अप्रैल का महीना
आता है तो मेरे जैसे आम इंसानों को कई तनावों के साथ एक और तनाव झेलना होता है,
अपने संतानों को स्कूल में दाखिला कराने का। एडमिशन का मिशन हर अभिभावक के लिए कितना
कष्टकारी होता है, सिर्फ वही जानता है जिसने अपने बच्चों के दाखिले के लिए
दौड़-भाग की है।
बच्चों के साथ
मां-बाप का इंटरव्यू जरूरी हो गया है। अंग्रेजी स्कूलों से निकले हमारे साथी जरुर,
बाबा ब्लैक शीप, हम्प्टी-डम्प्टी
और चब्बी चिक्स जानते होंगे, लेकिन स्टेट बोर्ड से निकले मित्रों की अंग्रेजी से मुठभेड़ छठी कक्षा में हुआ
करती थी।
मेरा बेटा दूसरी
कक्षा में गया है, लेकिन स्कूल के विकास के लिए और उसके दोबारा एडमिशन के एवज़ में
जो रकम मुझसे वसूली गई है वह मेरी मासिक आमदनी की तकरीबन ड्योढ़ी है। उसके किताबों
की कीमत साढ़े तीन से चार हजार के बीच रही।
सच कहूं तो मुझे
अपना वक्त याद आ गय़ा। मुझे लगता है कि हम न जाने कितनी दूर चले आए हैं। बहुत-सी
बातें एकदम से बदल गईं हैं। सारे बदलाव सकारात्मक से लगते तो हैं लेकिन पढाई के
स्तर और लागत के बारे में सकारात्मक टिप्पणी सूझ नहीं रही।
हमारे शहर में
हिन्दी और अंग्रेजी माध्यम के दो निजी स्कूल थे। हमारा दाखिला सरस्वती शिशु मंदिर
में हुआ था, दाखिले की फीस थी
40 रुपये और मासिक शुल्क 15 रुपये। चार साल उसमें पढ़ने के बाद जब फीस बढ़कर 25
रुपये हो गया, और तब घरवालों को
लगा कि यह शुल्क ज्यादा है।
फिर मैं एक सरकारी
मिड्ल स्कूल जाने लगा था, जहां एडमिशन फीस 5 रुपये, और सालाना शुल्क 12 रुपये था। इस गांधी स्कूल
में ब्रिटिश जमाने के फर्श पर ही बैठना होता था।
उस वक्त भी,
जो शायद 1988 का साल था,
किताबों की कीमत हमारी
ज़द में हुआ करती थीं। छठी क्लास में विज्ञान की किताब सबसे मंहगी थी और उसकी कीमत
थी महज 6 रुपये 80 पैसे। बिहार टेक्स्टबुक पब्लिशिंग कॉरपोरेशन किताबें छापा करती
थी, सबसे सस्ती थी संस्कृत की
किताब जो शायद डेढ़ रूपये के आसपास की थी।
उसमें भी घरवालों
की कोशिश रहती कि किसी पुराने छात्र से किताबें सेंकेंडहैंड दिलवा दी जाएं। आधी
कीमत पर। किताब कॉपियां हाथों में ले जाते। सस्ते पेन...बॉल पॉइंट में भी कई स्तर
के...35 पैसे वाले मोटी लिखाई के बॉलपॉइंट रिफिल से लेकर 75 पैसे में पतले लिखे
जाने वाले बॉल पॉइंट पेन
तक।
स्याही का
इस्तेमाल धीरे धीरे कम तो हो रहा था, लेकिन फैशन से बाहर नहीं हुआ था। उस वक्त बिहार सरकार
द्वारा वित्त प्रदत्त सब्सिडी वाले कागजों से वैशाली नाम की कॉपियां आतीं
थीं...जिन पर जिल्द चढा होता। अब हमारी गुरबत पर न हंसिएगा...वैशाली की कॉपी में
नोट्स बनाना मेरे और मेरे दोस्तों का बड़ा ख्वाब हुआ करता। मध्यम मोटाई की कॉपी दो
रुपये की आती थी...हमारी सारी बचत वही खरीदने में खर्च होती।
बेटे के स्कूल
में कंप्यूटरों की भरमार देखकर आया हूं, हर कक्षा में ग्रीन बोर्ड और डिस्प्ले बोर्ड दोनों है,
प्रोजेक्टर हैं, म्युजिक सिस्टम है। फीस की रकम देखी...पढाई मंहगी हो गई है या वक्त
का तकाजा है...या लोग संपन्न हो गए है या पढाई सुधर गई है...कस्बे और शहर का
अंतर....वही सोच रहा हूं।
आजकल बच्चों की
पढ़ाई पर महानगरों के माता-पिता कमाई का 40 फीसदी हिस्सा खर्च कर रहे हैं। एसोचैम
ने एक सर्वे किया है। दो हज़ार अभिभावको पर किया गया सर्वे है। विषय, ‘शिक्षा पर बढ़ती लागत से परेशान अभिभावक’
था। इसमें कहा गया कि
सिर्फ एक बच्चे की प्राथमिक या माध्यमिक शिक्षा पर अभिभावकों का खर्च करीब 94,000 रूपए तक हो जाएगा।
यह खर्च फीस, स्कूल आना-जाना, किताबें, पोशाक, स्टेशनरी, किताबें, टूर, टयूशन और पढ़ाई से जुड़ी चीजों पर होगा। एसोचैम
के इस सर्वे के निष्कर्ष में सामने आया है स्नातक तक की पढ़ाई में एक बच्चे पर
अभिभावकों के 18-20 लाख रूपए खर्च हो जाते हैं।
56 फीसद अभिभावकों
का यह भी कहना था कि उन्हें बच्चों के भविष्य की चिंता है और महंगी शिक्षा के कारण
उन्हें बच्चों को एक्स्ट्रा-करिकुलर एक्टिविटीज से वंचित करने को बाध्य होना पड़
रहा है।
बहरहाल, हम बाध्य
हैं कि बच्चे अच्छे (?) स्कूलों में पढ़ें और आम भारतीय की मान्यता है कि महंगे स्कूल अच्छे होते
हैं। इसी तर्ज पर किताबें भी महंगी हो रही हैं। लेकिन, देश में शिक्षा का स्तर
क्या है इसकी ताकीद वैशाली और हरिय़ाणा में पऱीक्षा के दौरान सीनाजोरी की तस्वीरों
से साफ हो जाता है।
Title is sufficient :)
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