Monday, July 6, 2015

हम नाशुकरे भारतीय!

भारतीय क्रिकेट टीम बांग्लादेश में सीरीज़ हार गई। सारी उंगलिया एक साथ एक ऐसे शख्स की ओर उठ गईं जिसने क्रिकेट की तीनों विधाओं में भारत को सरताज बनाया। जिसके हेलिकॉप्टर शॉट की विरूदावलियां गाईं जाती रही हैं और जिसके लंबे बालों को लेकर पाकिस्तानी हुक़्मरान भी हैरत में थे। महेन्द्र सिंह धोनी आज उसी परिस्थिति में हैं जिसमें कभी सौरभ गांगुली थे। हमारे लिए बांगलादेश से सीरीज हारते ही हीरो धोनी खलनायक सरीखे हो गए हैं।

लोकप्रियता और कप्तानी के पद के मामले में विराट कोहली धोनी को कड़ी टक्कर दे रहे हैं। उन्हें रवि शास्त्री की सरपरस्ती हासिल है। रवि शास्त्री आज भारतीय टीम के निदेशक हैं। वह एक अच्छे क्रिकेटर तो खैर क्या रहे, रेकॉर्ड की किताबें सारा सच बयां कर देती हैं, लेकिन राजनीतिज्ञ तो हैं ही। हर वक्त ऐसे क्रिकेटर जरूर हुए हैं, जो बड़े सितारों पर नकारात्मक टिप्पणियां करके खबरों में आने की कोशिश करते हैं। मुझे याद आते हैं, संजय मांजरेकर जो बहुधा सचिन के खिलाफ बयानबाज़ी करते पाए जाते थे। साल 2005 में ही मांजरेकर ने सचिन को संन्यास की सलाह दी थी. यह बात और है कि सचिन ने उनकी सलाह पर ग़ौर नहीं किया। उसके बाद सचिन में कितना क्रिकेट बाकी था यह सबको पता है।

धोनी के खिलाफ विराट ने मोर्चा खोला है। संभवतया रवि शास्त्री के उकसावे पर। इससे पहले गौतम गंभीर और सहवाग धोनी की सत्ता को अस्थिर करने की कोशिश करते रहे। इससे उनके खेल पर बुरा असर पड़ा। नतीजतन दोनों टीम से बाहर हैं और रणजी में भी उनका प्रदर्शन उनकी नाकामी का किस्सा बयान कर रहा है।

धोनी की कप्तानी को सिफ़र बनाने के लिए विराट भी वैसा ही कुछ कर रहे हैं। विश्व कप से लेकर बांगलादेश दौरे तक विराट कोहली की राजनीति उनके प्रदर्शन में साफ झलक रही है।

धोनी के खिलाफ दिल्ली वाले खिलाड़ियो की राजनीति बस वर्चस्व का लड़ाई है। और इसका खामियाज़ा भारतीय क्रिकेट को भुगतना पड़ रहा है। अब जिम्बाब्वे जाने वाली टीम में एक दो नहीं पूरे आठ खिलाड़ियो को आराम दिया गया है। कप्तान भी अजिंक्य रहाणे बने हैं। टीम में न तो धोनी हैं न विराट। वैसे कमजोर टीमों के खिलाफ बड़े खिलाड़ियों को आराम दिया जाता है, लेकिन आठ खिलाड़ियों को पहली बार टीम से बाहर बिठाया गया है।

लेकिन क्या सचमुच धोनी को बाहर करने की ज़रूरत थी? धोनी का रन औसत ठीक-ठाक क्या, बल्कि बेहतर रहा है। और वह टेस्ट क्रिकेट को अलविदा कहने के बाद सिर्फ टी-20 और वनडे खेला करते हैं। इस जिम्बाव्बे सीरीज़ के बाद सीमित ओवरों वाला अगला कोई खेल भारत को अक्तूबर में ही खेलना है। इसलिए धोनी को खिलाया जा सकता था। इसके साथ ही धोनी अपनी बल्लेबाज़ी को भी ऩए तरीके से निखारने में लगे हैं, तो इस नई टीम को न सिर्फ धोनी के तजुर्बे का सहारा मिलता बल्कि धोऩी भी नंबर 4 पर उतरकर अपनी बल्लेबाज़ी को नए हरबे-हथियारों से लैस कर सकते थे।
महज बल्लेबाज़ी की भी बात नहीं। इस टीम में, कोई नियमित विकेट कीपर भी नहीं है। केदार जाधव, रॉबिन उथप्पा और अंबाती रायडू विकेट कीपिंग कर सकते हैं, लेकिन वह नियमित विकेटकीपर नहीं हैं।

वैसे भी, क्रिकेट एक दुधारू गाय है। इसमें राजनीति होगी ही। जब क्रिकेट संघों के मुखिया शरद पवार से लेकर तमाम राजनेता हों, वहां राजनीति भी होगी ही। और पैसा तो खैर है ही, जो यहां पानी की तरह बहता है।

भारतीय क्रिकेट एक दफा फिर से उसी जगह खड़ा है, जहां से क्रिकेटर सौरभ गांगुली को अपमान सहते हुए संन्यास लेना पड़ता है। बेशक, धोनी ने सैकड़ो दफा भारतीय क्रिकेटप्रेमियों को सुर्खरू होने और जश्न मनाने के मौके दिए हैं, ताबड़तोड़ छक्कों से स्टेडियम गुंजा दिए हों, लेकिन राजनीति के आगे सब बेबस हैं।

हम सब क्रिकेट को बतौर भलेमानसो के खेल देखना चाहते हैं, बतौर राजनीति नहीं।


1 comment:

  1. good analysis . we(Indians) are habitual to criticize one who is best ,after that we regretted .

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