लोकसभा चुनाव देश में एक लहर का चुनाव था। उस चुनाव की गर्द साफ होने से पहले कुछ राज्यों में भी चुनाव हुए और कमोबेश बीजेपी ने ही जीत दर्ज की। लेकिन बिहार का मामला झारखंड या हरियाणा या महाराष्ट्र से अलहदा है।
अलहदा इसलिए है क्योंकि नीतीश कुमार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के एकमात्र सियासी प्रतिद्वंद्वी बने हुए हैं। नीतीश कुमार ने हालांकि अपनी सेकुलर छवि के लिए जमी-जमाई विकास पुरुष की छवि का त्याग कर दिया। अब यह इमेज प्रधानमंत्री के साथ जाकर जुड़ गई है।
मीडिया इस चुनाव को युद्ध से कम कवरेज नहीं दे रहा और असल में नीतीश के लिए यह सियासी जीवन-मरण का प्रश्न है। लालू इस लड़ाई में तीसरा कोण बन गए हैं।
बहरहाल, प्रधानमंत्री मोदी ने बिहार पर पूरा ध्यान केन्द्रित कर रखा है। बिहार में चार रैलियों में मोदी ने विकास का ही नारा दिया है। उन्होंने बिहार के लिए आर्थिक पैकेज के लिए एक सस्पेंस बनाकर रखा था और मुजफ्फरपुर या गया की रैलियों की बजाय पारे को चढ़ने देने का इंतजार किया।
लेकिन लंबे इंतजार के बाद बिहार को आखिरकार विशेष आर्थिक पैकेज मिल ही गया। कुप्रबंध, कुप्रशासन और नजरअंदाजी की वजह से बिहार में सड़को, पुलों और बाकी बुनियादी ढांचे पर नीतीश काल से पहले शायद ही कोई काम हुआ था। बिहार में एनडीए वाली नीतीश की सरकार बनी तबतक केन्द्र में कांग्रेस सरकार आ चुकी थी और बिहार को वह समर्थन नहीं मिला था, जिसकी उसे जरूरत थी।
अलहदा इसलिए है क्योंकि नीतीश कुमार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के एकमात्र सियासी प्रतिद्वंद्वी बने हुए हैं। नीतीश कुमार ने हालांकि अपनी सेकुलर छवि के लिए जमी-जमाई विकास पुरुष की छवि का त्याग कर दिया। अब यह इमेज प्रधानमंत्री के साथ जाकर जुड़ गई है।
मीडिया इस चुनाव को युद्ध से कम कवरेज नहीं दे रहा और असल में नीतीश के लिए यह सियासी जीवन-मरण का प्रश्न है। लालू इस लड़ाई में तीसरा कोण बन गए हैं।
बहरहाल, प्रधानमंत्री मोदी ने बिहार पर पूरा ध्यान केन्द्रित कर रखा है। बिहार में चार रैलियों में मोदी ने विकास का ही नारा दिया है। उन्होंने बिहार के लिए आर्थिक पैकेज के लिए एक सस्पेंस बनाकर रखा था और मुजफ्फरपुर या गया की रैलियों की बजाय पारे को चढ़ने देने का इंतजार किया।
लेकिन लंबे इंतजार के बाद बिहार को आखिरकार विशेष आर्थिक पैकेज मिल ही गया। कुप्रबंध, कुप्रशासन और नजरअंदाजी की वजह से बिहार में सड़को, पुलों और बाकी बुनियादी ढांचे पर नीतीश काल से पहले शायद ही कोई काम हुआ था। बिहार में एनडीए वाली नीतीश की सरकार बनी तबतक केन्द्र में कांग्रेस सरकार आ चुकी थी और बिहार को वह समर्थन नहीं मिला था, जिसकी उसे जरूरत थी।
अब प्रधानमंत्री ने आरा की रैली में 1.25 लाख करोड़ के बिहार पैकेज का ऐलान किया है। साथ ही यह भी साफ किया कि इस पैकेज में 40 हज़ार करोड़ के बिजली संयत्र के मिले पैकेज शामिल नहीं है।
वैसे बिहार को जो मिला है उनमें से कुछ की घोषणा बजट में पहले ही की जा चुकी है और कुछ ऐसी हैं जो सौ टका नई हैं। इस सवा लाख करोड़ में से 54,713 करोड़ रूपये राष्ट्रीय राजमार्ग बनाने में खर्च होंगे। ग्रामीण विकास का एक बड़ा हिस्सा है प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना और उसके लिए 13,820 करोड़ रूपये हैं। यानी पूरे पैकेज का तकरीबन आधा हिस्सा सड़क संपर्क बहाल करने पर है।
वैसे इस पैकेज की खास बात है कि इसमें रूपये की कानी कौड़ी भी राज्य सरकार अपनी मर्जी से खर्च नहीं कर सकती। आमतौर पर राज्यों को सीधे पैसा दिया जाए तो वहां की सरकार उसे लोकलुभावन कार्यों पर खर्च करना पसंद करती हैं, न कि दीर्घकालिक ढांचे खड़े करने में। कुछ ऐसा ही मसला ऐन चुनाव के वक्त तेलंगाना राज्य के गठन का फैसला भी था।
अब सवाल है कि प्रधानमंत्री ने अगर बिहार के लिए पैकेज दिया है तो क्या सियासी रूप से सटीक यह कदम नैतिक रूप से सही नहीं है? जनता की याद्दाश्त कमजोर होती है। तो कांग्रेसनीत पहले यूपीए की सरकार ने किसानों के लिए चुनावों से ऐन पहले करीब 70 हजार करोड़ रूपये की किसान ऋण माफी योजना चलाई थी। असली किसानों को कितना फायदा मिला था यह तो किसान ही जानें, लेकिन यूपीए ने सत्ता में वापसी की थी।
वैसे नीतीश कुमार के लिए बुरी खबर है कि असद्दुदीन ओवैसी की मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन पार्टी आने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में 25 सीटों पर अपने उमीदवार खड़े कर सकती है। बस अब औपचारिक घोषणा करना बाक़ी है। 16 अगस्त को किशनगंज में ओवैसी का भाषण इस तरफ एक ठोस क़दम था।
अभी तो स्थिति यह है कि बिहार में हर बड़े शहर में सभी मुख्य चौर चौराहों की होर्डिंगों पर नीतीश कुमार टंगे हुए हैं। बीजेपी स्टेशनों पर अपने होर्डिंग लगाकर काम चला रही है।
सवाल यह है कि क्या ‘बिहार में बहार हो, नीतीशे कुमार हो’ का प्रशांत किशोर का गढ़ा हुआ नारा चल पाएगा या लोकसभा चुनाव में मोदी लहर का सक्रिय साझीदार बना बिहार इस दफा फिर से उसे दोहराएगा।
फिलहाल बिहार की जनता सवा लाख करोड़ में लगने वाले शून्य गिन रही है।
वैसे बिहार को जो मिला है उनमें से कुछ की घोषणा बजट में पहले ही की जा चुकी है और कुछ ऐसी हैं जो सौ टका नई हैं। इस सवा लाख करोड़ में से 54,713 करोड़ रूपये राष्ट्रीय राजमार्ग बनाने में खर्च होंगे। ग्रामीण विकास का एक बड़ा हिस्सा है प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना और उसके लिए 13,820 करोड़ रूपये हैं। यानी पूरे पैकेज का तकरीबन आधा हिस्सा सड़क संपर्क बहाल करने पर है।
वैसे इस पैकेज की खास बात है कि इसमें रूपये की कानी कौड़ी भी राज्य सरकार अपनी मर्जी से खर्च नहीं कर सकती। आमतौर पर राज्यों को सीधे पैसा दिया जाए तो वहां की सरकार उसे लोकलुभावन कार्यों पर खर्च करना पसंद करती हैं, न कि दीर्घकालिक ढांचे खड़े करने में। कुछ ऐसा ही मसला ऐन चुनाव के वक्त तेलंगाना राज्य के गठन का फैसला भी था।
अब सवाल है कि प्रधानमंत्री ने अगर बिहार के लिए पैकेज दिया है तो क्या सियासी रूप से सटीक यह कदम नैतिक रूप से सही नहीं है? जनता की याद्दाश्त कमजोर होती है। तो कांग्रेसनीत पहले यूपीए की सरकार ने किसानों के लिए चुनावों से ऐन पहले करीब 70 हजार करोड़ रूपये की किसान ऋण माफी योजना चलाई थी। असली किसानों को कितना फायदा मिला था यह तो किसान ही जानें, लेकिन यूपीए ने सत्ता में वापसी की थी।
वैसे नीतीश कुमार के लिए बुरी खबर है कि असद्दुदीन ओवैसी की मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन पार्टी आने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में 25 सीटों पर अपने उमीदवार खड़े कर सकती है। बस अब औपचारिक घोषणा करना बाक़ी है। 16 अगस्त को किशनगंज में ओवैसी का भाषण इस तरफ एक ठोस क़दम था।
अभी तो स्थिति यह है कि बिहार में हर बड़े शहर में सभी मुख्य चौर चौराहों की होर्डिंगों पर नीतीश कुमार टंगे हुए हैं। बीजेपी स्टेशनों पर अपने होर्डिंग लगाकर काम चला रही है।
सवाल यह है कि क्या ‘बिहार में बहार हो, नीतीशे कुमार हो’ का प्रशांत किशोर का गढ़ा हुआ नारा चल पाएगा या लोकसभा चुनाव में मोदी लहर का सक्रिय साझीदार बना बिहार इस दफा फिर से उसे दोहराएगा।
फिलहाल बिहार की जनता सवा लाख करोड़ में लगने वाले शून्य गिन रही है।
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