चुनाव आते हैं, तो वादे बड़े हो जाते हैं, और उससे भी बड़े हो जाते
हैं दावे। असली मकसद होता है वोटर को रिझाना। यह मैं कोई नई बात नहीं लिख रहा हूं। आम आदमी के बारे में सोचते
वक्त नेताओं के जेह्न में सिर्फ भीड़ होती है। चेहरे वोटों की गिनती में
बदल जाते हैं। लेकिन इनमें शायद ही कभी किसान की छवि आती हो।
वैसे वादो,
इरादों और दावों के इस दौर में एक हिट हिन्दी फिल्म का महाहिट गाना याद आ
रहा है, धोखा अच्छा नहीं है लेकिन प्यार में, एवरीथिंग फेयर है लव और
इलेक्शन वॉर में।
महाराष्ट्र
हो या हरियाणा के किसान के हिस्से में समस्या ही होती है। खाद के दाम, बीज
के दाम, और कर्ज पर लगने वाला ब्याज....सुविधा मुहैया कराना वादो में तो
होता है लेकिन सरकार बनने के बाद सारी सोच मुंबई के मंत्रालय या चंडीगढ़ के
सचिवालय तक सिमट जाती है।
महाराष्ट्र में चुनाव हैं, लेकिन विदर्भ का किसान वैसे ही परेशान है। नागपुर के पास मिहान में बनने वाला एसईजेड दस साल से लगातार बन रहा है। उसका बनना खत्म ही नहीं हो रहा।
यों तो खेती की देखभाल राज्य
का विषय है, लेकिन चुनाव में मसला उठता है तो सफाई देनी जरूरी हो जाती है।
हो सके तो ठीकरा दूसरे के सर पर फोड़ना भी जरूरी हो जाता है।
प्रधानमंत्री मोदी ने हरियाणा में एक रैली में जैसे ही किसानों के कर्ज पर लगने वाले 4 फीसद ब्याज की बात कही, अगली रैली में भूपिन्दर सिंह हुड्डा ने एलान कर दिया, कि आगे से किसानो को कोई ब्याज नहीं देना होगा।
उधर,
एक मसला भ्रष्टाचार का भी है। एक तरफ प्रधानमंत्री हरियाणा में सरकारी
ज़मीन के घोटाले को लोगों के सामने उठाते हैं तो मुख्यमंत्री भूपिन्दर सिंह
हुड्डा कहते हैं, साबित हो गया तो पद छोड़ देंगे। पद छोड़ देना आसान है,
पद पर रहकर अपने वायदे निभाना मुश्किल। नैतिकता को निभाना हमेशा मुश्किल
होता है, नैतिक बने रहना आसान।
नैतिकता का सवाल
ओमप्रकाश चौटाला के लिए भी है, लेकिन जेल से मेडिकल ग्राउंड पर बाहर आए
चौटाला ने चुनाव प्रचार कर साबित किया कि उन के लिए मेडिकल ग्राउंड तो है
लेकिन मोरल नाम का कोई ग्राउंड नहीं।
बेहद सटीक विवरण मंजीत,, बेवफा आशिक तो चाहे सुधर भी जाए मगर इन नेताओं के झूठे दावो और फरेबी वादों का कोई मुकाबला नहीं।
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