रोहित वेमुला का किस्सा खत्म न होने पाया था कि जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में एक नया बवाल खड़ा हो गया। इस विवाद की ज्यादा जड़ में न जाते हुए बस इतना समझा जाए कि छात्रों के एक समूह ने वहां पर भारत विरोधी नारे लगाए और अफजल गुरू की मौत का बदला लेने की बात की साथ ही कहा कि भारत के टुकड़े-टुकड़े किए जाएंगे।
बात जंगल की आग की तरह फैल गई। जेएनयू छात्र संघ का अध्यक्ष कन्हैया गिरफ्तार कर लिया गया।
इतना तो सच है कि किसी ने नारे लगाये थे। हो सकता है, कन्हैया ने नारे नहीं लगाए हों। या वहां मौजूद किसी ने नारे नहीं लगाए, ऐसा भी नहीं है। लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद से ही देश में एक अजीब किस्म का हमलावर रुख देखा जा रहा है। दोनों तरफ से। सियासत जहरीली हो गई है। लेकिन सवाल यह है कि आखिर देश विरोधी नारों पर एक राष्ट्र के रूप में भारत का क्या रूख है?
फिलहाल स्थिति यह है कि कन्हैया के समर्थक इन राष्ट्रविरोधी नारों को सही बता रहे हैं और इन नारों का जो भी विरोध कर रहा है उसे सीधे भाजपाई कह दिया जा रहा है। यह सही है किराष्ट्रविरोधी नारे लगाना देशद्रोह नहीं होना चाहिए, और इसी आधार पर कि कन्हैया उस वक्त वहां मौजूद थे, और चूकि वह छात्र संघ के अध्यक्ष हैं तो उन्हें गिरफ्तार कर लेना गलत है।
कानून में साफ है कि नारे लगाना या बगावत के लिए उकसाना तब तक देशद्रोह नहीं है, जब तक कि वाकई हिंसा भड़क न जाए।
भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए और 120-बी के दुरुपयोग को लेकर आजादी के पहले से बहस चली आ रही है। लोकसभा में शशि थरूर ने इसको संशोधित करने के लिए एक निजी विधेयक भी पेश किया है। असल में 124-ए को ब्रिटिश सरकार ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन से निबटने के लिए बनाया था।
फिर भी एक जिम्मेदार लोकतंत्र के रूप में हम अभिव्यक्ति की आजादी को महत्वपूर्ण मानते हैं। लेकिन सोचने की बात है कि क्या जिस देश के लिए अनगिनत सेनानियों ने अपनी कुरबानी दी है, और जिस भगत सिंह, राम प्रसाद बिस्मिल या खुदीराम बोस को वामपंथ अपना शुरूआती पुरोधाओं में मानती रही है, तो उसी भगत सिंह ने देश के लिए जान दे दी, खुदीराम बोस कहते रहेः एक बार बिदाई दाऊ मा घूरे आसि।
समझना होगा कि राष्ट्रवाद का रंग सिर्फ भगवा और प्रगतिशीलता का सिर्फ लाल नहीं है। देश को सिर्फ अपने हिसाब से चलाना कत्तई उचित नहीं। चाहे वह राष्ट्रवाद हो या कथित उदारवाद। सोशल मीडिया के भारत में विस्तार के बाद दोनों पक्ष अपनी तरफ को लेकर अधिक कट्टर भी हुए हैं।
भारत जैसे आतंक-पीड़ित देश में यह खुली बात है कि पाकिस्तान ने देश के विभिन्न हिस्सों में आतंकी गतिविधियों को प्रायोजित किया है। ऐसी परिस्थिति में, नक्सली हों या कश्मीर-खालिस्तान-पूर्वोत्तर के अलगाववादी उग्रवादी, इसमें से हर हिंसा को रोकने की पूरी कोशिश की जाती रही है। कुछ लोग इनको सियासी गतिविधि भी मानते हैं। तो फिर उन लोगों को आईएसआईएस की हिंसक कार्रवाईय़ों को भी सियासी गतिविधि ही मानना चाहिए।
वैसे एक सवाल यह भी है कि क्या पाकिस्तान के समर्थन में लगे ऐसे नारों की तरह के नारे खुद पाकिस्तान में लगाए जा सकते हैं? या फिर रूस या चीन में? बलूचिस्तान के आंदोलन को ऐसा समर्थन क्यों नहीं दिया जा रहा?
वामपंथी समर्थन देने के मामले में तुलना उन्हीं उदार पश्चिमी देशों से करते हैं जिनसे उनका घोर विरोध है।
जेएनयू के घटनाक्रम पर कोई राय बनाने के पहले कुछ बातें साफ कर लेना बेहतर है। नारेबाजी करने के पीछे कोई बड़ी साजिश लग रही है मुझे। दिल्ली में प्रेस क्लब में भी नारेबाजी हुई थी। क्या दोनों के पीछे एक ही या एक ही तरह के लोग थे?
जो भी हो, अभिव्यक्ति की आजादी अपनी जगह पर है और देश का सम्मान और उसकी संप्रभुता अपनी जगह। पहले देश होगा तभी अभिव्यक्ति की आजादी बची रहेगी। निजी तौर पर मुझे तो यही लग रहा है कि भाजपा के प्रचंड बहुमत ने सियासत को एक दूसरा कोण दे दिया है और विरोधी तबका बिलो द बेल्ट वार कर रहा है। सियासी लड़ाई कीजिए, कानून के हिसाब से देशद्रोह नहीं होगा कुछ। लेकिन देश के टुकड़े करने की बात करेंगे तो हम तो इसे बगावत कम, घटिया राजनीति ज्यादा कहेंगे।
बात जंगल की आग की तरह फैल गई। जेएनयू छात्र संघ का अध्यक्ष कन्हैया गिरफ्तार कर लिया गया।
इतना तो सच है कि किसी ने नारे लगाये थे। हो सकता है, कन्हैया ने नारे नहीं लगाए हों। या वहां मौजूद किसी ने नारे नहीं लगाए, ऐसा भी नहीं है। लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद से ही देश में एक अजीब किस्म का हमलावर रुख देखा जा रहा है। दोनों तरफ से। सियासत जहरीली हो गई है। लेकिन सवाल यह है कि आखिर देश विरोधी नारों पर एक राष्ट्र के रूप में भारत का क्या रूख है?
फिलहाल स्थिति यह है कि कन्हैया के समर्थक इन राष्ट्रविरोधी नारों को सही बता रहे हैं और इन नारों का जो भी विरोध कर रहा है उसे सीधे भाजपाई कह दिया जा रहा है। यह सही है किराष्ट्रविरोधी नारे लगाना देशद्रोह नहीं होना चाहिए, और इसी आधार पर कि कन्हैया उस वक्त वहां मौजूद थे, और चूकि वह छात्र संघ के अध्यक्ष हैं तो उन्हें गिरफ्तार कर लेना गलत है।
कानून में साफ है कि नारे लगाना या बगावत के लिए उकसाना तब तक देशद्रोह नहीं है, जब तक कि वाकई हिंसा भड़क न जाए।
भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए और 120-बी के दुरुपयोग को लेकर आजादी के पहले से बहस चली आ रही है। लोकसभा में शशि थरूर ने इसको संशोधित करने के लिए एक निजी विधेयक भी पेश किया है। असल में 124-ए को ब्रिटिश सरकार ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन से निबटने के लिए बनाया था।
फिर भी एक जिम्मेदार लोकतंत्र के रूप में हम अभिव्यक्ति की आजादी को महत्वपूर्ण मानते हैं। लेकिन सोचने की बात है कि क्या जिस देश के लिए अनगिनत सेनानियों ने अपनी कुरबानी दी है, और जिस भगत सिंह, राम प्रसाद बिस्मिल या खुदीराम बोस को वामपंथ अपना शुरूआती पुरोधाओं में मानती रही है, तो उसी भगत सिंह ने देश के लिए जान दे दी, खुदीराम बोस कहते रहेः एक बार बिदाई दाऊ मा घूरे आसि।
समझना होगा कि राष्ट्रवाद का रंग सिर्फ भगवा और प्रगतिशीलता का सिर्फ लाल नहीं है। देश को सिर्फ अपने हिसाब से चलाना कत्तई उचित नहीं। चाहे वह राष्ट्रवाद हो या कथित उदारवाद। सोशल मीडिया के भारत में विस्तार के बाद दोनों पक्ष अपनी तरफ को लेकर अधिक कट्टर भी हुए हैं।
भारत जैसे आतंक-पीड़ित देश में यह खुली बात है कि पाकिस्तान ने देश के विभिन्न हिस्सों में आतंकी गतिविधियों को प्रायोजित किया है। ऐसी परिस्थिति में, नक्सली हों या कश्मीर-खालिस्तान-पूर्वोत्तर के अलगाववादी उग्रवादी, इसमें से हर हिंसा को रोकने की पूरी कोशिश की जाती रही है। कुछ लोग इनको सियासी गतिविधि भी मानते हैं। तो फिर उन लोगों को आईएसआईएस की हिंसक कार्रवाईय़ों को भी सियासी गतिविधि ही मानना चाहिए।
वैसे एक सवाल यह भी है कि क्या पाकिस्तान के समर्थन में लगे ऐसे नारों की तरह के नारे खुद पाकिस्तान में लगाए जा सकते हैं? या फिर रूस या चीन में? बलूचिस्तान के आंदोलन को ऐसा समर्थन क्यों नहीं दिया जा रहा?
वामपंथी समर्थन देने के मामले में तुलना उन्हीं उदार पश्चिमी देशों से करते हैं जिनसे उनका घोर विरोध है।
जेएनयू के घटनाक्रम पर कोई राय बनाने के पहले कुछ बातें साफ कर लेना बेहतर है। नारेबाजी करने के पीछे कोई बड़ी साजिश लग रही है मुझे। दिल्ली में प्रेस क्लब में भी नारेबाजी हुई थी। क्या दोनों के पीछे एक ही या एक ही तरह के लोग थे?
जो भी हो, अभिव्यक्ति की आजादी अपनी जगह पर है और देश का सम्मान और उसकी संप्रभुता अपनी जगह। पहले देश होगा तभी अभिव्यक्ति की आजादी बची रहेगी। निजी तौर पर मुझे तो यही लग रहा है कि भाजपा के प्रचंड बहुमत ने सियासत को एक दूसरा कोण दे दिया है और विरोधी तबका बिलो द बेल्ट वार कर रहा है। सियासी लड़ाई कीजिए, कानून के हिसाब से देशद्रोह नहीं होगा कुछ। लेकिन देश के टुकड़े करने की बात करेंगे तो हम तो इसे बगावत कम, घटिया राजनीति ज्यादा कहेंगे।
मंजीत ठाकुर
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " परमार्थ से बड़ा सुख नहीं - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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