हम सब तहेदिल से प्रधानमंत्री मोदी के स्वच्छ भारत अभियान के साथ हैं। इस अभियान के तहत घर-घर शौचालय बनवाकर खुले में शौच से मुक्ति के उपाय किए जा रहे हैं। स्वच्छता अभियान का मकसद ही है, मल की वजह से पैदा होने वाली बीमारियों से बचाव। मानव मल का संपर्क मानव से न हो, यह बेहद जरूरी है। इसलिए साल 2019 तक प्रधानमंत्री चाहते हैं कि देश को खुले में शौच से मुक्ति मिले। यह स्वच्छता अभियान के सबसे अहम उद्देश्यों में से एक है। लेकिन इसके साथ ही शौचालयों के प्रकार पर भी गंभीरता से विचार किए जाने की जरूरत है।
भारत में, अभी भी इस ओर कोई खास ध्यान नहीं दिया गया है कि मानव संपर्क में मल के आने से कई प्रकार की बीमारियां होती हैं। मालूम हो कि देश में 60 करोड़ लोग अभी भी खुले में शौच करते हैं। लेकिन समस्या सिर्फ शौचालय बनाने तक सीमित नहीं है। शौचालय किस तरह के बनें और उनमें सीवरेज कैसा हो इस पर भी गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।
हाल में किया गया एक अध्ययन बताता है कि शौचालयों में बढञिया सीवरेज सिस्टम लगाना बेहद जरूरी है और इसमें पानी की सप्लाई पाईप से हो। हालांकि यह खर्चीला होता है लेकिन हमारी सेहत के लिए बहुत जरूरी है। खर्च कम करने के लिए भारत में शौचालयों के रूप में अमूमन लीच पिट्स या सैप्टिक टैंक (मल को वहीं नीचे टैंक बनाकर नालियों के ज़रिए बहाना, या उसे मिट्टी में रिसने के लिए छोड़ देना) ही लोकप्रिय है।
लेकिन इसकी वजह से मानव मल सीधे मिट्टी की उप-सतह में चला जाता है, और इससे उसके दूषित तत्व नजदीकी भूमिगत जल में पहुंच जाते हैं। इससे भूमिगत जल में रोगाणु या नाइट्रेट पदार्थों की मात्रा काफी बढ़ सकती है। हालांकि भूमिगत जल के दूषित होने और ऑन-साइट (सैप्टिक या जमीन में टंकी वाले) शौचालयों के बीच संबंध पर बहुत ज्यादा शोध नहीं हुए हैं।
लेकिन ताज़ा अध्ययनों से साबित हुआ है कि इन शौचालयों के आसपास के हैंडपंपों में 18 फीसद फैकल कोलीफॉर्म (जीवाणु) होते हैं और इनमें से 91 फीसद टॉयलेट के 10 मीटर के दायरे में होते हैं।
इस लिहाज़ से देखा जाए तो हमारे गांव में पीने के पानी के दूषित होने की बहुत बड़ी समस्या को हम नज़रअंदाज कर रहे हैं। साथ ही, हमारे कई ग्रामीण समुदाय हैं जो पीने के पानी के लिए भूमिगत जल पर ही निर्भर हैं। यही नहीं, शौचालयों की बनावट में कहीं लीकेज हो, या नालों में कहीं टूट-फूट हो तो उसका असर भी जल को दूषित कर सकता है। तो इसका उपाय क्या है।
हमें अपने समाज को शौचालयों से होने वाले जल-प्रदूषण के बारे में अधिक जागरूक करना होगा। साथ ही, घरेलू पानी को पीने से पहले ठीक से स्वच्छ बनाना होगा।
समाज में जल को दूषण-मुक्त बनाने के उपाय अपनाने होंगे, और जाहिर तौर पर यह उपाय सस्ते होने चाहिए। मिसाल के तौर पर, पानी को उबालना, या सौर ऊर्जा के जरिए पानी को रोगाणुमुक्त करना अच्छा उपाय हो सकता है क्योंकि भारतीय नौकरशाही और आमफहम परिस्थितियो में केन्द्रीकृत जलशोधन यानी गांव में टंकी लगाकर साफ पानी मुहैया कराना सफेद हाथी साबित हो सकता है। इनमें अमूमन कोई वीरू ही वसंती के लिए चढ़ सकता है, इनमें साफ तो क्या, पानी ही नहीं पाया जाता।
मजाक एक तरफ, लेकिन पानी को, खासतौर पर पीने वाले पानी को हर हालत में जीवाणुओं के संक्रमण से दूर रखा जाना चाहिए, खासकर शौचालय के ज़रिए होने वाले संक्रमण से। इसके लिए कोशिश की जानी जाहिए कि शौचालय की टंकी, उसकी नालियां एकदम दुरुस्त और चाक-चौबंद हों। फिलहाल, इस मामले में जागरूकता की खासी कमी है।
ड्रिलिंग इंडस्ट्री को अगर इस बारे में थोड़ा संवेदनशील बनाया जाए, तो यह भी एक उपाय हो सकता है।
लब्बोलुआब यह कि सिर्फ खुले में शौच बंद करना ही एकमात्र उपाय नहीं है। बंद टॉयलेट में शौच के बाद भी वह मल माटी के भीतर मौजूद पानी को संक्रमित न कर दे, इस पर नज़र बनाए रखना भी ज़रूरी है।
भारत में, अभी भी इस ओर कोई खास ध्यान नहीं दिया गया है कि मानव संपर्क में मल के आने से कई प्रकार की बीमारियां होती हैं। मालूम हो कि देश में 60 करोड़ लोग अभी भी खुले में शौच करते हैं। लेकिन समस्या सिर्फ शौचालय बनाने तक सीमित नहीं है। शौचालय किस तरह के बनें और उनमें सीवरेज कैसा हो इस पर भी गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।
हाल में किया गया एक अध्ययन बताता है कि शौचालयों में बढञिया सीवरेज सिस्टम लगाना बेहद जरूरी है और इसमें पानी की सप्लाई पाईप से हो। हालांकि यह खर्चीला होता है लेकिन हमारी सेहत के लिए बहुत जरूरी है। खर्च कम करने के लिए भारत में शौचालयों के रूप में अमूमन लीच पिट्स या सैप्टिक टैंक (मल को वहीं नीचे टैंक बनाकर नालियों के ज़रिए बहाना, या उसे मिट्टी में रिसने के लिए छोड़ देना) ही लोकप्रिय है।
लेकिन इसकी वजह से मानव मल सीधे मिट्टी की उप-सतह में चला जाता है, और इससे उसके दूषित तत्व नजदीकी भूमिगत जल में पहुंच जाते हैं। इससे भूमिगत जल में रोगाणु या नाइट्रेट पदार्थों की मात्रा काफी बढ़ सकती है। हालांकि भूमिगत जल के दूषित होने और ऑन-साइट (सैप्टिक या जमीन में टंकी वाले) शौचालयों के बीच संबंध पर बहुत ज्यादा शोध नहीं हुए हैं।
लेकिन ताज़ा अध्ययनों से साबित हुआ है कि इन शौचालयों के आसपास के हैंडपंपों में 18 फीसद फैकल कोलीफॉर्म (जीवाणु) होते हैं और इनमें से 91 फीसद टॉयलेट के 10 मीटर के दायरे में होते हैं।
इस लिहाज़ से देखा जाए तो हमारे गांव में पीने के पानी के दूषित होने की बहुत बड़ी समस्या को हम नज़रअंदाज कर रहे हैं। साथ ही, हमारे कई ग्रामीण समुदाय हैं जो पीने के पानी के लिए भूमिगत जल पर ही निर्भर हैं। यही नहीं, शौचालयों की बनावट में कहीं लीकेज हो, या नालों में कहीं टूट-फूट हो तो उसका असर भी जल को दूषित कर सकता है। तो इसका उपाय क्या है।
हमें अपने समाज को शौचालयों से होने वाले जल-प्रदूषण के बारे में अधिक जागरूक करना होगा। साथ ही, घरेलू पानी को पीने से पहले ठीक से स्वच्छ बनाना होगा।
समाज में जल को दूषण-मुक्त बनाने के उपाय अपनाने होंगे, और जाहिर तौर पर यह उपाय सस्ते होने चाहिए। मिसाल के तौर पर, पानी को उबालना, या सौर ऊर्जा के जरिए पानी को रोगाणुमुक्त करना अच्छा उपाय हो सकता है क्योंकि भारतीय नौकरशाही और आमफहम परिस्थितियो में केन्द्रीकृत जलशोधन यानी गांव में टंकी लगाकर साफ पानी मुहैया कराना सफेद हाथी साबित हो सकता है। इनमें अमूमन कोई वीरू ही वसंती के लिए चढ़ सकता है, इनमें साफ तो क्या, पानी ही नहीं पाया जाता।
मजाक एक तरफ, लेकिन पानी को, खासतौर पर पीने वाले पानी को हर हालत में जीवाणुओं के संक्रमण से दूर रखा जाना चाहिए, खासकर शौचालय के ज़रिए होने वाले संक्रमण से। इसके लिए कोशिश की जानी जाहिए कि शौचालय की टंकी, उसकी नालियां एकदम दुरुस्त और चाक-चौबंद हों। फिलहाल, इस मामले में जागरूकता की खासी कमी है।
ड्रिलिंग इंडस्ट्री को अगर इस बारे में थोड़ा संवेदनशील बनाया जाए, तो यह भी एक उपाय हो सकता है।
लब्बोलुआब यह कि सिर्फ खुले में शौच बंद करना ही एकमात्र उपाय नहीं है। बंद टॉयलेट में शौच के बाद भी वह मल माटी के भीतर मौजूद पानी को संक्रमित न कर दे, इस पर नज़र बनाए रखना भी ज़रूरी है।
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