पिछले कुछ दिनों में दो ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिनका सीधे तौर पर आपस में कोई संबंध नहीं है, लेकिन बिहार में चुनावी बिगुल का सुर ज्यों-ज्यों शोर में बदलता जाएगा, इन दो घटनाओं का आपसी रिश्ता भी शीशे की तरह साफ होता जाएगा।
पहली घटना है, रजिस्ट्रार जनरल एंड सेन्सस कमिश्नर के धार्मिक आधार पर जनसंख्या के आंकड़े जारी किया जाना और दूसरी है बिहार के किशनगंज में ओवैसी की रैली।
आबादी वाली बात पहले। जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक, पिछले एक दशक में (2001-11) हिन्दुओं की आबादी 0.7 फीसद कम हुई है और मुसलमानों की 0.8 फीसद कम हुई है। इसतरह भारत की कुल आबादी के 78.8 फीसद हिन्दू और 14.2 फीसद मुसलमान हैं। आबादी की दशकीय वृद्धि दर हिन्दुओं में 16.8 फीसद और मुसलमानों में 24.6 फीसद है।
दूसरी तरफ, बिहार की चुनावी फिज़ां में अब डीएनए, पैकेज, जंगलराज की वापसी जैसे जुमले उछल रहे हैं। इस सबके बीच एमआईएम नेता ओवैसी भी डार्क हॉर्स बनने की तैयारी कर रहे हैं। सीधे तौर पर इसका नुकसान नीतीश-लालू गठबंधन को उठाना पड़ेगा। लालू का वोट बैंक माई यानी मुसलमान और यादव का रहा है। साल 2004 तक उनका यह समीकरण कारगर रहा था। लेकिन इस दफा कनफुसकियां हैं कि बीजेपी 60 से अधिक यादवों को टिकट देने वाली है, और ऐसा अगर सच साबित हो तो हैरत की बात नहीं होगी।
प्रधानमंत्री मोदी भी अपनी रैलियां उस इलाके में कर रहे हैं जहां बीजेपी की स्थिति कमज़ोर रही थी। पटना की 14 में से 6 और सहरसा की 18 में से केवल एक सीट बीजेपी के पास है। मगध में 26 में 8, भोजपुर में 22 में 10 और दरभंगा में तो 37 में से सिर्फ 10 सीट ही बीजेपी के पास है। मोदी की अगली रैली भागलपुर में है और यह क्षेत्र बीजेपी के वरिष्ठ नेता और प्रमुख मुस्लिम चेहरा मोहम्मद शाहनवाज हुसैन का है जहां बारह विधानसभा सीटों में से बीजेपी के पास केवल 4 हैं।
लालू के साथ हाथ मिलाने से पहले नीतीश ने यही उम्मीद की होगी कि आरजेडी-जेडीयू गठजोड़ से यादव और मुस्लिम वोटबैंक को एकजुट किया जा सकेगा। लेकिन एक तरफ बीजेपी, यादव उम्मीदवारों के जरिए यादव वोटबैंक में फूट डालने की तैयारी में लगी है, वहीं दूसरी तरफ ओवैसी ने बिहार चुनाव के जरिए राष्ट्रीय राजनीति में एंट्री की खबर देकर इनकी परेशानी को और बढ़ा दिया है। हालांकि बिहार में ओवैसी की पार्टी कितनी सीटों पर लड़ेगी यह अभी तय नहीं हो पाया है, लेकिन पार्टी मुस्लिमबहुल क्षेत्र में 20 से 25 उम्मीदवारों को उतार सकती है।
पूरे बिहार में 16 फीसद से अधिक मुसलमान वोटर हैं जबकि सीमांचल के किशनगंज में 70, अररिया में 42, कटिहार में 41 और पूर्णिया में 20 फीसद वोटर मुस्लिम हैं। इनकी यह संख्या यहां के चुनावी गणित में उलटफेर करती आई है। लोकसभा चुनाव में इन सीटों पर बीजेपी बुरी तरह हारी थी। ऐसे में यहां अगर ओवैसी अपने उम्मीदवार उतारते हैं, तो फिर लालू-नीतीश के वोट बैंक में सेंध लगना तय है।
पहले तो नीतीश कुमार ने ही उनके माई में से एम यानी मुस्लिम और वाई यानी यादव को दोफाड़ कर दिया था। 2009 और 2010 के विधानसभा चुनावों में मुस्लिम वोटरों ने जेडी-यू का दामन थाम लिया था।
पहली घटना है, रजिस्ट्रार जनरल एंड सेन्सस कमिश्नर के धार्मिक आधार पर जनसंख्या के आंकड़े जारी किया जाना और दूसरी है बिहार के किशनगंज में ओवैसी की रैली।
आबादी वाली बात पहले। जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक, पिछले एक दशक में (2001-11) हिन्दुओं की आबादी 0.7 फीसद कम हुई है और मुसलमानों की 0.8 फीसद कम हुई है। इसतरह भारत की कुल आबादी के 78.8 फीसद हिन्दू और 14.2 फीसद मुसलमान हैं। आबादी की दशकीय वृद्धि दर हिन्दुओं में 16.8 फीसद और मुसलमानों में 24.6 फीसद है।
दूसरी तरफ, बिहार की चुनावी फिज़ां में अब डीएनए, पैकेज, जंगलराज की वापसी जैसे जुमले उछल रहे हैं। इस सबके बीच एमआईएम नेता ओवैसी भी डार्क हॉर्स बनने की तैयारी कर रहे हैं। सीधे तौर पर इसका नुकसान नीतीश-लालू गठबंधन को उठाना पड़ेगा। लालू का वोट बैंक माई यानी मुसलमान और यादव का रहा है। साल 2004 तक उनका यह समीकरण कारगर रहा था। लेकिन इस दफा कनफुसकियां हैं कि बीजेपी 60 से अधिक यादवों को टिकट देने वाली है, और ऐसा अगर सच साबित हो तो हैरत की बात नहीं होगी।
प्रधानमंत्री मोदी भी अपनी रैलियां उस इलाके में कर रहे हैं जहां बीजेपी की स्थिति कमज़ोर रही थी। पटना की 14 में से 6 और सहरसा की 18 में से केवल एक सीट बीजेपी के पास है। मगध में 26 में 8, भोजपुर में 22 में 10 और दरभंगा में तो 37 में से सिर्फ 10 सीट ही बीजेपी के पास है। मोदी की अगली रैली भागलपुर में है और यह क्षेत्र बीजेपी के वरिष्ठ नेता और प्रमुख मुस्लिम चेहरा मोहम्मद शाहनवाज हुसैन का है जहां बारह विधानसभा सीटों में से बीजेपी के पास केवल 4 हैं।
लालू के साथ हाथ मिलाने से पहले नीतीश ने यही उम्मीद की होगी कि आरजेडी-जेडीयू गठजोड़ से यादव और मुस्लिम वोटबैंक को एकजुट किया जा सकेगा। लेकिन एक तरफ बीजेपी, यादव उम्मीदवारों के जरिए यादव वोटबैंक में फूट डालने की तैयारी में लगी है, वहीं दूसरी तरफ ओवैसी ने बिहार चुनाव के जरिए राष्ट्रीय राजनीति में एंट्री की खबर देकर इनकी परेशानी को और बढ़ा दिया है। हालांकि बिहार में ओवैसी की पार्टी कितनी सीटों पर लड़ेगी यह अभी तय नहीं हो पाया है, लेकिन पार्टी मुस्लिमबहुल क्षेत्र में 20 से 25 उम्मीदवारों को उतार सकती है।
पूरे बिहार में 16 फीसद से अधिक मुसलमान वोटर हैं जबकि सीमांचल के किशनगंज में 70, अररिया में 42, कटिहार में 41 और पूर्णिया में 20 फीसद वोटर मुस्लिम हैं। इनकी यह संख्या यहां के चुनावी गणित में उलटफेर करती आई है। लोकसभा चुनाव में इन सीटों पर बीजेपी बुरी तरह हारी थी। ऐसे में यहां अगर ओवैसी अपने उम्मीदवार उतारते हैं, तो फिर लालू-नीतीश के वोट बैंक में सेंध लगना तय है।
पहले तो नीतीश कुमार ने ही उनके माई में से एम यानी मुस्लिम और वाई यानी यादव को दोफाड़ कर दिया था। 2009 और 2010 के विधानसभा चुनावों में मुस्लिम वोटरों ने जेडी-यू का दामन थाम लिया था।
इसके साथ ही अगर लोकसभा के चुनाव में एनडीए का रिपोर्ट कार्ड देखें, तो 19 फीसद यादवों ने एनडीए को वोट दिया था। और अब अगर लालू से छिटका हुआ मुस्लिम मतदाता ओवैसी में अपना रहनुमा देखता है तो यह न सिर्फ बीजेपी की ताकत को अजेय करेगा, बल्कि आरजेडी-जेडीयू के मजबूत दिखते किले को ताश का महल बना देगा।
ओवैसी सिर्फ वोट ही नहीं काटेंगे। ओवैसी की छवि हिन्दुओं के पूज्य राम और सीता को लेकर उलजलूल बकने वाले की भी रहेगी। अब, जब जनगणना के आंकड़ों में यह बात आ गई है कि मुस्लिमों की आबादी हिन्दुओं के मुकाबले ज्यादा तेजी से बढ़ रही है तो इस बात को बीजेपी चुनाव में शर्तिया मुद्दा बनाएगी। और हां, यूट्यूब पर ओवैसी का वह ज़हरीला भाषण अभी भी पड़ा हुआ है, तकनीकी प्रचार में महारत हासिल की हुई बीजेपी उसको भी दिखाएगी। यानी, बिहार की राजनीति में ध्रुवीकरण का खेल अभी बाकी है।
ओवैसी सिर्फ वोट ही नहीं काटेंगे। ओवैसी की छवि हिन्दुओं के पूज्य राम और सीता को लेकर उलजलूल बकने वाले की भी रहेगी। अब, जब जनगणना के आंकड़ों में यह बात आ गई है कि मुस्लिमों की आबादी हिन्दुओं के मुकाबले ज्यादा तेजी से बढ़ रही है तो इस बात को बीजेपी चुनाव में शर्तिया मुद्दा बनाएगी। और हां, यूट्यूब पर ओवैसी का वह ज़हरीला भाषण अभी भी पड़ा हुआ है, तकनीकी प्रचार में महारत हासिल की हुई बीजेपी उसको भी दिखाएगी। यानी, बिहार की राजनीति में ध्रुवीकरण का खेल अभी बाकी है।
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