Sunday, June 16, 2013

दिवंगत बाबूजी के नाम बेटे का एक खत

डियर डैड, 
सादर प्रणाम,

कहां से शुरु करुं...आज से ही करता हूं।

आज अंग्रेजी के एक अख़बार के पहले पन्ने पर बिस्किट के एक ब्रांड का विज्ञापन है। विज्ञापन कुछ नहीं...बस एक खाली पन्ना. जिसमें एक चिट्ठी लिखी जा सकती है। अपने पिता के नाम....पीछे एक पंक्ति छपी है, कोई भी पुरुष बाप बन सकता है, लेकिन पिता बनने के लिए खास होना पड़ता है (मैंने नजदीकी तर्जुमा किया है, मूल पाठ हैः एनी मैन कैन बी अ फ़ादर, इट टेक्स समवन स्पेशल टू बी डैड

मुझे नहीं पता, कि फ़ादर, डैड और पापा में क्या अंतर है। मुझे ये भी नहीं समझ में आता कि आखिर बाबूजी (जिस नाम से हम सारे भाई-बहन आपके याद करते हैं) पिताजी और बाकी के संबोधनों में शाब्दिक अर्थों से कहीं कोई फ़र्क पड़ता है क्या। क्या बाप पुकारना डेरोगेटरी है?

लेकिन बाबूजी, बाजा़र कहता है कि डैड होने के निहितार्थ सिर्फ फ़ादर होने से अधिक है। आप होते तो पता नहीं कैसे रिएक्ट करते और मेरी इस चिट्ठी की भ्रष्ट भाषा पर मुझे निहायत नाकारा कह कर शायद धिक्कारते भी। लेकिन बाबूजी, आपको अभी कई सवालों के जवाब देने हैं।

आपको उस वक्त हमें छोड़कर जाने का कोई अधिकार नहीं था, जब हमें आपकी बहुत जरूरत थी। जब हमें अगले दिन की रोटी के बारे में सोचना पड़ता था, आपको उस स्वर्ग की ओर जाने की जल्दी पड़ गई, जिसके अस्तित्व पर मुझे संशय है।

मां कहती है, कि आपके गुण जितने थे उसके आधे तो क्या एक चौथाई भी हममें नहीं हैं। आप ही कहिए बाबूजी, कहां से आएंगे गुण? दो साल के लड़के को क्या पता कि घर के कोने में धूल खा रहे सामान दरअसल आपके सितार, हारमोनियम, तबले हैं, जिन्हें बजाने में आपको महारत थी। दो साल के लड़के को कैसे पता चलेगा बाबूजी...कि कागज़ों के पुलिंदे जो आपने बांध रख छोड़े हैं, उनमें आपकी कहानियां, कविताएं और लेख हैं।... और उन कागज़ों का दुनिया के लिए कोई आर्थिक मोल नहीं। दो साल के लड़के को कैसे पता चलेगा बाबूजी कि आपने सिर्फ रोशनाई से जो चित्र बनाए, उनकी कला का कोई जोड़ नहीं। 

बाबूजी, दो साल का लड़का जब बड़ा होता गया, तो उसका पेट भी बढ़ता गया। उसकी आँखों के सामने जब सितार, हारमोनियम तबले सब बिकते चले गए, कविता वाले कागज़ों के पुलिंदे और उसके बाबूजी के बनाए रेखा-चित्र दीमकों का भोजन बनते चले गए, तो बाबूजी ये गुण कैसे उसमें बढ़ेंगे।

मां कहती है, कि आप बहुत सौम्य, सुशील और नम्र आवाज़ में बातें करते थे। बाबूजी, मैं आपके जैसा नहीं बन पाया। मां कहती हैं मैं अक्खड़ हूं, बदतमीज हूं, किसी की बात मानने से पहले सौ बार सोचता हूं...बाबूजी अभी तो आप ऊपर से झांक कर सब देख रहे होंगे...जरा बताइएगा मैं ऐसा क्यों हूं? 

बाबूजी जब आप इतने गुणों (अगर सच में गुण हैं) से भरकर भी एक आम स्कूल मास्टर ही बने रह गए, तो हम से मां असाधारण होने की उम्मीद क्यों पाले है? उसकी आंखों का सपना मुझे आज भी परेशान करता है। बाबूजी मां को समझाइए, आप जैसे आम आदमी के हम जैसे आम बच्चों से वो उम्मीद न पाले। उससे कहिए कि वो हमें नालायक समझे।

डियर डैड, ये संबोधन शायद आपको अच्छा नहीं लग रहा होगा। आज फादर्स डे है, कायदे से तो एक गुलदस्ता लेकर मुझे उस जगह जाना चाहिए था, जहां आपकी चिता सजाई गई थी, या उस पेड़ के पास जहां आपकी चिता के फूल चुनकर हरिद्वार ले जाने से पहले रखे गए थे। लेकिन बाबूजी, आपको याद करने के लिए मुझे किसी फादर्स डे या आपकी पुण्यतिथि, या मेरे खुद के जन्मदिन की जरूरत नहीं है। आप मेरे मन में है। 

बाबूजी, मरने के लिए बयालीस की उम्र ज्यादा नहीं होती। उस आदमी के लिए तो कत्तई नहीं, जिसका एक कमजोर सा बेटा सिर्फ दो साल का हो, और बाद में उस कमजोर बेटे को समझौतों से भरी जिंदगी जीनी पड़ी हो। जब सारी दुनिया के लोग अपने पिता की तस्वीरें फेसबुक पर शेयर करते हैं, तो मुझे बहुत शौक होता था कि आप होते तो...बाबूजी मुझे पता है कि आप होते तो, जेठ की जलती दोपहरी में ज़मीन पर नंगे पांव नहीं चलना होता मुझे...आप मेरे पैर अपनी हथेलियों में थाम लेते। 

आपको बता दूं बाबू जी, आपके निधन के कुछ महीनों बाद ही लोगों ने हम पर दया दिखानी शुरु कर दी थी...मुहल्ले वाली मामी ने जूठी दूध का गिलास भी देना चाहा था...मुझे पता है बाबूजी, आप होते तो किसी कि इतनी हिम्मत नहीं होती। अब तो आप जान गए होंगे न कि क्यों इतना अक्खड़ हो गया है आपका वो कमजोर दिखने वाला बेटा।

आप चले गए, नाना जी ने रुआंसा होकर कहा था उनकी उतनी ही उम्र थी। मैं नहीं मानता...आपको इस कदर नहीं जाना चाहिए था...चिलचिलाते जेठ में, ऐसे लू वाले समाज में आप छोड़ गए हमें...क्यों बाबू जी?

मुझे बहुत शिकायत है बाबूजी, बहुत शिकायत है....

आपका बेटा 
(आज्ञाकारी नहीं , कत्तई नहीं)

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