Tuesday, February 28, 2012

थी, हूं, रहूंगी... वर्तिका नन्दा का कविता संग्रह


र्तिका नंदा आईआईएमसी में हमें पढ़ाती थीं। उनकी दृष्टि में हम संस्थान से निकलने के बाद भी बने रहे ...कविताएं तब भी लिखती थीं, हमें भी पूछती थीं कि कविताएं लिख रहे हो या नहीं। कविता लिखना अंग्रेजी मुहावरे के मुताबिक हमारे कप की चाय नहीं है।

कविता लिखने की कोशिश करना एक बात है और उसे एक रिद्म में स्थापित करना दूसरी। हम बेहद ठेठ हैं, लेकिन वर्तिका नंदा की कविताएं आवां पर पकी औरतों के किस्से हैं।

बहुत दिनों तक उन्होंने अपराध पत्रकारिता की। असर कविताओं पर भी है। छनकर और मथकर जो निकला है वह किसी मुलम्मे का मोहताज नहीं। उनकी कविताओं पर मेरी टिप्पणी अभी जल्दबाजी होगी, इनकी किताब पुस्तक मेले में लोकार्पित की जा रही है।

उन्ही कि किताब की भूमिका से---

"थी, हूं, रहूंगीः भूमिका"
यह पहला मौका है जब कविता की कोई किताब पूरी तरह से महिला अपराध के नाम है। सालों की अपराध की रिपोर्टिंग का ही यह असर है कि अपराध पर कुछ कविताएं लिखी गईं।

मेरे लिए औरत टीले पर तिनके जोड़ती और मार्मिक संगीत रचती एक गुलाबी सृष्टि है और सबसे बड़ी त्रासदी भी। वह चूल्हे पर चांद सी रोटी सेके या घुमावदार सत्ता संभाले  सबकी आंतरिक यात्राएं एक सी हैं।
इस ग्रह के हर हिस्से में औरत किसी न किसी अपराध की शिकार होती ही है। ज्यादा बड़ा अपराध घर के भीतर का जो अमूमन खबर की आंख से अछूता रहता है। यह कविताएं उसी देहरी के अंदर की कहानी सुनाती हैं। यहां मीडिया, पुलिस, कानून और समाज मूक है। वो उसके मारे जाने का इंतजार करता है और उसके बाद भी कभी-कभार ही क्रियाशील होता है।  
हां, मेरी कविता की औरत थक चुकी है पर विश्वास का एक दीया अब भी टिमटिमा रहा है।

दुख के विराट मरूस्थल बनाकर देते पुरूष को स्त्री का इससे बड़ा जवाब क्या होगा कि मारे जाने की तमाम कोशिशों के बावजूद वह मुस्कुरा कर कह दे - थी. हूं.. रहूंगी...।
अपराधी समाज और अपराधों को बढ़ाते परिवारों को यही एक औरत का जवाब हो सकता है..होना चाहिए भी

जब तक अपराध रहेंगें, तब तक औरत भी थी, है और रहेगी

वर्तिका नन्दा


विश्व पुस्तक मेले में हॉल नंबर 11 पर उपलब्ध:

किताब का नाम  थी. हूं..रहूंगी...
कवयित्री  वर्तिका नन्दा
कवर - लाल रत्नाकर
प्रकाशक  राजकमल
मूल्य  250 रूपए

Friday, February 24, 2012

द पोएट चाइल्ड-जिजीविषा की गाथा

जिजीविषा की अद्भुत गाथा
भारत में ही नहीं दुनिया भर में ईरानी फिल्मों को लेकर एक शानदार उत्साह है। लोग उन्हें देखना चाहते हैं। गोवा फिल्मोत्सव कवर करने का फायदा मुझे मिला कि 2006 में इसी फिल्मोत्सव ने ईरानी फिल्मों से परिचय कराया, और 2007 में एफटीआईआई ने इस परिचय को प्रगाढ़ कर दिया।


मुझे जो फिल्म अभी याद आ रही है, दरअसल डायरी में जो नोट्स लिखे थे, उनसे गुजरते वक्त ताजा हो गया पूरा किस्सा। फिल्म थी द पोएट चाइल्ड। 

फिल्म एक पिता-पुत्र के बीच के बेहद मार्मिक रिश्ते की कहानी है। अनपढ़ पिता अब अपंग होने की वजह से कारखाने में काम नहीं कर सकता। लेकिन पिता-पुत्र में एक शानदार कैमिस्ट्री है। बच्चे का अभिनय ऐसा कि बड़े-बड़ों को भी मात दे दे।

बच्चा स्कूल में पढ़ने जाता है, लेकिन अनपढ़ पिता अपने रिटायरमेंट के लिए खुर्राट सरकारी अधिकारियों से पार नही पा पाता। एक समझदार इंसान की तरह लड़का अपने पिता को पढ़ाई न करने के बुरे नतीजे बताता रहता है, और साथ ही साथ सरकारी अधिकारियों को नियम-कायदों की असली और नई किताब के ज़रिए लाजवाब भी करता जाता है.( वैसे यह साबित हो गया कि ईरान हो या भारत, सरकारी अधिकारी हर जगह एक जैसे अडंगेबाज होते हैं)

फिल्म में कई प्रसंग ऐसे हैं, जो बच्चे को बच्चा नहीं एक पूरी पीढ़ी का प्रतिनिधि साबित करते हैं। कई जगहों पर फिल्मकार ने एक्वेरियम की अकेली मछली के ज़रिए बेहतरीन मेटाफर का इस्तेमाल किया है।

वह बच्चा जो अपनी दुनिया में अकेला है, जिसे बूढे बाप की देखभाल भी करनी है, उससे संवाद भी करना है, अधिकारियों से अपने अधिकारों के लिए लड़ना भी है। और बीच-बीच में अपना बचपन भी बचाए रखना है।


यह फिल्म समाकालीन झंझावातों के बीच जिजीविषा की अनोखी दौड़ है। फिल्म के एक दृश्य में एक चोर उसके पिता की साइकिल चोरी करके भागने लगता है। यह साइकिल उसके पिता की आखिरी और एकमात्र संपत्ति है। उसी दिन जिस दिन सरकारी अधिकारी लड़के के पिता को पेंशन देना मंजूर कर लेते हैं।

हाथ में मछली का बरतन लिए लड़का उस चोर के पीछे भागता है। और अचानक आपको द बाइसिकिल थीव्स की याद आ जाती है.।

बहरहाल, चोर का पीछा करके आखिरकार उसे पकड़ लेता है। पर भागमदौड़ में मछली का बरतन टूट जाता है... लड़का कपड़े वाले प्लास्टिक के थैले में नाली का पानी भर के मछली डालता है।


फिल्म के इस आखिरी दृश्य में नाली के पानी में भी मछली जिंदा है, लड़के के बाप को नाममात्र को पेंशन मिली है, फिर भी वह खुश है, लड़का अपने पिता को पढना सिखाता है। इससे बेहतर जिजीविषा की गाथा क्या हो सकती है भला? जहां तक साक्षरता के सवाल है.. यह फिल्म किसी भी सरकारी प्रचार से ज़्यादा प्रभावी साबित होगी।

 

Tuesday, February 21, 2012

पढ़ाई लिखाई, हाय रब्बा

मेरे सुपुत्र का एडमिशन स्कूल में हो गया। यह एडमिशन का मिशन मेरे लिए कितना कष्टकारी रहा, वह सिर्फ मैं जानता हूं। इसलिए नहीं कि बेटे का दाखिला नहीं हो रहा था..बल्कि इसलिए क्योंकि एडमिशन से पहले इंटरव्यू की कवायद में मुझे फिर से उन अंग्रेजी कविताओं-राइम्स-की किताबें पढ़नीं पड़ी, जो हमारे टाइम्स (राइम्स से रिद्म मिलाने के गर्ज से, पढ़ें वक्त) में हमने कभी सुनी भी न थीं।

अंग्रेजी स्कूलों से निकले हमारे साथी जरुर -बा बा ब्लैक शीप, हम्प्टी-डम्प्टी और चब्बी चिक्स जानते होंगे, लेकिन बिहार और बाकी के राज्य सरकारों के स्टेट बोर्ड से निकले मित्र जरुर इस बात से सहमत होंगे कि घरेलू स्तर पर छोड़कर औपचारिक रुप से अंग्रेजी से मुठभेड़ छठी कक्षा में हुआ करती थी।

बहरहाल, शिक्षा के उस वक्त की  कमियों की ओर इशारा करना मेरा उद्देश्य नहीं। केजी के मेरे सुपुत्र की किताबों की कीमत ढाई से तीन हजार के आसपास रहने वाली है। मुझे कुछ-कुछ अंदाजा तो था लेकिन सिर्फ किताबों की कीमत इतनी रहने वाली है इस पर मैं श्योर नहीं था।

मुझे अपना वक्त याद आय़ा। जब मैं अपने ज़माने की -हालांकि हमारा ज़माना इतना पीछे नहीं है, सिर्फ अस्सी के दशक के मध्य के बरसों की बात है-की बात करता हूं तो मुझे लगता है कि हम न जाने कितनी दूर चले आए हैं। बहुत सी बातें एकदम से बदल गईं हैं। हालांकि, प्रायः सारे बदलाव सकारात्मक से लगते हैं। लेकिन पढाई के बारे में ऐसा ही कहना, कम से कम पढाई की लागत के बारे में...हम स्वागतयोग्य तो नहीं ही मान सकते।

मेरा पहला स्कूल सरस्वती शिशु मंदिर था। कस्बे के कई स्कूलों को आजमाने के बाद तब के दूसरे सबसे अच्छे स्कूल (संसाधनों के लिहाज से) शिशु मंदिर ही था। हमारे कस्बे का सबसे बेहतर स्कूल कॉर्मेल कॉन्वेंट माना जाता था...अंग्रेजी माध्यम का। पूरे कस्बे में इसमें बच्चे का दाखिला गौरव की बात मानी जाती है, हालांकि जिनके बच्चों का दाखिला इस स्कूल में नहीं हो पाता, वो यह कह कर खुद को दिलासा देते कि स्कूल नहीं पढ़ता बच्चे पढ़ते हैं। और इसकी तैयारी हम घर पर ही करवाएंगे अच्छे से।

तैयारी तो खैर क्या होती होगी। हमारा दाखिला सरस्वती शिशु मंदिर में हुआ, दाखिले की फीस थी 40 रुपये और मासिक शुल्क 15 रुपये। यह सन 84 की बात होगी। इसमें यूनिफॉर्म था। नीली पैंट सफेद शर्ट...लाल स्वेटर। बस्ता जरुरी था और टिफिन भी ले जाना होता, जो प्रधान जी के मूड के लिहाज से लंबे या छोटे वाले भोजन मंत्र के बाद खाया जाता। भोजन के पहले मंत्रो की इस अनिवार्यता ने ही नास्तिकता के बीज बो दिए थे। चार साल उसमें पढ़ने के बाद जब फीस बढ़कर 25 रुपये हो गया, और  तब घरवालों को लगा कि यह शुल्क ज्यादा है।

भैया की नौकरी लग चुकी थी लेकिन उनका वेतन उतना नहीं थी कि हमारे इस मंहगे पढ़ाई का खर्च उठा पाते। सरस्वती शिशु मंदिर से इस नास्तिक को निकाल कर तिलक विद्यालय में भर्ती कराया गया, जिसे राज्य सरकार चलाती थी और यह मशहूर था कि गांधी जी उस स्कूल में आए थे। गांधी जी की वजह से पूरे  कस्बे में यह स्कूल गांधी स्कूल भी कहा जाता। एडमिशन फीस 5 रुपये, और सालाना शुल्क 12 रुपये।

गांधी स्कलू की खासियत थी कि हम 10 बजे स्कूल में प्रार्थना करने के बाद, जो कि हमारे लिए बदमाशियों का सबसे टीआरपी वक्त होता था...सफाई के लिए मैदान में इकट्ठे होते थे। मैदान में पत्ते और कागज चुनने के बाद, क्लास के फर्श की सफाई का काम होता। लाल रंग के उस ब्रिटिश जमाने के फर्श पर ही बैठना होता था  इसलिए सफाई जरुरी थी। यह काम रोल नंबर के लिहाज से बंधा होता।

उस वक्त भी, जो शायद 1987  का साल था, किताबों की कीमत हमारी ज़द में हुआ करती थी। पांचवी क्लास में 6 रुपये 80 पैसे की विज्ञान की किताब सबसे मंहगी किताब की कीमत थी। बिहार टेक्स्टबुक पब्लिशिंग कॉरपोरेशन किताबें छापा करती थी, सबसे सस्ती थी संस्कृत की किताब और सबसे मंहगी विज्ञान की।

उसमें भी घरवालों की कोशिश रहती कि किसी पुराने छात्र से किताबें सेंकेंडहैंड दिलवा दी जाएँ। आधी कीमत पर। किताब कॉपियां हाथों में ले जाते. सस्ते पेन...बॉल पॉइंट में भी कई स्तर के...35 पैसे वाले मोटी लिखाई के बॉल पॉइंट रिफिल से लेकर 75 पैसे में पतले लिखे जाने वाले बॉल पॉइंट पेन तक।

स्याही का इस्तेमाल धीरे धीरे कम तो हो रहा था, लेकिन फैशन से बाहर नहीं हुआ था। उस वक्त बिहार सरकार द्वारा वित्त प्रदत्त सब्सिडी वाले कागजों से वैशाली नाम की कॉपियां आतीं थीं...जिन पर जिल्द चढा होता। अब हमारी गुरबत पर न हंसिएगा...वैशाली की कॉपी में नोट्स बनाना मेरे और मेरे दोस्तों का बड़ा ख्वाब हुआ करता। मध्यम मोटाई की कॉपी दो रुपये की आती थी...हमारी सारी बचत वही खरीदने में खर्च होती।

आज वैशाली में ही रहता हूं, बेटे के स्कूल में कंप्यूटरों की भरमार देखकर आया हूं, फीस की रकम देखी...पढाई मंहगी हो गई है या वक्त का तकाजा है...या लोग संपन्न हो गए है या पढाई सुधर गई है...कस्बे और शहर का अंतर....वही सोच रहा हूं। सरकारी स्कूलों में पड़कर और जिंदगी के ढेर सारे साल गरीबी में बिताकर हमने खोया है या पाया है...


जारी

Thursday, February 16, 2012

बौद्धिकता के बहाने

आपने मेरी तस्वीर, जिसे मैं प्यार से फोटू कहता हूं, देख ही ली होगी। इस तस्वीर को खिंचवाने में बहुत मेहनत करनी पड़ी मुझे। मुझे लगा कि ऐसी तस्वीर के ज़रिए लोग मुझे भी बुद्धिजीवी समझने लगेंगे। मैं सीधे तोप हो जाऊंगा। टाइमबम। किसी ने छेड़ा नहीं कि सीधे फट पड़ने वाला...। घाघ तोपचियों की खुर्राट किस्म की तस्वीरों से मुझमें हीन भावना आने लगी थी...यह तस्वीर जरुरी हो रिया था।

कृपया, यह सवाल न करें कि आखिर बौद्धिक होने के लिए तस्वीर की क्या जरुरत आन पड़ी। लेकिन यह तय है कि आप सवाल पूछेंगे ही, बिना पूछे आप मानने वाले कहां ठहरे?

दरअसल, तस्वीर खिंचवाने और मन की स्थिति को बुद्धिजीवियों के स्तर तक लाने में बहुत झख मारनी पड़ती है। लेकिन मन में बैठी उस बात का क्या किया जाए। बचपन से देखता आया हूं कि जिस किसी को भी मन ही मन यह यक़ीन हो कि उसमें भी इंटेलेक्चुअलत्व है ज़रा भी। वह अपनी खुद की प्रायोजित किताब में ऐसी ही तस्वीरें चस्पां करवाते हैं।

जितने विचारक जाति के लोग हैं, साहित्यकारनुमा लोग, साहित्यिक लठैतों  से लेकर साहित्यिक चपरासी तक, साहित्यिक पान वाले से लेकर पानेवाले तक, गाल बजाने वाले से लेकर गाने-बजाने वाले तक...वह ऐसी ही तस्वीर खिंचवाते हैं।

हाथ गाल पर..या यूं कहें कि ठुड्डी पर। आंखें उधर .. जिधर फोटोग्राफर के स्टूडियो में कंघी-शीशा टांगने की जगह होती है।

पहले तो मैंने भी वैसा ही करने का पूरा प्रयास किया था। हाथ को ठुड्डी पर टिकाया, लेकिन ससुरा टिका ही नहीं। हाथ और ठुड्डी में उमा भारती और राहुल गांधी जैसा बुआ-भतीजे का रिश्ता...या यह रिश्ता भी समझ में न आए तो आरएसएस और दिग्गी राजा जैसा रिश्ता...अब समझे। आप लोगों को भी एक दम ऐसे समझाना पड़ता है जैसे राहुल वोटरों को समझाते हैं कि पैसा भेजा था केन्द्र से और बीच में न जाने कहां तो अटक गया।

हत् तेरे की...।

तो जनाब ठुड्डी और हाथ एक दसरे के साथ न जमे। काहे कि मेरे चेहरे पर दाढ़ी भी वैसे ही उगती है, जैसे चुनाव के ऐन पहले न जाने कैसी-कैसी नई  पार्टियां उग आती हैं, या पाक-नापाक, साफ-हाफ गठबंधन तैनात हो लेते हैं।

ये पार्टियां जैसे जीतनेवाले मजबूत उम्मीदवारों की आंखों में गड़ती हैं ना, वैसे ही दाढी के कड़े बाल मेरे हथेलियों में गड़ने लगे। बुद्धिजीवी की तरह तस्वीर खिंचवाने के मेरे प्रण का कौमार्य भंग होने लगा।

मुट्ठी खोलने की कोशिश की तो हथेलियों से चेहरा छिपने लगा, कैमरावाला मोबाईल फोन हाथ में लिए दोस्त फिकरा कसने लगा, यार मनोज कुमार की तरह लग रहे हो। मै पस्त हो गया। लेकिन मैं भी बुद्धिजीवी बनने के लिए उतारू था।

हाथ में कलम लेकर ऊपर की तरफ ताकना..शून्य में निहारना..मानो दुनिया में सुकरात के अब्बा और अफलातून के दादा,  मेरे कंधो पर सारी दुनिया की समस्याओं का बोझ डालकर निंश्चिंत हो गए हों, निश्चिंत होकर ज़न्नत की अप्सराओं के साथ चांदनी रात में नौका विहार कर रहे हों..।

मेरा स्वभाव भी कुछ ऐसा ही ऐं-वईं हंसी आने लगती है। सोनिया जी भ्रष्टाचार पर बोलें,  आडवाणी रथ यात्रा का प्रण साध लें, मनमोहन कहें हम लोकपाल पास कराने के लिए कृतसंकल्प हैं....ऐसी ही तमाम उम्दा बातों पर हंसी आने लगती है।

आम आदमी हूं..आम आदमी अपनी बुरी दशा में भी हंसता है, नेताओं के बयानों पर हंसता है। आम आदमी कुल मिलाकर खुश रहता है, नेता कहते हैं हमने आम आदमी को हंसाया, आम आदमी हंसता-हंसता अपनी जाति के नेता जी को वोट दे आता है।

हंसता नहीं होता आम आदमी तो हम खुश रहने वालों के सूचकांक में इतने ऊपर होते क्या? हमें तो रोटी के साथ नमक मिल जाता है तो हम खुश हो जाते हैं। ध्यान दीजिए. प्याज और तेल नहीं जोड़ा है मैंने।

सरकार की महती कृपा से मैं पूर्णतया शाकाहारी और अल्पहारी हो गया हूं। हरी सब्जियां खरीदने की औकात रही नहीं, वेतन वृद्धि के आसार दिल्ली में हिमपात की तरह दूर-दूर तक नजर नहीं आते, आलू उबालकर खा रहा हूं। रही बात अल्पहारी की तो कृषि मंत्री शरद पवार ने क्रिकेट की राजनीति और मुंबई नगर निगम चुनावों के बीच आम आदमी को अपनी कीमती वक्त देते हुए कहा था कि आम आदमी खाने लगा है इसलिए मंहगाई बढ़ रही है।

देश का नागरिक होते हुए मुझे मंहगाई कम करने की कोशिश तो करनी चाहिए ना। और योजना आयोग का बहु-प्रशंसति 32 रुपये वाला समीकरण भी है।

मां को शक हो गया है कि घर के सभी लोगों को पेट की कोई गंभीर बीमारी हो गई है, जभी मैंने सबके तेल और प्याज खाने पर रोक लगा दी है। कौन समझाएगा कि बीमारी किसको हुई है पेट की.. बीजेपी की तरह मुझे एक बीमारी ज़रूर हो गई है, मुद्दे से भटकने की। माफी चाहूंगा...बात मैं कर रहा था, तस्वीर खिंचवाने की।

तो जनाब, तस्वीर खिंचवाने के लिए गंभीर होना सबसे बड़ी समस्या थी। वैसे किसी दोस्त ने सलाह दी कि कुरता पहनो , बुद्धिजीवी लगोगे..बुद्धिजीवी होने के लिए कुरता पहनना बहुत ज़रूरी है। लेकिन हमारे शरीर की ढब कुछ ऐसी है कि कुरता पहनूं तो लगता है, खूंटी में टांग दी गई है। सो यह ख़्याल हमने खुदरा में एफडीआई के विचार और राइट टू रिजेक्ट की तरह तत्काल प्रभाव से खारिज कर दी।

वैसे जहां तक गंभीरता का सवाल है, वह तो हम आजतक हुए ही नहीं.. बहुत कोशिश की गौतम गंभीर ही हो जाएं, कभी तो धोनी का छींका टूटेगा और हम भी कप्तान बन लेंगे की तरह की उम्मीद में...लेकिन जानकार कहते हैं गंभीरता आते-आते ही आती है।

गोया गंभीर हम तब हो गए, जब हमारे मजहब के बड़े स्तंभों ने हमें निराश करना शुरु  कर दिया। सुनने लगे कि सहवाग-गंभीर वगैरह धोनी के खिलाफ साजिश रचने में लगे हैं, इंग्लैंड में चार और पाताल देश में चार टेस्ट यानी कुल आठ टेस्ट हारने के बाद हमको बहुत जोर का झटका लगा। वो भी इसलिए कि पैसों की खातिर खिलाड़ी उसी से दगा कर रहे हैं, जिसने उनको बनाया, स्टार बनाया रुतबा दिया। यानी क्रिकेट।

इन पराजयों से हम गंभीर (संजीदा गुरु.. गौतम वाला नहीं) हो गए, मेरा दोस्त मेरा खांटी दोस्त है, इसी मौके की तलाश में था, चट् से फोटू टांक दी। तबसे हर जगह यही तस्वीर टांकता चलता हूं, ताकि लोगों को लगता रहे कि यह जो चंट जैसा इंसान पिचके गालों को ढंकने के लिए चेहरे पर हाथ रखे हुए है, छंटा हुआ बुद्धिजीवी है।

Wednesday, February 15, 2012

शहरयार का जाना..

कल शाम रितु वर्मा का मेसेज आय़ा...शहरयार पर कुछ लिख रहे हो? तब तक ये पता न था कि शहरयार नहीं रहे...फिर नेट पर ही शहरयार को बहुत पढा।


मुझे लगा कि शहरयार जैसे ब़ड़े शायर पर लिखने के लिए मैं बहुत छोटा इंसान हूं।

जिस शायर की शायरी, जिनकी पोएट्री बरगद के पेड़ सरीखी थी, जिसकी छांव में उदासी ही उदासी ही बिखरी नजर आती है, जिनके जिंदगी को देखने का अंदाज ही अलहदा था, उसके बारे में मैं क्या लिखूं।

शहरयार ने जिंदगी के भी एक अलग अंदाज में पेश किया. उनका यही अलहदा लहजा उनकी पहचान भी रहा। जिनके तईं हम शहरयार को जानते रहे। याद आ  रहा है, सीने में जलन दर्द का तूफ़ान-सा क्यूं है, इस शहर में हर शख्स परेशां-सा क्यूं है....सवाल अब भी अनुत्तरित है शहरयार साब।

अपने खास  लहजे में उन्होंने नज्में भी कहीं और खूबसूरत गजलें भी। 

इसे हमारे दौर की विडंबना ही कहना चाहिए कि एक बड़े शायर को शोहरत फिल्मों में इस्तेमाल की गई उनकी गजलों से मिली। जबकि वे गजलें एक अरसे से लिख रहे थे। बहरहाल अच्छा शायर इस शोहरत व नाम की परवाह करता तो शायद कुछ और करता शायरी न करता। शहरयार ने शायरी की और हमारे दौर के दर्द, उदासी, खालीपन समेत अनेक चीजों को उसमें पिरोते गए :

चमन दर चमन पायमाली रहे
हवा तेरा दामन न खाली रहे।
जहां मुअतरिफ हो तेरे कहर का
अबद तक तेरी बेमिसाली रहे।

---(स्रोत-कविताकोश)

यह पूरी गजल कुदरत के गुस्से का बयान करती है और शहरयार अपनी जुबां से कहते हैं कि जैसी जिंदगी हम जीने लगे हैं मुमकिन है उसका अंजाम कुछ ऐसा हो। वैसे इसका आखिरी शेर अलग मिजाज का है :

न मैली हो मेंहदी कभी हाथ की
सदा आंख काजल से काली रहे।

या फिर,

तू ही मुझसे अजनबी बनकर मिला हर मोड़ पर
मेरी आंखों में तो था रंगे शनासाई बहुत।

शेर उन्होंने किसी भी मूड के कहे हों उनमें गहरी उदासी का हिस्सा जरूर होता है। देखिए रात का जिक्र वे किस दर्द में डूबकर करते हैं :

पहले नहाई ओस में, फिर आंसुओं में रात
यूं बूंद-बूंद उतरी हमारे घरों में रात।
आंखों को सबकी नींद भी दी, ख्वाब भी दिए
हमको शुमार करती रही दुश्मनों में रात।


शहरयार की ही कविता थी, जिसमें जीना भी एक कारे-जुनूं है, उनके जाने के बाद याद आता है कि किसी को कभी मुकम्मल जहां नही मिलता, कहीं ज़मी तो कहीं आसमां नहीं मिलता.....शहरयार साब का जाना हमारे लिए हतोत्साहित होने की एक और बड़ी वजह है। हमें रौशनी दिखाने वाली मीनारें एक-एक कर गुजरती जा रही हैं। जोशी जी गए, जगजीत चले गए, देव साहब...और अब शहरयार...।


बड़े गौर से सुन रहा था ज़माना...तुम्ही सो गए दास्तां कहते कहते

Monday, February 13, 2012

हतोत्साहित हूं...

सोच रहा हूं एक किताब लिख डालूं।  पत्रकारिता के पेशे में आने के बाद सोचना शुरु कर दिया है। हालांकि स्थिति ये है कि मेरे कई साथी सोचते नहीं पूछते हैं अर्थात् बाईट लेते हैं और अपना उपसंहार पेलते हैं। पहले अपने भविष्य के बारे में सोचता रहता था। वह सेक्योर नहीं हो पाया तो देश के भविष्य के बारे में सोचने लगा।

एक मित्र हैं सुशांत भाई..उन्होंने लगे हाथ सुझाव दिया। किताब लिख डालो। देश की व्यवस्था पर लिख डालो.. लोग लिख रहे हैं तो तुम क्यों नहीं लिखते।

एक अन्य  मित्र हैं.. उन्होंने टिप्पणी दी, लिख कर के समाज को क्या दे दोगे? कौन पढेगा, पढ भी लेगा तो क्या अमल मे लाएगा? अमल में लाना होता तो रामचरित मानस ही अमल मे ले आते। तुम्हारा लिखा कौन पढेगा।? क्यों पढेगा। मैं हतोत्साहित हो गया।

हतोत्साहित होना मेरा बचपन का स्वभाव है। कई बार हतोत्साहित हुआ हूं।

परीक्षाएं अच्छी जाती रहीं, लेकिन परीक्षा परिणांम हतोत्साहित करने वाले रहे। अपने कद में मैं अमिताभ बच्चन की कद का होना चाहता था। ६ फुट २ इंच लंबाई का गैर-सरकारी मानक था उस वक्त॥लेकिन अफसोस हमारे अपने क़द ने हमें हतोत्साहित किया। चेहरे-मौहरे से हम कम से कम शशि कपूर होना चाहते थे, लेकिन हमारे थोबड़े ने हमें हतोत्साहित कर दिया।

रिश्तदारों ने रिश्तों में हतोत्साहित किया, कॉलेज में लड़कियों ने हतोत्साहित किया। भाभी की बहन ने हमें देखकर कभी नहीं गाया कि दीदी तेरा देवर दीवाना... हम कायदे से बहुत हतोत्साहित महसूस कर रहे हैं। देश की दशा ने, महंगाई ने, राजनीति के गिरते स्तर, इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया में धोनी के लड़ाकों का घटिया प्रदर्शन, सचिन के सौवें शतक के लंबे होते इंतजार से हतोत्साहित हो रहा हूं।

एक आम आदमी की हैसियत से हतोत्साहित हूं। क्या कोई मेरे हतोत्साहित होने पर ध्यान देगा?

हतोत्साहित करने वाले वाकये बढ़ते जा रहे हैं। अभी कुछ दिन पहले योजना आयोग के नीली पगड़ी वाले असरदार सरदार मोंटेक ने कहा था कि शहरों में आम आदमी के जीने के लिए 32 रुपये काफी हैं। भिंडी 15 रुपये पाव बिक रहा है, प्याज 20 रुपये किलो....आटे और दाल की कीमतों पर कोई टिप्पणी किए बिना इतना ही हतोत्साहित होने के लिए काफी लग रहा है। मकान खरीदने के लिए बैंक से ली गई कर्ज की  मेरी ईएमआई लगातार बढ़ती जा रही है...कर्जे ब्याज दर लगातार बढ़ रही है। हर महीने मैं वेतन पाने के बाद ज्यादा हतोत्साहित हो जाता हूं।


मोंटेक का बंगला दिल्ली के लुटियन ज़ोन में आता है। कीमत होगी करीब 400 करोड़ रुपये। उनकी लॉन में करीने से कुतरी गई  हर घास की कीमत 32 रुपये से ज्यादा ठहरती है। हतोत्साहित होने के लिए यह भी पर्याप्त है।

कल वैलेंटाईन डे हैं...यह एक ऐसा दिन है जो सालाना मुझे हतोत्साहित करता है।