मालदा से उत्तर जाएंगे तो सिलीगुड़ी जाने के रास्ते में रायगंज है। रायगंज
पहले प्रियरंजन दासमुंशी का संसदीय क्षेत्र था। वो बीमार पड़े तो 2009 में उनकी
पत्नी दीपा दासमुंशी चुनाव मैदान में उतरीं। सभी दलों में यह परंपरा चल पड़ी है।
जनता में भी इसको लेकर ज्यादा परेशानी नहीं थी।
इस्लाममुर, रायगंज क्षेत्र का क़स्बानुमा शहर है। हाईवे को दोनों तरफ बसा हुआ
बाजार। छोटा-सा।
2009 में सोनिया गांधी ने दीपा दासमुंशी के पक्ष में रैली की थी। बड़ी भारी
भीड़ उमड़ी थी। मालदा में राहुल गांधी ने रैली की थी। वहां भी भारी भीड़ उमड़ी थी।
लेकिन इस बीच पांच साल बीत गए।
पांच साल में न जाने कितना पानी बह गया गंगा में। तब, इस्लामपुर में एक अधेड़
सी शख्सियत से मुलाकात हुई थी। रेलवे में कुली का काम करते थे। नाम याद नहीं।
डायरी में नाम लिखना भूल गया था। कह रहे थे, इंदिरा माता ने खुद उऩको आशीर्वाद
दिया था। सोनिया माता के प्रति भी भरोसा कायम था।
कह रहे थे, शुरू में उनके गोरे रंग पर भरोसा नहीं था, अब जम गया है। राहुल को
लेकर एक ऐसी चिंता थी उनके चेहरे पर, जैसे किसी नाबालिग बच्चे को लेकर घर के
बुजुर्ग में होती है। उस आदमी की आवाज़ में एक शक था—राहुल संभाल पाएगा देश को,
बाप जैसी बात नहीं उसमें। बांगला मिश्रित हिंदी। यह साल 2009 की बात है।
2014 में लोग परेशान दिख रहे हैं। रैलियों में भीड़ है। सोनिया की रैली में भी
राहुल की रैली में भी। प्रतिबद्ध वोट बैंक है, लेकिन वह उत्साह नहीं। तृणमूल
कांग्रेस के आक्रामक तेवर, कुछ देव जैसे बांगला सुपरस्टारों की चमक, और सबसे
ज्यादा ममता के पोरिबोर्तन की धमक...। ममता एक आँधी की तरह हैं।
उनको पोरिबोर्तन का काम अभी भी अधूरा है। वाममोर्चा किसी तरह के चमक-दमक भरी
रैली या रोड शो से प्रचार नहीं कर रहा। अंडरप्ले कर रहा है।
मैं बांगला समझ सकता हूं। बोल भी सकता हूं। लेकिन एक ट्रिक लगाई मैंने। कहता
हूं लोगों से, दिल्ली से आया हूं, और बांगला नहीं जानता। यह बात बांगला में बोलने
की कोशिश करता दिखता हूं।
सामने वाले को लगता है बांगला बोलने की कोशिश करने वाले शख्स की मदद करना उनका
कर्तव्य है। मुझे मदद मिलती है।
2009 में तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस ने मिल कर चुनाव लड़ा था। मालदा इलाके
में खान परिवार का बहुत असर है। 2014 में यह असर पूरी तरह छीजा नहीं है। ममता इस
इलाके में तृणमूल की सेंध लगाने की कोशिश में रहीं। पांच दिनों तक लगातार मालदा
में कैम्प किया।
ज़मींदार परिवार के अबू हसन खान चौधरी यानी डालू दा का अपना जनाधार है। लेकिन
पांच बरस के अंतराल में कमजोर हुए हैं। ममता ने कांग्रेस को हराने के लिए मिथुन और
देव जैसे स्टारों से रोड शो करवाए हैं। जंगीपुर, मालदा दक्षिण और मुर्शिदाबाद में
कांग्रेस को मुश्किल हो सकती है। हालांकि बहरामपुर से लड़ रहे (मुर्शिदाबाद की ही
पड़ोसी सीट) अधीर रंजन चौधरी को हराना बहुत मुश्किल है।
अधीर चौधरी की स्थिति बहुत कुछ वैसी ही है, जैसी गोरखपुर में योगी आदित्यनाथ
की है। एकमात्र ऐसे प्रत्याशी हैं कांग्रेस के, जिनपर हत्या का मुकद्दमा चल रहा
है।
इलाके में बहुत सारी समस्याएं हैं, लेकिन पार्टियों को लगर की बातें करना
अच्छा लगता है। चुनाव वैचारिक धार पर लड़े जाते हैं। उत्तरी बंगाल में पीने की
पानी की समस्या है, उद्योग ठप हैं। रोज़गार है ही नहीं। विकास की ज़रूरत ने तल्ख़
सच्चाईयों से परदा उठाया है, ममता को पोरिबोर्तन विकास की राह पर नहीं चल पाया है,
कुछ काम होने शुरू हो गए हैं। लेकिन उम्मीद कायम है।
मुर्शिदाबाद में पीतल के बरतनों का काम होता है। लेकिन चमक खो गई है। कामगारों
की लगातार अनदेखी होती रही है।
2009 में इस इलाके के कांसमणिपाड़ा गया था। निरंजन कासमणि मिले थे। पीतल के
बरतन बनाते हैं। पूरे मुहल्ले का घर...हर घर से ठक-ठक की आवाज़ आ रही।
हर घर से धुआं निकल रहा। घर के अंदर जाएं, तो छोटे कमरों में लोग काम में
जुटे...। निरंजन ने बड़े दुख से बताया, पीतल के बरतन बनाने का उद्योग बस आजकल का
मेहमान है। स्टील के बरतनों ने जगह ले ली है। कामगारों के पास पूंजी की कमी है।
काम करने के लिए ज़मीन तक नहीं मिलती। सरकार वायदे पर वायदे कर के चले जाते हैं,
वोट के बाद कोई पूछने तक नहीं आता।
बड़ी बेचारगी से कहते हैं आप प्रणब दा (उस समय वह वित्त मंत्री थे, और जंगीपुर
से चुनावी मैदान में थे) से मिलें तो हमारी व्यथा जरूर सुनाएं।
मुर्शिदाबाद एक और चीज़ के लिए बहुत मशहूर रहा है...रेशम। लेकिन यहां क्या
रेशम के कारीगर, क्या बीड़ी मज़दूर क्या पीतल के कारीगर, सबकी व्यथा एक सी
है...पानी तक पीने लायक नहीं...आर्सेनिक का ज़हर है उसमें।
जारी....
हमेशा की तरह जमीन से जुडी रपट. साधुवाद !!
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