दिल्ली। जगहः दरबार हॉल, होटल ताज पैलेस। वातानुकूलित हॉल, रंग-बिरंगी रोशनी। मेरी औकात को अच्छी-तरह समझता-बूझता वेटर मेरे पास आकर मुझे जूस, और रोस्टेड चिकन के लिए पूछता है। किसी ट्रैवल मैगजीन ने पुरस्कारों का आयोजन किया है।
आयोजन शुरू होने में देर है। कई होटलवालों को पुरस्कार मिलना है। कयास लगाता हूं कि ये वही लोग होंगे जो इस पत्रिका में विज्ञापन देते होंगे। एक मंत्री भी आने वाले
हैं, दो फिल्मकार हैं। एक फिल्मकार के नाम पर पुरस्कार है, दूसरे को पुरस्कार दिया जा रहा है।
बगल की टेबल पर बैठी एक लड़की ने काफी छोटी और संकरी हाफपैंट पहनी है। उसके पेंसिल लेग्स दिख रहे हैं। उसकी किसी रिश्तेदार ने पता
नहीं किस शैली में साड़ी पहनी है, ज्यादा कल्पना करने के लिए गुंजाईश नहीं छोड़ी
है। साथ में तेरह-चौदह साल का लड़का अपनी ही अकड़-फूं में है।
दोनों सम्माननीया महिलाओं के बदन पर चर्बी नहीं
है। हड्डियां दिख रही हैं, कॉलरबोन भी। डायटिंग का कमाल है। जी हां, मैं उक्त महिला के प्रति पूरा सम्मान रखते हुए उनके बदन की चर्बी नाप रहा था।
वो बड़ी नज़ाकत से जूस का सिप ले रही हैं। वो हाफपैंट वाली कन्या बार टेंडर से कुछ
लाकर पी रही है...शायद वोदका है। वो कैलोरी वाला कुछ नहीं खा रहीं।
मै शरीर से दरबार हॉल में हूं। मन मेरा
नियामगिरि के सफर पर है। जरपा गांव में। मेरे दिलो-दिमाग़ में अभी जरपा
गांव ताजा़ है। हरियाली का पारावार। जीवन में इतनी अधिकतम हरियाली एक साथ देखी नहीं थी। ओडिशा के नियामगिरि के जंगलो में डंगरिया-कोंध जनजाति रहती है।
मर्द-औरतें दोनों नाक में नथें होती हैं, महिलाएं भी कमर के ऊपर महज गमछा लपेटती हैं कपड़े के नाम पर। दो वजहें हैं—अव्वल तो उनकी परंपरा है, और उनको जरूरत भी नहीं। दोयम, कपड़े भी तो उतना ही अफोर्ड कर सकते हैं ये लोग।
तन भी कैसा? कुपोषण से धंसे गाल। डोंगरिया-कोंध लुप्त होती आदिम जनजाति (प्रीमीटिव ट्राइब) मानी जाती है क्योंकि इनकी आबादी नहीं बढ़ रही। छोटी बीमारियों में भी बच्चे चल बसते हैं। गांव में सड़क नहीं, पीने का पानी नहीं, बिजली वगैरह के बारे में तो सोचना ही फिजूल है।
जारपा तक जाने में हमें जंगल में बारह किलोमीटर पैदल चलना पड़ा।
नियामगिरि बवाल बना हुआ है। वहां का
किस्सा-कोताह यह है कि वेदांता नाम की कंपनी को लान्जीगढ़ की अपनी रिफाइनरी के लिए
बॉक्साइट चाहिए। नियामगिरि में बॉक्साइट है। लेकिन नियामगिरि में आस्था भी है।
डोंगरिया-कोंध जनजाति के लिए नियामगिरि पहाड़ पूज्य है, नियाम राजा है।
तो छियासठ साल बाद, कांग्रेस सरकार को अचानक सुध आई कि इन डोंगरिया-कोंध लोगों का विकास करना है, उनको सभ्य बनाना है। इसके लिए इस जनजाति को जंगल से खदेड़ देने का मामला फिट
किया गया। योजना बनाने वाले सोचते हैं कि भई, जंगल में रह कर कैसे होगा विकास?
लेकिन डोंगरिया-कोंध को लगता है विकास की इस
योजना के पीछे कोई गहरी चाल छिपी है। कोंध लोगों को अंग्रेजी नहीं आती, विकास की अवधारणा से उनका साबका नहीं हुआ है, उनको ग्रीफिथ टेलर ने नहीं बताया कि जल-जंगल-जमीन को लूटने वाली मौजूदा
अर्थव्यवस्था आर्थिक और पर्यावरण भूगोल में अपहरण और डकैती अर्थव्यवस्था कही जाती
है।
डोंगरिया-कोंध जनजाति के लड़ाके तेवर पर नियामगिरि सुरक्षा समिति के लिंगराज आजाद ने कहा था मुझसे, आदिवासियों के बाल काट देना उनका विकास नहीं है। आदिवासी अगर कम कपड़े पहनते
हैं और यह असभ्यता की निशानी है, तो उनलोगों को भी सभ्य बनाओ जो कम कपड़े पहनकर मॉडर्न होने का दम भरते हैं।
लिगराज आजाद को शायद यह इल्म भी न रहा होगा कि
कम कपड़े पहने लोग सिर्फ सिनेमाई परदे पर ही नहीं आते। कम कपड़ो से व्यक्तिगत तौर
पर मुझे कोई उज्र नहीं है, ना ही मैं इसे अश्लीलता मानता हूं। लेकिन किसी को इसी आधार पर बर्बर-असभ्य कहने पर मुझे गहरी
आपत्ति है।
दरबार हॉल की महिला के उभरे हुए चिक-बोन्स और
डंगरिया लड़की के गाल की उभरी हुई हड़्डी में अंतर है। वही अंतर है, जो शाइनिंग इंडिया में है, और भारत में। इनकी मुस्कुराहटों में भी अंतर है।
दरबार हॉल की मुस्कुराहट बनावटी है। कसरत की वजह से धंसे गालों में रूज़ की लाली है, वह भी नकली है। जरपा गांव में मेरे पत्तल पर भात और पनियाई दाल डालने वाली आदिवासी
कन्या की मुस्कुराहट याद आ रही है। उसके भी गाल धंसे थे लेकिन उसके सफेद दांत झांकते थे, तो लगा था यही तो है मिलियन डॉलर स्माइल। उसकी मुस्कुराहट...झरने के पानी की
तरह साफ, शगुफ़्ता, शबनम की तरह पाक।
तरक्की जरूरी है। लेकिन हमें उन लोगों की तहजीब का सम्मान करना सीखना होगा। जो हमारी कथित मुख्यधारा में शामिल हुए बिना खुश हैं और जबरिया सभ्य बनाए जाने के प्रपंच का हिस्सा नहीं होना चाहते। एक शायर सही कह गए हैं—
कुछ ना दिखता था उस जमाने में, मगर दो आंखे तो थी,
ये कैसी रोशनी आई कि लोग अंधे हो गए।
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