वह भीड़ नहीं - भेड़ें थी ।
कुछ जमीन पर सोए सांसें गिन रही थीं।
दोस्तों का रोना भी नसीब न था।
चांडाल नृत्य करता शहर,
ऐ दुनिया के लोग;
अपना कब्रगाह या श्मशान यहां बना लो।
अगर कुछ न समझ में न आए तो,
एक गैसयंत्र और यहां बना लो।
मुझे कोई अफसोस नहीं,
हम तो पहले से ही आदी थे इस जहर के,
फर्क सिर्फ इतना था,
कल तक हम चलते थे, आज दौड़ने लगे।
कफ़न तो मिला था,
पर ये क्या पता था?
एक ही कफ़न से दस मुर्दे जलेगें,
जलने से पहले बुझा दिये जायेगें,
और फिर
दफ़ना दिये जाएंगें।
कवि का नामः पता नहीं कर पाए,
[प्रकाशित- दैनिक विश्वमित्र, कोलकाता, 2 दिसम्बर, 1987]
चलती ट्रेनों में,
जिन्दा लाशों को ढोनेवाला,
ऐ कब्रगाह- भोपाल!
तुम्हारी आवाज कहाँ खो गई?
जगो और बता दो,
इतिहास को।
तुमने हमें चैन से सुलाया है,
हम तुम्हें चैन से न सोने देगें।
रात के अंधेरे में जलने वाले,
ऐ श्मशान भो-पा-ल....
जगो और जला दो,
उस नापाक इरादों को।
जिसने तुम्हें न सोने दिया,
उसे चैन से सुला दो।
[प्रकाशित- दैनिक विश्वमित्र, कोलकाता, 28 दिसम्बर, 1987]
दोनों कविताएं सौमित्र भाई के सौजन्य से हासिल हुई हैं। भोपाल त्रासदी की बरसी पर मासूमों और निर्दोष जानों को समर्पित....
कुछ जमीन पर सोए सांसें गिन रही थीं।
दोस्तों का रोना भी नसीब न था।
चांडाल नृत्य करता शहर,
ऐ दुनिया के लोग;
अपना कब्रगाह या श्मशान यहां बना लो।
अगर कुछ न समझ में न आए तो,
एक गैसयंत्र और यहां बना लो।
मुझे कोई अफसोस नहीं,
हम तो पहले से ही आदी थे इस जहर के,
फर्क सिर्फ इतना था,
कल तक हम चलते थे, आज दौड़ने लगे।
कफ़न तो मिला था,
पर ये क्या पता था?
एक ही कफ़न से दस मुर्दे जलेगें,
जलने से पहले बुझा दिये जायेगें,
और फिर
दफ़ना दिये जाएंगें।
कवि का नामः पता नहीं कर पाए,
[प्रकाशित- दैनिक विश्वमित्र, कोलकाता, 2 दिसम्बर, 1987]
चलती ट्रेनों में,
जिन्दा लाशों को ढोनेवाला,
ऐ कब्रगाह- भोपाल!
तुम्हारी आवाज कहाँ खो गई?
जगो और बता दो,
इतिहास को।
तुमने हमें चैन से सुलाया है,
हम तुम्हें चैन से न सोने देगें।
रात के अंधेरे में जलने वाले,
ऐ श्मशान भो-पा-ल....
जगो और जला दो,
उस नापाक इरादों को।
जिसने तुम्हें न सोने दिया,
उसे चैन से सुला दो।
[प्रकाशित- दैनिक विश्वमित्र, कोलकाता, 28 दिसम्बर, 1987]
दोनों कविताएं सौमित्र भाई के सौजन्य से हासिल हुई हैं। भोपाल त्रासदी की बरसी पर मासूमों और निर्दोष जानों को समर्पित....
आधुनिक गैस चैम्बर..
ReplyDeleteइस कड़ी की आखरी कविता
ReplyDelete3-
भागती - दौड़ती - चिल्लाती आवाज...
कुछ हवाओं में, कुछ पावों तले,
कुछ दब गयी,
दीवारों के बीच।
कुछ नींद की गहराइयों में,
कुछ मौत की तन्हाइयों में खो गई।
कुछ माँ के पेट में,
कुछ कागजों में,
कुछ अदालतों में गूँगी हो गयी।
गुजारिश तुमसे है दानव,
तुम न खो देना मुझको,
जहाँ रहते हैं मानव।
[प्रकाशित- दैनिक विश्वमित्र, कोलकाता 5 नवम्बर 1988]
-शम्भु चौधरी, एफ.डी. - 453/2, साल्टलेक सिटी, कोलकाता - 700106
इस कड़ी की आखरी कविता
ReplyDelete3-
भागती - दौड़ती - चिल्लाती आवाज...
कुछ हवाओं में, कुछ पावों तले,
कुछ दब गयी,
दीवारों के बीच।
कुछ नींद की गहराइयों में,
कुछ मौत की तन्हाइयों में खो गई।
कुछ माँ के पेट में,
कुछ कागजों में,
कुछ अदालतों में गूँगी हो गयी।
गुजारिश तुमसे है दानव,
तुम न खो देना मुझको,
जहाँ रहते हैं मानव।
[प्रकाशित- दैनिक विश्वमित्र, कोलकाता 5 नवम्बर 1988]
-शम्भु चौधरी, एफ.डी. - 453/2, साल्टलेक सिटी, कोलकाता - 700106
ये त्रासदी भारतीय समाज की विकृतियों के चमत्कारिक रूप से रिफ्लेक्ट करती है . दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की ब्लैक एंड व्हाट तस्वीर . जहाँ हजारो आदमी रातो रात नींद के आगोश में मौत की गोद में चले जाते है , आने वाली नस्ले अगले कई सालो तक अपंगता ओर अनेको रोगों का शिकार होती है ओर सत्ता इसके जिम्मेदार आदमी को न केवल सेफ पैसेज का रास्ता मुहैय्या कराती है बल्कि उसे देश से बाहर भेजने का इंतजाम भी करती है . इतने हज़ार लोगो की ऐसी म्रत्यु क्या हत्या नहीं है ? ओर उन्हें बचाने की कोशिश क्या हत्या में भागादारी नहीं ? देश द्रोह नहीं ?राजीव गांधी ओर अर्जुन सिंह उसके बाद भी आराम तलब जिंदगी बसर करते है बिना किसी गिल्ट के . देश के इस कोने में बैठे बैठे हम इस दुःख को आहिस्ता आहिस्ता भूल जाते है क्यूंकि ये "भोपाल का दुःख" है .
ReplyDeleteएक क्षेत्र का राजनैतिक व्यक्ति जब किसी स्वाभाविक म्रत्यु को प्राप्त करता है इस देश का मीडिया २४ X 7 उसका लाइव प्रसारण ऐसे करता है जैसे कोई शहीद गया हो ओर भोपाल गैस त्रासदी के अवसर पर इस देश का कोई भी राजनातिक तंत्र सत्ता दो मिनट का मौन रखने को नहीं कहेगा .तारीख ऐसी ही गुजर जाती है .