आमतौर पर गुप्तकाल के खगोलज्ञ आर्यभट्ट का रिश्ता उज्जैन से जोड़ा जाता है, लेकिन इस बात पर शोध चल रहा है कि कहीं उनकी वेधशाला पटना के पास मसौढ़ी के तरेगना गांव में तो नहीं।
तरेगना नाम तारेगण या तारा गणना से जोड़ा जाता है।
वैसे सरकार द्वारा गठित आर्यभट्ट की
वेधशालाओं के बारे में कुछ जगहों के प्राथमिक क्षेत्र सर्वेक्षण की प्राथमिक
रिपोर्ट आ गई है। ये स्थान हैं पटना के नजदीक खगौल, तरेगना डीह और तरेगना टॉप।
20 सितंबर 2012
को हुई बैठक में चर्चा हुई थी कि इस संदर्भ में विशेषज्ञों के साथ विमर्श और जांच
की जाए।
डॉ अमिताभ घोष के नेतृत्व में बनी टीम ने इस बारे में डॉ जगदंबा पांडेय- पाटलिपुत्र के प्राचीन इतिहास के जानकार--और सिद्धेश्वर
पांडेय़ से भी बातचीत की।
सिद्धेश्वर पांडेय ने आर्यभट्ट और तरेगना के संबंधों पर कई आलेख
लिखे हैं।
इतिहास बताता है कि तरेगना डीह,
कुसुमपुर से नालंदा के बीच पुराना व्यापार मार्ग था। दंतकथाओं के मुताबिक आर्यभट्ट
की वेधशाला इसी गांव के टीले पर है। सिद्धेश्वर
नाथ पांडेय द्वारा दी गई जानकारी के मुताबिक, (उन्होंने आर्यभट्ट और तरेगाना के
रिश्तों पर एक आलेख लिखा है) और स्थानीय लोग बताते हैं कि वहां का टीला ही वह जगह है जहां आर्यभट्ट की वेधशाला वहीं अवस्थित थी।
किताब और आलेख
के मुताबिक, यह करीब 25 से 30 फीट ऊंचा था, और मिट्टी का बना हुआ मीनार था। मौजूदा
वक्त में उसका महज 6 से 8 फीट ऊंची दीवार सी बची है, जिसकी त्रिज्या करीब 50 फीट
की है। वहां करीब 10 मिट्टी के घर हैं, जिसकी छतें खपरैल की हैं, ये उसकी परिधि पर
बसी हुई हैं। इस माउंड के बीचोंबीच एक दोमंजिला मकान भी बना हुआ है।
स्थानीय
सूत्रों के मुताबिक ये घर पिछले 10 से 15 साल के भीतर बनी हैं, और जमीन को गैर
मजरुआ मान कर बनाई गई हैं। वहां के एसडीओ ने वायदा किया है कि वो इस बारे में रिकॉर्ड्स देखेंगे और इस इलाके में आगे
किसी भी निर्माण गतिविधि पर तत्काल प्रभाव से रोक लगाएंगे।
जब मानस रंजन और
के एस जायसवाल रिसर्च इंस्टिट्यूट के संजीव सिन्हा ने माउंड का सर्वे किया तो
उन्होंने पाया कि वहां ढलान पर उत्तरी काले पॉलिश्ड मृद्भांडों और भूरे मृद्भांडों
के अवशेष भी पाए।
उत्तरी काले पॉलिश्ड मृद्भांडों और भूरे मृद्भांडों का प्रयोग
पुरातात्विक काल गणना के हिसाब से 700 से 200 ईसापूर्व में लौह युग में किया जाता
था। इसका शिखर काल मौर्य युग में था। अतः उत्तरी काले पॉलिश्ड मृद्भांडों और भूरे
मृद्भांडों के साक्ष्य बताते हैं कि इस इलाके में घनी बस्ती हुआ करती होगी और यह
गुप्तकाल से पहले होगी।
जब इस इलाके की और जांच की गई तो पाया गया कि माउंड में
कुछ और बरतन थे। मिट्टी के घरों में बिना पकाए गए धूप में सुखाए गए ईंटों का इस्तेमाल
किया जाता था। और मिट्टी के बने टुकड़े उसमें ईंटो में पाए गए। इनमें से ज्यादातर टुकड़े
सतह पर पाए गए और पाया गया कि मानवीय क्रियाओं की वजह से ये इधर-उधर हो चुके थे।
जांच दल ने सरकार को सलाह दी है कि इस इलाके का कायदे से पुरातात्विक सर्वेक्षण कराया जाए ताकि
पता लग सके कि यहां गुप्त काल से पहले मानवीय बस्तियां किस तरह की थी। खासकर,
बुद्ध और गुप्तकाल में क्योंकि आर्यभट्ट का यहा काल माना जाता है।
इस स्थान की
उर्ध्वाधर खुदाई की सिफारिश भी की गई है। ताकि काल खंडों का पता लगाया जा सके।
यहां सूर्य और
बिष्णु का पूर्व मध्य़कालीन मंदिर भी है, जो कि स्थान से महज 500 मीटर दूर है। यहां
गए। दोनों स्थल तरेगना डीह के टीले के पास ही पाए गए।
जांच दल ने इस स्थान पर आर्यभट्ट
परियोजना के लिए कुछ सुझाव भी दिए हैं, जिसके मुताबिक यहां पर आर्यभट्ट संग्रहालय बनाया जाएगा। इस संग्रहालय में आर्यभट्ट के जीवन और उनके भारतीय और विश्व खगोलिकी
में योगदान को दिखाया जा सकता है।
"डीह" शब्द का प्रयोग ऊंचे स्थान या टीले के लिए होता है। मेरा मानना है कि जिस गाँव के नाम के साथ डीह जुड़ा होता है या गाँव के किसी स्थान विशेष को डीह कहा जाता है, वहाँ पुरातात्विक सामग्री मिलने की संभावना बढ़ जाती है.
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