्रप्रदेश के कारीगर पत्थर के काम करने की अपनी खासियत के चलते इन इलाकों में न्यौते जाते थे. काम के दौरान उनके रहने, खाने जैसी जरूरतों की जिम्मेदारी समाज या घरधनी उठाता था और काम खत्म हो जाने के बाद उनकी सम्मानपूर्वक विदाई की जाती थी. गोंड रानी दुर्गावती के जमाने में बने जबलपुर और उसके आसपास के बड़े तालाब, नदियों पर बनाए गए घाट इन पलायनकर्ताओं की कला के नमूने हैं.
गुजरात से ओडीशा तक फैली जसमाओढन की कथा किसने नहीं सुनी होगी? इस पर अनेक कहानियां, नाटक लिखे, प्रदर्शित किए गए हैं, लेकिन कम लोग ही जानते हैं कि यह जसमाओढन और उनका समाज पलायन करने वालों का समाज था. परंपरा से ओडीशा, छत्तीसगढ़ के कारीगर मिट्टी के काम में माहिर माने जाते हैं. बडे तालाबों, कुओं की खुदाई के लिए इन्हें आमंत्रित किया जाता था और इनके साथ भी आंध्र के पत्थर के कारीगरों की तरह सम्मानजनक व्यवहार किया जाता था.
तालाब बनाने वाले पलायनकर्ताओं में छत्तीसगढ़ के रमरमिहा संप्रदाय के लोग भी शामिल हैं, जो अपने पूरे शरीर पर रामनाम के गोदने गुदवाते हैं. तालाब रचने के अपने बेहतरीन काम के कारण इन्हें दूर-पास के इलाकों में सादर बुलाया जाता है.
एक जमाने में दुरूह यात्राओं की कठिनाइयों को झेलते बंजारे देश भर में पालतू पशुओं और मसालों के व्यापार की गरज से लंबी दूरियां तय किया करते थे. बीच-बीच में उनका बसेरा तो हो जाता था, लेकिन जानवरों को पानी पिलाने कहां जाएं? ऐसे में वे अपनी हर यात्रा के ठौर-ठिकानों के आसपास तालाब खोदते जाते थे. लाखा बंजारे का बनवाया बुंदेलखंड के सागर का विशाल तालाब इन्हीं में से एक है. ऐसे अनेक जलस्रोत इन पलायनकर्ता बंजारों के पारंपरिक मार्ग पर आज भी देखे, उपयोग किए जाते हैं.
छत्तीसगढ़ के जशपुर में पानी के तेज बहाव से बनी बरसों पुरानी आटा पीसने की चक्की उत्तराखंड से पलायन करके आए पंडितों की सलाह पर बनी थी. ये पंडित आदिवासी, मराठा राज्यों, जमींदारियों में पंडिताई के लिए आते थे और अपने जजमानों को हिमालय के पहाड़ों में आजमाई गई कुछ-न-कुछ नई तकनीक दे जाया करते थे.
खेती को उद्योग का दर्जा दिलाने और इस नाते कटाई, बोनी, निंदाई, गुड़ाई आदि के लिए तरह-तरह की मशीनों की तरफदारी करते लोगों की नजरों से कुछ साल पहले तक दिखाई देते चैतुए अब ओझल हो गए हैं. पलायन की मार से बदहाल हो रहे बुंदेलखंड, मालवा, महाकौशल इन्हीं चैतुओं की दम पर अपनी खेती किया करते थे. आसपास के अपेक्षाकृत कम पानी के एकफसली और आमतौर पर आदिवासी इलाकों से ये लोग कटाई के चैत मास में आते थे और इसीलिए उन्हें चैतुआ कहा जाता था.
साल के दो-तीन महीने पलायन करने वाले इन चैतुओं को रबी के संपन्न इलाकों से न सिर्फ भरपूर अनाज और मजदूरी मिलती थी, बल्कि उनके रहने, खाने की व्यवस्था भी की जाती थी. कई जगहों पर तो साल-दर-साल आते रहने की वजह से उनका स्थायी नाता तक बन जाता था.
आमतौर पर सुंदर, गहरे रंगों के परिधानों से सजे-धजे राजस्थान के गाडिया लुहार सडकों के किनारे आज भी दिखाई पड़ जाते हैं. कहा जाता है कि कभी किसी राजा से अनबन हो जाने के कारण इन लोगों ने विरोधस्वरूप काले कपड़े पहनकर लगातार घुमन्तू बने रहने का प्रण लिया था. यह प्रण आज भी बरकरार है और उंट, बकरी समेत अपने बाल-बच्चों, घर-गृहस्थी के साथ सतत पलायन करते ये गाडिया लुहार गांव-गांव में खेती, कारीगरी के लोहे के जरूरी औजार बनाते दिख जाते हैं.
ऐसा नहीं रहा है कि लोग अपनी-अपनी जड़-जमीनों को छोडकर केवल मौसमी पलायन के लिए ही दो-चार महीने का प्रवास करते रहे हैं. अपनी काबिलियत के बल पर उन्हें बिना प्रमाणपत्र के स्थायी निवासी बनने का निमंत्रण भी दिया जाता था और कभी-कभी तो वे उन इलाकों के राजा तक बन जाते थे. छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव राज का इतिहास ऐसे ही बैरागियों के बसने का इतिहास रहा है.
ये बैरागी हरियाणा, पंजाब से उनी कपड़े, कंबल आदि लाकर गांव-गांव बेचते थे और फुरसत मिलने पर भजन गाया करते थे. गर्म कपड़ों के व्यापार ने उनकी गृहस्थी संभाली, लेकिन भजन गायन ने उन्हें राजा बना दिया. असल में सुरीले भजन गाने पर उन्हें समाज से जो एक-एक पैसा मिलता था, उसे वे जोड़ते जाते थे और कई बार तो यह रकम इतनी अधिक हो जाती थी कि छोटे-मोटे राजा, जमींदार उनसे कर्ज तक ले लिया करते थे.
राजनांदगांव से सटी छूरा रियासत के आदिवासी राजा द्वारा अपने राजपाट को गिरवी रखकर लिए गए ऐसे ही कर्ज में स्थिति कुछ ऐसी बनी कि चुकारा नहीं हो पाया. कर्ज में डूबते-उतराते महाबली अमरीका से लेकर टुटपुंजिए पाकिस्तान तक से उलट छूरा के राजा को कर्ज में डूबी रियासत नामंजूर थी, लेकिन गली-मुहल्ले में भजन गाने वाले बैरागियों को भी राजपाट की झंझटों से कोई मोह नहीं था. भारी मान-मनुहार के बाद बैरागियों ने आखिर राजनांदगांव में अपना चमीटा गाड़ दिया और सबसे पहला काम किया-विशाल रानीताल बनवाने का. बाद के इतिहास में इन बैरागी राजाओं के रेल लाइन डलवाने, अनेक तालाब खुदवाने, अकाल में देश की शुरूआती कपडा मिल ‘सेंट्रल क्लॉथ मिल’ (जो बाद में शॉ वालेस कंपनी की मिलकियत में ‘बंगाल-नागपुर क्लॉथ मिल’ उर्फ ‘बीएनसी’ के नाम से मशहूर हुई) बनवाने जैसे अनेक लोकहित के काम दर्ज हुए.
लगभग ऐसी ही कहानी मंडला जिले के उत्पादक हवेली क्षेत्र की भी है, जहां गोंड राजाओं ने कृषि में पारंगत लोधी जाति को बसाया था. लोधियों ने जंगल साफ करके खेत-तालाब बनाने की तजबीज के जरिए इलाके को बेहतरीन पैदावार का नमूना बना दिया. यहां भी बाद में इन्हीं लोधियों ने राज स्थापित किया और वीरांगना अवंतिबाई जैसी रानियां बनीं. ये वे ही अवंतीबाई हैं, जिनके नाम पर आज का विशाल बरगी बांध बनाया गया है.
....जारी
( भोपाल में राकेश दीवान जी से मुलाकात हुई, एक सेमिनार मेँ। मेरी फिल्म पर उनकी प्रतिक्रिया वाकई उत्साह बढाने वाली थी। उनका यह लेख बिना छापे मन नहीं मान रहाः गुस्ताख)
पलायन की चपेट में चकरघिन्नी होते लोगों को यह जानकारी चौंका सकती है कि एक जमाने में हुनरमंद पलायन करने वालों को पूजा भी जाता था. अपने-अपने इलाकों की मौजूदा बदहाली के बवंडर में फंसकर दाल-रोटी कमाने के लिए सैकडों मील दूर, अनजान इलाकों में जाने वाले आज भले ही शोषित, गरीब और बेचारे कहे-माने जाते हों, लेकिन एक समय था जब उन्हें उनकी श्रेष्ठ कलाओं, तकनीक के कारण सम्मान दिया जाता था.
महाकौशल, गोंडवाना और बुंदेलखंड समेत देश के कोने-कोने में बने तालाब, नदियों के घाट, मंदिर इसी की बानगी हैं. सुदूर आंध्रप्रदेश के कारीगर पत्थर के काम करने की अपनी खासियत के चलते इन इलाकों में न्यौते जाते थे. काम के दौरान उनके रहने, खाने जैसी जरूरतों की जिम्मेदारी समाज या घरधनी उठाता था और काम खत्म हो जाने के बाद उनकी सम्मानपूर्वक विदाई की जाती थी. गोंड रानी दुर्गावती के जमाने में बने जबलपुर और उसके आसपास के बड़े तालाब, नदियों पर बनाए गए घाट इन पलायनकर्ताओं की कला के नमूने हैं.
गुजरात से ओडीशा तक फैली जसमाओढन की कथा किसने नहीं सुनी होगी? इस पर अनेक कहानियां, नाटक लिखे, प्रदर्शित किए गए हैं, लेकिन कम लोग ही जानते हैं कि यह जसमाओढन और उनका समाज पलायन करने वालों का समाज था. परंपरा से ओडीशा, छत्तीसगढ़ के कारीगर मिट्टी के काम में माहिर माने जाते हैं. बडे तालाबों, कुओं की खुदाई के लिए इन्हें आमंत्रित किया जाता था और इनके साथ भी आंध्र के पत्थर के कारीगरों की तरह सम्मानजनक व्यवहार किया जाता था.
कभी पूजे जाते थे पलायन करने वाले |
तालाब बनाने वाले पलायनकर्ताओं में छत्तीसगढ़ के रमरमिहा संप्रदाय के लोग भी शामिल हैं, जो अपने पूरे शरीर पर रामनाम के गोदने गुदवाते हैं. तालाब रचने के अपने बेहतरीन काम के कारण इन्हें दूर-पास के इलाकों में सादर बुलाया जाता है.
एक जमाने में दुरूह यात्राओं की कठिनाइयों को झेलते बंजारे देश भर में पालतू पशुओं और मसालों के व्यापार की गरज से लंबी दूरियां तय किया करते थे. बीच-बीच में उनका बसेरा तो हो जाता था, लेकिन जानवरों को पानी पिलाने कहां जाएं? ऐसे में वे अपनी हर यात्रा के ठौर-ठिकानों के आसपास तालाब खोदते जाते थे. लाखा बंजारे का बनवाया बुंदेलखंड के सागर का विशाल तालाब इन्हीं में से एक है. ऐसे अनेक जलस्रोत इन पलायनकर्ता बंजारों के पारंपरिक मार्ग पर आज भी देखे, उपयोग किए जाते हैं.
छत्तीसगढ़ के जशपुर में पानी के तेज बहाव से बनी बरसों पुरानी आटा पीसने की चक्की उत्तराखंड से पलायन करके आए पंडितों की सलाह पर बनी थी. ये पंडित आदिवासी, मराठा राज्यों, जमींदारियों में पंडिताई के लिए आते थे और अपने जजमानों को हिमालय के पहाड़ों में आजमाई गई कुछ-न-कुछ नई तकनीक दे जाया करते थे.
खेती को उद्योग का दर्जा दिलाने और इस नाते कटाई, बोनी, निंदाई, गुड़ाई आदि के लिए तरह-तरह की मशीनों की तरफदारी करते लोगों की नजरों से कुछ साल पहले तक दिखाई देते चैतुए अब ओझल हो गए हैं. पलायन की मार से बदहाल हो रहे बुंदेलखंड, मालवा, महाकौशल इन्हीं चैतुओं की दम पर अपनी खेती किया करते थे. आसपास के अपेक्षाकृत कम पानी के एकफसली और आमतौर पर आदिवासी इलाकों से ये लोग कटाई के चैत मास में आते थे और इसीलिए उन्हें चैतुआ कहा जाता था.
पलायन या प्रवास |
साल के दो-तीन महीने पलायन करने वाले इन चैतुओं को रबी के संपन्न इलाकों से न सिर्फ भरपूर अनाज और मजदूरी मिलती थी, बल्कि उनके रहने, खाने की व्यवस्था भी की जाती थी. कई जगहों पर तो साल-दर-साल आते रहने की वजह से उनका स्थायी नाता तक बन जाता था.
आमतौर पर सुंदर, गहरे रंगों के परिधानों से सजे-धजे राजस्थान के गाडिया लुहार सडकों के किनारे आज भी दिखाई पड़ जाते हैं. कहा जाता है कि कभी किसी राजा से अनबन हो जाने के कारण इन लोगों ने विरोधस्वरूप काले कपड़े पहनकर लगातार घुमन्तू बने रहने का प्रण लिया था. यह प्रण आज भी बरकरार है और उंट, बकरी समेत अपने बाल-बच्चों, घर-गृहस्थी के साथ सतत पलायन करते ये गाडिया लुहार गांव-गांव में खेती, कारीगरी के लोहे के जरूरी औजार बनाते दिख जाते हैं.
ऐसा नहीं रहा है कि लोग अपनी-अपनी जड़-जमीनों को छोडकर केवल मौसमी पलायन के लिए ही दो-चार महीने का प्रवास करते रहे हैं. अपनी काबिलियत के बल पर उन्हें बिना प्रमाणपत्र के स्थायी निवासी बनने का निमंत्रण भी दिया जाता था और कभी-कभी तो वे उन इलाकों के राजा तक बन जाते थे. छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव राज का इतिहास ऐसे ही बैरागियों के बसने का इतिहास रहा है.
ये बैरागी हरियाणा, पंजाब से उनी कपड़े, कंबल आदि लाकर गांव-गांव बेचते थे और फुरसत मिलने पर भजन गाया करते थे. गर्म कपड़ों के व्यापार ने उनकी गृहस्थी संभाली, लेकिन भजन गायन ने उन्हें राजा बना दिया. असल में सुरीले भजन गाने पर उन्हें समाज से जो एक-एक पैसा मिलता था, उसे वे जोड़ते जाते थे और कई बार तो यह रकम इतनी अधिक हो जाती थी कि छोटे-मोटे राजा, जमींदार उनसे कर्ज तक ले लिया करते थे.
राजनांदगांव से सटी छूरा रियासत के आदिवासी राजा द्वारा अपने राजपाट को गिरवी रखकर लिए गए ऐसे ही कर्ज में स्थिति कुछ ऐसी बनी कि चुकारा नहीं हो पाया. कर्ज में डूबते-उतराते महाबली अमरीका से लेकर टुटपुंजिए पाकिस्तान तक से उलट छूरा के राजा को कर्ज में डूबी रियासत नामंजूर थी, लेकिन गली-मुहल्ले में भजन गाने वाले बैरागियों को भी राजपाट की झंझटों से कोई मोह नहीं था. भारी मान-मनुहार के बाद बैरागियों ने आखिर राजनांदगांव में अपना चमीटा गाड़ दिया और सबसे पहला काम किया-विशाल रानीताल बनवाने का. बाद के इतिहास में इन बैरागी राजाओं के रेल लाइन डलवाने, अनेक तालाब खुदवाने, अकाल में देश की शुरूआती कपडा मिल ‘सेंट्रल क्लॉथ मिल’ (जो बाद में शॉ वालेस कंपनी की मिलकियत में ‘बंगाल-नागपुर क्लॉथ मिल’ उर्फ ‘बीएनसी’ के नाम से मशहूर हुई) बनवाने जैसे अनेक लोकहित के काम दर्ज हुए.
लगभग ऐसी ही कहानी मंडला जिले के उत्पादक हवेली क्षेत्र की भी है, जहां गोंड राजाओं ने कृषि में पारंगत लोधी जाति को बसाया था. लोधियों ने जंगल साफ करके खेत-तालाब बनाने की तजबीज के जरिए इलाके को बेहतरीन पैदावार का नमूना बना दिया. यहां भी बाद में इन्हीं लोधियों ने राज स्थापित किया और वीरांगना अवंतिबाई जैसी रानियां बनीं. ये वे ही अवंतीबाई हैं, जिनके नाम पर आज का विशाल बरगी बांध बनाया गया है.
....जारी
रोचक, बढि़या पोस्ट.
ReplyDeleteबहुत बढिया पोस्ट हैं... वर्तमान की चर्चा करते करते भूतकाल में दुबकी लगवा लाये ..
ReplyDeleteसाधुवाद.