आजकल ‘रॉय’ फिल्म का एक गाना बहुत
लोकप्रिय हो रहा है, जिसमें सुन्दर सलोनी जैक्लीन फर्नांडीज़ बड़े कायदे से थिरकते
हुए अपने प्रेमी से आह्वान करती हैं, चिट्टियां कलाईयां वे, ओ बेबी मेरी वाईट
कलाईयां वे... और अपनी गोरी-सुफ़ेद चमड़ी के एवज़ में वह गोल्डन झुमके भी
मांगती हैं। जवाब में नाचते हुए लड़कों का झुंड कहता है कि उसकी वाईट कलाईयां
उन्हें क्रेजी बना रही हैं।
इस गाने को सुनते
हुए मुझे कोई बीस बाईस बरस पहले की फिल्म आज का अर्जुन का एक और गाना याद आ
रहा है, उसमें नायिका जया प्रदा की डिमांड गोरी कलाईयों के एवज़ में थोड़ी कम थी।
वह हरी-हरी चूड़ियों पर ही मान जा रही थी। बदलते वक्त ने गोरेपन की कीमत बढ़ा दी
है।
पहले सिर्फ
लड़कियों के गोरेपन पर ही ज़ोर था। लड़के गोरे न भी होते थे तो ज्यादा दिक़्क़त
नहीं होती थी। अच्छे रिश्ते के लिए लड़कियों का सुन्दर, सुशील और गृहकार्यों में
दक्षता के साथ गोरा होना अतीव आवश्यक था। मैं था क्यों कह रहा हूं, अभी भी है।
लेकिन शाहरूख खान ने गोरेपन को लड़को के लिए भी एक अदद ज़रूरी चीज़ बना दिया है।
गोरेपन को सिर्फ
फैशन न जोड़िए। यह शादी-ब्याह करने और रिश्ते जोड़ने में भी यह सीमेंट का काम करता
है। यहां तक कि वैलेंटाईन खोजने के मामले में भी लड़का-लड़की गोरी हो तो बढ़िया।
एक सर्वे बताता
है कि भारत में गोरेपन की क्रीम की कुल बिक्री का 57 फीसद गांवों में होता है। पहले
मुझे लगता था कि देश में सर्वव्यापी चीज़ कोकाकोला है। लेकिन, मेरा भ्रम टूट गया
जब एक अन्य सर्वे में मैंने जाना कि भारत में सबसे ज्यादा बिकने वाली चीज़ नमक या
कोकाकोला नहीं, गोरेपन की क्रीम है।
टीवी पर,
विज्ञापनों में अभी भी लड़कियों का आत्मविश्वास सात हफ़्तों के गोरेपन के निखार के
बाद ही आता है। अभी भी यामी गौतम सात दिनों में निखरने वाली सुन्दरता का राज़ किसी
ख़ास क्रीम को बता रही हैं। देश में अभी भी फेयर एंड लवली की बिक्री वैसी ही है।
सौन्दर्य उत्पाद
निर्माता कंपनी इमामी की खोज है कि आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में लड़कियों के लिये
बनी गोरेपन की क्रीम के 26 फीसदी और तमिलनाडु के 30 फीसद उपभोक्ता पुरुष हैं। कंपनी
ने इसलिये पुरुषों के लिये खास गोरेपन की क्रीम ही बना डाली है। इसमें स्त्रियों
की क्रीम से हटकर “पेप्टाईड
कॉम्पलेक्स” नाम एक पेंटेंटेड
सफेदीकारक तत्व प्रयोग में लाया गया है, जो मर्दों के लिये कथित रूप से उपयुक्त
है।
तब जाकर कंपनी के
ब्रांड अंबेसेडर शाहरूख खान ने मरदो को ललकारा कि क्या लड़कियों वाली क्रीम लगाकर
गोरा होना चाहते हो, मरदो वाली क्रीम लगाओ।
रंग को लेकर
हमारा यह स्यापा अमेरिका तक फैला है। अमेरिका के मौजूदा राष्ट्रपति भले ही अफ्रीकी-अमेरिकी
मूल के हों, लेकिन आगामी चुनाव के अहम उम्मीदवारों में से एक हैं बॉबी जिन्दल।
बॉबी पर भी गोरेपन का भूत सवार है।
वह जब पैदा हुए
तो पीयूष जिन्दल थे। हाई स्कूल पास करके बॉबी जिन्दल हो गए। जिन्दल साहब पर गोरेपन
का जादू कुछ इस कदर छाया कि उनकी एक पेंटिंग में उन्हें यूरोपियनों जैसा गोरा
दिखाया गया।
लेकिन उनकी दूध
जैसी गोराई वाली यह पेंटिंग सोशल मीडिया पर आई तो बॉबी साब की भद पिटने लगी। यह
देखकर बॉबी ने अपनी एक और पेंटिंग जारी करवाई जिसमें उनकी त्वचा थोड़ी टैन थी। कुछ
वैसी ही अगर कोई यूरोपियन थोड़ी देर धूप में लेट जाए।
फिर भी, सवाल है
कि हम गोरेपन को लेकर इतने दीवाने क्यों हैं? यह दीवानापन सिर्फ
भारतीय नहीं है, गोरा होने की बीमारी विश्वव्यापी है। इसकी क्या वजह हो सकती है कि
सिर्फ भारत में ही गोरेपन की क्रीमों का 20 हजार करोड़ रूपये का बाजार है।
क्या कोई क्रीम
वाकई त्वचा का रंग बदल सकती है? इसका जवाब ईमानदारी से मिले न मिले, गोरे रंग की चाहत के चलते निर्माता कंपनियों के वारे-न्यारे
हो रहे हैं। लेकिन गोरेपन की
चाहत की इस भावना को आप नस्लभेद मानें या कभी किसी न किसी यूरोपियन देश के ग़ुलाम
रहे देशों की हीनभावना, लेकिन एक तर्क यह भी सामने आऩे लगा है कि यूरोपियन जीन भी
बेहतर है।
इस ग़लतफ़हमी का
समाधान जब होगा, तब होगा। अभी तो हमारे सामने टीवी है, खबर है, गोरा बनने की कोशिश
कर रहे अमेरिका के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बॉबी जिंदल हैं, टीवी है, विज्ञापन
है, गोरा बनने के लिए मरदो वाली क्रीम लगाने के लिए ललकारते शाहरूख हैं, पुनः टीवी
है, इस बार गाने हैं, उनमें ठुमकती हुई जैक्सीन फर्नांडीज़ हैं, और हैं उनकी
चिट्टियां कलाईंया। इति।