बनारस पहुंचने की बारी आई तो हम लेट नहीं हुए। अल्लसुबह ट्रेन बनारस स्टेशन पहुंच गई थी। बाहर काफी कोहरा था। एकदम सफ़ेद-झक्क चादर।
बस के खिड़की का शीशा पनिया गया था।
होटल पहुंचकर कमरे में जल्दी-जल्दी चाय पी गई और आधे घंटे में हम सारनाथ निकल गए।
यही वो जगह है जहां पर गौतम बुद्ध ने अपने पाँच
शिष्यों को सबसे प्रथम
उपदेश सुनाया था जिसके स्मारकस्वरूप इस स्तूप का निर्माण हुआ। इसका जिक्र ह्वेनसांग ने भी किया है।
ह्वेनसाँग ने इस स्तूप की स्थिति सारनाथ से करीब एक किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में बताई है, जो करीब 91 मीटर ऊँचा था। इस ब्योरे के मुताबिक चौखंडी स्तूप ही वह स्मारक है। जैसा मैंने बताया इसके सबसे ऊपर आठ कोनों वाली एक बुर्जी बनी हुई है, जिसके उत्तरी दरवाजे पर पड़े हुए पत्थर पर फ़ारसी में एक लेख है, वहां गाइड ने बताया, और शिलापट्ट पर भी अंकित है कि टोडरमल के बेटे गोवर्द्धन ने सन् 1589 ई. (996 हिजरी) में इसे बनवाया था। हुमायूँ ने इस जगह पर एक रात बिताई थी, जिसकी यादगार में इस बुर्ज का निर्माण हुआ था।
जब हम पास में चाय पीने गए, तो चाय दुकान वाले ने इस मिसाल का जिक्र करते हुए कहा कि फैज़ाबाद (अयोध्या) में भी ऐसा ही हुआ होगा।
यहां का स्तूप एक ठोस गोलाकार बुर्ज जैसा है। करीब 28 मीटर व्यास का, और करीब चालीस मीटर ऊंचा।
इस स्तूप की नींव अशोक के समय में पड़ी। इसका विस्तार कुषाण-काल में हुआ, लेकिन गुप्तकाल में यह पूर्णत: तैयार हुआ। यह साक्ष्य पत्थरों की सजावट और उन पर गुप्त लिपि में अंकित चिन्हों से निश्चित होता है।
खैर...इसके बाद हम सीधे होटल को लौट गए। कुछ भाई लोगों को गंगा स्नान करना था, वो होटल में भोजन के बाद गंगा को कूच कर गए। मुझे इप्सिता मुखर्जी ने कहा कि उनको पूजा करनी है। मेरा एकमात्र मकसद बनारसी मिष्टान्न ठूंसना था। हम आठ लोग, विश्वनाथ मंदिर की ओर चले।
श्रद्धालुओं ने विश्वनाथ की पूजा की, मैं बनारस की गलियों का जो वर्णन पढ़ आया था, उसमें और हक़ीक़त में मेल करने में व्यस्त था।
विश्वनाथ मंदिर भारत के दूसरे हिंदू मंदिरों की ही तरह लूट का क़िला और गंदगी का पिटारा है। जहां तहां निर्माल्य, बेलपत्र, फूल...गेंदे की मालाएं, एक दूसरे पर ही दूध का अर्घ्य ढाले दे रहे हैं...गंदगी का साम्राज्य और लूट-खसोट का माहौल ऐसा मानो महमूद गज़नवियों की सेना में घुल गए हों गलती से।
वहां से बच-बचा कर निकले, ऑटो वाले से कहा मिष्टान्न भंडार ले जाने को। तमाम किस्म की चंद्रकला, चंद्ररेखा नामधारी मिठाईयां, और स्वाद...पूछिए मत। लिखते वक्त भी, स्वाद साक्षात् ज़बान पर है। मतलब कम शब्दों में जान लीजिए कि आनंद अखंड घना था।
कई दफा़ खा चुकने के बाद भी (क्योंकि मेरे मिष्टान्न उदरस्थ करने के अभियान की प्रायोजक खुद इप्सिता थीं) जब मैंने रसमलाई का एक और कटोरा मांग लिया, तो मिठाई वाला भी मुस्कुरा उठा। इप्सिता के बिन पूछे ही मैंने सफाई दे दी, कमिश्नर की गाडी़ आती है तो कैसा भी जाम छूट जाता है...
मणिकर्णिका घाट पार करते वक्त कई दर्जन लाशें जलती देखी...थोड़ी देर के लिए तो श्मशान वैराग्य घर कर जाता है। धधकती हुई लाशें, हमारी उन्ही देहों को हमारे ही लोग बांस से पीट-पीटकर पूरी तरह जला डालते हैं, जिनको हम तेल-फुलेल, खुशबूओं, इत्रों, रंग-रोगन, डियो और न जाने किन-किन स्नो-पाउडरों से सजाते हैं, संवारते हैं।
बस के खिड़की का शीशा पनिया गया था।
होटल पहुंचकर कमरे में जल्दी-जल्दी चाय पी गई और आधे घंटे में हम सारनाथ निकल गए।
सारनाथ को पहले हम लोग सामान्य ज्ञान की किताबों में पढ़ते थे। गौतम को बोधगया
में महाबोधि हासिल हुई थी। उसके बाद उन्होंने अपने पांच पहले शिष्यों को पहली
बार यहीं पर उपदेश दिए थे। इस घटना का उल्लेख बौद्ध साहित्य में धम्मचक्र प्रवर्तन
के नाम से हुआ है।
बौद्ध
ग्रंथों में सारनाथ के नाम का जिक्र ऋषिपत्तन, धर्मपत्तन और मृगदाय के रूप में हुआ
है लेकिन ताज्जुब की बात ये है कि इसका नाम सारनाथ, महादेव शिव के एक नाम सारंगनाथ
से आय़ा है।
सारनाथ
पहुंचते ही हमारी बस सबसे पहले एक बड़ी ईंट की इमारत-से अवशेष के पास रूकी। यह चौखंडी
स्तूप था। इसके सबसे ऊपर की ओर देखें, तो एक आठ कोनों वाली आकृति की तरफ नजर
जाती है, यह अकबर के काल में हुमायूं की याद में टोडरमल के बेटे गोवर्धन ने बनवाया था।
ह्वेनसाँग ने इस स्तूप की स्थिति सारनाथ से करीब एक किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में बताई है, जो करीब 91 मीटर ऊँचा था। इस ब्योरे के मुताबिक चौखंडी स्तूप ही वह स्मारक है। जैसा मैंने बताया इसके सबसे ऊपर आठ कोनों वाली एक बुर्जी बनी हुई है, जिसके उत्तरी दरवाजे पर पड़े हुए पत्थर पर फ़ारसी में एक लेख है, वहां गाइड ने बताया, और शिलापट्ट पर भी अंकित है कि टोडरमल के बेटे गोवर्द्धन ने सन् 1589 ई. (996 हिजरी) में इसे बनवाया था। हुमायूँ ने इस जगह पर एक रात बिताई थी, जिसकी यादगार में इस बुर्ज का निर्माण हुआ था।
जब हम पास में चाय पीने गए, तो चाय दुकान वाले ने इस मिसाल का जिक्र करते हुए कहा कि फैज़ाबाद (अयोध्या) में भी ऐसा ही हुआ होगा।
बहरहाल...।
बुद्ध के प्रथम उपदेश (लगभग 533 ई.पू.) से 300
वर्ष
बाद तक का सारनाथ का इतिहास अज्ञात है। उत्खनन से इस दौर का कोई भी अवशेष नहीं मिला है।
सारनाथ की समृद्धि और बौद्ध धर्म का विकास का उल्लेख सम्राट् अशोक के शासनकाल से दीखने लगता है। उसने सारनाथ में धर्मराजिका
स्तूप, धमेख स्तूप और सिंह स्तंभ बनवाए थे।
अशोक के बाद, सारनाथ फिर से अवनति की ओर अग्रसर होने लगा। ई.पू. दूसरी शती में शुंग वंश के राज्य की स्थापना हुई, लेकिन सारनाथ
से इस काल का कोई लेख नहीं मिला है। प्रथम
शताब्दी ई. के लगभग उत्तर भारत के कुषाण राज्य की स्थापना के
साथ
ही एक बार पुन: बौद्ध धर्म की उन्नति हुई। कनिष्क के राज्यकाल के तीसरे वर्ष में भिक्षु बल ने यहाँ एक बोधिसत्व प्रतिमा की स्थापना
की। कनिष्क ने अपने शासन-काल में न केवल सारनाथ
में वरन् भारत के विभिन्न भागों में बहुत-से
विहारों एवं स्तूपों का निर्माण करवाया।
इसके बाद हम सीधे चले धमेख स्तूप की तरफ। यही वो जगह है जिसकी तस्वीरें आप गूगल पर सर्च करके पाते हैं।
इस स्तूप की नींव अशोक के समय में पड़ी। इसका विस्तार कुषाण-काल में हुआ, लेकिन गुप्तकाल में यह पूर्णत: तैयार हुआ। यह साक्ष्य पत्थरों की सजावट और उन पर गुप्त लिपि में अंकित चिन्हों से निश्चित होता है।
खैर...इसके बाद हम सीधे होटल को लौट गए। कुछ भाई लोगों को गंगा स्नान करना था, वो होटल में भोजन के बाद गंगा को कूच कर गए। मुझे इप्सिता मुखर्जी ने कहा कि उनको पूजा करनी है। मेरा एकमात्र मकसद बनारसी मिष्टान्न ठूंसना था। हम आठ लोग, विश्वनाथ मंदिर की ओर चले।
श्रद्धालुओं ने विश्वनाथ की पूजा की, मैं बनारस की गलियों का जो वर्णन पढ़ आया था, उसमें और हक़ीक़त में मेल करने में व्यस्त था।
विश्वनाथ मंदिर भारत के दूसरे हिंदू मंदिरों की ही तरह लूट का क़िला और गंदगी का पिटारा है। जहां तहां निर्माल्य, बेलपत्र, फूल...गेंदे की मालाएं, एक दूसरे पर ही दूध का अर्घ्य ढाले दे रहे हैं...गंदगी का साम्राज्य और लूट-खसोट का माहौल ऐसा मानो महमूद गज़नवियों की सेना में घुल गए हों गलती से।
वहां से बच-बचा कर निकले, ऑटो वाले से कहा मिष्टान्न भंडार ले जाने को। तमाम किस्म की चंद्रकला, चंद्ररेखा नामधारी मिठाईयां, और स्वाद...पूछिए मत। लिखते वक्त भी, स्वाद साक्षात् ज़बान पर है। मतलब कम शब्दों में जान लीजिए कि आनंद अखंड घना था।
कई दफा़ खा चुकने के बाद भी (क्योंकि मेरे मिष्टान्न उदरस्थ करने के अभियान की प्रायोजक खुद इप्सिता थीं) जब मैंने रसमलाई का एक और कटोरा मांग लिया, तो मिठाई वाला भी मुस्कुरा उठा। इप्सिता के बिन पूछे ही मैंने सफाई दे दी, कमिश्नर की गाडी़ आती है तो कैसा भी जाम छूट जाता है...
मित्रो इस जन्मना बामन ने बनारस में छककर मिठाई खाई। तत्पश्चात्, एक पान को गालो में दबाने के बाद हम होटल को चले। पेट तन गया था। इच्छा हो रही थी कि अब एक मीठी नींद ली जाए..लेकिन अब शाम ढल रही थी, हमें गंगा आरती देखने जाना था।
नाव में बैठे, तो बस क्या कहा जाए, शब्द कम पड़ जाएं। वही प्रदूषित गंगा यहां महिमामयी लगती है। किनारे की तऱफ घाटों की छटा ऐसी....ठीक ही लिखा है काशीनाथ
सिंह ने, जो मज़ा बनारस में, न पेरिस में न फारस में।
नजरों के आगे से कई घाट गुज़रे, हरिश्चंद्र घाट भी, मणिकर्णिका
और..भोंसले घाट भी..गंगा आरती होती है दशाश्वमेध घाट पर।
देशी-विदेशी सैलानी एक नदी की पूजा का अद्भुत नज़ारा देखने
इकट्ठा होते हैं। हमारे साथ थाइलैंडके कुछ लोग थे, उनकी प्रतिक्रिया तो हैरतअंगेज़ थी। नाव पर बैठे तो काशी का अस्सी का पहला पेज याद हो आया, मैं ज़ोर से चिल्लाया हर हर महादेव...(और आहिस्ते से भों...के।)
जैसा कि हमेशा होता है श्मशान-वैराग्य भी इस देह की तरह क्षणिक होता है। गंगा की आरती देखी गई। गंगा को शुक्रिया कहने का यह धार्मिक तरीका अच्छा है। कुछ दर तक खुद को खोने का, खुद को आध्यात्म में डुबो देने का।
मुझे शारदा सिन्हा याद आ रही थीं, मैया ओ गंगा मैया...लेकिन यह पूजा-आराधना...काश..ये नदियों को गंदा करते जाने की हमारी मानसिकता को थोड़ा
बदल पाती।
खैर....अब हम चल रहे है वापस....अंधेरा घिर आया है। लेकिन
माहौल आध्यात्मिक है....सब गंभीर थे। आसमां में चांद निकल आया था। याद आने लगा बचपन में वचनदेव कुमार के निबंध संग्रह में चांदनी रात में नौका विहार का लेख पढ़ते थे।
परीक्षा में आया करता था, इस विषय पर लेख...। अब जीवन परीक्षा है तो चांदनी रात में नौका विहार बेकार लगता है। समय की बर्बादी...लेकिन खुद से मिलना हो तो कभी बनारस जाइए और चांदनी रात में नौका विहार ज़रूर कीजिए।
जारी
बनारस की मिठाई और घाट पर जलती चिताएं। यही तो जीवन है भाई। लेकिन यात्रा वृत्तांत को थोड़ा जल्छी समेटा है, इसलिए मेरे हिस्से में थोड़ा कम रस आया। उम्मीद है आगे मेरा हिस्सा बोनस में मिलेगा।
ReplyDeleteबनारस में पान की दुकान में जो कत्थे की छोटी सी हांडी होती है और दुकान में जो दोने मिलते हैं, वो अद्भुद है। विश्वविद्यालय के स्वास्थ्य का कुछ अंदाजा लगा..? मैं तो बाबू सुंघनी साहू की गद्दी और कबीर का जन्मस्थल नहीं देख पाया था। कोशिश करना कि टाईम मिले तो लगे हाथ लमही भी हो आना।
ReplyDeleteहमें भी घाटों पर ही आनन्द आता है, लाभ कहाँ हमारे बस का।
ReplyDeleteबनारस भी घूम लिये ! जय हो!
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