1871-शहर-ए-मधुपुर का जन्म
कौन सी परिस्थितियां कौन सा मंजर दिखलाती है यह समझना आसान नहीं है। आखिर जिस शहर-ए-मधुपुर पर हम दिल-ओ-जां से फिदा हैं उसके होने की कहानी हमें पता है? या हमने कभी कयास भी लगाए हैं?
इतिहास या तारीख में झांकें तो एक धुंधली सी तस्वीर उभरती है। एक जंगलों से घिरा गांव। जहां पर आज यह शहर खडा होकर इठला रहा है -वहां घने जंगल थे। महुआ, सखुआ, पियार, शीशम, जामुन, कटहल और पीपल बरगद के घने पेड। पास में बहती नदियां पतरो, अजय, जयंती और कितनी ही जोरिया। जंगल ही जंगल। कहीं कहीं खेत, कुछ कच्ची झोपडियां, कुछ खपरैल की, कुछ ताड़ के पत्तों से ढंके, कुछ पुआल माटी के बने तब के मकान।
आज जंगल इतिहास हो गया और शहर जवां। पर इस शहर के बसने, जंगलों के विनाश और एक नये भविष्य की नयी इबारत लिखने के पीछे असली वजह है बरतानिया हुकूमत का षडयंत्र। उन्हें दरअसल कोई मधुपुर नहीं बसाना था। मधुपुर तो महज एक गांव था जैसे आज साप्तर है या फागो या कुर्मीडीह। पर अंग्रेज बहादुर (!) जब 1855 और 1857 में संताल लडाकों और भारतीय फौजियों के विद्रोह से परेशान हो गये और उनमें हताशा फैलने लगी तब उन्होंने नयी रणनीति बनाई। रेल ब्रिटिश हुकूमत की नयी हथियार बन गयी। ईस्ट इंडिया कंपनी की राजधानी कोलकाता से मुगलों की राजधानी दिल्ली तक रेल की पटरियां बिछने लगी। और यही वह समय था जब रेल को -उसकी पटरियों को वाया मधुपुर गुजरना था।
वर्ष 1871 में मधुपुर के जंगल कटने लगे। धड़ाधड़ पेड काटे और गिराये जाने लगे और कोलकाता-आसनसोल-चित्तरंजन होते ट्रेन की पटरियां मधुपुर में भी बिछाई जाने लगी। अचानक एक गांव हरकत में आ गया। एक रेलवे कांट्रेक्टर नारायण कुण्डू ने मधुपुर में कैंप कर दिया। बाद में उन्होंने 1885 साल में एक अंग्रेज मि0 मोनियर से एक मूल रैयत मौजा ही खरीद लिया। फिर अमडीहा मौजा आदि खरीद कर वे एक जमींदार की हैसियत पा गये। उन्हीं के नाम पर आज भी एक मुहल्ला 'कुण्डू बंग्ला'के नाम से विख्यात है। एक बात यह भी है कि कुण्डू को पेट की बीमारी थी पर मधुपुर के पानी से उनकी वह बीमारी जाती रही और यह भी एक कारण था कि वे यहीं बस रस गये।
1855/1857 में मधुपुर कहीं नजर नहीं आता जबकि 1857 के सैन्य विद्रोह में रोहिणी ने अपना नाम स्वर्णांकित करवा लिया था। सन् 1871 में मधुपुर से गुजरने वाली रेल ने इसे शहर बनने की संभावना से तो जोड दिया पर हकीकतन अंग्रेजों ने मधुपुर को अपनी हुक्मरानी के नये उपनिवेश (काॅलोनी ) के रूप में ढालना शुरू कर दिया था।
कौन सी परिस्थितियां कौन सा मंजर दिखलाती है यह समझना आसान नहीं है। आखिर जिस शहर-ए-मधुपुर पर हम दिल-ओ-जां से फिदा हैं उसके होने की कहानी हमें पता है? या हमने कभी कयास भी लगाए हैं?
इतिहास या तारीख में झांकें तो एक धुंधली सी तस्वीर उभरती है। एक जंगलों से घिरा गांव। जहां पर आज यह शहर खडा होकर इठला रहा है -वहां घने जंगल थे। महुआ, सखुआ, पियार, शीशम, जामुन, कटहल और पीपल बरगद के घने पेड। पास में बहती नदियां पतरो, अजय, जयंती और कितनी ही जोरिया। जंगल ही जंगल। कहीं कहीं खेत, कुछ कच्ची झोपडियां, कुछ खपरैल की, कुछ ताड़ के पत्तों से ढंके, कुछ पुआल माटी के बने तब के मकान।
जंगल भी ऐसा कि कहीं कहीं सूरज की रौशनी भी छन कर ही आती।
आज का यह गांधी चौक, बावनबीघा, कालीपुर टाउन, पंचमंदिर क्षेत्र, थाना मोड, पथरचपटी, सपहा, चांदमारी, भेडवा नावाडीह से लेकर टिंटहियाबांक से लेकर पटवाबाद तक, जंगल ही जंगल।
आज जंगल इतिहास हो गया और शहर जवां। पर इस शहर के बसने, जंगलों के विनाश और एक नये भविष्य की नयी इबारत लिखने के पीछे असली वजह है बरतानिया हुकूमत का षडयंत्र। उन्हें दरअसल कोई मधुपुर नहीं बसाना था। मधुपुर तो महज एक गांव था जैसे आज साप्तर है या फागो या कुर्मीडीह। पर अंग्रेज बहादुर (!) जब 1855 और 1857 में संताल लडाकों और भारतीय फौजियों के विद्रोह से परेशान हो गये और उनमें हताशा फैलने लगी तब उन्होंने नयी रणनीति बनाई। रेल ब्रिटिश हुकूमत की नयी हथियार बन गयी। ईस्ट इंडिया कंपनी की राजधानी कोलकाता से मुगलों की राजधानी दिल्ली तक रेल की पटरियां बिछने लगी। और यही वह समय था जब रेल को -उसकी पटरियों को वाया मधुपुर गुजरना था।
वर्ष 1871 में मधुपुर के जंगल कटने लगे। धड़ाधड़ पेड काटे और गिराये जाने लगे और कोलकाता-आसनसोल-चित्तरंजन होते ट्रेन की पटरियां मधुपुर में भी बिछाई जाने लगी। अचानक एक गांव हरकत में आ गया। एक रेलवे कांट्रेक्टर नारायण कुण्डू ने मधुपुर में कैंप कर दिया। बाद में उन्होंने 1885 साल में एक अंग्रेज मि0 मोनियर से एक मूल रैयत मौजा ही खरीद लिया। फिर अमडीहा मौजा आदि खरीद कर वे एक जमींदार की हैसियत पा गये। उन्हीं के नाम पर आज भी एक मुहल्ला 'कुण्डू बंग्ला'के नाम से विख्यात है। एक बात यह भी है कि कुण्डू को पेट की बीमारी थी पर मधुपुर के पानी से उनकी वह बीमारी जाती रही और यह भी एक कारण था कि वे यहीं बस रस गये।
1855/1857 में मधुपुर कहीं नजर नहीं आता जबकि 1857 के सैन्य विद्रोह में रोहिणी ने अपना नाम स्वर्णांकित करवा लिया था। सन् 1871 में मधुपुर से गुजरने वाली रेल ने इसे शहर बनने की संभावना से तो जोड दिया पर हकीकतन अंग्रेजों ने मधुपुर को अपनी हुक्मरानी के नये उपनिवेश (काॅलोनी ) के रूप में ढालना शुरू कर दिया था।
यह अलग बात है कि-मधुपुर ने आगे चलकर उसी उपनिवेशवाद से लडाई ठान ली और अपनी एक अलग जानदार और शानदार परिभाषा गढ दी कुछ यूं कि-
"जब चल पडे सफ़र को तो फिर हौसला रखो
सहरा कहीं ,कहीं पे समंदर भी आएंगे।
थोडा सा अपनी चाल बदल कर चलो मिजाज
सीधे चले तो पीठ में खंज़र भी आएंगे।।"
"जब चल पडे सफ़र को तो फिर हौसला रखो
सहरा कहीं ,कहीं पे समंदर भी आएंगे।
थोडा सा अपनी चाल बदल कर चलो मिजाज
सीधे चले तो पीठ में खंज़र भी आएंगे।।"
(यह लेख डा0 उत्तम पीयूष की अनुमति से लिया गया है और यह उन्होंने हमारे साझा फेसबुक समूह मेरा मधुपुर में लिखा है)