Saturday, November 23, 2013

किष्किन्धा कांडः दूसरी किस्त

तथा स बालिनं हत्वा सुग्रीवमभिषच्य च वसन् माल्यवतः पृष्ठे रामो लक्ष्मणब्रवीत्', वाल्मीकि. किष्किंधा पर्व 27,1। एतद् गिरेमल्यिवतः पुरस्तादाविर्भवत्यम्बर लेखिश्रृंगम्, नवं पयो यत्र घनैर्मया च त्वद्धिप्रयोगाश्रु समं विसृष्टम्', रघुवंश 13,26।
 
यानी यही वह पर्वत माल्यवंत है जिसपर राम रूके थे। उत्सुकता बढ़ गई थी। सामने ऋष्यमूक भी दिख रहा था। बनवारी लाल जी अभिभूत हुए जा रहे थे। अगर राम को भगवान न भी मानें, सिर्फ एक दिलेर इंसान भी मान लें, तो भी इन सभी किताबों में वर्णित जुगराफिये का कायल हुआ जा रहा था।



माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर। भई, क्या ही खूबसूरत पत्थर...उनके बीच झुलसती गरमी में उठती दाह..। ज़मीन पर गरमी की वजह से जो तरंगे उठ रही थीं, वो दिख सी रही थीं। परछाईयां हिल रही थी। तकरीबन डेढ़ हज़ार साल पुरानी मंदिर की उस भव्य इमारत में घुसा तो सबसे पहले साए की खोज की हमने। 


कैमरे पर खटाखट तस्वीरें लिए जा रहा था मैं। स्टिल कैमरा घुमाने में कोई लफड़ा नहीं था। मंदिर के गोपुर से भीतर गया तो एक प्रशस्त आंगन था। ऐन सामने मंदिर...मंदिर में स्पीकर पर बजता रामधुन। लेकिन थोड़ा अलग सा। 


गौर किया तो हमारे उत्तर भारत की तरह मानस पाठ नहीं था। 


ठीक सामने तुलसी का पौधा, हरा। तुलसी के पौधे पर उसके मंजर (फूल) लगे थे। ऐसी तुलसी बड़ी गजब की दिखती है। मुख्य मंदिर के बाईं तरफ नीम का पेड़ था। फूलों के कुछ पौधे थे जो गरमी से हलकान हो  रहे थे। मौसमी फूलों की जगह स्थायी किस्म के फूलों को तरजीह मिली थी। जिनको पानी-वानी, देख-रेख की ज्यादा चिंता नहीं रहती। 


मंदिर का चबूतरा चार सीढियों ऊपर था। माथे पर तिलक-त्रिपुंड रचाए दो नौजवान पुजारी रामायण पाठ में लीन थे। शायद दोपहर की वजह से, या शायद गरमी  की वजह से, शायद प्यास से, या उनको नींद सी आ रही थी, या फिर भूख लग आई थी, कतिपय कारणों से पाठ का स्वर धीमा था।

पुजारियों के सुर में ऊब या झल्लाहट थी। पता नही क्यों। पता नहीं शिकायत राम से ही, इत्ती दूर क्यों आ गए थे पहाड़ पे? 

बहरहाल, मंदिर के अंदर हम गए तो हम ही तीन लोग सैलानी के रूप में थे। मैं, कैमरामैन बनवारी जी और कैमरा सहायक विनोद। माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर में दक्षिण भारतीय स्थापत्य की सारी विशेषताएं हैं। मंदिर में बहुत सारे खंभे हैं। और पुजारी ने अचानक हमारे लिए गर्भगृह का पट भी खोल दिया। 

हमने कहा, दोपहर में पट कैसे खोला तो बुजुर्ग मुख्य पुजारी का कहना था कि आप इतनी दूर से आए हैं राम के लिए तो राम का कर्तव्य है कि आपके लिए दोपहर में जगे। मैं मुस्कुरा उठा...बहरहाल, मैं उस गर्भगृह में मूर्ति देखना चाहता था। 

बुजुर्ग पुजारी ने बताया कि माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर में न जाने कितने वर्षों से अखंड वाल्मीकी रामायण का पाठ होता है। मंदिर के गर्भगृह में राम, सीता, लक्ष्मण और हनुमान की मूर्तियां हैं। इन मूर्तियों की खासियत है कि इनमें राम बुद्ध की तरह भूमि स्पर्श योग मुद्रा में हैं, यानी उनका बायां हाथ भूमि को स्पर्श कर रहा है। दूसरा नाभि स्थल को। सीता यहां कमलेश्वरी के रूप में हैं। 

कमला लक्ष्मी को कहा जाता है। सीता के चार हाथ हैं, जिनमें लक्ष्मी की तरह कमल वगैरह हैं। लक्ष्मण भी यहां धनुषबाण के स्थान पर आशीर्वाद की मुद्रा में हैं। यह आश्चर्यजनक था। मैंने इससे पहले कहीं, लक्ष्मण को बैठे हुए और इस तरह आशीर्वाद की मुद्रा में नही देखा था।

ये तीनों मूर्तियां काले ग्रेनाइट की बनी थीं। मूर्तियों के  बदन पर पर्याप्त, बल्कि पर्याप्त से भी ज्यादा जेवरात थे। माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर का गर्भगृह एक ही पत्थर को काटकर बनाया गया है। इसी पत्थर में उभार कर उकेरे गए हैं, हनुमान। माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर के इस एकाश्म गुहा में हनुमान राम दरबार की तरह विनीत भाव में तो हैं, लेकिन वह अपने हाथ से सीता की चूड़ामणि देते दिखाए गए हैं। 

पुजारी जी ने कहा कि प्राचीन मंदिर में सिर्फ हनुमान राम और लक्ष्मण थे। लेकिन बाद में सीता को प्रतिष्ठित किया गया। और एकाश्म मंदिर के ऊपर विशाल माल्यवन्त मंदिर का निर्माण करीब डेढ़ हज़ार साल पहले सन् 650 ईस्वी के आसपास पल्लव राजा नरसिंह वर्मन् प्रथम ने करवाया। 

बहरहाल,  जब रामायण पाठ कर रहे पुजारियों की शिफ्ट बदली, तो पाठ करके उठे पुजारी से मैंने बात करनी चाही। पहले तो नाम जानकर ही हैरत हुई, और बात करने में उच्चारण का लहज़ा। युवा पुजारी की मूंछें अभी कायदे से उगी भी नहीं थी, नाम था मधुसूदन शास्त्री। मैंने चौंककर कहा कि कहां के हो, तो उसने बिहार का नाम लिया। पता चला, साहब बेगूसराय के हैं। 

वाल्मीकी जी को गर्व होता होगा, बेगूसराय के युवा कर्नाट्क की किष्किंधा में रामायण पाठ कर रहे हैं। माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर में बातें करने पर पता चला कि युवा पुजारियों का एक समूह तिरूपति ट्रस्ट की देखरेख में मंदिरों की देखभाल और पूजा पाठ करता है। ये सभी पुजारी  तिरूपति से प्रशिक्षित थे। 

तभी हमें मुख्य पुजारी ने बातचीत का न्यौता दिया। बातों-बातों में यह भी पता चला कि रामनवमी को छोड़कर माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर में लोगों का आना इक्का-दुक्का ही होता है। हम जैसा कोई आवारा सैलानी ही उधर आ निकलता है। लेकिन रामनवमी में काफी भीड़ होती है।

हमने पूछा कि आपका खाना खर्चा कैसे चलता है, तो मुख्य पुजारी ने कहा कि घरबार तो है नहीं, रूपया पैसा क्यों चाहिए। बाकी बचा, मंदिर की देखभाल,तो वह एएसआई के जिम्मे है। ऐतिहासिक इमारत वाला हिस्सा। और जो मंदिर वाला सामान्य हिस्सा है, वहां के पूजा पाठ प्रसाद के खर्चे अगल बगल के किसान खुद साल में एक बार दे जाते हैं अनाज-दालें वगैरह।

विश्राम शाला में कंप्यूटर भी था। मुझे हैरत में पड़ा देखकर मुख्य पुजारी ने कहा था, हिसाब किताब साफ रखने के लिए। एक पैसे की बेईमानी बर्दाश्त नहीं। देश भर में बाबाओं की करतूत ऐसी घिनौनी हो चुकी है,कि पुजारी की ऐसी बातों का सहसा भरोसा नहीं हो पा रहा था।

हमने जाने की इजाज़त मांगी तो बुजुर्गवार पुजारी ने कहा प्रसाद पाते जाओ(खाना खाने का न्यौता था जनाब)। अब आदतन कहें या जन्मना ब्राह्मण होने की वजह से, हम प्रसाद पाने या कुछ भी खाने में कभी संकोच नहीं करते। हम प्रसाद पाने के लिए बैठे, तो भूख, गरमी..या शुद्धता जो भी कारक सबसे प्रबल हो, हमने जो स्वाद पाया उसका जिक्र किया नहीं जा सकता। बस एक ही शब्द हैः दिव्य।

दाल में नमक कम थी, तो छोटू पुजारी जी रामरस ले आए, जो नमक का सधुक्कड़ी नाम है। ऐसी ही कई चीज़े, जिनका नाम सधुक्कड़ी था, पर स्वाद वही था, बिहार के हमारे गांव का। कर्नाटक में घूमते-घूमते नारियल के तेल में पकी सब्जी, और खट्टी सब्जी, रसम खाते-खाते खाना हमारे लिए एक रस्म भर रह गया था। यहां खाने में भात था, दाल थी, लौकी आलू की तरकारी थी, हरी मिर्च थी, और आम का अचार...मित्रो, ऐसा अदुभत स्वाद था कि हमें लगा हमने बरसों से कुछ खाया ही नहीं।

खाने के बाद हमारे जाने की बारी आई, तो मिष्टान्न का प्रबंध भी था...आगे जाने के लिए मुट्ठी भर मेवा भी...सबके हाथों में। मंदिर में खिले पीले कनेर, नीम की फर-फर पत्तियों, कोने के कुएं, माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर के खंभो...इन सबकी परछाईं को मैंने जी भर कर देख लिया. इनकी परछाई में हमने दो घंटे बिताए थे। पता नहीं अब कब मुलाकात हो।

इनकी तस्वीरें अलग से पोस्ट में साझा करूंगा। 

माल्यवन्त रघुनाथ मंदिर के बाद हमारी मंजिल थी, हम्पी। जहां विजयनगर के खंडहर हमारा इंतजार कर रहे थे। बाहर का तापमान कोई 46 डिग्री सेल्सियस के आसपास था। लेकिन तारकोल की उबलती सड़के पर गाड़ी भागी जा रही थी-सर्रर्रर्रर्र....।

जारी...।

1 comment:

  1. aapnme apna jeevan dhanay kar liya ashi pavitra jagah par ja kar

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