लोगों को घर की याद आती होगी, घरवालों की याद आती होगी। याद आती होगी दोस्तों की, जो कहीं न कहीं नून-तेल-लकड़ी के जुगाड़ में व्यस्त होंगे। किन्ही-किन्ही महानुभावों को अपनी प्रेमिका या प्रेमिकाओं की याद आती होगी। नियति ने हाल ही में बड़ा झटका दिया है...इन सारी यादों से मैं भी गुज़रा हूं लेकिन आज मुझे बेतरह याद आ रही है एक पेड़ की।
हमारे आंगन में एक पेड़ था, कटहल का।
उस पेड़ को मैंने ही लगाया था। तब लगाया था जब हमारा आंगन इतना सिकुड़ा नहीं था।
मधुपुर में, और हमारे आसपास के इलाके में शरीफे और कटहलों के बहुत सारे पेड़ होते हैं। ये बात और है कि जितने शरीफों के पेड़ हैं लोग उतने शरीफ रहे नहीं। वहां उनके फलने-फूलने के बहुत सारे औज़ार हैं। बहरहाल, बरसात के दिन थे और हमारे किसी जानने वाले ने एक कटहल भिजवाया था, पका हुआ।
खूब सोंधी-सोंधी ख़ुशबू आ रही थी उसमें से। हमने उसके एक बीज को गमले में यो ही ऱोप दिया। स्कूल से आकर तकरीबन रोज ही हम उस रोपी जगह पर देखते कि शायद कहीं कोई कोई हरापन दिख जाए। बचपन से ही आशावादी रहा हूं।
एक दिन जब बरसात धारासार हो रही थी, और हम भींगते हुए स्कूल से आए, तो देखा कि गमले में एक करीब दो इंच ऊंचा हरा-सा, लौंडा-सा चंट अंकुर सीना तान कर खड़ा है। उसे शायद मेरा ही इंतजार था। दो नन्हें-नन्हें पत्ते..और एकदम तुनुक पतली हरी डंडी जो जमीन में जा गड़ी थी।
दसेक दिन बाद हमने उस थोड़े मज़बूत हो चुके अंकुर को सलीके से मिट्टी समेत उखाड़ कर ज़मीन में लगा दिया। छोटा-सा अंकुर नर्सरी से केजी में आ गया। दाखिला कामयाब रहा था।
हम सातवी में थे, पौधा नर्सरी में। उम्र में भी करीब ग्यारह साल का फ़र्क था। लेकिन पौधे को थोड़ी देखभाल मिली और थोड़ा गोबर वाला खाद कि बस..एक साल में ही वह मेरे घुटनों तक पहुंच गया। उस समय तक मैं उसके पत्ते भी गिनने लगा था। सूखी पत्तियों को कैंची से अलग कर देता। बिलकुल नए ललछौंह पत्तियों को किसी को छूने न देता।
उसके अगल बगल से निकल रही शाखाओं को मैंने कुतर दिया, ताकि पेड़ सीधा बढ़े। और भाई साब, पेड़ ऐसा बढ़ा कि जब मैं दसवीं में पहुंचा वो मेरे सिर के ऊपर पहुंच गया। ग्यारहवीं में पढने अपने क़स्बेनुमा शहर से बाहर निकल गया। वापस आता था, तो पेड़ और तन गया होता था। मैं तो खैर लहीम-शहीम था लेकिन पेड़ गबरु जवान की तरह बढ़ा। फिर वह इतना मजबूत हो गया कि मैं उसकी डालियों पर चढ़ कर हवा से बातें करता।
कटहल का वो पेड़ फला भी, और खूब फला। खूब स्वादिष्ट।
मां ने पड़ोसियों को खूब भिजवाए, उपहार में।
लेकिन जब हम बढे, तो पेड़ के लिए जगह कम पड़ने लगी। मकान का विस्तार करने की बात की जा रही थी, लेकिन घर का आकार सिकुड़ने वाला था। कमरे बढ़ने वाले थे..आंगन का आंचल छोटा करके।
मेरे तमाम विरोधों के बावजूद मेरे दोस्त का सीना छलनी कर दिया गया। मैं नाराज होकर हॉस्टल वापस चला गया। लेकिन मेरे नाराज होने का तब भी किसी पर कोई असर नहीं पड़ा, आज भी नही पड़ता है।
हरे पत्ते सझली चाची नाम की पड़ोसन ले गईं, अपनी बकरियों को खिलाने। लकड़ी से भैया ने खिड़की-दरवाजों के चौखट-पल्ले बनवा लिए। मेरा दोस्त आज भी मौजूद है अपने उस रुप में..मेरे घर में।
बहरहाल, उसी दिन मैंने प्रण लिया कि अपने इसी पेड़ दोस्त की याद में अपने शहर से सटी पहाड़ी को गोद लूंगा। उसे भी लोगों ने उजाड़ कर रख दिया है। उस पहाड़ी पर भटकटैया, धतूरे, नागफ़नी, और तमाम ऐसे पौधे लगाऊंगा जो अनाथ हैं। जिन्हे कोई नहीं पूछता। साथ ही वहां गुलमोहर भी होगा, अमलतास भी, कचनार भी, पलाश भी..सारे देशी पौधे। गुड़हल या अड़हुल, सदाबहार, हरसिंगार के जंगल भी होंगे।
सिर्फ फूलों के पेड़..फलों के नहीं। फलों के पेड़ों को लेकर स्वामित्व का झगड़ा खडा हो जाता है।
सोचा है एक वहां एक तालाब भी बनाऊं, जहां देशी कमलिनियां हों, जिसे लिलि कहते हैं।
पूरी पहाड़ी पर फल का सिर्फ एक पेड़ होगा...कटहल का...सबसे ऊंची जगह पर। जिसे कोई घर बनाने के लिए काट नहीं पाएगा।