अभी हाल ही में घर गया था। झारखंड। मधुपुर। ढाई साल बाद जाने का मौका मिला। पता नहीं इतना इमोशनल क्यों हूं. अपने घर को, अपने शहर को नजदीक से निहारने का कोई मौका नहीं छोड़ता। लेकिन इस बार मेरे शहर ने मुझे बहुत निराश किया।
सुशांत कहते हैं कि लीडर, बड़ा लीडर कभी अतीत की ओर नहीं जाता। मैं जाता रहता हूं। तय हो गया कि मैं लीडर नहीं हूं। मुझे लीडर नहीं बनना है। मैं कृष्ण नहीं।
मधुपुर में जितने चौक-चौराहे हैं, मूर्त्तियों ने घेर ली है जगह। मधुपुर के सबसे बीच के चौक में गांधी जी की मूर्ति किसी हड़बड़ी में दिखती है। कूदकर भागने को तैयार। हाथ की लाठी तक गतिमान् है। शायद नोआखली कीतरफ निकलने वाले हों। वैसे भी भारत में गुजरात से लेकर असम तक, तेलंगाना से लेकर अनंतनाग तक हर जगह नोआखली पैदा हो गया है। गांधी की मूर्त्ति की हड़बड़ी समझ में आने लगी है। गांधी चौक शाश्वत है।
इससे थोड़ा दक्षिण आज का जेपी चौक है।
पहले आर्य समाज मंदिर की वजह से यह आर्य समाज चौक कहलाता था। यहां सन् 86 में जेपी की मूर्त्ति लगा दी गई। आवक्ष प्रतिमा। नीचे नारा भी लिखा है, संपूर्ण क्रांति वाला। जिसमें भावी इतिहास हमारा कहा गया है। संपूर्ण क्रांति अब नारा है, भावी इतिहास हमारा है। नारा शब्दों में, संगमरमर की पट्टिका पर दर्ज है। बस।
आम जनमानस में चौक अब भी आर्य समाज का ही है। जेपी की मूर्त्ति की नीचे एक और संगमरमर की पट्टिका लगी है। जिसमें मधुपुर शहर के वास्तुकार मोतीलाल मित्रा के होने का ऐलान है।
इसके बाद थाना..और थाने के आगे एक तिराहा। तिराहे के एक कोने पर लोहिया जी की मूर्ति है। यह भी आवक्ष। संगमरमर की। लोहिया की मूर्ति के नीचे एक और घोषणा, ज़िंदा क़ौमें पांच साल तक इंतजार नहीं करती। लोहिया जी इस लिहाज से हमारी क़ौम कब की मर चुकी है। हर पांच साल बाद अपनी जाति के लोगों को संसद, विधानसभा भेजकर अपने कलेजे पर दुहत्थड़ मार कर अरण्य रोदन करती रहती है। लोहिया की मूर्ति और विचार दोनों उपेक्षित हैं। वैसे, खुद लोहिया ने भी कहा था कि किसी नेता की मूर्त्ति उसके मरने के सौ साल बाद ही लगानी चाहिए। सौ साल में इतिहास उसकी प्रासंगिकता का मूल्यांकन खुद कर लेगा। बहरहाल, वह तिराहा अब भी थाना मोड़ ही है।
सड़क के साथ मुड़कर दक्षिण की ओर चलते चलें, तो आधा किलोमीटर बाद ग्लास फैक्ट्री मोड़ आता है। यह भी तिराहा है। झारखंड आंदोलन के दौरान शहीद हुए आंदोलनकारी निर्मल वर्मा के नाम पर इस चौक पर एक पट्टिका लगा दी गई। बदलते वक्त में ग्लास फैक्ट्री-जिसमें लैंप के शीशे से लेकर ज़ार और मर्तबान बनते थे, ग्लासें बनतीं थी-बंद हो गई। लोग बड़े पैमाने पर बेरोजगार हो गए। लेकिन ग्लास फैक्ट्री से लोगों का मोह भंग नहीं हुआ। निर्मल वर्मा के नाम पर उस तिराहे को कोई नहीं जानता।
वह मोड़ अब भी ग्लास फैक्ट्री मोड़ है।
सड़कों को नाम पंचमंदिर रोड हैं, हटिया रोड है, स्टेशन रोड हैं। हां, पता नहीं कैसे एक चौराहा जहां भगत सिंह की मूर्ति है ुसे भगत सिंह चौक ही कहा जाने लगा है। भगत सिंह बिरसा की तरह ही मधुपुर की अवाम के मन में बसे हैं।
आर्य समाज चौक से दाहिनी तरफ सिनेमा हॉल है-सुमेर चित्र मंदिर। लेकिन उससे पहले एक कोने पर बंगालियों की संस्था तरुण समिति ने सुभाष चंद्र बोस की मूर्त्ति लगा दी है। आदमकद प्रतिमा ललकारती-सी लगती है। लेकिन बागी हो चुकी पीढी के लिए जिसके लिए आवारपन शगल है-बोस की प्रतिमा पर नजर देना भी वक्त की बरबादी लगने लगा है।
उधर, आर्य समाज चौक पर ही एक बहुत मशहूर बड़ा स्कूल है। उसके बोर्ड पर नजर गई तो बहुत बुरा लगा। पहले, यानी जब हम छात्र रहे थे तब वो स्कूल एडवर्ड जॉर्ज हाई स्कूल था, अब उसे डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी उच्च विद्यालय कर दिया गया है।
काश...नाम बदलने की बजाय सरकार स्कूल में श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नाम पर कोई पुस्तकालय शुरु कर देती। शहर के बदले मिज़ाज ने दुखी कर दिया।
जिस वक्त हम शहर छोड़ गए उस वक्त की यादों और आज के हालात में ज्यादा फर्क नहीं। विकास और तरक्की के नाम पर कुछ फैशनेबल दुकानों और मोबाईल टॉवरों के अलावा मधुपुर में कुछ नहीं जुड़ा। हरियाली कम हो गई है, पानी का संकट खड़ा होने लगा है। हमेशा ताजा पानी मुहैया कराने वाले कुएं सूख चले हैं...बढ़ते शहर में मकानों ने पेड़ो की जगह ले ली है।
सांस्कृति रूप से समृद्ध रहे शहर में तनाव तारी है। यह तनाव सांप्रदायिक नहीं है, जीवन शैली का तनाव है।
दुखी होने के लिए इतना काफी है।
सुशांत कहते हैं कि लीडर, बड़ा लीडर कभी अतीत की ओर नहीं जाता। मैं जाता रहता हूं। तय हो गया कि मैं लीडर नहीं हूं। मुझे लीडर नहीं बनना है। मैं कृष्ण नहीं।
मधुपुर में जितने चौक-चौराहे हैं, मूर्त्तियों ने घेर ली है जगह। मधुपुर के सबसे बीच के चौक में गांधी जी की मूर्ति किसी हड़बड़ी में दिखती है। कूदकर भागने को तैयार। हाथ की लाठी तक गतिमान् है। शायद नोआखली कीतरफ निकलने वाले हों। वैसे भी भारत में गुजरात से लेकर असम तक, तेलंगाना से लेकर अनंतनाग तक हर जगह नोआखली पैदा हो गया है। गांधी की मूर्त्ति की हड़बड़ी समझ में आने लगी है। गांधी चौक शाश्वत है।
इससे थोड़ा दक्षिण आज का जेपी चौक है।
पहले आर्य समाज मंदिर की वजह से यह आर्य समाज चौक कहलाता था। यहां सन् 86 में जेपी की मूर्त्ति लगा दी गई। आवक्ष प्रतिमा। नीचे नारा भी लिखा है, संपूर्ण क्रांति वाला। जिसमें भावी इतिहास हमारा कहा गया है। संपूर्ण क्रांति अब नारा है, भावी इतिहास हमारा है। नारा शब्दों में, संगमरमर की पट्टिका पर दर्ज है। बस।
आम जनमानस में चौक अब भी आर्य समाज का ही है। जेपी की मूर्त्ति की नीचे एक और संगमरमर की पट्टिका लगी है। जिसमें मधुपुर शहर के वास्तुकार मोतीलाल मित्रा के होने का ऐलान है।
इसके बाद थाना..और थाने के आगे एक तिराहा। तिराहे के एक कोने पर लोहिया जी की मूर्ति है। यह भी आवक्ष। संगमरमर की। लोहिया की मूर्ति के नीचे एक और घोषणा, ज़िंदा क़ौमें पांच साल तक इंतजार नहीं करती। लोहिया जी इस लिहाज से हमारी क़ौम कब की मर चुकी है। हर पांच साल बाद अपनी जाति के लोगों को संसद, विधानसभा भेजकर अपने कलेजे पर दुहत्थड़ मार कर अरण्य रोदन करती रहती है। लोहिया की मूर्ति और विचार दोनों उपेक्षित हैं। वैसे, खुद लोहिया ने भी कहा था कि किसी नेता की मूर्त्ति उसके मरने के सौ साल बाद ही लगानी चाहिए। सौ साल में इतिहास उसकी प्रासंगिकता का मूल्यांकन खुद कर लेगा। बहरहाल, वह तिराहा अब भी थाना मोड़ ही है।
सड़क के साथ मुड़कर दक्षिण की ओर चलते चलें, तो आधा किलोमीटर बाद ग्लास फैक्ट्री मोड़ आता है। यह भी तिराहा है। झारखंड आंदोलन के दौरान शहीद हुए आंदोलनकारी निर्मल वर्मा के नाम पर इस चौक पर एक पट्टिका लगा दी गई। बदलते वक्त में ग्लास फैक्ट्री-जिसमें लैंप के शीशे से लेकर ज़ार और मर्तबान बनते थे, ग्लासें बनतीं थी-बंद हो गई। लोग बड़े पैमाने पर बेरोजगार हो गए। लेकिन ग्लास फैक्ट्री से लोगों का मोह भंग नहीं हुआ। निर्मल वर्मा के नाम पर उस तिराहे को कोई नहीं जानता।
वह मोड़ अब भी ग्लास फैक्ट्री मोड़ है।
सड़कों को नाम पंचमंदिर रोड हैं, हटिया रोड है, स्टेशन रोड हैं। हां, पता नहीं कैसे एक चौराहा जहां भगत सिंह की मूर्ति है ुसे भगत सिंह चौक ही कहा जाने लगा है। भगत सिंह बिरसा की तरह ही मधुपुर की अवाम के मन में बसे हैं।
आर्य समाज चौक से दाहिनी तरफ सिनेमा हॉल है-सुमेर चित्र मंदिर। लेकिन उससे पहले एक कोने पर बंगालियों की संस्था तरुण समिति ने सुभाष चंद्र बोस की मूर्त्ति लगा दी है। आदमकद प्रतिमा ललकारती-सी लगती है। लेकिन बागी हो चुकी पीढी के लिए जिसके लिए आवारपन शगल है-बोस की प्रतिमा पर नजर देना भी वक्त की बरबादी लगने लगा है।
उधर, आर्य समाज चौक पर ही एक बहुत मशहूर बड़ा स्कूल है। उसके बोर्ड पर नजर गई तो बहुत बुरा लगा। पहले, यानी जब हम छात्र रहे थे तब वो स्कूल एडवर्ड जॉर्ज हाई स्कूल था, अब उसे डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी उच्च विद्यालय कर दिया गया है।
काश...नाम बदलने की बजाय सरकार स्कूल में श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नाम पर कोई पुस्तकालय शुरु कर देती। शहर के बदले मिज़ाज ने दुखी कर दिया।
जिस वक्त हम शहर छोड़ गए उस वक्त की यादों और आज के हालात में ज्यादा फर्क नहीं। विकास और तरक्की के नाम पर कुछ फैशनेबल दुकानों और मोबाईल टॉवरों के अलावा मधुपुर में कुछ नहीं जुड़ा। हरियाली कम हो गई है, पानी का संकट खड़ा होने लगा है। हमेशा ताजा पानी मुहैया कराने वाले कुएं सूख चले हैं...बढ़ते शहर में मकानों ने पेड़ो की जगह ले ली है।
सांस्कृति रूप से समृद्ध रहे शहर में तनाव तारी है। यह तनाव सांप्रदायिक नहीं है, जीवन शैली का तनाव है।
दुखी होने के लिए इतना काफी है।
शहरों को भी अपना जीवन होता है, सुन्दरता से व्यक्त..
ReplyDeleteWaah bhai.... Pura Madhupur ghumwakar le aaye aap toh...!! Aur dukhi naa hoiye, waqt ke saath saath achha badalaav bhi zaroor aayega, viswaas rakhiye.....
ReplyDeleteसाधु-साधु। मेरे गांव में भी ऐसी मूर्तियां हैं। कई मूर्तियां बेवजह सत्ता के मद में लगा दी गई। उनका रखवाला अब कोई नहीं। वे मूर्तियां असहाय खड़ी हैं। हां, गांधी और भगत को अब भी कोई नहीं छेड़ता। वे दिल में धंसे हैं।
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