Wednesday, March 11, 2015

बजट और घीसू का पसीना

जट भाषण बहुत बोरिंग होते हैं। और हर वित्त मंत्री उसमें कुछ शेरो-शायरी करके रंग भरने की कोशिश करता है। मैं वित्त मंत्री के भाषण-कला या शेरो-शायरी पर कुछ कहना नहीं चाहता। मैं इस स्तंभ के ज़रिए आपको बजट की नीरस बातों पर बिन्दुवार कुछ कहने की कोशिश भी नहीं करूंगा।
कईयों ने इस बजट को बहुत बेकार कहा, कईयो ने दूरमागी प्रभाव वाला। विपक्ष वालों के मुताबिक खेती किसानी के लिहाज से यह बजट कुछ खास नहीं रहा।

वित्तीय मामलों जैसे नीरस विषय पर कोई जानकार ही कायदे से अपनी बात समझा पाए। लेकिन जिस देश में रूखी त्वचा, खेतों में पड़ी दरारों से अधिक महत्वपूर्ण हों, जहां सिर में डैंड्रफ सूखी फसलों से अधिक पब्लिक स्पेस घेरती हो, जहां किसान आत्महत्या से अधिक चर्चा वॉर्डरोब मालफंक्शन की हो, वहां थोड़ी सी जगह कुछ चिंताओं को दिया जाना मैं बाजिव ही मानता हूं। 
प्रधानमंत्री देहातों को डिजिटल बना देना चाहते हैं। शायद बजट में डिजिटल इंडिया कार्यक्रम पर खासा जोर भी इसी वजह से दिया गया। दोयम यह कि सरकार देश में टेलिकॉम इन्फ्रास्ट्रक्चर और तकनीक पर विदेशी निवेश लुभाने की कोशिशों में है।

शहरों और गांवों के बीच की डिजिटल खाई को पाटने के लिए अगले साल दिसंबर तक सरकार ने देश के ढाई लाख गांवों तक ब्राडबैंड कनेक्टिविटी पहुंचाने का लक्ष्य तय किया है। अगर यह अपने तयशुदा वक्त पर, या छह महीने लेट भी, हो पाया तो भारतीय देहातों की सूरत बदल देगा। घरेलू बाज़ार के लिए तकनीक में 26 अरब डॉलर क सरकारी निवेश मौजूदा वित्त वर्ष में आर्थिक वृद्धि का मूल रहेगा।

अपने बजट भाषण में जेटली ने कहा ही कि देश भर में नैशनल ऑप्टिकल फाइबर नेटवर्क को साढे सात लाख किलोमीटर की लंबाई में बिछाया जाएगा और सरकार गांवो में 100 एमबीपीएस ब्राडबैंड कनेक्टिविटी देगी।

ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी ठीक है। अब हमारे देहात ग्लोबल हो जाएंगे। मुझे देहातों के ग्लोबल होने में कोई दिक्कत नहीं है।

लेकिन, हम भारतीयो की दिक्कत है कि हम बहुत बुनियादी मसलों में उलझ कर रह जाते हैं। मिसाल के तौर पर, मैं खुद, कई बार बुंदेलखंड के इलाकों के चक्कर काट चुका हूं। मुझे पानी की समस्या बहुत बुनियादी और असल समस्या लगती है।

बांदा के पास एक जगह है अतर्रा। यह तीन दशक पहले तक अतर्रा देश का सबसे बड़ा चावल उत्पादक केन्द्र था और यहां धान की सैंतीस मिलें थीं। इस इलाके में नहरों का जाल बिछा था। मतलब नहरों की अच्छी कनेक्टिविटी थी। यहां बांधो की सघनता एशिया में सर्वाधिक थी। अतर्रा का सेला चावल देश भर में मशहूर था और यहां की स्थानीय चावल की बहुतेरी किस्में उगाई जाती थीं।
वक्त बदला। बांधों और नहरों में पैंसठ फीसद तक गाद भर गया। बुंदेलखंड वैसे भी कम बारिश के लिए बदनाम है। सरकारों ने सुध ही नहीं ली।

आज हालात यह हैं कि अतर्रा का आखिरी चावल मिल भी अपनी आखिरी सांसें गिन रहा है। काश...सरकार इधर भी तवज्जो देती कुछ। चावल की स्थानीय नस्लें खो गईं, उसका मुद्दा तो बाद में उठेगा, अतर्रा के किसानों की कई नस्लें बरबाद हो गईं इसका जवाब कौन देगा।

ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी बहुत जरूरी है। लेकिन नहरों की कनेक्टिविटी उससे ज्यादा जरूरी है। अदम गोंडवी कहते तो हैं,

न महलों की बुलंदी से न लफ़्ज़ों के नगीने से
तमद्दुन में निखार आता है घीसू के पसीने से।


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