Tuesday, February 24, 2015

दो-टूकः चिट्टियां कलाईयां वे

जकल रॉय फिल्म का एक गाना बहुत लोकप्रिय हो रहा है, जिसमें सुन्दर सलोनी जैक्लीन फर्नांडीज़ बड़े कायदे से थिरकते हुए अपने प्रेमी से आह्वान करती हैं, चिट्टियां कलाईयां वे, ओ बेबी मेरी वाईट कलाईयां वे... और अपनी गोरी-सुफ़ेद चमड़ी के एवज़ में वह गोल्डन झुमके भी मांगती हैं। जवाब में नाचते हुए लड़कों का झुंड कहता है कि उसकी वाईट कलाईयां उन्हें क्रेजी बना रही हैं।

इस गाने को सुनते हुए मुझे कोई बीस बाईस बरस पहले की फिल्म आज का अर्जुन का एक और गाना याद आ रहा है, उसमें नायिका जया प्रदा की डिमांड गोरी कलाईयों के एवज़ में थोड़ी कम थी। वह हरी-हरी चूड़ियों पर ही मान जा रही थी। बदलते वक्त ने गोरेपन की कीमत बढ़ा दी है।

पहले सिर्फ लड़कियों के गोरेपन पर ही ज़ोर था। लड़के गोरे न भी होते थे तो ज्यादा दिक़्क़त नहीं होती थी। अच्छे रिश्ते के लिए लड़कियों का सुन्दर, सुशील और गृहकार्यों में दक्षता के साथ गोरा होना अतीव आवश्यक था। मैं था क्यों कह रहा हूं, अभी भी है। लेकिन शाहरूख खान ने गोरेपन को लड़को के लिए भी एक अदद ज़रूरी चीज़ बना दिया है।

गोरेपन को सिर्फ फैशन न जोड़िए। यह शादी-ब्याह करने और रिश्ते जोड़ने में भी यह सीमेंट का काम करता है। यहां तक कि वैलेंटाईन खोजने के मामले में भी लड़का-लड़की गोरी हो तो बढ़िया।
एक सर्वे बताता है कि भारत में गोरेपन की क्रीम की कुल बिक्री का 57 फीसद गांवों में होता है। पहले मुझे लगता था कि देश में सर्वव्यापी चीज़ कोकाकोला है। लेकिन, मेरा भ्रम टूट गया जब एक अन्य सर्वे में मैंने जाना कि भारत में सबसे ज्यादा बिकने वाली चीज़ नमक या कोकाकोला नहीं, गोरेपन की क्रीम है।

टीवी पर, विज्ञापनों में अभी भी लड़कियों का आत्मविश्वास सात हफ़्तों के गोरेपन के निखार के बाद ही आता है। अभी भी यामी गौतम सात दिनों में निखरने वाली सुन्दरता का राज़ किसी ख़ास क्रीम को बता रही हैं। देश में अभी भी फेयर एंड लवली की बिक्री वैसी ही है।

सौन्दर्य उत्पाद निर्माता कंपनी इमामी की खोज है कि आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में लड़कियों के लिये बनी गोरेपन की क्रीम के 26 फीसदी और तमिलनाडु के 30 फीसद उपभोक्ता पुरुष हैं। कंपनी ने इसलिये पुरुषों के लिये खास गोरेपन की क्रीम ही बना डाली है। इसमें स्त्रियों की क्रीम से हटकर पेप्टाईड कॉम्पलेक्सनाम एक पेंटेंटेड सफेदीकारक तत्व प्रयोग में लाया गया है, जो मर्दों के लिये कथित रूप से उपयुक्त है।

तब जाकर कंपनी के ब्रांड अंबेसेडर शाहरूख खान ने मरदो को ललकारा कि क्या लड़कियों वाली क्रीम लगाकर गोरा होना चाहते हो, मरदो वाली क्रीम लगाओ।

रंग को लेकर हमारा यह स्यापा अमेरिका तक फैला है। अमेरिका के मौजूदा राष्ट्रपति भले ही अफ्रीकी-अमेरिकी मूल के हों, लेकिन आगामी चुनाव के अहम उम्मीदवारों में से एक हैं बॉबी जिन्दल। बॉबी पर भी गोरेपन का भूत सवार है।

वह जब पैदा हुए तो पीयूष जिन्दल थे। हाई स्कूल पास करके बॉबी जिन्दल हो गए। जिन्दल साहब पर गोरेपन का जादू कुछ इस कदर छाया कि उनकी एक पेंटिंग में उन्हें यूरोपियनों जैसा गोरा दिखाया गया।

लेकिन उनकी दूध जैसी गोराई वाली यह पेंटिंग सोशल मीडिया पर आई तो बॉबी साब की भद पिटने लगी। यह देखकर बॉबी ने अपनी एक और पेंटिंग जारी करवाई जिसमें उनकी त्वचा थोड़ी टैन थी। कुछ वैसी ही अगर कोई यूरोपियन थोड़ी देर धूप में लेट जाए।

फिर भी, सवाल है कि हम गोरेपन को लेकर इतने दीवाने क्यों हैं? यह दीवानापन सिर्फ भारतीय नहीं है, गोरा होने की बीमारी विश्वव्यापी है। इसकी क्या वजह हो सकती है कि सिर्फ भारत में ही गोरेपन की क्रीमों का 20 हजार करोड़ रूपये का बाजार है।

क्या कोई क्रीम वाकई त्वचा का रंग बदल सकती है? इसका जवाब ईमानदारी से मिले न मिले, गोरे रंग की चाहत के चलते निर्माता कंपनियों के वारे-न्यारे हो रहे हैं। लेकिन गोरेपन की चाहत की इस भावना को आप नस्लभेद मानें या कभी किसी न किसी यूरोपियन देश के ग़ुलाम रहे देशों की हीनभावना, लेकिन एक तर्क यह भी सामने आऩे लगा है कि यूरोपियन जीन भी बेहतर है।


इस ग़लतफ़हमी का समाधान जब होगा, तब होगा। अभी तो हमारे सामने टीवी है, खबर है, गोरा बनने की कोशिश कर रहे अमेरिका के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बॉबी जिंदल हैं, टीवी है, विज्ञापन है, गोरा बनने के लिए मरदो वाली क्रीम लगाने के लिए ललकारते शाहरूख हैं, पुनः टीवी है, इस बार गाने हैं, उनमें ठुमकती हुई जैक्सीन फर्नांडीज़ हैं, और हैं उनकी चिट्टियां कलाईंया। इति। 

Saturday, February 14, 2015

दो टूकः बेटी है अनमोल

पहली तस्वीरः हरियाणा का पानीपत। 22 जनवरी। मंच पर प्रधानमंत्री, महिला और बाल विकास मंत्री मेनका गांधी, हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर मशहूर हीरोईन माधुरी दीक्षित हैं। प्रधानमंत्री बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान की शुरूआत करते हैं। भाषण भावुक है। तालियां बजती हैं।
फोटो सौजन्यः गांव कनेक्शन

दूसरी तस्वीरः रायसीना पहाड़ी पर स्थित भव्य राष्ट्रपति भवन। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा सलामी गारद का निरीक्षण कर रहे हैं। उन्हें गार्ड ऑफ ऑनर दे रही हैं पूजा ठाकुर।

टेलिविज़न पर पूजा ठाकुर चमकते उन्नत भाल और आत्मविश्वास को देखकर घरों में तालियां बजती हैं। कई माएं अपनी बेटियों की बलाएं ले रही हैं, कई लड़कियों में कुछ कर गुज़रने की तमन्ना जागती है।

अब दीपा मलिक की बात। दीपा सोनीपत हरियाणा से पैरा-ओलिंपिक खिलाड़ी हैं और अर्जुन पुरस्कार जीत चुकी हैं। दीपा ने बताया कि उनके ससुराल में उनके खेलने पर कोई प्रतिबंध नहीं है। हरियाणा में खेल की संस्कृति है। लड़की खेले, पदक जीते तो कोई बंधन नहीं। परदे का भी बंधन नहीं। 

विडंबना यही है कि इसी हरियाणा में खेल भावना चाहे जितनी हो, लड़कियों को लेकर भेदभाव भी उतना ही अधिक है। लिंगानुपात में सबसे अधिक अंतर और गर्भ में पल रही संतानों का लिंगनिर्धारण करने के लिए सबसे अधिक अल्ट्रा-साउंड मशीऩें इसी राज्य में हैं। नतीजतनः हरियाणा के बहुत सारे गांवों में लड़के कुंवारे बैठे हैं, उनको दुल्हन ही नहीं मिल रही। हरियाणा के महेन्द्रगढ़ हो या सोनीपत लड़को को दुलहनियां खोजने बाहर तक जाना पड़ता है। बाहर के सूबों से गरीब घरों की लड़कियां ब्याह लाई जाती हैं। हरियाणा में इनको पारोकहा जाता है। किसी घर में मध्य प्रदेश की बहू है तो कहीं बंगाल की।

राजस्थान का किस्सा भी कुछ अलग नहीं है। बेटियों को भार समझने वालों ने कुछ ऐस कहर ढाया कि जैसलमेर के एक गांव देवड़ा में एक सौ बीस साल के बाद बारात आई।

मुझे कुछ और चीजें याद आ रही हैं। बचपन से मैं दुर्गा पूजा के दौरान धुंदुची डांस देखता आ रहा हूं। धुंदुची मतलब देवी दुर्गा की मूर्त्ति के आगे धूप-गुग्गल जलाकर भक्तों का नृत्य। इधर, उत्तर भारत में नवरात्र में माता के जागरण और माता की चौकी की परंपरा है।

इन दृश्यों पर कुछ आंकड़े सुपर-इंपोज हो जा रहे हैं। रेप की ख़बरें, कन्या भ्रूण हत्या की खबरें, और केरल छोड़कर देश के तकरीबन हर सूबे में तेजी से गिरता लिंगानुपात।

अब मैं यहां दो क़िस्से सुनाना चाहता हूं, पहली कहानी राजस्थान के उदयपुर की है। उदयपुर की मशहूर झीलों में जब नवजात बच्चियां मिलने लगीं, तो झील की खूबसूरती में दाग़-सा लग गया था।

ऐसे में सामने आए देवेन्द्र अग्रवाल। साल 2006 में कन्या भ्रूण हत्या के बढ़ते मामलों के बाद देवेन्द्र ने कन्याओं की मदद करने के लिए अपना मार्केटिंग करियर छोड़ दिया। उन्होंने महेश आश्रम में एक पालना रखवा दिया और नारा दिया, फेंकिए मत, हमें दीजिए।

इन नवजातों के बचाने के लिए सबसे बड़ी जरूरत होती है मां के दूध की और देवेन्द्र ने इसके लिए भी अनूठी पहल की। उन्होंने दुग्ध-दान आयोजित किया। इनमें प्रसूता माताएं आश्रम आकर अपना दूध दे जाती हैं, जिन्हें इन बच्चियों को पिलाया जाता है। उन मांओ की पहचान गुप्त रखी जाता है।

देवेन्द्र अग्रवाल बताते हैं कि उदयपुर में दुग्धदान सफल रहा है और एक बार तो 494 माताओं ने शिविर में आकर दुग्ध-दान किया था, इतनी बड़ी संख्या में तो कभी रक्तदान भी नहीं हुआ है।

साल 2007 से अब तक इसमें 110 बच्चियों लाई जा चुकी हैं। हालांकि राहत की बात यह है इनमें से 94 लड़कियों को किसी न किसी दंपत्ति ने गोद ले लिया है।

राजस्थान नवजात कन्याओं की हत्या के मामले में कुख्यात है और हरियाणा भ्रूण को गर्भ में ही मार देने के। राजस्थान में लिंगानुपात 883 लड़कियों का है।

दूसरा क़िस्सा हरियाणा के झज्जर का है जहां साल 2011 में लिंगानुपात 774 था। तब वहां के जिलाधिकारी अजीत बालाजी जोशी ने जिले के सभी 39 अल्ट्रासाउंड केन्द्रों को एडवांस एक्टिव ट्रैकर से जोड़ दिया। यानी जितने भी अल्ट्रासाउंड केन्द्र थे वहां होने वाले हर अल्ट्रासाउंड की जानकारी सीधे केन्द्रीकृत व्यवस्था के एक्टिव ट्रैकर में फीड होती थी। इससे झज्जर में भ्रूणहत्याओं की संख्या में कमी आई।

इन दोनों ही किस्सों से सीख ली जा सकती है। हम स्त्रियों पर चिंता जताकर उनपर कोई उपकार नहीं कर रहे। आधी आबादी को उनके अधिकार देने की बात करना अहंमन्यता है। उनको बस अवसर दिए जाने और बराबरी का व्यवहार करना जरूरी है, बाकी आसमान वह खुद हासिल कर सकती हैं। फिर, दुर्गा सप्तशती में देवीस्त्रोत पढ़ते हुए, या माती की चौकी में जगराता पढ़ते हुए कभी भी अपराधबोध से माथा नीचे नहीं झुकेगा।


( यह लेख गांव कनेक्शन अखबार के दो टूक स्तंभ में प्रकाशित हो चुका है)

Monday, February 9, 2015

गांव कनेक्शनः दो टूकः गणतंत्र का राग

नीलेश मिसरा का कॉल आया तो मैं बेचैन हो उठा था। गांव कनेक्शन देशज अखबार है। गांव का अखबार। पहले भी कई दफा उसमें लिख चुका हूं, लेकिन स्थायी स्तंभ? मुझ जैसे अदना आदमी को सर पर चढ़ाना नीलेश मिसरा की पुरानी आदत है। बहरहाल, 2 फरवरी के अंक के साथ गांव कनेक्शन में स्तंभ शुरू हो चुका है। पहला अंक, गणतंत्र दिवस हाल ही में बीता था, उसी पर है। और हां, स्तंभ का नाम मैं कुछ आवारगी टाइप रखना चाह रहा था, लेकिन कंटेट को देखते हुए नीलेश दा ने दो-टूक पर मुहर लगा दी। --मंजीत

"गणतंत्र दिवस की पूर्व-संध्या पर राष्ट्रपति का राष्ट्र के नाम संदेश आया। यह कर्मकांड की तरह रस्मी हो गया था। इस दफ़ा, संबोधन में कम से कम दो बातें ऐसी हैं जिनपर गौर किया जाना ज़रूरी है। अव्वल, राष्ट्रपति ने कहा कि बिना चर्चा किए क़ानून बनाया जाना लोकतंत्र के हित में नही है। ज़ाहिर है, यह उन अध्यादेशों की तरफ इशारा है जो हाल के महीनों में सरकार लेकर आई है।

इनमें से सबसे अधिक गौर की जाने लायक भूमि अधिग्रहण अधिनियम पर आया अध्यादेश है। पुराने कानून में, जो 1984 में बना था, मनमाने तरीके से अधिग्रहण होते थे। किसानों को पर्याप्त मुआवज़ा भी नहीं मिल पाता था। यूपीए की सरकार ने विपक्ष को भी अपने पक्ष में करते हुए पहले के मुकाबले बेहतर कानून तो बना दिया, लेकिन यह कानून चुनाव केन्द्रित था। कांग्रेस को लगा था कि यह कानून उसके लिए वही काम करेगा जो मनरेगा ने यूपीए-एक के लिए किया था।
अध्यादेश के ज़रिए इस कानून को नरम बनाया गया है। पहले से ही झेल रहे किसानों के लिए ज़मीन बचाने का आधार और सख्त हो जाएगा। ज़मीने किसी के लिए विशुद्ध रोज़गार होती हैं तो किसी के लिए किसी प्रोजेक्ट का बुनियादा आधार।

ऐसे में बड़ा सवाल है कि आखिर ज़मीन हासिल करने के मामले में किसे वरीयता दी जानी चाहिए। किसान का फायदा कहां है और अगर ज़मीन किसी परियोजना के लिए उद्योगपतियों को दी जानी है तो उसके लिए मापदंड क्या होंगे।

बहरहाल, राष्ट्रपति के संबोधन में दूसरी बात यह गौर की जा सकती है कि उन्होंने गणतंत्र दिवस के बहाने संविधान के चार मुख्य स्तंभों की याद दिलाई है। इनमे से एक है, गरीबों को उनकी हालत से बाहर निकलने में मदद करना।

इधर, कुछ खबरें ऐसी आई हैं, और सही ही आई हैं कि देश में यूरिया का संकट है। यह संकट घना है। गांव कनेक्शन जैसे अखबार को छोड़ दें, तो कुछेक अखबारों या पत्रिकाओ ने ही इस पर स्टोरी की है। टीवी के लिए किसान तबतक स्टोरी नहीं होते, जब तक वह चैनल खुद दूरदर्शन न हो। या फिर किसानों ने बहुत बड़ी संख्या में आत्महत्या न कर ली हो।

रिपोर्टों के मुताबिक, देश में 15 से 20 लाख टन तक यूरिया की कमी है। देश में 3.2 करोड़ टन यूरिया की मांग है, उत्पादन होता है 2.3 करोड़ टन। सत्तर-अस्सी लाख टन यूरिया आयात किया जाता है।

बरौनी, सिंदरी खाद के सारे कारखाने बंद हो गए हैं। किसानों का क्या होगा..यह किसी के सोचने के दायरे में नहीं आता। बुंदेलखंड, कर्नाटक, नियामगिरि, श्यौपुर-शिवपुरी हर जगह किसान हाशिए पर है। किसानी का नारा देना, उनके वोट बटोरने के लिए सिर पर हरी पगड़ी पहन लेना आसान है। किसान के हित में काम करना मुश्किल।

आंकड़ेबाज़ यह तर्क देंगे कि देश के जीडीपी में आखिर खेती की हिस्सेदारी है ही कितना। मुझे आंकड़े परेशान करत हैं। किसानों की हालत के बारे में जब भी सोचता हूं, पहली तस्वीर चित्रकूट जिले के पवा गांव की बदोलन बाई की कौंधती है।

बदोलन बाई का घर किसी कोण से झोंपड़ा भी नहीं लगता था। तीन तरफ से गिरी हुई दीवारों की वजह से, मुमकिन है इसे आप खंडहर कह लें। बदोलन के पति भूमिहीन मज़दूर थे। सूखे की वजह से इस खेतिहर मज़दूर को काम मिलना बंद हो गया। बदोलन के दो बेटे थे, बड़ा बेटा दिमागी रूप से कमजोर है। भुखमरी हुई तो छोटा घर से निकल गया, उसका कहीं पता नहीं।

पति को एक रात आख़री बार भूख लगी। अब गांव वाले उसे कुछ खिला देते हैं दया दिखाते हुए तो बदोलन और उसके बड़े बेटे का पेट चलता है। मैं उस गांव में गया था, तो मेरी दादी की उम्र की बदोलन बार-बार पैरों पर गिरी जाती है थी। सब राज-काज होत दुनिय़ा मा...एक हमरे सुधि न लैहे कोय....बदोलन का विलाप मुझे भारतीय गणतंत्र का विलाप लग रहा है।

राष्ट्रपति के संबोधन में भारत के सभी गरीबों को एक पंक्ति में समेटा गया है। लेकिन अच्छा है कि कम से कम जिक्र तो है। न होता तो हम क्या कर लेते।"  


 (यह लेख गांव कनेक्शन अखबार में प्रकाशित हो चुका है)

Friday, February 6, 2015

किसानो की क़ब्रगाह भी है कर्नाटक

कर्नाटक का गुलबर्गा ज़िला। छोटे से क़स्बे जाबार्गी के बाजार में हूं। असल में बाज़ार से थोड़ी दूर है यह जगह। सड़कों के किनारे बीजेपी के निवर्तमान मुख्यमंत्री (चुनाव के वक्त के मुख्यमंत्री) और मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार लिंगायत नेता जगदीश शेट्टार की रैली है।

सूरज ढल रहा है, लेकिन गरमी बरक़रार है। जगदीश शेट्टर मंच पर हैं, सड़कों पर धूल उड़ रही है, रैली खचाखच भरी है। आसपास अपनी गहरी नज़र से देखता हूं, क्या यह भीड़ खरीदी हुई है? लोगों के चेहरे से कुछ पता नहीं लगता।

हर चेहरा पसीने से लिथड़ा है...किसी चेहरे पर कुछ नहीं लिखा है। सौम्य जगदीश शेट्टर मंच से कन्नड़ में कुछ कहते हैं, (बाद में पता चला, वो कह रहे थे एक लिंगायत को वोट देंगे ना आप?) जनता की तरफ से समवेत आवाज़ आती है। आवाज नहीं, हुंकार।

स्थान परिवर्तन। जगहः बेल्लारी जिला, हासनपेट, राहुल गांधी की रैली। बांहे चढ़ाते हुए राहुल हिंदी में भाषण दे रहे हैं। पूछते हैं, घूसखोर और बेईमान येदुयरप्पा और उनकी पार्टी (चुनाव से पहले की) बीजेपी को हराएंगे ना आप? जनता फिर हुंकार भरती है। कुछ वैसे ही, जैसे जगदीश शेट्टार की रैली में हुंकार भरी थी।

यहां भी लोगों के चेहरे पर उदासीनता थी। लेकिन हेलिकॉप्टर की आवाज ने एक उत्तेजना तो फैलाई ही थी।

इस दौरे में उत्तरी कर्नाटक के जिस भी ज़िले में गया, चुनावी भागदौड़ के बीच हर जगह एक फुसफुसाहट चाय दुकानों पर सुनने को मिली। कन्नड़ समझ में नहीं आती थी, लेकिन स्वर-अनुतानों से पता चल जाता था कि खुशी की बातें तो हैं नहीं।
जबार्गी में जगदीश शेट्टार की रैली में हुंकारा भरती जनता फोटोः मंजीत ठाकुर
कारवाड़, बीजापुर, गुलबर्गा, बीदर...हर तरफ सूखा था। किसानों की आत्महत्या के किस्से भी थे।

बीजापुर के एक गांव नंदीयाला गया। इस गांव में पिछले साल एक किसान लिंगप्पा ओनप्पा ने आत्महत्या की थी। उसके घर जाता हूं, दिखता है भविष्य की चिंता से लदा चेहरा। रेणुका लिंगप्पा का चेहरा। रेणुका लिंगप्पा की विधवा हैं। अब उनपर अपने तीन बच्चों समेत सात लोगों का परिवार पालने की जिम्मेदारी आन पड़ी है। पिछले बरस इनके पति लिंगप्पा ने कर्ज के भंवर में फंसकर और बार-बार के बैंक के तकाज़ों से आजिज आकर आत्महत्या का रास्ता चुन लिया।

लिंगप्पा ने खेती के काम के लिए स्थानीय साहूकारों और महाजनों और बैंक से कर्ज लिया था, लेकिन ये कर्ज लाइलाज मर्ज की तरह बढ़ता गया। बीजापुर के बासोअन्ना बागेबाड़ी में आत्महत्या कर चुके चार किसानों के नाम हमारे सामने आए। इस तालुके के मुल्लाला गांव शांतप्पा गुरप्पा ओगार पर महज 31 हजार रूपये का कर्ज था।

नंदीयाला वाले लिंगप्पा पर साहूकारों और बैंको का कुल कर्ज 8 लाख था। इंगलेश्वरा गांव के बसप्पा शिवप्पा इकन्नगुत्ती  और नागूर गांव के परमानंद श्रीशैल हरिजना को भी मौत की राह चुननी पड़ी।
पूरे बीजापुर जि़ले में 2012 अप्रैल से 2013 अप्रैल तक 13 किसानों ने आत्महत्या की राह पकड़ ली। पूरे कर्नाटक में यह आंकड़ा इस साल (साल 2013 में) 187 तो 2011 में 242 आत्महत्याओं का रहा था। 2013 में, बीदर में 14, हासन मे दस, चित्रदुर्ग में बारह किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। गुलबर्गा, कोडागू, रामनगरम, बेलगाम कोलार, चामराजनगर, हवेरी जैसे जिलों से भी किसान आत्महत्याओं की खबरें के लिए कुख्यात हो चुके हैं।

खेती की बढ़ती लागत और उत्तरी कर्नाटक का सूखा किसानों की जान का दुश्मन बन गया है। पिछले वित्त वर्ष में कुल बोई गई फसलों का 16 फीसद अनियमित बारिश की भेंट चढ गया। और कर्नाटक सरकार ने सूबे के 28 जिलों के 157 तालुकों को सूखाग्रस्त घोषित कर दिया था। लेकिन राहत कार्यो में देरी ने समस्या को बढ़ाया ही।

किसानों की आत्महत्या कर्नाटक में नया मसला नहीं है। पिछले दस साल में 2886 किसानों ने अपनी जान दी है।

पिछले दशक में बारह ऐसे जिले हैं जिनमें सौ से ज्यादा किसान आत्महत्याएं हुई हैं, ये हैं. बीदर, 234 हासन 316, हवेरी 131, मांड्या 114, चिकमंगलूर 221, तुमकुर 146, बेलगाम 205, शिमोगा 170 दावनगेरे, 136, चित्रदुर्ग 205 गुलबर्गा 118, और बीजापुर 149

लेकिन, किसानों की आत्महत्याएं अब आम घटना की तरह ली जाने लगी हैं और विकास की अंधी दौड़ में हाशिए पर पड़े गरीब किसानों की जान की कीमत अखबार में सिंगल कॉलम की खबर से ज्यादा नही रही हैं।


कर्नाटक दौरे में यह इलाका, अब मुझे परेशान करने लगा है। गरमी तो झेल लेगा कोई, लेकिन समस्याओं की यह तपिश नहीं झेली जाती।