भारत की तहज़ीब में ही पैवस्त रहा है हमेशा अपने लिए नायकों की तलाश।
हम सिनेमा हो खेल, अपने लिए नायको की तलाश करते रहते हैं। नायको की इसी तलाश में कई दफा हम उन नायकों की संतानों और रिश्तेदारों को
भी कुछ वैसी ही प्रतिष्ठा देते हैं, जितना अपने नायकों को। कई दफा ये
संताने उतनी ही प्रतिभावान् होती हैं, कई दफा नहीं भी होती।
हम नायको में खुद को देखना चाहते हैं और उनकी संतानों में अपनी संतानो का अक्स
देखते हैं। उम्मीदें बढ़ जाती हैं। अमिताभ के बेटे से अमिताभ जैसा,
गावस्कर के बेटे से गावस्कर जैसा होने की उम्मीदों का बोझ होता है।
एक भाव होता है, जो हमें नायकों से जोड़ता है। लोग अपने बच्चों के नाम उसी जुड़ाव की वजह से कभी जवाहर, कभी इंदिरा, कभी राजीव, अमिताभ, सलमान और शाह रुख़ रखते हैं। यह एक सूत्र है, जिसकी वजह से असली या नक़ली नायक पैदा होते हैं।
अन्ना का आंदोलन आय़ा, तो इसने नौजवानों को अपने साथ कनेक्ट कर लिया। कुछ दिनों या शायद महीनों के लिए केजरीवाल इसी लहर पर सवार होकर नायकत्व का सुख प्राप्त करते रहे। लोकसभा चुनाव में मोदी को नायकों जैसी प्रतिष्ठा के साथ सत्ता दी है।
यह एक लगाव वाली खास भावना है, जो किसी अभिनेता, खिलाड़ी और जांबाज फौजी़ को हासिल होती है।
लेकिन
हमारी इसी भावना को भुनाते हैं राजनेता। हम एक व्यावहारिक लोकतंत्र में
वंशवादी राजनीति की खामियों की व्याख्या कैसे कर सकते हैं इस पर विचार करने
की जरूरत है? हिंदुस्तान में राजनीति पहले की तुलना में अब ज्यादा
पारिवारिक उद्यम बन गया है।
सहभागी लोकतंत्र में
वंशवादी राजनीति का होना अपने आप में कई तरह के विरोधाभासों को जन्म देता
है फिर भी ये मौजूद क्यों है और क्यों प्रतिस्पर्धी राजनीति में भी खत्म
नहीं हो रहा है ये एक बड़ा सवाल है। कई बड़ी पार्टियां संगठनात्मक तौर पर
वंशवादी नहीं हैं, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि उनके भीतर राजनीतिक वंश से
ताल्लुक रखने वाले सांसद मौजूद नहीं हैं।
शायद
पूरी दुनिया में हिन्दुस्तान ही एकमात्र ऐसा देश है जहाँ लोकतांत्रिक
व्यवस्था के भीतर भी राजनैतिक वंशवाद को इतने व्यापक स्तर पर समर्थन हासिल
है और ऊपर से ये कि इस मुल्क की जनता ने सिर्फ एक नहीं बल्कि दसियों
"खानदानों" को अपने सिर माथे पर बिठाया है।
उत्तर
प्रदेश हो या हरियाणा, तमिलनाडु हो या जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र हो या
बिहार...वंशवाद की बेल हर सूबे में परवान चढ़ी है, फल-फूल रही है। ऐसे में
सवाल यही खड़ा होता है, अगर पार्टियां खानदानों के प्रभुत्व वाले राजवंशों
में तब्दील हो जाएं तो राजनीति में हिस्सेदारी चाहने वाले आम आदमी के
हिस्से में क्या जाएगा.. सियासत को खानदानी कारोबार समझने वाले सियासतदां
तो बक़ौल अदम गोंडवी आम आदमी के बारे में बस इतना सोचते हैं,
आंख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे,
अपने शाहे-वक़्त का यूं मर्तबा आला रहे।