गरमी झेलता हुआ, गुलबर्गा में अपनी बालकनी से डूबते सूरज को देखता हूं। गुलबर्गा में डूबता हुआ सूरज भी दहकता हुआ लगता है।
दिल्ली से बंगलोर को चले थे, तो मन में कर्नाटक के विकास की एक तस्वीर थी। कर्नाटक के मायने बंगलोर था।
लेकिन बंगलोर ही पूरा कर्नाटक नहीं है। बंगलोर का तो मौसम भी पूरे कर्नाटक से अलहदा है और विकास की गाथा भी।
कर्नाटक के विकास को हमेशा एक मिसाल के तौर पर पेश किया जाता
है लेकिन विकास की अंतर्गाथा कुछ और ही है। उत्तरी कर्नाटक के जबर्गी और गुलबर्गा
के इलाको में पीने का पानी एक बड़ी समस्या है। इस तस्वीर की तस्दीक करते हैं सूखे
हुए खेत, जिनका अनंत विस्तार देखने को मिलता है।
अप्रैल में गुलबर्गा के पास सूखी नदी, फोटोः मंजीत ठाकुर |
कपास की फसल पिछले दो साल से खराब
हो रही है, क्योंकि दो साल से बारिश ने साथ नहीं दिया। अब तो आस पास के इलाके के
लोगों को पीने के पानी के लिए मशक्कत करनी होती है।
लोग छोटे ठेलों पर प्लास्टिक के रंग-बिरंगे मटके लेकर आते हैं। कोई पांच किलोमीटर ले जा रहा है पानी ढोकर, तो कोई सात किलोमीटर, एक बंधु ने तो मोपेड ही खरीद ली है पानी ढोने के लिए ।
पूरा उत्तरी कर्नाटक, खासकर हैदराबाद-कर्नाटक के इलाके में
सूखी नदियां और सूखी नहरें सूखे की कहानी कह रही हैं।
नलों के किनारे लगे
प्लास्टिक के घड़ों की कहानी भी अजीब है, प्लास्टिक युग में मोबाइल तो उपलब्ध है
लेकिन पीने का पानी मयस्सर नहीं। लोगबाग तालाब का पानी पीने पर मजबूर हैं, यह पानी
भी तभी आता है जब बिजली हो। बिजली का भी अजीब रोना है, जो दोपहर बाद डेढ़ घंटे के
लिए आती है और अलसुबह डेढ़ घंटे के लिए।
दरअसल, लोगों ने तालाब में पानी का मोटर लगवा रखा है। हैंडपंप खराब हैं तो कम से कम तालाब का पानी तो मिले। भूमिगत जल तो न जाने कब पाताल जा छुपा है।
चुनाव का वक्त था, जब हम वहां थे। कर्नाटक में सरकार बनाने के लिए स्थायित्व एक अजेंडा था,
लेकिन उत्तरी कर्नाटक के गांवों में पीने का पानी मुहैया कराना किसी पार्टी के
घोषणापत्र में नहीं था।
जाहिर है कर्नाटक की विकास गाथा की पटकथा में कहीं न कहीं
भारी झोल है।
हम पसीनायित हैं...लेकिन हम पानी खरीद कर पी रहे हैं। लेकिन गांववाले...चुनावी दौरे-दौरा में पता नहीं क्या-क्या सब्ज़बाग़ थे...जिक्र नहीं था तो किसानों के लिए सिंचाई के पानी का, न पीने के पानी का।
स्थिति दर्दनाक भी है और शर्मनाक भी। लेकिन किसी भी पार्टी के घोषणापत्र में ज़रूरी मुद्दों का न होना यह दर्शाता है कि आज के समय में राजनीतिक पार्टियों का जिम्मेदार होना तो दूर की बात है, वे जिम्मेदार दिखने तक की ज़रूरत नहीं समझती हैं।
ReplyDeleteइस बार वर्षा अच्छी हो गयी है, आशा है जन प्यासे नहीं रहेंगे।
ReplyDeleteआज की बुलेटिन जन्म दिवस : मनोज कुमार …. ब्लॉग बुलेटिन में आपकी पोस्ट (रचना) को भी शामिल किया गया। सादर .... आभार।।
ReplyDeleteसुन्दर ,सटीक और सार्थक . बधाई
ReplyDeleteसादर मदन .कभी यहाँ पर भी पधारें .
http://saxenamadanmohan.blogspot.in/
sateek aur sarthak !!
ReplyDeleteबचपन से भारत की विभिन्नतायें पढ़ते आये देखते आये बट डाइवर्सिटी इतनी कष्टदायक होगी ये सोचा ना था, बारिश के इस मौसम मे लखनऊ मे कर्नाटक की तपन मेहसूस हो रही है ... उफ़्फ़
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